Tuesday, 21 July 2015

ब्राह्मण (भूमिहार) का इतिहास वर्तमान स्थिति और पुनरुद्धार के उपाय - भूमिका

ब्राह्मण (भूमिहार) या भूमिहार ब्राह्मण के इतिहास पर बात करने से पहले हमें ब्राह्मण के इतिहास पर गौर करना होगा इसके लिए श्रृष्टि की रचना पर विचार करना होगा| सिर्फ तभी हम भूमिहार ब्राह्मण के इतिहास को समग्रता से समझ सकेंगे| श्रृष्टि-रचना की धार्मिक मान्यता के रहस्य को विज्ञान की कसौटी पर कसे बिना हम इसके वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकेंगे|
श्रृष्टि-रचना में श्रीमद्भागवतपुराण और डार्विन के सिद्धांत का विश्लेषण
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श्रृष्टि-रचना के सिद्धांत की व्याख्या श्रीमद्भागवतपुराण (2/5/32-35) द्वितीय स्कन्द, पंचम अध्याय के श्लोक सं 32-35 में विशेष रूप से किया गया है हालांकि पूरा पांचवां और छठा अध्याय श्रृष्टि रचना की ही व्याख्या करता है| भागवतपुराण के अनुसार पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) की रचना करीब-करीब एक साथ एक के बाद एक हुई लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी महाध्वनि (Big Bang Theory) की उपज है जो किसी बड़े ग्रह के सूर्य से टकराने से हुई|
भागवतपुराण के अनुसार पंचमहाभूत अपनी रचना के बाद बड़ी असंगठित अवस्था में थे जिसे चार्ल्स डार्विन ने अपनी पुस्तक ‘The Origin of Species’ में ‘Difused and Unsythecised State’ की संज्ञा दी है| मूलतः भागवतपुराण की असंगठित अवस्था और डार्विन का ‘Difused and Unsynthecysed State’ का अर्थ एक ही है| असंगठित अवस्था के ये महाभूत काफी लम्बे समय तक मूर्त पिंड का आकार नहीं ले पाए थे|
पंचमहाभूत जब संगठित हुए तब एक महाकाय ब्रह्माण्ड रूप अंड-पिण्ड बना| ब्रह्माण्ड रूपी पिंड सहस्त्र वर्षों तक निर्जीव अचेतन अवस्था में जल में पड़ा रहा| इस निर्जीव पिंड और जल में जब क्षोभ हुआ जिसे डार्विन ने ‘Process of Agitation’ कहा अर्थात जल, वायु, आकाश और अग्नि के परस्पर भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया से क्षोभ के कारण उस महापिंड में चेतना का संचार हुआ या वह जीवित हो गया| हमारा धर्मशास्त्र इसका कारण इश्वरीय कृपा और डार्विन आदि आधुनिक वैज्ञानिक इसे ‘Physio-Chemical Reaction’ की प्रक्रिया कहते हैं| आज स्थिर जल जमावट में जब मच्छर, शैवाल आदि जलजीव पैदा हो जाते हैं तो हम उसे ईश्वरीय कृपा नहीं समझते|
हम इस बात पर जोर देकर किसी के धार्मिक विश्वास को प्रभावित करना नहीं चाहते लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि विज्ञान सदा धार्मिक रहस्यों और अंधविश्वासों पर से पर्दा उठाता आया है| जो चाँद कुछ वर्ष पहले तक हमारे लिए ‘चन्द्रलोक’ था वह आज मरुस्थल और बियावान पथरीला निर्जीव उपग्रह है| वैसे भी ब्रह्माण्ड को आकार देने वाले ‘Higs Bosone’ या ‘God Particle’ की खोज कर ली गई है और इसके अन्वेषक प्रोफेसर पीटर हिग्स को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है| वह दिन अब दूर नहीं जब श्रृष्टि की रचना का वैज्ञानिक तथ्य ही सामने होगा|
अब हम इस बात पर विचार करें कि वह विशाल चेतन पिंड क्या था| डार्विन उसे ‘विभिन्न गुण-रूपों के बैक्टीरिया का एक प्राकृतिक मूर्त रूप’ (Formation of Heterogeneous Bacterial Growth) कहता है| इस विशाल चेतन पिण्ड के विभिन्न हिस्से को उसकी आकृति के अनुसार मुँह, बाजू, वक्ष, जानू और पाद की संज्ञा दी गई जैसे बादल का विशाल पिण्ड कभी मुंह, हाथ या पैर की तरह नजर आता है और कभी किसी जानवर की तरह लगता है| इसके विभिन्न हिस्से से इसकी प्रकृति के अनुसार विभिन्न जीव-जन्तु उत्पन्न हुए क्योंकि इसके विभिन्न हिस्सों की उर्वरा शक्ति भिन्न थी| (उदाहरणार्थ एक गन्ने के पौधे के विभिन्न हिस्से में गुणों के अनुसार मिठास अलग-अलग होती है)|
यह चेतन पिण्ड कोई सौ-दो सौ गज में फैला हुआ नहीं बल्कि हजारों-हजार मील में फैला हुआ पदार्थ था और ऐसे ऐसे हजारों पिंड हजारों जगह फैले हुए थे जिससे देश-काल की भिन्नता एवं महाभूतों की स्थानीय विशेषताओं के चलते एक ही प्रकार के जीव के विभिन्न रंग, रूप और आकार बनते गए| कहीं हाथी सफेद तो कहीं हाथी कला, कहीं ऊंट तो कहीं जिराफ, कहीं मानव तो कहीं दानव| इसी के विभिन्न हिस्सों से सर्प, नाग, दानव, वृक्ष, लताएँ आदि सभी पैदा हुए| ये जीव-जन्तु भी सब अचानक एक साथ पैदा नहीं हुए| अंतरिक्ष में मिले मच्छर के जीवाष्मों के अध्ययन से पता चला है कि मच्छर मनुष्यों से 50 करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुए थे जबकि मनुष्य की उत्पत्ति आज से करीब 16 से 20 करोड़ वर्ष पहले हुई थी| खुद पृथ्वी ही आज से करीब 4.55GA (Giga/Billion years) अरब साल पहले स्तित्व में आई है| क्रमिक विकास इतनी मंद गति से होता है कि मनुष्यों को ही अपने चार पैरों से दो पैरों पर खड़े होने में कई लाख वर्ष लगे| सबों पर डार्विन का क्रमिक विकास का सिद्धांत (Theory of Gradual Evolution) ही लागू होता है|
ब्राह्मण की उत्पत्ति
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इस परिप्रेक्ष्य में अब हम ब्राह्मण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करें| हमारा शास्त्र कहता है :-
(१) ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ (अध्याय ३१(११) पुरुष सूक्त, यजुर्वेद)
(२) चतुर्वर्णम् मयाश्रिष्ठ्यम् गुणकर्माविभागशः (गीता)
यजुर्वेद ३१वें अध्याय के पुरुष सूक्त श्लोक सं ११ की पुष्टि ऋग्वेद, और अथर्ववेद के साथ श्रीमद्भागवतपुराण ने भी की है| इसका सटीक अर्थ समझने के लिए हमें पहले यजुर्वेद के श्लोक सं १० का अर्थ समझना होगा| दसवें श्लोक में पूछा गया है कि “उस विराट पुरुष का मुख कौन है, बाजू कौंन है, जंघा कौन है तथा पैर कौन है? इसके उत्तर में श्लोक सं ११ आता है जिसमे कहा गया है कि “ ब्राह्मण ही उसका मुख है, क्षत्रिय बाजू है, वैश्य जंघा है और शूद्र पैर है”| यह कहीं नहीं लिखा है कि प्रजापति (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, बाजूओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शुद्र पैदा हुए| ऐसा अर्थ मात्र भ्रान्ति है| इस पर मैं कोई शास्त्रार्थ करना नहीं चाहता क्योंकि इसकी वास्तविकता मैं पहले ही बता चुका हूँ| हम तो उस दिन की कल्पना भर कर सकते हैं जब अणुओं के टकराव और विष्फोट से उत्पन्न हिग्स बोसोन या (God Particle) श्रृष्टि की रचना का पूरा सिद्धांत 40-50 वर्षों में बदल देगा| तब ब्राह्मण न तो मुख से पैदा हुआ माना जायेगा और नहीं शुद्र पैरों से|
ब्राह्मणों के कार्य
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अध्यापनमध्यायनं च याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्र जन्मन:॥ 10।75
मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार ब्राह्मणों के छह कर्म हैं| साधारण सी भाषा में कहें तो अध्ययन-अध्यापन(पढ़ना-पढाना), यज्ञ करना-कराना, और दान देना-लेना| इन कार्यों को दो भागों में बांटा गया है| धार्मिक कार्य और जीविका के कार्य| अध्ययन,यज्ञ करना और दान देना धार्मिक कार्य हैं तथा अध्यापन, यज्ञ कराना (पौरोहित्य) एवं दान लेना ये तीन जीविका के कार्य हैं| ब्राह्मणों के कार्य के साथ ही इनके दो विभाग बन गए| एक ने ब्राह्मणों के शुद्ध धार्मिक कर्म (अध्ययन, यज्ञ और दान देना) अपनाये और दूसरे ने जीविका सम्बन्धी (अध्यापन, पौरोहित्य तथा दान लेना) कार्य| जिस तरह यज्ञ के साथ दान देना अंतर्निहित है वैसे ही पौरोहित्य अर्थात यज्ञ करवाने के साथ दान लेना| इस तरह वास्तव में ब्राह्मणों के चार ही कार्य हुए – अध्ययन और यज्ञ तथा अध्यापन और पौरोहित्य|
याचकत्व और अयाचकत्व
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ब्राह्मणों के कर्म विभाजन से मुख्यतः दो शाखाएं स्तित्व में आयीं – पौरोहित्यकर्मी या कर्मकांडी याचक एवं अध्येता और यजमान अयाचक| यह भी सिमटकर दो रूपों में विभक्त होकर रह गया – दान लेने वाला याचक और दान देने वाल अयाचक| सत्ययुग से ही अयाचक्त्व की प्रधानता रही| विभिन्न पुराणों, बाल्मीकिरामायण और महाभारत आदि में आये सन्दर्भों से पता चलता है कि याचकता पर सदा अयाचकता की श्रेष्टता रही है| प्रतिग्रह आदि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं जैसा कि मनु जी ने कहा है कि :-
प्रतिग्रह समर्थोपि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ (म.स्मृ. 4/186)
'यदि ब्राह्मण प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए जप और तपस्यादि भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणत्व) का नाश हो जाता है’। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा हैं और ब्रह्मर्षि वशिष्ट ने भी कहा है कि 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।'
भू-धन का प्रबंधन
दंडीस्वामी श्री सहजानंद सरस्वती जी के अनुसार अयाचकता और याचकता किसी विप्र समाज या जाति का धर्म न होकर व्यक्ति का धर्म हैं। जो आज अयाचक हैं कल वह चाहे तो याचक हो सकता हैं और याचक अयाचक। इसी सिद्धांत और परम्परा के अनुसार जब याचक ब्राह्मणों को दान स्वरूप भू-संपत्ति और ग्राम दान मिलने लगे तो याचकों को भू-धन प्रबंधन की जटिलताएं सताने लगीं| पौरोहित्य जन्य कर्मों में संलग्न याचक वर्ग दान में मिली भू-सम्पत्तियों के प्रबंधन के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था| इसलिए आंतरिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आपसी सहयोग और सम्मति से परिवार के कुछ सदस्य अपनी रूचि अनुसार भू-प्रबंधन में संलग्न हो गए|
ब्राह्मणों के पेशागत परिवर्तन के उदाहरण वैदिक काल में परशुराम, द्रोण, कृप, अश्‍वत्थामा, वृत्र, रावण एवं ऐतिहासिक काल में शुंग, शातवाहन, कण्व, अंग्रेजी काल में काशी की रियासत, दरभंगा, बेतिया, हथुआ, टिकारी, तमकुही, सांबे, मंझवे, आदि के जमींदार हैं।
भूदान-धन प्रबन्धक की विशेषताएं एवं इतिहास – ब्राह्मण की विशेष शाखा का उद्भव
आज भी किसी परिवार में प्राकृतिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर हर सदस्य अपनी रूचि अनुसार अलग-अलग काम स्वतः ले लेता है| कोई सरकारी दफ़्तर और कोर्ट कचहरी का काम संभालता है तो कोई पशुधन प्रबंधन में लग जाता है तो कोई ग्राम संस्कृति में संलग्न हो ढोलक बजाने लगता है तो कोई साधारण से लेकर ऊँची-ऊँची नौकरियां करने लगता है तो कोई पूजा-पाठ यज्ञादि में संलग्न हो जाता है| ठीक यही हाल याचकता और अयाचकता के विभाजन के समय हुआ| हालांकि उस समय किसी के उत्कृष्ट और किसी के निकृष्ट होने की कल्पना भी नहीं थी|
भू-संपत्ति प्रबंधन में संलग्न परिवार शुद्ध अयाचकता की श्रेणी में अपने को ढालता गया| याचकों की आर्थिक विपन्नता और अयाचकों की भू-सम्पदाजन्य सम्पन्नता काल-क्रम से उत्तरोत्तर बढ़ती गई तथापि याचकों के सामाजिक प्रभाव और आत्मसम्मान में कोई कमी नहीं थी| ऐसा भी नही था कि याचक ब्राह्मण कृषि कार्य नही करता था लेकिन उसके पास विशेषज्ञता की कमी थी और आत्मसम्मान की अधिकता| वाल्मीकिरामायण के के अयोध्या कांड बत्तीसवें सर्ग के २९-४३वें श्लोक में गर्ग गोत्रीय त्रिजट नामक ब्राह्मण की कथा से अयाचक से याचक बनने का सटीक उदाहरण मिलता है:-
तत्रासीत् पिंगलो गार्ग्यः त्रिजटो नाम वै द्विज; क्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली। ॥ 29॥
इस आख्यान से यह भी स्पष्ट हैं कि दान लेना आदि स्थितिजन्य गति हैं, और काल पाकर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक्-पृथक् दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैं|
इसी तरह के संदर्भ का द्वापरकालीन महाभारत में युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों द्वारा गोधन आदि भू-संपदा के उपहार और दान का वर्णन दुर्योधन द्वारा शकुनि के समक्ष किया गया है|
त्रेता-द्वापर संधिकाल में क्षत्रियत्व का ह्रास एवं अयाचक भू-धन प्रबन्धक द्वारा क्षात्रजन्य कार्यों का संचालन
मनुजी स्पष्ट लिखते हैं कि :
सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्र विदर्हति॥ 100॥
अर्थात ''सैन्य और राज्य-संचालन, न्याय, नेतृत्व, सब लोगों पर आधिपत्य, वेद एवं शास्त्रादि का समुचित ज्ञान ब्राह्मण के पास ही हो सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष को।''
स्कन्दपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा हैं कि जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा हैं तो उन्होंने उत्तर दिया हैं कि :
ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथा वच्चरितः व्रत:।
क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन॥ 13॥
अर्थात् ''ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता हैं, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं। यह सुन वह परशुरामजी के पास, “मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ,” ऐसा बनकर ब्रह्मास्त्र सीखने गया हैं।'' इस तरह ब्रह्मास्त्र की विद्या अगर ब्राह्मण ही जान सकता है तो युद्ध-कार्य भी ब्राह्मणों का ही कार्य हुआ|
उन विभिन्न युगों में भी ब्राह्मणों के अयाचक दल ने ही पृथ्वी का दायित्व संभाला| इससे बिना शंका के यह सिद्ध होता है कि भू-धन प्रबन्धक अयाचक ब्राह्मण सत्ययुग से लेकर कलियुग तक थे और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखी हालांकि वे अयाचक ब्राह्मण की संज्ञा से ही विभूषित रहे| साहस, निर्णय क्षमता, बहादुरी, नेतृत्व क्षमता और प्रतिस्पर्धा की भावना इनमे कूट-कूटकर भरी थी तथा ये अपनी जान-माल ही नहीं बल्कि राज्य की सुरक्षा के लिए भी शक्तिसंपन्न थे|
क्षत्रियत्व का ह्रास
प्राणी रक्षा के दायित्व से जब क्षत्रिय च्युत हो निरंकुश व्यभिचारी और अधार्मिक कार्यों एवं भोग विलास में आकंठ डूब गए तो ब्रह्मर्षि परशुराम जी ने उनका विभिन्न युगों में २१ बार संहार किया और पृथ्वी का दान और राज ब्राह्मणों को दे दिया|
यहाँ पर मैं जरा सा संदार्भातिरेक करूँगा| प्रश्न उठता है कि अगर परशुराम जी ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-विहीन कर दिया तो बाद में क्षत्रिय कहाँ से आ गए? उत्तर यह है कि हालाँकि पौराणिक इतिहास में कहीं भी ऐसा संदर्भ नहीं है की उन्होंने क्षत्रियों के साथ क्षत्राणियों का भी संहार किया| नारी सदा अवध्य ही रही| उन्हीं अवध्य जीवित क्षत्राणियों से ब्राह्मणों ने जो संतानें पैदा कीं वे क्षत्रिय कहलाये इसलिए क्षत्रिय भी ब्राह्मणों की ही संतानें हुईं| शास्त्र भी कहता है की ब्राह्मण वीर्य और क्षत्रिय रज से उत्पन्न संतान क्षत्रिय ही होती हैं ब्राह्मण नहीं| महाभारत में अर्जुन ने युधिष्ठिर से शान्तिपर्व में कहा है कि:
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥ अ.॥ 22॥
''हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?'
कलियुग में अयाचक भू-धन प्रबंधक की स्वतंत्र पहचान व् ब्राह्मणों में सर्वोच्च अधिकार
कलियुग में इस भू-प्रबन्धक की लिखित और अमिट छाप ईशापूर्व से स्पष्ट परिलक्षित होती है| सिकंदर ने जब 331 ईशापूर्व आर्यावर्त पर आक्रमण किया था तो उसके साथ उसका धर्मगुरु अरस्तू भी साथ आया था| अरस्तू ने क्षत्रियों की अराजकता और अकर्मण्यता के संदर्भ में उस समय के भारत की जो दुर्दशा देखी उसका बहुत ही रोचक चित्रण अपने स्मरण ग्रन्थ में इस तरह किया है:-
“Now the ideas about castes and profession, which have been prevalent in Hindustan for a very long time, are gradually dying out, and the Brahmans, neglecting their education,....live by cultivating the land and acquiring the territorial possessions, which is the duty of Kshatriyas. If things go on in this way, then instead of being (विद्यापति) i.e. Master of learning, they will become (भूमिपति) i.e. Master of land”.
“जो विचारधारा, कर्म और जाति प्रधान भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित थी, वह अब धीरे-धीरे ढीली होती जा रही हैं और ब्राह्मण लोग विद्या विमुख हो ब्राह्मणोंचित कर्म छोड़कर भू-संपत्ति के मालिक बनकर कृषि और राज्य प्रशासन द्वारा अपना जीवन बिता रहे हैं जो क्षत्रियों के कर्म समझे जाते हैं। यदि यही दशा रही तो ये लोग विद्यापति होने के बदले भूमिपति हो जायेगे।'' आज हम कह सकते हैं कि अरस्तू की भविष्यवाणी कितनी सटीक और सच्ची साबित हुई|
In the year 399 A.D. a Chinese traveler, Fahian said “owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism....are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called ‘Sang he Kang”, which has been translated by professor Hoffman as ‘Land seizer’.
राज्य संचालन
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यद्यपि अयाचक ब्राह्मणों द्वारा राज्याधिकार और राज्य संचालन का कार्य हरेक युग में होता रहा है लेकिन ईशापूर्व चौथी-पांचवीं सदी से तो यह कार्य बहुत ही ज्यादा प्रचलित हो गया और इसने करीब-करीब एक परम्परा का रूप ले लिया| इसमें सर्व प्रमुख नाम 330 ई.पू. सिकंदर से लोहा लेने वाले सारस्वत गोत्रीय महियाल ब्राह्मण राजा पोरस, 500 इस्वी सुधाजोझा, 700 ईस्वी राजा छाच, और 1001 ईस्वी में अफगानिस्तान में जयपाल, आनंदपाल और सुखपाल आदि महियाल ब्राह्मण राजा का नाम आता है जैसा कि स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘ब्रह्मर्षि वंशविस्तर’ में लिखा है|
भू-धन प्रबंधक ब्राह्मणों में “भूमिहार” शब्द का प्रथम ज्ञात प्रचलन
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हालांकि भूमिहार शब्द का पहला जिक्र बृहतकान्यकुब्जवंशावली १५२६ ई. में आया है लेकिन सरकारी अभिलेखों में प्रथम प्रयोग 1865 की जनगणना रिपोर्ट में हुआ है| इसके पहले गैर सरकारी रूप में इतिहासकार बुकानन ने 1807 में पूर्णिया जिले की सर्वे रिपोर्ट में किया है| इनमे लिखा है :-
“भूमिहार अर्थात अयाचक ब्राह्मण एक ऐसी सवर्ण जाति जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। इसका गढ़ बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश है| पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्राह्मणों को त्यागी नाम की उप-जाति से जाना व पहचाना जाता हैं।“ एम.ए. शेरिंग ने १८७२ में अपनी पुस्तक Hindu Tribes & Caste में कहा "भूमिहार जाति के लोग हथियार उठाने वाले ब्राह्मण हैं (सैनिक ब्राह्मण)। पं. परमेश्वर शर्मा ने ‘सैनिक ब्राह्मण’ नामक पुस्तक भी लिखी है| अंग्रेज विद्वान मि. बीन्स ने लिखा है – “भूमिहार एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमे आर्य जाति की सभी विशिष्टताएं विद्यमान है। ये स्वाभाव से निर्भीक व हावी होने वालें होते हैं।“ 'विक्रमीय संवत् 1584 (सन् 1527) मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों और बाबर से युद्ध हुआ और युद्धोपरांत भूमिहार मदारपुर से पलायन कर यू.पी. एवं बिहार के बिभिन्न क्षेत्रों में फ़ैल गए| गौड़, कान्यकुब्ज सर्यूपारी, मैथिल, सारस्वत, दूबे और तिवारी आदि नाम प्राय: ब्राह्मणों में प्रचलित हुए, वैसे ही भूमिहार या भुइंहार नाम भी सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक अयाचक दल विशेष में प्रचलित हुआ।
भूमिहार शब्द सबसे प्रथम 'बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण' (1526) के 117वें पृष्ठ पर मिलता है| इसमें लिखा हैं कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण के निम्नलिखित पांच प्रभेद हैं:-
(1) प्रधान कान्यकुब्ज
(2) सनाढ्य
(3) सरवरिया
(4) जिझौतिया
(5) भूमिहार
सन् 1926 की कान्यकुब्ज महासभा का जो 19वाँ वार्षिक अधिवेशन प्रयाग में जौनपुर के राजा श्रीकृष्णदत्तजी दूबे, की अध्यक्षता में हुई थी|स्वागताध्यक्ष जस्टिस गोकरणनाथ मिश्र ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग माना है|
जाति के रूप में भूमिहारो का संगठन
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भूमिहार ब्राह्मण जाति ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अयाचक लोगो का एक संगठन है| प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया, उसके बाद सारस्वत, महियल, सरयूपारी, मैथिल, चितपावन, कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए| मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए|
भूमिहार ब्राह्मण महासभा
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१८८५ में द्विजराज काशी नरेश महाराज श्री इश्वरी प्रसाद सिंह जी ने वाराणसी में प्रथम अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा की स्थापना की| बिहार और उत्तर प्रदेश के जमींदार ब्राह्मणों की एक सभा बुलाकर प्रस्ताव रखा कि हमारी एक जातीय सभा होनी चाहिए| सभा के प्रश्न पर सभी सहमत थे| परन्तु सभा का नाम क्या हो इस पर बहुत ही विवाद उत्पन्न हो गया| मगध के बाभनो ने जिनके नेता स्व.कालीचरण सिंह जी थे, सभा का नाम ‘बाभन सभा’ करने का प्रस्ताव रखा| स्वयं महाराज ‘भूमिहार ब्राह्मण सभा’ के पक्ष में थे| बैठक में आम राय नहीं बन पाई, अतः नाम पर विचार करने हेतु एक उप-समिति गठित की गई| सात वर्षो के बाद समिति की सिफारिश पर "भूमिहार ब्राह्मण" शब्द को स्वीकृत किया गया|
१९४७ में ३३वां अखिल भारतीय सम्मलेन टिकारी में पं. वशिष्ठ ना. राय की अध्यक्षता में हुआ| अनेकों संस्कृत विद्यालयों/महाविद्यालयों के संस्थापक/व्यवस्थापक स्वामी वासुदेवाचार्य जी इसके स्वागताध्यक्ष थे| टिकारी सम्मलेन के बाद ४७ वर्षों तक कोई अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण सम्मलेन नहीं हुआ क्योंकि राजा रजवाड़े रहे नहीं जो सम्मेलन आयोजित कराते थे हालांकि क्षेत्रीय सम्मलेन विभिन्न नामों से होते रहे|
१९९४ जून में ३४वां अधिवेशन टिकारी अधिवेशन के ४७ वर्षों बाद अखिल भारतीय भूमिहार बाह्मण सम्मलेन सिमरी, जिला बक्सर बिहार में हुआ विद्वानों और समाजसेवियों के सानिध्य में आचार्य पं. रामख्याली शर्मा की अध्यक्षता में हुआ| इसी सिमरी ग्राम में स्वामी सहजानंद सरस्वती जी ने अपने महान ग्रंथ कर्मकलाप, ब्रह्मर्षि वंश विस्तर, और भूमिहार ब्राह्मण परिचय लिखे हालांकि सीताराम आश्रम, बिहटा, पटना जिला उनका अंतिम निवास था| इस तरह भूमिहार ब्राह्मण महासभा का ११४ वर्षों के इतिहास में मुख्यतः ३४ अधिवेशन हुए हालांकि सभाएं तो पचास से ज्यादा हईं| इसके बाद भी सभाएं तो बहुत हुईं लेकिन उसका क्रमानुसार नामकरण नहीं किया गया|
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कार्यवाही की जाँच के लिए जो सिलेक्ट कमिटी बैठी थी, उसकी जो पाँचवीं रिपोर्ट बंगाल प्रेसिडेन्सी के विषय में प्रकाशित होकर सन् 1812 ई. में लन्दन में छपी हैं, उसके प्रथम भाग के 511 से 513 पृष्ठों तक ऐसा लिखा हुआ हैं – इसमें सभी भूमिहारों को ब्राह्मण ही लिखा गया है:-
''सूबा बिहार” (प्रथम सरकार) बिहार
(3) 10 परगनों की जमींदारी मित्राजीत सिंह कौम ब्राह्मण, टिकारी के निवासी को मिली|
(5) अरंजील और मसौढ़ी इन दो परगनों के जमींदार जसवन्त सिंह वगैरह ब्राह्मण थे।
(9) सौरत और बलिया ये दो परगने खासकर हुलास चौधुरी और आनागिर सिंह नामक ब्राह्मणों की जमींदारी थी।
(11) ग्यासपुर परगने की जमींदारी शिवप्रसाद सिंह ब्राह्मण की थी और उसमें छोटे-छोटे जमींदार भी शरीक थे।
अयोध्या का मुकद्दमा:
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आनंद भवन बिहारी बनाम राम दुलारे त्रिपाठी ACJ Faizabad Suite No 22/1962 – पं. राम दुलारे ने कहा कि महावीर शरण भूमिहार हैं, ब्राह्मण नहीं अतः आनंद बिहारी ठाकुरबाड़ी के सर्बकार नहीं हो सकते क्योंकि सर्बकार सिर्फ विरक्त ब्राह्मण ही हो सकता है भूमिहार नहीं| कोर्ट ने डिक्री पास किया कि भूमिहार हर हाल में ब्राह्मण है| इस आशय की कई डिक्रियां अदालतों ने पास किये हैं|
भूमिहारों का ब्राह्मणत्व से विचलन व् बढ़ती दूरियां
बनारस(काशी), टिकारी, अमावां, हथुआ, बेतिया और तमकुही आदि अनेक ब्राह्मणों (भूमिहार) के राज्यारोहण के बाद सम्पूर्ण भूमिहार समाज शिक्षा, शक्ति, और रोआब के उच्च शिखर पर पहुँच गया था| चारो ओर हमारे दबदबे की दहशत सी फैली हई थी| लोग भूमिहारों का नाम भय मिश्रित अदब से लिया करते थे| सर्वाधिकार प्राप्ति और वर्चस्व के लिए भूमिहार शब्द ही काफी था|
पुनरोद्धार के उपाय:
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अंग्रेजी में एक कहावत है –“It is never too late” किसी भी अच्छे काम की शुरुआत के लिए कभी देर नही होती| हमने अपने आप को गहरे जख्म अवश्य दिये हैं लेकिन मर्ज ला-ईलाज नहीं हुआ है| हाँ, इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर और हरेक स्तर पर सामूहिक और दृढ़ निश्चयी प्रयास की आवश्यकता है| मेरे विचार से निम्नलिखित उपाय कारगर साबित हो सकते हैं:-
• शीघ्रातिशीघ्र हम अपने बच्चों के स्कूल रिकॉर्ड में जाति के स्थान में ‘ब्राह्मण’ या ‘ब्राह्मण (भूमिहार) या भूमिहार ब्राह्मण लिखना शुरू कर दें|
• सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर सरकार पर प्रभाव डालें कि जनगणना आदि सभी अभिलेखों में हमारी जाति ‘ब्राह्मण’ या ‘ब्राह्मण(भूमिहार)’ या भूमिहार ब्राह्मण ही अंकित हो|
• केन्द्रीय और प्रांतीय सभी अभिलेखों से भूमिहार शब्द हटाकर ब्राह्मण या ब्राह्मण(भूमिहार) ही लिखा और माना जाय|
• आवश्यकता पड़ने पर सर्वदलीय सांसद-विधयाक-जनता समिति बनाकर जातीय एकता का प्रदर्शन करते हुए संविधान संशोधन कर इसे सुनिश्चित कराना चाहिए|
• सामान्यतया भूमिहार ब्राह्मणों का बौद्धिक स्तर काफी ऊँचा है लेकिन समुचित सामाजिक विकास के लिए शिक्षा के स्तर को सुधारना आवश्यक है| मैं अंग्रेजी का अंध समर्थक नहीं हूँ लेकिन मेरा ७० वर्षों का अनुभव बताता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में “अंग्रेजी दा जवाब नहीं”!!! आज हमारे युवक अंग्रेजी सीखने के डर से हिंदी का गुणगान करते हैं| अंग्रेजी सीखकर अगर हिंदी का गुणगान करते तो कुछ और बात होती|
• साधनहीन मेधावी बच्चों के शैक्षणिक विकास के लिए ग्राम, प्रखंड, जिला और राज्य स्तर पर उचित एवं समर्पित वित्तीय संगठन की आवश्यकता है| अधिवेशनों में यह प्रस्ताव तो आ जाता है लेकिन उसपर Follow Up या बाद में प्रगति कार्य नहीं किया जाता है| यह सुनिश्चित होना चाहिए| इसके बिना प्रस्ताव किसी काम का नहीं|
• सदस्यता शुल्क – वित्तीय संगठन की स्थापना सदस्यता शुल्क के आधार पर होनी चाहिए| इसमें हरेक ग्राम से लेकर जिला स्तर के सभी स्वजातीय सदस्य बनने चाहिए जिसके लिए एक न्यूनतम शुल्क निर्धारित हो| अधिकतम की कोई सीमा नहीं हो|
• विडंबना यह है कि समाज में जिसके पास धन है वे कुछ कर नहीं सकते और जो कुछ कर सकते हैं उनके पास धन नहीं है| अगर कुछ करना है तो दोनों के बीच सामंजस्य बैठाने की सख्त जरूरत है|
• अभी तक हमारे समाज में ‘एक म्यान में दो तलवार’ नहीं रहने की संभावना व्याप्त है, सामाजिक सद्भाव और सहिष्णुता के समावेश से इसे बदला जा सकता है|
• स्वजातीय एकता और सुरक्षा को ध्यान में रखकर कुछ संगठन बने तो सही लेकिन अंततः व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना ने इसे तार्किक परिणिति तक पहुंचने से रोक दिया| इस पर पुनर्विचार की जरूरत है|
• एक ऐसी स्थायी कार्यकारिणी समिति बने जिसमे ग्रामीण, शिक्षित और दवंग आदि समाज के हर स्तर के लोग हों, ताकि लिए गए निर्णयों को सुचारू रूप से कार्यान्वित किया जा सके तथा इनकी उर्जा को भी सकारात्मक दिशा में प्रयोग किया जा सके और इन्हें महसूस हो कि सामाजिक उत्थान में इनकी भी नितांत आवश्यकता है|
• आंतरिक द्वेष, इर्ष्या और कलह ने हमारे विकास के धार को कुंद कर दिया है, इसे आपसी सौहार्द्र और सामंजस्य से ठीक किया जा सकता है|
• हमे भूमिहार ब्राह्मण की एक ऐसी Close Group Web Site बनानी चाहिए जिसपर समाज के सक्षम लोग जो नौकरियां दे सकते हैं अपनी Vacancy का विज्ञापन दें जिससे सिर्फ स्वजातीय ही आवेदन कर सकें| हाँ, योग्यता के सवाल पर कोई ढील नहीं दी जाय ताकि उनकी गुणवत्ता कायम रहे| लोगों में यह धारणा बनी रहे कि ‘अगर भूमिहार ब्राह्मण है तो काबिल ही होगा’| इससे कम से कम योग्य स्वजातीय युवकों को उचित नौकरी मिल सकेगी जो अन्यथा Corporate Sector के विज्ञापन से अनभिज्ञ रह जाते हैं|
उपसंहार
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हरेक इतिहासकार ने माना है कि भूमिहार ब्राह्मण अर्थात अयाचक ब्राह्मण एक ऐसी सवर्ण जाति है जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया, उसके बाद सारस्वत, महियल, सरयूपारी, मैथिल ,चितपावन, कन्नड़ और केरल के नम्बूदरी आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए| मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए| ‘इस तरह लोग मिलते गए और कारवां बनता गया’| इस जाति ने सत्ययुग से लेकर कलियुग तक किसी न किसी रूप में अपना स्तित्व और प्रभाव अक्षुण्ण रखा| अभी तक पचासों अखिल भारतीय भूमिहार सम्मलेन या भूमिहार महासभा या अखिल भारतीय त्यागी महासभा स्थापित कर और चितपावन, नम्बूदरी आदि ब्राह्मणों को इसका सभापतित्व देकर अयाचक ब्राह्मणों की एकता का परिचय दिया है| हालांकि महासभाओं में लिए गए निर्णयों/प्रस्तावों पर बाद में अग्रेत्तर करवाई या अमल नहीं किया गया| समृधि और सम्पन्नता के सुनहरे समय में गुमराही के दौर से गुजरने के बाद भी सुबह का भूला शाम को घर आने की क्षमता रखने वाली इस जाति के लिए अभी भी खोई प्रतिष्ठा प्राप्त करने की उम्मीद शेष है| इसमें सर्वाधिक आवश्यक है कठिन परिश्रम और मजबूत इरादे से जीवन के हर क्षेत्र में महारत हासिल करने की| सत्ययुग से ही अध्ययन या शिक्षा हमारी रक्तनलिका में प्रवाहित होती रही है| पूर्वजन्म के संस्कार और प्रारब्ध फलानुसार अल्प प्रयास से ही हम उसे वापिस प्राप्त कर सकते हैं| हमारे पास मानसिक शक्ति, बुद्धि, तर्क-शक्ति, दुर्धर्ष साहस और उछलकर वापस आने का अद्भुत कौशल है| जरूरत है इसे अपने व्यवहार में लाकर अपनी सफलता में परिवर्तित करने की|
ले.कर्नल विद्या शर्मा (से.नि.)

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