Thursday, 2 July 2015

किसान आंदोलन के प्रणोता @केसी त्यागी

आज तक किसानों को देश की सियासत में वह भागीदारी नहीं मिली है, जिसके वे हकदार हैं. आज कृषि और किसान हित दोनों ही राजनीतिक एजेंडे से बाहर हैं. किसानों के नेतृत्व के मुद्दे पर देश में राजनीति और वोट लेने के बाद हशिये पर धकेल देने की परंपरा जारी है. कभी सेज तो अब भूमि अधिग्रहण बिल लाकर किसानों को कमजोर करने और उनको खेती छोड़ने पर मजबूर करने का खेल चल रहा है. इसलिए किसान आत्महत्या को मजबूर है.
 
आज स्वामी सहजानंद सरस्वती जी की पुण्यतिथि है. गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह के सफल प्रयोग के बाद देश की बड़ी आबादी के आर्थिक प्रश्नों पर आंदोलित एवं संगठित करने का कार्य सबसे ज्यादा उन्हीं के नाम लिखा हुआ है. तब किसानों की समाजार्थिक स्थिति सोचनीय थी. मुट्ठी भर लोगों के हाथ में ही उत्पादन के साधन थे. किसान-श्रमिक अर्धगुलामी की अवस्था में जी रहे थे. ऐसे समय में उन्होंने भारत में संगठित किसान आंदोलन खड़ा किया. उन्होंने अंगरेजी दासता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और किसानों को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराने के लिए निर्णायक संघर्ष किया.
 
गांधी के चंपारण सत्याग्रह एवं किसानों के गांधी कहे जानेवाले स्वामी सहजानंद सरस्वती का काल खंड एक साथ रहा. जब गांधीजी का आगमन बिहार के चंपारण में हुआ, तो वही वह समय था जब सहजानंद सरस्वती जी भूमिहीनों, किसानों के लिए अलख जगाये हुए थे. उच्च वर्ग में पैदा हुए उन्होंने हमेशा केवल भूमिहीनों एवं किसानों के लिए संघर्ष किया. कांग्रेस में जो किसानों के प्रति लचीलापन आया, वह भी स्वामी जी के विचार के कारण था. 1917 में जारशाही से मुक्ति के बाद रूस की क्रांति और लेनिन के विचारों से वह प्रभावित थे.
 
5 दिसंबर, 1920 में पटना में मौलाना मजहरुलहक के आवास पर गांधीजी की उनकी पहली मुलाकात ने उनके जीवन को बदल दिया और वह मौलाना आजाद एवं गांधीजी के व्याख्यानों से प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल हो गये. स्वामी जी वहीं से नागपुर कांग्रेस में चले गये और वहां से लौट कर 1921 में बक्सर चले गये. उस समय जब कांग्रेस ने कौंसिलों के बायकाट का निश्चय किया, तो हथुवा के महाराज कौंसिल के लिए खड़े हुए. कांग्रेस के लोगों ने एक अनपढ़ धोबी को उनके खिलाफ खड़ा किया, स्वामी जी ने सभा में कहा ‘राजा महाराजा से हमारा धोबी बहुत अच्छा है.’ धोबी हथुवा महाराज को हरा कर चुनाव जीत गया.
 
सामंतों एवं जमींदारों के अत्याचार को भीतर से देख कर स्वामी जी अंदर से इस सामंतवाद के खिलाफ होने लगे. उन्हें लगने लगा कि मुठ्ठी भर जमींदारों, राजा-महाराजों के अलावा पूरी जनता भूमिहीन किसान है और इन दोनों के हित एक-दूसरे के खिलाफ हैं.
 
उन्होंने 1927 में पश्चिम पटना किसान सभा बनायी. उनका विश्वास था किसानों के मजबूत हुए बिना जमींदार उनका सहयोग नहीं करेंगे. 1929 आते-आते स्वामी जी का कद काफी बढ़ा. 17 नवंबर, 1929 को प्रांतीय किसान सभा हुई, जिसके सभापति स्वामी जी थे. इस सभा में मंत्री बाबू कृष्ण सिंह, बाबू राजेंद्र प्रसाद, बाबू ब्रिज किशोर प्रसाद, बाबू रामदयालु सिंह, बाबू अनुग्रहनारायण सिंह आदि कांग्रेस के प्रमुख नेता थे.
 
अप्रैल,1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और स्वामी जी को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया. एमजी रंगा, इएमएस नंबूदरीपाद,पंडित कार्यानंद शर्मा,पंडित यमुना कार्यजी, आचार्य नरेंद्र देव,राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया,जेपी नारायण,पंडित यदुनंदन शर्मा,पीसुंदरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े. सभा ने उसी साल किसान घोषणापत्र जारी कर जमींदारी प्रथा के समग्र उन्मूलन और किसानों के सभी कर्ज माफ करने की मांग उठायी. अक्तूबर 1937 में सभा ने लाल झंडा को संगठन का निशान घोषित किया.
 
इस दौरान स्वामी जी के नेतृत्व में किसान रैलियों में जुटनेवाली भीड़ कांग्रेस की सभाओं में आनेवाली भीड़ से कई गुना ज्यादा होती लगी. संगठन की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसकी सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी, जो 1938 में बढ़ कर दो लाख पचास हजार हो गयी. शायद इसीलिए इसके नेताओं की कांग्रेस से दूरियां बढ़ गयी. किसान आंदोलन के संचालन के लिए पटना के समीप बिहटा में उन्होंने आश्रम स्थापित किया.
 
किसान को अधिकार दिलाने और उन्हें संगठित करने के लिए आजीवन सक्रिय रहे स्वामी सहजानंद ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कई रैलियां की. सीपीआइ भी स्वामीजी को अपना आदर्श मानती रही. आजादी की लड़ाई के दौरान जब उनकी गिरफ्तारी हुई, तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया.
 
स्वामी सहजानंद संघर्ष के साथ हीं सृजन के भी प्रतीक पुरुष थे. उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकों की रचना की. सामाजिक व्यवस्था पर जहां उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति जैसी पुस्तकें हिंदी में लिखी, वहीं ब्रह्मर्षि वंश विस्तर और कर्मकलाप नामक दो ग्रंथों का प्रणयन संस्कृत और हिंदी में किया. उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष के नाम से प्रकाशित है.
 
आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन के संघर्षो की दास्तान उनकी- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी जैसी पुस्तकें लिख कर अपने अनुभव साझा किये.
 
स्वामी जी आध्यात्मिकता के भी प्रतीक पुरुष थे. वह किसानों के रहनुमा के साथ संन्यासी के रूप में भी प्रसिद्ध रहे. पढ़ाई के दौरान ही कम उम्र में आध्यात्म उन्हें आकर्षित करने लगा. जिसको देखते हुए परिजनों ने उनकी शादी करा दी. 
 
परंतु पत्नी की मृत्यु के एक साल बाद ही काशी चले गये. शंकराचार्य जी की परंपरा के अनुसार दंडी स्वामी अद्वैतानंद जी से दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बन गये. भारत भर तीर्थो के भ्रमण कर पुन: काशी पहुंच कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने.
जीवनभर किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी सहजानंद सरस्वती26जून, 1950को महाप्रयाण कर गये.
 
लेकिन उससे पहले स्वामी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जिसका हक छीना जाये या छिन गया हो, उसे तैयार करके उसका हक उसे वापस दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी की लड़ाई और असली समाजसेवा का रहस्य है. लेकिन आज इस दौर में किसानों की जो दुर्दशा है, वह किसी से छिपी नहीं है, चाहे वह प्रकृति हो या सरकार. उसका शोषण पहले की तरह जारी है. कहने को तो यह देश किसानों का है और देश की एक बड़ी आबादी की जीविका का आधार भी खेती है.
 
लेकिन दु:खद है कि आज तक किसानों को देश की सियासत में वह भागीदारी नहीं मिली है, जिसके वे हकदार हैं. आज कृषि और किसान हित दोनों ही राजनीतिक एजेंडे से बाहर हैं. किसानों के नेतृत्व के मुद्दे पर केवल देश में राजनीति और वोट लेने के बाद हशिये पर धकेल देने की परंपरा जारी है.
 
कभी सेज तो अब भूमि अधिग्रहण बिल लाकर किसानों को कमजोर करने और उनको खेती छोड़ने पर मजबूर करने का खेल चल रहा है. इसलिए किसान आत्महत्या करने को मजबूर है. आज यदि स्वामी जी होते, तो फिर लट्ठ उठा कर हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर देते. लेकिन दुर्भाग्य से किसान सभा भी है. उनके नाम पर अनेक संघ और संगठन सक्रिय हैं, लेकिन स्वामी जी जैसा निर्भीक नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता.

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