आज से लगभग 60 साल पहले मैं पटना कॉलेज का छात्र था। पढ़ाई में अच्छा होने के साथ-साथ मैं कॉलेज की दूसरी गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेता था। धीरे-धीरे मैं एक जाना-माना डिबेटर बन गया। उस जमाने में छात्रों के लिए डिबेटिंग सोसायटी का सबसे बड़ा पद उपाध्यक्ष का होता था। इसके लिए चुनाव होता था। यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता था। कुछ मित्रों के कहने पर मैं उस पद के लिए खड़ा हो गया। कुछ कारणों से पूरे कॉलेज में मुझसे अच्छा उम्मीदवार कोई दूसरा नहीं था। किंतु कुछ ऐसा हुआ कि अचानक एक दिन हमारा ही एक सहपाठी उस पद के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा कर चुनाव के मैदान में कूद पड़ा।
बिहार में उस समय जात-पात की राजनीति चरम पर थी। पिछड़ी जातियां उस समय तक आगे नहीं आ पाई थीं और वर्चस्व की लड़ाई मुख्य रूप से राजपूतों और भूमिहारों के बीच होती थी। राज्य की राजनीति में दोनों के अपने-अपने पोप थे। राज्य की राजनीति का सीधा असर विश्वविद्यालय की राजनीति पर भी पड़ता था। मेरे खिलाफ जो प्रतिद्वंद्वी खड़े थे, वे इन्हीं दो जातियों में से एक के थे। उनके खड़े होते ही चुनाव का परिदृश्य बदल गया। चुनावी गणित कुछ ऐसा हो गया कि मेरे जीतने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गईं। मैंने तय किया कि मैं अपनी उम्मीदवारी वापस ले लूंगा। जब दूसरी जाति के लोगों को यह पता चला कि मैं अपनी उम्मीदवारी वापस ले रहा हूं तो वेे दल-बल के साथ मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि उनकी पूरी जाति का समस्त समर्थन मुझे मिलेगा, मैं चुनाव जीतूंगा और इसलिए उम्मीदवारी वापस लेने का प्रश्न ही नहीं पैदा होना चाहिए। उनकी बात को मानने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। मैं मुकाबले में बना रहा, चुनाव हुआ और मैं अप्रत्याशित रूप से भारी बहुमत के साथ उपाध्यक्ष पद के लिए चुना गया। पासा पलट गया था।
अभी हाल में बिहार विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए हैं। नतीजे अप्रत्याशित थे। किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि जद-यू और राजद के नेतृत्व में बने महागठबंधन को इतना विशाल बहुमत मिलेगा और भाजपा के गठबंधन को इतनी कम सीटें, लेकिन ऐसा ही हुआ है। भारतीय जनता पार्टी के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया है। किसी भी चुनाव के नतीजे अप्रत्यााशित लग सकते हैं, लेकिन उसके वाजिब कारण भी होते हैं।
प्रारंभिक विश्लेषणों के बाद भाजपा इस नतीजे पर पहुंची है कि जातीय गणित को हम ठीक ढंग से समझ नहीं पाए और इसलिए हम चुनाव हार गए। पहले हमारा दावा था कि जातीय गणित के ऊपर हमारी केमिस्ट्री भारी पड़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। बिहार के लिए जो 60 साल पहले सच था वही आज भी सच निकला। इस देश का हर प्रदेश दूसरे से अलग है, अनूठा है। यही विविधता तो हमारी खासियत भी है और चुनौती भी। इस भिन्नता को वही लोग समझ सकते हैं जो वहां की मिट्टी में पैदा हुए, पले और बड़े हुए। स्थानीयता का यह तत्व चुनाव में बहुत महत्वपूर्ण होता है। बाहर से जाकर किसी भी प्रदेश के रहस्य को आसानी से समझ लेना संभव नहीं है। इसे एक अन्य उदाहरण से समझा जा सकता है। यह मेरा अपना अनुभव है। 2004 के लोकसभा चुनाव के समय मैं देश का विदेश मंत्री था। बड़े-बड़े नेता और फिल्मी हस्तियां मेरे लिए प्रचार करने के लिए आईं फिर भी मैं काफी मतों के अंतर से उस चुनाव में हार गया। 2009 के लोकसभा चुनाव में मैं फिर वहीं से उम्मीदवार बना। मैंने तय किया कि मैं किसी नेता या फिल्मी हस्ती को प्रचार के लिए आमंत्रित नहीं करूंगा। प्रदेश के पदाधिकारियों को मैंने सूचित कर दिया कि मेरे क्षेत्र के लिए वे किसी बाहरी नेता का कार्यक्रम नहीं बनाएं। अतः नेताओं की भीड़ मेरे यहां प्रचार के लिए नहीं आई। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने स्वयं अपना कार्यक्रम तय किया और मैंने दो स्थानों पर उनकी सभा कराई। शत्रुघ्न सिन्हा परिवार के सदस्य जैसे हैं, इसलिए उनकी तीन-चार सभाएं हुईं। इसके अलावा बाहर से और कोई नहीं आया। न राष्ट्रीय नेता और न अन्य क्षेत्र की कोई और हस्ती। यह किसी को जोखिम लग सकता है, लेकिन मैं चुनाव जीत गया।
हर चुनाव का एक गणित होता है, फिर वह चुनाव छात्रसंघ का चुनाव ही क्यों न हो। इस गणित को बिना अपने पक्ष में किए चुनाव जीतना संभव नहीं होता है। गणित को अपने पक्ष में करने के लिए अपने समर्थकों को साथ रखना तो आवश्यक है ही, विरोधियों के कैंप में सेंधमारी करना भी उतना ही आवश्यक होता है। यदि भाजपा के पास 35 से 40 प्रतिशत तक अपना वोट है तो सीधी लड़ाई में भाजपा बराबर हारेगी। उसकी जीत के लिए त्रिकोणीय या बहुकोणीय संघर्ष आवश्यक है। बिहार में शायद ऐसा प्रयास किया भी गया तथा कुछ लोगों को आगे किया गया ताकि वे महागठबंधन के कुछ वोट काटें। पर जिन लोगों को आगे किया गया था वे उपयुक्त पात्र साबित नहीं हुए और मतदाताओं के ऊपर कोई छाप नहीं छोड़ पाए। इन लोगों का चयन भी बहुत महत्वपूर्ण निर्णय होता है। हमारे सहयोगी भी अपना वोट बैंक भाजपा को स्थानांतरित करने में कामयाब नहीं हो सके। जाहिर है हमारे चुनावी साथियों का अपेक्षित लाभ हमें नहीं मिल सका।
बिहार की हार से हमारे सामने कई प्रश्न पैदा होते हैं। ये प्रश्न किसी भी चुनाव के पहले पूछे जा सकते हैं। प्रश्न इस प्रकार हैं : चुनाव में गणित हावी होगा या केमिस्ट्री? राज्य तथा स्थानीय स्तर पर चुनाव का प्रबंधन स्थानीय लोगों के हाथ में होना चाहिए या बाहरी लोगों के हाथ में? क्या चुनाव में स्थानीय मुद्दे तथा स्थानीय नेतृत्व को आगे रखकर लड़ना बेहतर नहीं होगा? पार्टी के सर्वोच्च नेता का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए या ओवर एक्सपोजर? क्या राज्यों के चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को आगे कर के लड़ना अधिक लाभदायक होगा या इस प्रश्न को गौण रखना? क्या राज्यों के चुनाव को राज्यों तक ही सीमित रखना चाहिए अथवा उसे अनावश्यक रूप से अखिल भारतीय महत्व देना चाहिए? क्या हेलिकॉप्टर का कम से कम इस्तेमाल नहीं होना चाहिए और नेताओं को ज्यादा सड़क मार्ग से नहीं चलना चाहिए ताकि जनता से रू-ब-रू होने का लाभ मिल सके?
और अंत में, क्या यह धारणा पैदा होने देनी चाहिए कि खज़ाना खुला है और अनाप-शनाप खर्च पर कोई रोक नहीं है? क्या धन के ऐसे उपयोग से अलग तरह का संदेश नहीं जाता? हम सब चुनाव लड़ते हैं, लेकिन न हार में न जीत में, समीक्षा कभी नहीं करते।
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