राजनीतिक दलों और राजनेताओं द्वारा राजनीतिक महापुरुषों की जयंती मनाने का पुराना प्रचलन रहा है. जयंती और पुण्यतिथि राजनीतिक तापमान को मापने का पुराना थर्मामीटर रहा है और ऐसे कार्यक्रमों के द्वारा राजनीतिक वजन को तौले जाने का भी चलन रहा है. बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की जयंति भी भूमिहार नेताओं के राजनीतिक वजन को तौले जाने का राजनीतिक तराजू रही है. इस वर्ष भी श्री बाबू के वंशजों में उनकी राजनीतिक थाती पर अधिकार जताने की ऐसी होड़ मची कि दो दिन उनकी जयंती मनाई गई. एक समारोह का आयोजन डॉ. अखिलेश सिंह ने किया तो दूसरे कार्यक्रम की बागडोर सत्ता की मलाई चाटने क लिए कांग्रेस से जदयू में गए विधान पार्षद डॉ. महाचंद्र सिंह ने संभाली. बिहार केसरी डॉ. श्री कृष्ण सिंह के जयंती समारोहों में उनके चित्र पर पुष्प चढ़ा कर उनके सिद्धांतों को अमल मे लाने की कसमें भले ही खाई गईं हो पर हक़ीक़त के आइने में दावे और वादे पूरी तरह धुंधले नजर आते हैं. हर साल बस श्री कृष्ण बाबू के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने का नाटक किया जाता है पर भूमिहार समाज जिस तरह की समस्याओं से रूबरू है, उसकी चिंता किसी भूमिहार नेता को नहीं है. कहने को तो यह समाज विकास के पायदान पर काफी आगे माना जाता है पर ऐसा कुछ लोगों पर ही लागू होता है. समाज का बड़ा तबका आज भी रोजमर्रा की परेशानियों से जूझ रहा है. किसानी में हो रही दिक्कत ने इस तबके को और भी संकट में डाल दिया है. हक़ीक़त यह है कि इस समाज का एक छोटा वर्ग काफी आगे निकल गया है, जबकि बड़ा वर्ग जीने की लड़ाई लड़ रहा है.
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