रात को सोने के पहले घंटे भर पढ़ने की आदत है । सोमवार को दफ्तर से चलते-चलते मित्र पत्रकार वीरेन्द्र यादव ने पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ दे दी । रिजर्वेशन की जोरदार वकालत करती है पत्रिका । पढ़ने के दौरान प्रकाशित लेख ‘आरक्षण की समीक्षा : किसने की पहल ? में खो गया । इसे दक्षिणपंथ के प्रतिनिधि पत्रकार आशीष कुमार ‘अंशु’ ने लिखा है ।
आलेख में कई राजनैतिक पहलू हैं । हम इनकी चर्चा नहीं करेंगे । पर हमारा ध्यान वहां जाकर अटक गया,जहां कहा गया है कि बिहार की सवर्ण जातियों में सर्वाधिक संपन्न भूमिहार हैं । इसे हम जानते भी हैं । पर इसके साथ ही तथ्य यह भी है कि सबसे अधिक कर्ज भी भूमिहारों पर ही हैं । अंशु के आलेख को पढ़ने के पहले हम सवर्ण जाति में सर्वाधिक गरीब ब्राह्मण को ही मानते थे । अब भी संभव है,पर अंशु की रिपोर्ट के मुताबिक तो ब्राह्मण कर्जदार श्रेणी में भूमिहार से नीचे ही आयेंगे ।
आलेख में प्रकाशित तथ्यों का आधार बिहार के सवर्ण आयोग का अध्ययन है । इसके मुताबिक बिहार के भूमिहार परिवारों पर 1.03 लाख रुपयों का औसत कर्ज है । अध्ययन काफी पहले का है,सो संभव है कि कर्ज का औसत और बढ़ गया हो । बावजूद इसके ब्राह्मण और राजपूत की तुलना में भूमिहार और कायस्थ जाति के पास अधिक पैसे हैं । मुसलमानों में सैयद अपने समूह की अन्य जातियों से अधिक संपन्न हैं । आगे सिर्फ भूमिहारों के बारे में नहीं,सभी हिन्दू-मुस्लिम सवर्णों में बिकती हुई जमीन और पिछड़ते हुए समाज का चित्रण भी अध्ययन में किया गया है ।
जानकारी को अध्ययन कहता है कि गांव में 35.3 प्रतिशत सवर्ण हिन्दू कर्ज में डूबे हुए पाए गए । अशराफ (सवर्ण) मुसलमानों में यह प्रतिशत सवर्ण हिन्दू की तुलना में कम 26.5 प्रतिशत है । पढ़ाई के मामले में अध्ययन कहता है कि कायस्थ,भूमिहार और सैयद अपने समूह की जातियों में बच्चों की स्टडी पर अध्रिक पैसे खर्च करते हैं । अध्ययन की यह जानकारी दिलचस्प किंतु कुछ उलझाने वाली है कि गांवों में जहां सवर्णों की सरकारी अस्पताल पर निर्भरता न के बराबर है,वहीं शहरों में यह निर्भरता अधिक है ।
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