Saturday, 21 May 2016

प्रसिद्ध लेखक, समाजवादी विचारक और चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा

प्रसिद्ध लेखक, समाजवादी विचारक और चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा बिहार के एक राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखते हैं. सिन्हा छोटी उम्र से ही समाज को लेकर अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सचेत थे. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय नवीं कक्षा में पढ़ाई करने के दौरान ही वे उसका हिस्सा बन चुके थे. उन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लिया और राम मनोहर लोहिया के साथ भी काम किया, फिर जेपी आंदोलन का भी हिस्सा रहे. कुछ समय उन्होंने मुंबई में एक खलासी के रूप में भी काम किया. पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाले सिन्हा ने विभिन्न विषयों पर कई किताबें और अनेक लेख लिखे हैं. बिहार पर केंद्रित, केंद्र और राज्य संबंधों पर लिखी हुई इनकी किताब ‘द इंटरनल कॉलोनी : ए स्टडी इन रीजनल एक्सप्लॉयटेशन’ काफी चर्चित रही. वहीं कृषि और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को उन्होंने ‘द बिटर हार्वेस्ट: एग्रीकल्चर ऐंड इकोनॉमिक क्राइसिस’ में दर्ज किया. ‘सोशलिज्म ऐंड पावर’ लिखने के बाद उन्हें एक राजनीतिक विचारक के रूप में भी पहचान मिली. आपातकाल के समय सिन्हा दिल्ली में ही थे. आपातकाल को एक आम नागरिक की स्वतंत्रता पर हमला मानने वाले सिन्हा ने उन अनुभवों को ‘इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव : रिप्रीव ऐंड चैलेंज’ नाम की किताब की शक्ल दी. सिन्हा अहिंसा में विश्वास करते हैं और गांधी जी का यह प्रभाव उनकी किताब ‘द अनआर्म्ड प्रोफेट’ में दिखता है.88 साल की उम्र में मुजफ्फरपुर (बिहार) के मणिका गांव में एक साधारण जिंदगी गुजार रहे सच्चिदानंद सिन्हा से बातचीत. देश में इन दिनों राष्ट्रवाद का हो-हल्ला कुछ ज्यादा ही मचा हुआ है. आपने इस बारे में सुना और पढ़ा ही होगा लेकिन इस विषय पर कुछ कहा नहीं. क्या सोचते हैं आप?
इस विषय को अगर प्रचलित तौर-तरीकों से समझने की कोशिश करेंगे तो पता चलेगा कि यह शब्द ‘फलां’ के आ जाने से उछला और बढ़ा है. हालांकि मैं इसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखता हूं. यह कोई नई बात नहीं है. 18वीं सदी में इंग्लैंड में जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई, तब यह शब्द उछला था. यूरोप में पांचवीं-छठी सदी में फॉल्करवॉन्डरुंग (लोगों का पलायन) नाम का आदिवासी आंदोलन हुआ था, जिसके बाद सभी आदिवासी बिखर गए थे. राज्यों की तरह अलग-अलग रहने लगे थे. इसका असर यूरोप में था. यही कारण था कि यूरोप में पहले कोई भी राजा, कहीं का राजा बन सकता था. फ्रांस का राजा किसी दूसरे देश का भी राजा बन सकता था. लेकिन 18वीं सदी में जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई तो राष्ट्रवाद जैसी अवधारणा सामने आई. इसका मकसद कर आदि से बचाना था. नतीजा यह हुआ था कि स्कॉटलैंड, उरुग्वे, इंग्लैंड जैसे कई देश आपस में मिलकर ग्रेट ब्रिटेन बन गए थे. लेकिन जिस ब्रिटेन से इस राष्ट्रवाद की बात चली थी वहां हाल और हालात बदल चुके हैं. अब तो स्कॉटलैंड में एक स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी है, जो इसी आधार पर चुनाव लड़ती है कि वह चुनाव जीती और उसकी सरकार आई तो वह स्कॉटलैंड को एक अलग देश बनाएगी और लोग उसका समर्थन भी करते हैं. ये बातें तो आपने वैश्विक परिवेश में कहीं लेकिन भारत में अचानक यह शब्द उफान मारने लगा है और इसका रूप-स्वरूप अलग है. इस पर क्या कहेंगे?
सतही तौर पर देखेंगे तो इसके केंद्र में मोदी दिखेंगे, भाजपा दिखेगी, राजनीति दिखेगी लेकिन ये परिधि भर हैं. केंद्र कुछ और है. ये सब तो हथियार और औजार भर हैं. राष्ट्रवाद की जरूरत हमेशा से पूंजीवादियों को रही है. उन्हें एक राष्ट्र ज्यादा सूट करता है. इसकी वजह भी है. अब एक इंडस्ट्री लगाने के लिए कोयला एक राज्य से चाहिए, बिजली का कारखाना किसी दूसरे राज्य में लगता है, लौह अयस्क कहीं और से चाहिए और कुछ दूसरी चीजें किसी अन्य राज्य से. इसके लिए जंगल उजाड़ने होते हैं, नदियों को खत्म करना होता है, आदिवासियों के गांव उजाड़ने होते हैं. यह सब अलग-अलग खंड में बंटे इलाके में इतनी आसानी से तो होगा नहीं, इसलिए एक राष्ट्र और उसमें व्याप्त राष्ट्रवादी धारणा उनके लिए फायदेमंद होती है. छत्तीसगढ़ का उदाहरण लीजिए. अब वहां बार-बार कहा जाता है कि माओवादी हैं, इसलिए आसानी से सेना को उतार दिया जाता है. छत्तीसगढ़ का राष्ट्र का हिस्सा होने का यह फायदा है कि वहां प्राकृतिक संसाधनों को लेना है तो राष्ट्र की धारणा का इस्तेमाल कर सेना उतारिए, अपना काम कीजिए. इसलिए मैं कह रहा हूं कि राजनीति वगैरह सिर्फ औजार भर होते हैं. पूंजीवाद को अनंत विस्तार चाहिए और जल्दी भी चाहिए, इसलिए इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.
आप प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का हमेशा विरोध करते हैं. एक बड़ा वर्ग सवाल उठाता है कि प्राकृतिक संसाधन का इस्तेमाल नहीं होगा तो तरक्की कैसे होगी, जीवन कैसे चलेगा?
पहली बात तो ये है कि मैं प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का विरोधी नहीं, मैं उसके दोहन का विरोध करता हूं. रही बात तरक्की की तो कैसी तरक्की? क्या ऐसी तरक्की कि कुछ सालों बाद दुनिया ही न बचे? आप खुद सोचिए. ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. जब दुनिया में आबादी लगातार बढ़ रही है और धरती के अंदर जो प्राकृतिक संसाधन हैं या कि धरती की सतह पर जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधन हैं, वे बढ़ नहीं रहे तो कोई भी क्या कहेगा? यही न कि इनका इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए ताकि यह दुनिया लंबे समय तक चले. लेकिन हो तो उलटा रहा है. आबादी बढ़ने के साथ साधनों की भूख बढ़ती जा रही है और इसलिए संसाधनों का दोहन भी बढ़ता जा रहा है. सीधी-सी तो बात है. अब अगर एक आदमी को अथाह संपदा चाहिए, कई मकान चाहिए, कई गाड़ियां चाहिए तो उसके लिए यह संसाधन तो बस सीमित समय के लिए ही है. बाकी अगर मैं गलत कहता हूं तो मान लीजिए, गलत कहता हूं. आपने राष्ट्रवाद पर बातें कहीं. उभार तो क्षेत्रवाद का भी इन दिनों तेजी से हुआ है और कहा जा रहा है कि इस देश में ही कई देश बनते जा रहे हैं.
क्षेत्रवाद तो स्वाभाविक है. राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की बात आरोपित है.
लेकिन एक समय तो ऐसा था जब गांधी जैसे लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान चला रहे थे तो उसके केंद्र में भी यही था कि इससे भारत एक देश जैसा बनेगा. या कि एक समय में विवेकानंद जब धर्म की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे तो कहते थे कि धर्म लोगों को जोड़ता है, भारत एक राष्ट्र बनता है इससे.
देखिए, चीजें समय-संदर्भ के हिसाब से देखी जाती हैं. जब अंग्रेज आए थे तो हमारी लड़ाई उनसे थी. उस समय कई तंत्र ऐसे विकसित किए जा रहे थे, जिसके जरिए अंग्रेजों से लड़ा जा सके. अच्छा आप एक उदाहरण देखिए, चीजें शायद स्पष्ट होंगी. भारत में मुगलों की सत्ता खत्म हो चुकी थी. मुगलिया साम्राज्य सिर्फ दिल्ली तक सिमटकर रह गया था. उस समय मुगलों से सारे लोग लड़ रहे थे लेकिन जब 1857 की लड़ाई हुई तो मुगलों से लड़ने वाले राजाओं, जमींदारों आदि ने भी सर्वसम्मति से मिलकर उसी मुगल साम्राज्य के बहादुरशाह जफर को भारत का शासक बना दिया. ऐसा इसलिए कि उस समय स्थिति अलग थी. अंग्रेजों से लड़ने के लिए भारत को एक सूत्र में बांधना जरूरी था.
आपने राष्ट्रवाद को पूंजीवाद से जोड़ा लेकिन इन दिनों तो ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ कहने पर भी जोर दिया जा रहा है और जो नहीं कह रहा उसे देशद्रोही बताया जा रहा है.
कुछ मूर्ख भाजपाई और कुछ संघी हैं, यह सब उनकी बात है. नासमझ हैं तो क्या कीजिएगा. मुसलमान ‘भारत माता की जय’ कह देंगे या ‘वंदे मातरम’ कहने लगेंगे तो इससे भाजपा को क्या फायदा होगा, यह समझ से परे की बात है. ऐसी बातें जो कहते हैं उन्हें मुसलमानों की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए. उस धर्म में बुतपरस्ती की पाबंदी है तो इस भावना का ख्याल करना चाहिए. लेकिन क्या कीजिएगा. आरएसएस जैसे संगठन का तो उदभव ही धर्म विशेष के विरोध में हुआ था इसलिए उनके लोग दूसरे धर्म वाले को उकसाने के लिए ऐसा कहते रहते हैं. हम तो 88 की उम्र में पहुंच गए हैं, इसलिए थोड़ा अनुभव है. हमने आजादी की लड़ाई देखी है. अब आज राष्ट्र की चिंता आरएसएस के लोग इतना करते हैं तो उन्हें बताना चाहिए कि जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तो उसमें उसने क्या भूमिका निभाई थी. मैंने तो कहीं नहीं देखा था. दरअसल आरएसएस तो मुस्लिम लीग के पूरक संगठन की तरह रहा. मुस्लिम लीग वाले कहते थे कि हिंदू के साथ हम कैसे रहेंगे, अलग देश दे दीजिए तो वही आरएसएस वाले कहने लगे कि मुस्लिम इस देश में कैसे रहेंगे, यह तो हिंदुओं का देश है हाल ही में आरएसएस के एक बड़े पदाधिकारी का बयान आया कि राष्ट्रीय झंडा तो तिरंगा है ही लेकिन भगवा झंडे को भी राष्ट्रीय झंडे की तरह मान सकते हैं.
चलिए, अब यह तो कम से कम कहने लगे कि तिरंगा राष्ट्रीय झंडा है. यह कहने में या मानने में भी तो उन्हें इतने साल लग गए.
देश में एक शोर यह भी चल रहा है कि मोदी के आने के बाद खतरे बढ़ गए हैं. असहिष्णुता बढ़ गई है. धर्मांधता बढ़ गई है. आप क्या मानते हैं? क्या वाकई में मोदी के आ जाने के बाद देश अचानक इस कदर असुरक्षित हो गया है?
अभी हाल में असहिष्णुता वाला जो मसला उठा था, उसका संदर्भ दूसरा था. देश में कई लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की हत्या होने लगी थी. ऐसे लोगों की हत्या हो रही थी जो धर्म की संकीर्णता के खिलाफ आवाज उठा रहे थे लेकिन वे किसी एक धर्म का विरोध तो कर नहीं रहे थे. मैं एक बात कहूं. असल में मोदी के साथ जो कुनबा है और उनका जो अतीत रहा है, उससे लोगों को डर लगता है. अब देखिए, मोहन भागवत आए तो कहने लगे कि आरक्षण पर ही पुनर्विचार होना चाहिए. उनके कुनबे में और भी कई लोग हैं, जिनसे लोग डरते हैं. लेकिन असहिष्णुता या अराजकता वाली जो स्थिति है, वह एकबारगी से मोदी के आ जाने से ही देश में आ गई है, ऐसी बात नहीं. यह तो वर्षों से दुनिया में फैली है. अब बताइए जर्मनी दार्शनिकों का ही देश रहा और उससे ज्यादा असहिष्णु देश कौन हो सकता है, जहां हिटलर के समय में हजारों कत्ल हुए. दुनिया के और भी देशों में असहिष्णुता इसी तरह देखी जाती रही है.
आरक्षण पर आप क्या सोचते हैं? इसमें किसी बदलाव की जरूरत है?
आरक्षण तो अस्थायी व्यवस्था है. इसमें अभी बदलाव क्यों चाहिए? लोहिया कहते थे कि तीन चीजें चाहिए ताकि जो वंचित हैं उनका आत्मबल बढ़ सके. एक- सहभोज, दूसरा आरक्षण और तीसरा अंतरजातीय विवाह. आरक्षण न होता तो जो आज थोड़े-बहुत दलित या वंचित जाति के लोग कुछ अच्छी जगहों पर दिख रहे हैं, वे दिखते क्या? या किसी दलित या वंचित का बेटा बड़े संस्थानों में पढ़ने जाता क्या? नहीं. पीढ़ियों से जिस समाज का आत्मबल ही मरा रहा है, आकांक्षाओं को मारा जाता रहा है, उसे विशेष अवसर तो चाहिए ही ताकि उसमें आकांक्षा तो जगे, आत्मबल तो जगे. किसी एक जाति अथवा समूह का कोई एक आदमी जब किसी अच्छे पद पर जाता है तो उस जाति अथवा समाज के लोगों का आत्मबल बढ़ता है. उसमें भी आगे बढ़ने की आकांक्षा जगती है. इसलिए आरक्षण अभी तो चाहिए ही.
मोदी शासन के तकरीबन दो साल हो गए. मनमोहन सिंह भी दस साल रहे थे. आप आर्थिक-सामाजिक स्तर पर होने वाले बदलाव पर बारीक नजर रखते हैं. दोनों में क्या फर्क है?
दोनों की तमाम नीतियां एक हैं. बस एक ही फर्क है कि मनमोहन सिंह बोलते नहीं थे लेकिन काम वही करते थे जो आज मोदी कर रहे हैं. मोदी चूंकि प्रचारक रहे हैं इसलिए अपने कामों का आक्रामक तरीके से प्रचार करते हैं. मेक इन इंडिया का मोदी इतना शोर मचा रहे हैं. यही काम तो मनमोहन सिंह भी कर रहे थे. दुनिया भर से उद्योगपतियों को भारत बुलाकर निवेश करने को कह रहे थे लेकिन वे बता नहीं रहे थे. मोदी उसे बता रहे हैं. स्टाइल का फर्क है, बाकी कुछ नहीं. वैसे गहराई से देखें तो कांग्रेस और भाजपा में ही कोई फर्क नहीं है. बस दोनों के स्टाइल में ही फर्क है. कांग्रेस भाजपा के कम्युनल कार्ड का विरोध करती है तो भाजपा वाले भी कांग्रेस के शासन में हुए कार्यों का विरोध करते हैं. अब भाजपाई तो कम्युनल आधार पर भी कांग्रेस को घेर रहे हैं. सिख दंगों की फाइल उसी लिए तो खुली है. दोनों एक से ही हैं. कांग्रेस-भाजपा एक जैसे ही हैं. समाजवादियों को देखा ही जा रहा है. वामपंथियों से एक उम्मीद बचती है कि वे शायद आधारभूत सवालों को सुलझाएं. आप क्या सोचते हैं?
आप वामपंथियों से किसी बदलाव की उम्मीद करते हैं और ऐसा सवाल पूछ रहे हैं तो यह सवाल ही निरर्थक है. इस उम्मीद के साथ रहना ही बेमानी है. दुनिया में वामपंथियों के दो मॉडल रूस और चीन में हैं, दोनों का हाल देख लीजिए. रूस घोर तानाशाही का शिकार हुआ. चीन घनघोर पूंजीवादी राष्ट्र बन गया. कम्युनिस्ट तो राजनीतिक तौर पर दुनिया में खत्म हो रहे हैं, फिर उनसे क्यों उम्मीद कर रहे हैं. वे दुनिया में राजनीतिक तौर पर खत्म होंगे भी. उन्होंने मार्क्स के सिद्धांत को ही इकलौते सूत्र के रूप में आत्मसात कर लिया है और उसी से दुनिया में बदलाव चाहते हैं. ऐसा होगा क्या? मार्क्स तो यूरोप में रहते थे. यूरोप से बाहर गए नहीं. उन्होंने यूरोप में औद्योगिक क्रांति के समय फैक्टरियों की लड़ाई देखी. कहा कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, पूंजीपति हार जाएंगे. अब पूंजीपति सिर्फ मजदूरों पर जुल्म तो करते नहीं. वे गांव उजाड़ते हैं, नदी खत्म करते हैं, जंगल खत्म करते हैं, किसानों को खत्म करते हैं, आदिवासियों को उजाड़ते हैं. अब तो सिर्फ फैक्टरी के संघर्ष की बात रही नहीं. लेकिन कम्युनिस्ट अब भी वर्ग संघर्ष के नाम पर सिर्फ मजदूरों के एकीकरण से क्रांति की उम्मीद करते हैं तो उनका फैलाव या उनके जरिए बदलाव होने से रहा. इसलिए आप गौर कीजिए कि वामपंथी दलों के जो ट्रेड यूनियन हैं या मजदूर संगठन हैं, वे अभी भी बहुत मजबूत स्थिति में हैं लेकिन उनका राजनीतिक आधार सिमटता गया.
कास्ट बनाम क्लास में किसे महत्वपूर्ण मानते हैं?
अभी हाल ही में एक आयोजन में गया था. वहां वक्ता के तौर पर बुलाया गया था. विषय था- हिंदी इलाके में वामपंथियों की हालत ऐसी क्यों हुई? उसमें मैंने कास्ट बनाम क्लास पर ही बात कही थी. मैं यह मानता हूं कि जो क्लास है उसे ही इकलौता और मूल आधार नहीं माना जा सकता. क्लास में तो आज जो मजदूर है वह कल पैसा आने से भूमिहीन न होकर भूपति हो सकता है, फैक्टरी का मालिक बन सकता है. क्लास तो बदलता रहता है लेकिन कास्ट एक स्थायी तत्व है. इसकी शिफ्टिंग नहीं होती. जो हरिजन है, वह हरिजन ही रहेगा. जो भूमिहार है, वह भूमिहार ही रहेगा और उस आधार पर जो सामाजिक भेदभाव होते हैं, वह होते रहेंगे. वामपंथियों ने सिर्फ क्लास फैक्टर को पकड़ा, जो रूप-स्वरूप बदलता रहता है. कास्ट को पकड़ा ही नहीं, इसलिए वे हिंदी इलाके में राजनीतिक तौर पर कमजोर हुए और लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार जैसे नेताओं का उदय हुआ, वे बड़े नेता बन भी गए.
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने तो मिलकर बिहार में सरकार भी बना ली.
हां, वोट के लिए ऐसा मेल-मिलाप होता रहता है. नारे बदलते रहते हैं. कभी सामाजिक न्याय का नारा तो कभी कुछ. लेकिन नीतियां बदलंे तब तो. वैसे मैं नीतीश कुमार के एक काम का असर तो देख रहा हूं. उन्होंने लड़कियों को साइकिल देने का जो फैसला लिया था, उसका असर अब दिख रहा है. नीतीश को उसका फायदा भी मिला. महिलाएं उनके साथ हुईं. लेकिन अभी जो शराबबंदी का फैसला उन्होंने लिया है, वह बहुत हड़बड़ी में लिया. शायद बाद में बुद्धि आए. अब ताड़ी पर भी प्रतिबंध लगा दिया है. एक बड़े समूह के जीविकोपार्जन पर ही रोक लगा दी. किसानों के पास भी बड़ी संख्या में ताड़ आदि के पेड़ हैं, वे उनका क्या करेंगे? ताड़ का कई तरीके से उपयोग किया जा सकता है. इस ओर उन्हें विचार करना चाहिए.
देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
बताया तो पहले ही. प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दुरुपयोग और दोहन देश के भविष्य को दांव पर लगा रहा है. कुछ लोग बहुत ताकतवर हो जाएंगे लेकिन यह देश और दुनिया रहने लायक ही नहीं बचेगी, तब क्या होगा? बाकी सारे मसले तो आते-जाते रहते हैं. यह बेसिक सवाल है, इस पर सोचना चाहिए. अब हम लोग गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. बस रुककर सोचना चाहिए. गांधी की प्रतिमाएं बनाकर और गांधी के विचारों को मारकर गांधी को याद करने का मतलब नहीं. गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चलाकर गांधी युग लाने का शोर करने का मतलब नहीं. गांधी को पहले ही डर था कि यह जो पूंजीवादी सभ्यता आएगी, वह शैतानी सभ्यता होगी. इसी शैतानी सभ्यता से बचना और लोगों को बचाना होगा.

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