संजय को मैं किशोर उम्र से जानता हूं। दिल्ली में मेरे साथ भी रहा लेकिन कभी उसे जात-पात करते नहीं देखा । खुली सोच वाला और ईमानदारी से काम करने वाला संजय पटना आकर वकालत करने लगा है। अलग-अलग मुद्दों पर उसकी अपनी राय होती है और अगर उसे धक्का न दिया जाए तो अपनी राय बदलने के लिए तैयार भी रहता है। हर बार संजय की राय ही होती है न कि संजय की जाति की।
बिहार चुनाव को लेकर संजय की चिन्ता इतनी है कि कहीं फिर से नब्बे के दशक की तरह रंगदारी शुरू न हो जाए। दुकानें बंद होने लगें और पटना से फिर बाहर न जाना पड़े। संजय की यह राय कई लोगों से मेल खाती है और इसका अपना आधार भी है। संजय को यह आशंका लालू यादव के उस दौर को लेकर है। मैंने जैसे ही यह बात किसी से कही कि ऐसी चिन्ताओं का भी सम्मान किया जाना चाहिए उसने तुरंत जवाब दिया कि भूमिहार है क्या ? हां है लेकिन मैं मान नहीं सकता कि उसकी यह राय जाति के कारण है। लेकिन जिनसे यह बात कही वे मानने के लिए तैयार नहीं थे।
पटना में ही एक मित्र के साथ रिक्शे से जा रहा था। मेरे पूछने पर कहने लगा कि बीजेपी के पास चुनाव लड़ने के लिए इतना पैसा कहां से आ गया। उसका कुछ पैसा हम गरीब लोगों को ही दे देता। प्रधानमंत्री को इतनी रैली करने की क्या जरूरत है। देश कौन चलाएगा। चुनाव जीतना है जीतो लेकिन हिन्दू-मुस्लिम क्यों कराते हो। रिक्शावाला अपनी बात कह ही रहा था तभी मेरे मित्र ने टोक दिया कि आप यादव हैं क्या? उसका जवाब आया जी न मालिक, हम गरीब हैं और दूसर जात है।
संजय और रिक्शेवाले की चिन्ता अपनी अपनी जगह पर जायज़ है। मेरे लिए संजय कभी भूमिहार रहा ही नहीं लेकिन आज उसे भूमिहार कहा जा रहा है। उसकी जाति ही उसकी राय है। उसी तरह रिक्शेवाले को यादव जाति का बना दिया जाता है। इस बात के बावजूद कि संजय की चिन्ता किसी रिक्शेवाले की भी हो सकती है और किसी रिक्शेवाले का सवाल संजय का भी हो सकता है। लेकिन बिहार चुनाव ने हर राय को जाति में बांट दिया है। जो नहीं बंटा है उसे भी बंटा हुआ मान लिया गया है। बिहार चुनाव में राजनीतिक दलों, मीडिया और चर्चाकारों ने भूमिहार और यादव जाति का एक दानवी चित्रण किया है। मुसलमान से तो कोई पूछ भी नहीं रहा। किसी समाजशास्त्री का इन दो जातियों की चुनावी छवि का विश्लेषण करना चाहिए। सब मान कर चल रहे हैं कि वे किसे वोट देंगे जबकि महागठबंधन, हम और लोजपा से कई मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में हैं। इसमें दोनों राजनीतिक पक्षों ने भूमिका निभाई है, इसलिए यही दोषी हैं। क्या ऐसा कभी हो सकता है कि सारे भूमिहार एक जैसे सोचते हों या सारे यादव एक जैसे। लोकसभा चुनाव में तो यह एक जैसे नहीं सोच रहे थे फिर विधानसभा चुनावों में कैसे सोचने लगे? डेढ़ साल पहले क्या वे अपनी जाति भूल गए थे। बिहार चुनाव ने बेहद खतरनाक काम किया है। बीजेपी की रणनीति यादवों को तोड़ने की रही तो राजद की रणनीति भूमिहारों को टारगेट कर यादवों या पिछड़ों को एकजुट करने की रही। पूरे चुनाव के कवरेज में इन्हीं दो खांचों को मजबूत किया जाता रहा। क्या सारे यादव दुकान लूटने वाले होते हैं ? क्या सारे भूमिहार दबंग होते हैं ? क्या सारे भूमिहार रणवीर सेना में शामिल थे या सारे यादव साधु यादव हो गए थे ? सामंती और जातिगत शोषण सच्चाई है लेकिन उनके लिए क्या कोई जगह बची है जो अपनी जात-बिरादरी के भीतर इस सोच से लड़ रहे हैं ? क्या उनकी राय को जाति से जोड़कर हम फिर से उन्हें जाति के खांचे में धकेल नहीं रहे। हमारे राजनीतिक दलों में गजब की क्षमता है। कभी वे सबको हिन्दू-मुसलमान खेमे में गोलबंद कर देते हैं तो कभी अलग-अलग जातियों को बांट देते हैं। बिहार चुनाव ने पूरे जनमत को जाति के फ्रेम में कैद कर दिया है। यादव कहीं नहीं जाएगा, कुशवाहा आधा-आधा हो गया, राजपूत उधर होगा तो भूमिहार इधर ही होगा। यह एक दुखद चुनाव है। जहां हर मत का अपना एक अलग जात है। चश्मे का पावर फिक्स है। इसी आधार पर हार-जीत का विश्लेषण होता रहता है। यह चुनाव चर्चाकारों के लिए जात-पात चुनाव का चुनाव है। जात-पात से आगे किसी ने संजय और उस रिक्शेवाले से बात ही नहीं की।
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