हाल फिलहाल में सिनेमा घरों में अनुराग कश्यप की फिल्म “ गैंग्स आफ वासेपुर “ रिलीज हुई, यह सिनेमा धनबाद कोल माफियाओं पर आधारित थी | अनुराग ने अपने फिल्म में जिस वासेपुर को दिखाया है वह यहां के के सच से भले ही मेल नहीं खाता हो, लेकिन गैंगवार वासेपुर और पूरे कोयलांचल की एक हकीकत है |
बिहार के पटना जिले स्थित बाढ़ अनुमंडल से एक तेज तर्रार - ओजस्वी युवक १९५७ के आसपास जीवन यापन के लिए धनबाद पहुंचता है | कोयलांचल की स्थिति भांपते देर नहीं लगती है और वह नवयुवक बहुत तेजी से मजदूर यूनियन में अपनी जगह बना लेता है और कुछ ही समय पश्चात नेतृत्व संभालता है | देखते ही देखते यह युवक पूरे कोयला क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत बनाता है और पूरे कोयलांचल का बेताज बादशाह बन बैठता है और यहीं से शुरू होती है “ गैंग्स ऑफ वासेपुर “ की कहानी |
भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मे जिस तेज तर्रार – ओजस्वी युवक की हम बात कर रहे हैं यह कोई और नहीं, यह कोल माफिया बीपी सिन्हा जी थे | कहते हैं अमरीका से बाहर व्हाइट हॉउस पहली दफा ‘धनबाद’ में ही बन था, सिन्हा जी का आवास व्हाईट हाउस के रूप में मशहूर हुआ था |
पहले कोयला खदानों पर खान मालिकों की हुकूमत चलती थी। वह खदान चलाने के लिए पहलवानों को शह देते और उनकी मदद लेते थे | कोयले के धंधे में वर्चस्व की लड़ाई यूं तो यहां छिटपुट तरीके से पचास के दशक से ही शुरू हो गई थी, लेकिन माफियागीरी ने यहां दस्तक दी साठ के दशक में | इसी दौरान बीपी सिन्हा मजदूर आंदोलन में कूद गए | धनबाद में कोयला, स्क्रैप के धंधे से लेकर ट्रेड यूनियन तक में माफिया स्टाइल की शुरुआत 50 के दशक के आस-पास हुई, जब बी.पी. सिन्हा इस इलाके में ट्रेड यूनियन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे | दस साल के अंदर पूरे कोयला क्षेत्र में बीपी सिन्हा इतने मजबूत हो जाते हैं की जब 17 अक्टूबर 1971 को कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है तब राष्ट्रीयकरण होते ही बीपी सिन्हा का कद और अधिक बढ़ जाता है, कहिये एक तरह से पूरे कोयलांचल में उनकी हुकूमत चलने लगती है | कोयले पर वर्चस्व के लिए यूनियन का मजबूत होना जरूरी था और बीपी सिन्हा इस बात को अच्छी तरह जानते थे। वह इंटक से जुड़े थे और धनबाद में राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ की तूती बोलती थी | कहते हैं उनका कद इतना बड़ा था की वह अपने माली ‘बिंदेश्वरी दुबे’ को भी मजदूर नेता बना देते हैं | कांग्रेसी विचारधारा होने के कारण उनकी पहुंच आसानी से इंदिरा गांधी तक थी, उस दौरान उनकी बात इंदिरा गांधी से हॉटलाइन पर हुआ करती थी |
इसी बीच उसके गैंग में शामिल होता है, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का एक मजदूर सूरजदेव सिंह, जो जाति से राजपूत था | अब सूरजदेव सिंह बीपी सिन्हा का बॉडीगार्ड ही नहीं, उसका दाहिना हाथ भी बन जाता है । सूरजदेव सिंह भी अपने मालिक के साथ मजबूत होते चले जाते हैं | जाति का घुन लगना शुरू हो गया था | आवाज उठने लगी थीं, लाठी हमारी तो मिल्कियत भी हमारी । बीपी सिन्हा थोड़े विचलित हुए थे पर अपने लोगों को आगे करने लगे। बिहार की महशूर जातिगत दुश्मनी इस कदर फैल चुकी थी कि एक दो साल में कई हत्याएं हुई | इन लड़ाइयों में यूपी-बिहार के बड़े क्रिमिनल शामिल रहे | इसकी गूंज बिहार और दिल्ली की सत्ता के गलियारों से लेकर पार्लियामेंट तक सुनाई पड़ती रही |
इसी बीच केंद्र की सत्ता से बाहर रहने के कारण इंदिरा गांधी कमजोर हो चुकी थीं | बीपी सिन्हा के इस वर्चस्व को तोडऩे के लिए विरोधी मौके की तलाश में थे | पूर्व प्रधानमंत्री और तब के युवा तुर्क नेता ‘चंद्रशेखर’ ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी | खाई बहुत गहरी हो चुकी थी, फिर भी बीपी सिन्हा का सूरजदेव सिंह पर जबरदस्त विश्वास करते थे | सूरजदेव सिंह का रात -बिरात व्हाइट हॉउस में आना जाना और गुरुमंत्र जारी था | फिर अचानक 28 मार्च 1979 की रात अपनों ने ही व्हाइट हॉउस में खून की गंगा बहा दी | जिन हाथों ने जिनको चलना सिखाया, उन्ही हाथों ने अपने राजनीतिक बाप को दगा देकर क्रूर हत्या कर अपने दिल को ठंडक पंहुचायी थी | हत्या का आरोप उन्हीं लोगों पर लगा जो उनके अपने शागिर्द थे | उनकी मौत के बाद सूर्यदेव सिंह सुर्खियों में आए थे | व्हाइट हॉउस की चमक अब खत्म हो चुकी थी और सूरजदेव सिंह का ‘सिंह मैन्सन’ जगमगाने लगा था |
बिहार के पटना जिले स्थित बाढ़ अनुमंडल से एक तेज तर्रार - ओजस्वी युवक १९५७ के आसपास जीवन यापन के लिए धनबाद पहुंचता है | कोयलांचल की स्थिति भांपते देर नहीं लगती है और वह नवयुवक बहुत तेजी से मजदूर यूनियन में अपनी जगह बना लेता है और कुछ ही समय पश्चात नेतृत्व संभालता है | देखते ही देखते यह युवक पूरे कोयला क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत बनाता है और पूरे कोयलांचल का बेताज बादशाह बन बैठता है और यहीं से शुरू होती है “ गैंग्स ऑफ वासेपुर “ की कहानी |
भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मे जिस तेज तर्रार – ओजस्वी युवक की हम बात कर रहे हैं यह कोई और नहीं, यह कोल माफिया बीपी सिन्हा जी थे | कहते हैं अमरीका से बाहर व्हाइट हॉउस पहली दफा ‘धनबाद’ में ही बन था, सिन्हा जी का आवास व्हाईट हाउस के रूप में मशहूर हुआ था |
पहले कोयला खदानों पर खान मालिकों की हुकूमत चलती थी। वह खदान चलाने के लिए पहलवानों को शह देते और उनकी मदद लेते थे | कोयले के धंधे में वर्चस्व की लड़ाई यूं तो यहां छिटपुट तरीके से पचास के दशक से ही शुरू हो गई थी, लेकिन माफियागीरी ने यहां दस्तक दी साठ के दशक में | इसी दौरान बीपी सिन्हा मजदूर आंदोलन में कूद गए | धनबाद में कोयला, स्क्रैप के धंधे से लेकर ट्रेड यूनियन तक में माफिया स्टाइल की शुरुआत 50 के दशक के आस-पास हुई, जब बी.पी. सिन्हा इस इलाके में ट्रेड यूनियन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे | दस साल के अंदर पूरे कोयला क्षेत्र में बीपी सिन्हा इतने मजबूत हो जाते हैं की जब 17 अक्टूबर 1971 को कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है तब राष्ट्रीयकरण होते ही बीपी सिन्हा का कद और अधिक बढ़ जाता है, कहिये एक तरह से पूरे कोयलांचल में उनकी हुकूमत चलने लगती है | कोयले पर वर्चस्व के लिए यूनियन का मजबूत होना जरूरी था और बीपी सिन्हा इस बात को अच्छी तरह जानते थे। वह इंटक से जुड़े थे और धनबाद में राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ की तूती बोलती थी | कहते हैं उनका कद इतना बड़ा था की वह अपने माली ‘बिंदेश्वरी दुबे’ को भी मजदूर नेता बना देते हैं | कांग्रेसी विचारधारा होने के कारण उनकी पहुंच आसानी से इंदिरा गांधी तक थी, उस दौरान उनकी बात इंदिरा गांधी से हॉटलाइन पर हुआ करती थी |
इसी बीच उसके गैंग में शामिल होता है, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का एक मजदूर सूरजदेव सिंह, जो जाति से राजपूत था | अब सूरजदेव सिंह बीपी सिन्हा का बॉडीगार्ड ही नहीं, उसका दाहिना हाथ भी बन जाता है । सूरजदेव सिंह भी अपने मालिक के साथ मजबूत होते चले जाते हैं | जाति का घुन लगना शुरू हो गया था | आवाज उठने लगी थीं, लाठी हमारी तो मिल्कियत भी हमारी । बीपी सिन्हा थोड़े विचलित हुए थे पर अपने लोगों को आगे करने लगे। बिहार की महशूर जातिगत दुश्मनी इस कदर फैल चुकी थी कि एक दो साल में कई हत्याएं हुई | इन लड़ाइयों में यूपी-बिहार के बड़े क्रिमिनल शामिल रहे | इसकी गूंज बिहार और दिल्ली की सत्ता के गलियारों से लेकर पार्लियामेंट तक सुनाई पड़ती रही |
इसी बीच केंद्र की सत्ता से बाहर रहने के कारण इंदिरा गांधी कमजोर हो चुकी थीं | बीपी सिन्हा के इस वर्चस्व को तोडऩे के लिए विरोधी मौके की तलाश में थे | पूर्व प्रधानमंत्री और तब के युवा तुर्क नेता ‘चंद्रशेखर’ ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी | खाई बहुत गहरी हो चुकी थी, फिर भी बीपी सिन्हा का सूरजदेव सिंह पर जबरदस्त विश्वास करते थे | सूरजदेव सिंह का रात -बिरात व्हाइट हॉउस में आना जाना और गुरुमंत्र जारी था | फिर अचानक 28 मार्च 1979 की रात अपनों ने ही व्हाइट हॉउस में खून की गंगा बहा दी | जिन हाथों ने जिनको चलना सिखाया, उन्ही हाथों ने अपने राजनीतिक बाप को दगा देकर क्रूर हत्या कर अपने दिल को ठंडक पंहुचायी थी | हत्या का आरोप उन्हीं लोगों पर लगा जो उनके अपने शागिर्द थे | उनकी मौत के बाद सूर्यदेव सिंह सुर्खियों में आए थे | व्हाइट हॉउस की चमक अब खत्म हो चुकी थी और सूरजदेव सिंह का ‘सिंह मैन्सन’ जगमगाने लगा था |
Madharchod dogla hota h Rajput
ReplyDeleteBhumihar Jindabaad
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