Friday, 20 February 2015

हमें चाहिए हमारे ही जैसा नेता @ प्रीतीश नंदी

अब तक तो आप में से ज्यादातर लोगों को मालूम पड़ गया होगा कि मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई बहुत बड़ा प्रशंसक नहीं हूं। ईमानदारी से कहूं तो मैं इसके पहले भी कभी किसी प्रधानमंत्री का प्रशंसक नहीं रहा हूं। उनसे होने वाली मुलाकातों के कारण मैं उन सबको अच्छी तरह जानता था। जो चीज मुझे बहुत चकित कर देती थी कि वह यह थी कि कैसे कोई आकर्षक और प्राय: बहुत ही शानदार व्यक्ति, जिस क्षण उस पद पर बैठता है, जिसे इस देश का सर्वोच्च पद कहा जाता है, वह तत्काल अपना आकर्षण खो बैठता है। और ऐसा हमेशा हुआ है। यह सिलसिला कभी टूटा नहीं।
शायद प्रधानमंत्री के पद के कारण ऐसा नहीं होता। यह उन चापलूस दरबारियों या लालबत्ती वाली कारों के काफिले और चीखते साइरनों के कारण होता होगा। महान नेता कहीं भी जाए, ये उसके साथ होते हैं। जिस क्षण आप यह दायित्व स्वीकारते हैं, आप यह भूल जाते हैं कि यह काम भी अन्य किसी काम की तरह ही है और उतनी ही दक्षता और निष्ठा के साथ इसे करने की जरूरत है। इसकी बजाय हर कोई ‘मैन ऑफ डेस्टिनी’ बनना चाहता है।
ऐसे नेताओं के प्रति विनीत न होने की मेरी वजह सरल-सी है। मैं पत्रकार हूं। एक छोटा-सा पेशेवर, जिसका अपना अहंकार होता है। मुझसे अपेक्षा नहीं होती कि मैं लोगों की चापलूसी करता फिरूं खासतौर पर सत्ता में बैठे लोगों की चापलूसी। इसकी वजह यह है कि मुझे उनसे किसी चीज की अपेक्षा नहीं है। न मुझे लोकप्रियता के किसी मतसंग्रह में विजयी होकर दिखाना है। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्रियों को इसकी दरकार होती है, इसलिए यह उनका काम है कि वे आकर्षक नजर आएं। हॉलैंड एंड शेरी सिग्नेचर जैकेट पहनें और इसके साथ, चाहे यह बहुत हास्यास्पद लगे, लेकिन लोगों को यह यकीन दिलाने का प्रयास भी करें कि वे विदर्भ के कर्ज में दबे किसानों को आत्महत्या करने से रोक लेंगे। मुझसे पूछो तो यह कोई आसान काम नहीं है।
प्रसिद्धि किसी भी काम को उतना ही ज्यादा कठिन बना देती है। प्रत्येक प्रधानमंत्री जो फैसले लेता है, उससे कुछ लोगों को फायदा होता है और ढेर सारे अन्य लोगों को चोट पहुंचती है। ऐसे में यदि कोई वास्तविक काम करके दिखाना चाहता है, वह हर कदम पर कुछ प्रशंसक जुटाता है और उससे असहमत लोगों को नाराज करता है। उन्हें खो देता है। यह बारूदी सुरंग से भरी जमीन पर छलांग लगाकर आगे बढ़ते रहने जैसा है। इसमें असली हुनर यह है कि कुछ फैसले ऐसे हों कि जिससे उसे ज्यादा समर्थक हासिल हो सकें। यही एकमात्र ऐसा तरीका है कि वह सत्ता विरोधी रुख से बचकर आगे बढ़ सके।
एक कदम गलत उठा कि परम चापलूस को भी चीखते-चिल्लाते शत्रु में बदलते देर नहीं लगती। सच तो यह है कि हर चापलूस वास्तव में खतरनाक प्रतिद्वंद्वी ही होता है, जो निराश किए जाने के लिए गिड़गिड़ा रहा है। हर दिन पाला बदलने के लिए एकदम तैयार। वफादारी राजनीति में कोई गुण नहीं है। केवल मूर्ख ही यह गुण अपनाते हैं। चतुर खिलाड़ी जानता है कि इस गुण को पक्षपात के बाजार में खरीदा व बेचा जा सकता है। बीते कल का लिजलिजा चापलूस, आने वाले कल का गुस्ताख व ढीठ विद्रोही हो सकता है (नीतीश कुमार से पूछो)।
मुझे पक्का मालूम है कि मोदी यह सब जानते हैं। यदि न भी जानते होंगे तो अब तक उन्हें पता चल गया होगा। संघ परिवार के भीतर ही उनके लिए खंजर निकाले जा चुके हैं। मीडिया अब तक तो उनकी बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन देने वाले उदार बजट की विरुदावली गा रहा था। अब उसी ने सबसे पहले उन्हें पराजित व्यक्ति के रूप में खारिज किया है। फिर भी सच तो यह है कि इसी पराजय में विजयी रणनीति तैयार करने का सटीक अवसर मौजूद है। उम्मीद है कि यह नाकामी उन्हें जमीन से जोड़ेगी। मोदी चाहे जो कहते हों, लेकिन उसके विपरीत यह देश शक्तिशाली, लड़ाकू, अपने दृष्टिकोण पर एकदम दृढ़ रहने वाले नेता के लिए व्याकुल नहीं है। भारत कोई रूस नहीं है। यह तो अमेरिका भी नहीं है। भारत तो भारत ही है। यहां चीजें लगातार बदलती रहती हैं। जब राजनीतिक विकल्पों के चुनाव का मामला हो तो हम सब अस्थिर, चंचल हो जाते हैं, क्योंकि लोकतंत्र ने हमें बिगाड़ दिया है। हम ऐसे नेता खोजते हैं, जिनमेें लचीलापन हो, जो हमारे बदलते विश्वासों को पहले से समझकर उससे निपटने की क्षमता रखता हो। हमें उबाऊ निरंतरता नहीं चाहिए। हमें ऐसे नेता चाहिए जो करुणा की बात करते हों, जिनमें कमियां-खामियां हों, जो मानवीय हों। इस क्षेत्र में गलतियां तो होनी ही हैं। जब तक वे माफी मांगने को राजी हैं, हम माफ करने को तैयार हैं।
सारांश यह है कि हम अपने जैसे लोगों को चुनते हैं, जो हमारे सपनों में भागीदार बनना चाहते हैं।
हमें वे नेता नहीं चाहिए, जो इतिहास में जगह बनाना चाहते हैं बल्कि ऐसे नेता चाहते हैं, जिन्हें हममें से एक होने में कोई शर्मिंदगी महसूस न हो। हम हमेशा महात्मा की खोज में रहते हैं और हममें से यदि कोई उसे गोली मार भी दे तो हम छह दशक उसका कोई कच्चा-पक्का प्रतिरूप खोजने में लगा देते हैं। कोई ऐसा व्यक्ति, जो हमारा नेतृत्व करें, हमें निराश करे, खुद को संभाले और फिर कोशिश करे। यही वजह है कि 49 दिनों में पद छोड़कर भागने वाले अरविंद केजरीवाल इतने बड़े बहुमत से फिर सत्ता में भेजे गए हैं। हम दुनिया को बता देना चाहते हैं कि हम नाकामी से नहीं घबराते। हम किसी को भी एक और मौका देने को तैयार हैं।
इसीलिए दिल्ली में कोई मोदी की हार नहीं हुई है। यह अरविंद की जीत है। यह उम्मीद और आम आदमी के साहस की जीत है। हमारे नेता चाहे राजनीति को युद्ध के रूप में लेते होंगे, लेकिन हम नहीं लेते। हमारे लिए तो चुनाव हमारे विकल्पों को आजमाने का एक और मौका है। हो सकता है हम हमेशा ही सर्वश्रेष्ठ लोगों को न चुनते हों, लेकिन इसमें कोई बुराई नहीं है। देश जानता है कि गलती कैसे सुधारी जाती है। हमारे लिए तो अपनी इच्छा का पूरी स्वतंत्रता के साथ इस्तेमाल ही महत्वपूर्ण है। यही तो हमें वह बनाता है, जो एक राष्ट्र के रूप में हम हैं।
इन्हीं सब कारणों से हमारी राजनीति में किसी को खारिज नहीं किया जा सकता। हमने बार-बार खारिज किए नेताओं को कामयाब होते देखा है। ठीक वैसे ही जैसे कोई भी हमेशा विजेता नहीं बना रह सकता। हमारे सार्वजनिक जीवन का यही तो जादू है। यह हमारी असली जिंदगी की तरह है। भयावह तरीके से अस्थिर। उतार-चढ़ाव से भरपूर। विजेता तो वे होते हैं, जो डटे रहते हैं। मुझे लगता है मोदी ऐसा कर सकते हैं।

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