Thursday 21 May 2015

समय का साक्षी दिनकर का 'कुरुक्षेत्र'


कालजयी रचना यानी जिसके भावार्थ और प्रासंगिकता को समय के थपेड़े धुंधला नहीं कर पाते, और जब कभी हम कालखंडों को खंगालते हैं, या वर्तमान को तौलते हैं, तो वे रचनाएं माला के धागे के समान हमारे अवचेतन में गुंथी हुई साथ चलती हैं। समय-समय पर मन में कौंधती हैं। दिनकर की कुरुक्षेत्र भी छ: दशकों से भारत के मानस में तिर रही है। महाभारत के शांति पर्व पर आधारित इस कविता को दिनकर ने 1946 में देश के मानस पर उकेरा था। साल 1946 एक मुहाना है। 6 करोड़ जिंदगियों को लीलने वाला द्वितीय विश्वयुद्घ अभी- अभी शांत हुआ था। 36 हजार भारतीय सैनिकों ने इस लड़ाई में वीरगति प्राप्त की थी। नेताजी सुभाष परिदृश्य से अदृश्य हो चुके थे। आजाद हिन्द फौज के हजारों सैनिकों ने अपना जीवन होम किया था, और इसके बंदी बनाए गए सैनिकों पर लालकिले में चलाये जा रहे मुकदमे के विरोध में तत्कालीन ब्रिटिश नौसेना के 20 हजार भारतीय सैनिकों ने 78 जहाजों और 20 तटरक्षक संस्थानों के साथ 18 फरवरी 1946 को हड़ताल कर दी थी। कराची से लेकर कोलकाता तक फैली इस तपिश ने ब्रिटिश हुकूमत को दहला दिया था। कांग्रेस के रास्ते से अलग चलने वालों को अंग्रेज सत्ता के उत्तराधिकारी मान्यता देने को तैयार न थे। फिर चाहे वे सुभाष हों या दूसरे 'आतंकवादी' देशभक्त। 
नेताजी के बारे में भारत के नवसत्ताधीश के रवैये पर हाल ही में हुए खुलासों ने तो देश को झकझोर कर रख दिया है। स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास पर एकाधिकार का दावा तो ठोंक ही दिया गया था, लेकिन एक और विडम्बना विकराल रूप ले रही थी। भारत के जो नवकर्णधार आजादी को एकमात्र 'अहिंसक' उपाय से प्राप्त बतला रहे थे, वे ही मुस्लिम लीग और जिन्ना की हेठी एवं हिंसा के सामने नतमस्तक होकर लाखों लोगों को दंगों की आग में झोंकने को तैयार हो रहे थे। दिनकर देख रहे थे, कुरुक्षेत्र सज चुका था-
'वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर, जिसमें लिखा है,
नौजवानों के लहू का मोल है।'
ये कुरुक्षेत्र की प्रथम पंक्तियां हैं। इतिहास के उस मोड़ पर दिनकर हिंसा की त्रासदी पर अपनी संवेदनशील दृष्टि फेरते हैं। वे कहते हैं -
उस सत्य के आघात से, 
है झनझना उठती शिराएं प्राण की असहाय सी, 
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है। 
विनाश का शोक करते हुए युधिष्ठिर सोच रहे हैं- 
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग, पश्चाताप, अन्तर्दाह का 
यह महाभारत वृथा निष्फल हुआ 
उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
जब संताप असहनीय हो गया, 
तब युधिष्ठिर शरशय्या पर लेटे 
भीष्म मितामह के पास गए- 
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि 
योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर, 
रुकी रहो पास कहीं, और स्वयं लेट गए 
बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर। 
धर्मराज युधिष्ठिर ने देखा कि शरों से बिंधे पितामह के शरीर से कांति छिटक रही है। उनके पैरों की उंगलियों को अपने आंसुओं से धोते हुए धर्मराज ने कहा - 
'हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ, 
चीख उठे धर्मराज व्याकुल अधीर से।'
पितामह, हार किसकी हुई है यह?
ध्वंस -अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूंढता है?'
बन्धुओं का शवदाह, उत्तरा का विलाप , मृतकों के परिजनों के चेहरे ह्रदय को चीर रहे हैं। वे पश्चाताप में भरकर कहते हैं - 
जानता जो परिणाम महाभारत का, 
तन-बल छोड़ कर मनोबल से लड़ता 
तप से, सहिष्णुता से, 
त्याग से सुयोधन को जीत, 
नयी नींव इतिहास की मैं धरता। 
और कहीं वज्र न गलत मेरी आह से जो, 
मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता
तो भी हाय, यह रक्तपात नहीं करता मैं, 
भाइयों के संग कहीं भीख मांगता फिरता। 
वे अपने ज्ञान और अपने भाइयों के बल को धिक्कारते हैं। कृष्ण को अर्जुन का मोह दूर करने का दोष देते हैं। और पितामह से पूछते हैं कि युद्घ के अभिशाप से मानव क्यों नहीं 
बच पाता?
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुष्प 
या महान पाप यहां फूटा बन युद्घ है। 
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊं वन में, 
करूं आत्मघात तो कलंक और घोर होगा़.़. 
भीष्म युधिष्ठिर के प्रलाप से अप्रभावित हैं-
भीष्म ने देखा गगन की ओर,
मापते मानो ह्रदय का छोर
और बोले हाय नर के भाग। 
क्या कभी तू भी तिमिर (अन्धकार ) के पार 
उस महत आदर्श के जगत में सकेगा जाग, 
भीष्म सर्वप्रथम सृष्टि की परिवर्तनशीलता समझाते हैं-
औ, युधिष्ठिर से कहा, तूफान देखा है कभी? 
किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ, 
काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता, 
और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से 
उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं? 
रुग्ण शाखाएं द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,
देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,
क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,
सोचता, 'है भेजती हमको प्रकृति तूफान क्यों?'
फिर निमित्त समझाते हैं -
़.़. किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में 
पांच के सुख ही सदैव प्रधान थे 
युद्घ में मारे हुओं के सामने
पांच के सुख-दु:ख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!
़.़.़पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
ग्रह-उपग्रह क्रुद्घ चारों ओर के।
अब भीष्म अन्याय और अधर्म से सामना होने पर दया और सहिष्णुता के दिखावे को धिक्कारते हैं-
छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप से काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है ।
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त औषधि के 
सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।
गिड़गिड़ाकर किन्तु, मांगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो? 
न्यायोचित अधिकार मांगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को जीत, 
या कि खुद मर के।
भीष्म कहते हैं कि मैं मृत्यु के निकट हूं, इसलिए असत्य कहकर क्या करूंगा। मैं तुम्हे धर्म का रहस्य बतलाता हूं-
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। 
रामधारी सिंह दिनकर का सृजन काल कई दशकों में फैला है। परन्तु उनकी लेखनी राष्ट्र की मुख्यधारा से कभी विमुख नहीं हुई। वे गांधीजी के भक्त थे लेकिन भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल सरीखे बलिदानी उनकी धड़कन में बसते थे। क्या दिनकर कुर्सी के लिए इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने पर क्षुब्ध थे? जब वे कहते हैं कि-
पापी कौन? मनुज से उसका न्याय चुराने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न का सीस उड़ाने वाला? 
तब क्या वे बलिदानियों के लिए इतिहास में उनका सही स्थान मांग रहे थे? क्या वे सत्ता के दर पर खड़ी कांग्रेस द्वारा हाशिये पर सरकाए जाते गांधी को देख व्यथित थे? कुरुक्षेत्र की रचना के समय सत्ता के सूत्र संभालने वाले हाथ तय हो चुके थे। और देश के बंटवारे की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं। तब क्या दिनकर कर्णधारों के इस घुटना टेक पर चोट कर रहे थे? 
उन्होंने लिखा-
युद्घ को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियां
भिन्न स्वाथोंर् के कुलिश-संघर्ष की, 
युद्घ तब तक विश्व में अनिवार्य है। 
कहीं यह उस तरह के शौर्य की मांग तो नहीं थी जब अब्राहम लिंकन ने गृहयुद्घ की भी परवाह न करते हुए अमरीका का विखंडन नहीं होने दिया था? या वे रूमानी सपने देखने वाले नेताओं के हाथों गढ़े गए उस भविष्य में झाँक रहे थे कि जब विश्व शांति के नारों के शोर में देश की संप्रभुता को दांव पर लगा दिया गया था ? 'कुरुक्षेत्र' के इस सन्देश को, कि -
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, 
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। 
सुना गया होता तो क्या देश 1962 जैसी चोट खाता? या उससे भी काफी पहले, जब तिब्बत की स्वतंत्रता को पाशविक शक्ति के बल पर कुचल दिया गया था, काश, हमने इन पंक्तियों का मर्म समझा होता-
सत्व मांगने से न मिले, संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें?
'कुरुक्षेत्र' अपने समय का आईना बन गया। ये युद्घ का आह्वान नहीं था बल्कि वैचारिक स्पष्टता लाने का प्रयास था। कुरुक्षेत्र का युद्घ एक प्रतीक बन गया। वैचारिक संघर्ष आज भी जारी है। दिनकर के रचित पृष्ठों में से भीष्म आज भी पुकार रहे हैं।  -प्रशांत बाजपेई

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