राजनारायण और इंदिरा गांधी @रामबहादुर राय
वंशवाद मनुष्य की सामान्य कमजोरी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी कमाई अपने वंश वालों को देना चाहता है। देता है। जो ऐसा नहीं करते वे ‘फकीर‘ हैं। संन्यासी हैं। राजनीति भी एक ढंग की कमाई है।‘
जगमोहन लाल सिन्हा इससे परिचित थे। खुफिया अफसर कुछ पता नहीं लगा सके। जज जगमोहन लाल सिन्हा ने टाईिपस्ट को अपने घर बुलाया। फैसला लिखवाया। उसे तभी जाने दिया जब फैसला सुना दिया गया। उन्होंने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया।
इसे लिखा है डॉ. युगेश्वर ने। यह एक सैद्धांतिक भूमिका है। जिस पर वे राजनारायण की राजनीति का वर्णन करते हैं।
बहुत पहले यह पुस्तक छपी थी– ‘आपातकाल का धूमकेतु: राजनारायण।’ तब राजनारायण और इंदिरा गांधी जीवित थे। वह पुस्तक फिर छापी गई है। जिसमें राजनारायण के पूरे जीवन को समेट लिया गया है। यह काम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक असिस्टेंट प्रोफेसर जेएस सिंह ने किया है। इसमें ही एक अध्याय है– इंदिरा गांधी और राजनारायण।
डॉ. युगेश्वर लिखते हैं कि राजनारायण ने इंदिरा गांधी विरोध का आरंभ वंशवाद के विरुद्ध किया। यह परंपरा उन्हें अपने प्रिय नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से मिली थी। इंदिरा गांधी ने वंशवाद को चरम पर पहुंचा दिया। उन्होंने जिसे अपना उत्तराधिकार सौंपना चाहा, वह अयोग्य भी था। डॉ. लोहिया का नाम रटने वाले इसे जरूर पढ़ें। अपने अंदर झांके। और सोचें कि क्या वे परस्पर विरोधी कृत्य में नहीं लगे हैं। समाजवाद और वंशवाद ऐसा ही परस्पर विरोधी कृत्य है।
डॉ. युगेश्वर जिसे अयोग्य बता रहे हैं वह और कोई नहीं, संजय गांधी था। उसकी ‘इच्छा राजनीति में न जाकर कार बनाने की थी। वह व्यापारी होता। कारखानों का निदेशक बनना चाहता था। उसने राजनीति को औद्योगिक कार्यों का साधन बनाया। उसने राजनीति का उपयोग लाइसेंस, परमिट, कर्जे जैसी चीज के लिए किया, किन्तु धीरे–धीरे राजनीति का जायका बढ़ता गया। उद्योग चलाने का घटता गया। इधर उनकी माता जी के सामने उत्तराधिकार का भी सवाल रहा होगा। फलत: घर और राजनीति का अंतर भुला दिया गया। घर राजनीति पर हावी हो गया।‘
इसे डॉ. युगेश्वर बताकर लिखते हैं कि ‘इंदिरा गांधी बहुत अधिक मोह वाली थीं। यह मोह सारे रोगों के मूल में है। इंदिरा गांधी में जैसे–जैसे पुत्र मोह बढ़ता गया, उसी क्रम में अपने प्रति मोह भी बढ़ता गया। पुत्र अपना ही पर्याय होता है।‘
उन्होंने इसे आपातकाल से जोड़ा और लिखा– इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करके देश को भयंकर दुख में झोंक दिया। सारे सुख अपने और अपने परिवार में समेट लिया। एक व्यापारी (संजय गांधी) की स्थिति राष्ट्र नेता की हो गई। मुख्यमंत्री, मंत्री, गवर्नर, बड़े–बड़े अफसरान उसकी कृपा दृष्टि के आकांक्षी हो गए। कार बनाने वाला सरकार बनाने लगा, किन्तु उसे दोनों मोर्चों पर विफलता हाथ लगी। कार बनी नहीं। सरकार बची नहीं।‘
डॉ. युगेश्वर कल्हण की पुस्तक के हवाले से बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू इस बात से दुखी रहते थे कि ‘इंदिरा आत्म केंद्रित है।‘ बात छठे दशक की है। राजनारायण ने राज्य सभा में इंदिरा गांधी पर गंभीर आरोप लगाए। यह कि उन्हें विदेशों में जो कीमती उपहार मिले हैं, उसे अपने पास रख लिया है। उसकी पूरी सूची राजनारायण ने एमओ मथाई के पत्र के हवाले से पेश कर दी। इससे इंदिरा गांधी बहुत घबड़ा गई। वह पूरा पत्र इस पुस्तक में छपा है। जिससे इंदिरा गांधी के लोभ को समझा जा सकता है। एमओ मथाई ने वह पत्र पद्मजा नायडू को लिखा था।
राजनारायण ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध लड़ाई हर जगह लड़ी। संसद में और सड़क पर भी। चुनाव के मैदान में और अदालत में भी। कोई मोर्चा छोड़ा नहीं। डॉ. युगेश्वर ने लिखा है कि ‘इंदिरा गांधी षड्यंत्र, झूठ और नीतिहीनता की जबर्दस्त शक्ति रखती हैं।‘ दूसरी तरफ वे राजनारायण का शब्दचित्र इस प्रकार बनाते हैं– ‘ग्रामीण जीवन का सीधापन और खुरदुरापन है। वे झूठ, धोखा और तिकड़म में विश्वास नहीं करते। उनके पास इंदिरा गांधी जैसी कोमल और भावमूला वाणी नहीं है। पुरुष होने के नाते वे इंदिरा जैसा कोमल नहीं बन पाते। वे जो कुछ कहना होता है खुलकर कहते हैं। आत्मकेंद्रिता का घोर अभाव है। उनका निजी कुछ भी नहीं है। वे निजी से अधिक सार्वजनिक हैं।
उन्होंने हनुमान और लक्ष्मण को अपना आदर्श बनाया है जो त्याग और सेवा के लिए प्रसिद्ध हैं। चमत्कार नहीं पैदा करते। पूरा जीवन विरोध पक्ष की राजनीति में बीता है। घोर जुझारु विरोध। नेता से अधिक कार्यकर्ता रहे हैं। हनुमान और लक्ष्मण कार्यकर्ता ही तो थे। ऐसे कार्यकर्ता जिन्हें अपनी शक्ति का भी ठीक बोध नहीं है।‘
सबसे चर्चित मुकाबला रायबरेली का है। वहां राजनारायण पहुंचे। अपना पर्चा दाखिल किया। चुनाव मैदान में कूद पड़े। मुकाबला जितना इंदिरा गांधी से था, उससे ज्यादा देश के प्रधानमंत्री से था। उन्हें मैदान से हटने के लिए बड़े प्रलोभन मिले। विरोध की राजनीति भी कई बार समझौते के लिए लोग करते हैं। पर राजनारायण दूसरी मिट्टी के बने थे। उन्होंने लड़ना कबूल किया, समझौता नहीं।
संभवत: वे राजनीति के अपने उस पाप का प्रायश्चित कर रहे थे, जो समाजवादी समूह के ‘स्पर्श क्रांतिकारियों‘ ने उनसे करवा दिया था। इसे बिना समझे रायबरेली चुनाव का महत्व नहीं जाना जा सकता।
उससे पहले राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को तोड़ दिया था। अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज‘ पर नीलम संजीव रेड्डी की जगह वीवी गिरि को उम्मीदवार बनाया। तब कम्युनिस्ट सहित समाजवादियों ने इंदिरा गांधी के उम्मीदवार का समर्थन किया। राजनारायण विरोध में थे। पर अपने साथियों की बात मान ली। इसका ही उन्हें मलाल था। यही था वह प्रायश्चित, जो रायबरेली में कर वे मुक्त हो जाना चाहते थे। इसके लिए जैसा धीरज चाहिए, वह उनमें था। यही खास वजह थी कि डॉ. राममनोहर लोहिया उन्हें मन से पसंद करते थे।
राजनारायण 1971 का चुनाव हार गए। पर हिम्मत नहीं हारी। चुनाव जीतीं इंदिरा गांधी। उस चुनाव में दो जीवन मूल्यों का टकराव था। एक तरफ इंदिरा गांधी चुनाव जीतने के लिए किसी भी मर्यादा को तार–तार कर सकती थीं, तो दूसरी तरफ राजनारायण ने उन हथकंडों पर नजर रखी। उसे संवैधानिक और असंवैधानिक रूप दिया। ‘राजनारायण इंदिरा गांधी के एक–एक भ्रष्टाचार को गिनते रहे। चुनाव खत्म होते ही न्यायालय पहुंचे। अच्छा राजनीतिज्ञ हर स्तर पर लड़ता है। मुकदमा राजनीतिक लड़ाई का महत्वपूर्ण पक्ष है।‘
नतीजतन राजनारायण ने इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनौती दी। उन्होंने सात आरोप लगाए। मुकदमा शुरू हुआ। वह लंबा चला। एक चरण ऐसा भी आया जिसमें इंदिरा गांधी को अदालत में हाजिर होना पड़ा। सफाई देनी पड़ी। वह तारीख थी-18 मार्च, 1975। उनसे उस दिन छ: घंटे की पूछताछ हुई। वह कमरा वही था, जहां मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू बतौर वकील वकालत करते थे।
आखिरकार पांच साल बाद फैसला आया। इंदिरा गांधी ने उस दौरान जजों को भयभीत कर रखा था। लेकिन एक जज ऐसा निकला जिसने प्रधानमंत्री के प्रभाव की परवाह नहीं की। वे जगमोहन लाल सिन्हा थे। हालांकि खुफिया ब्यूरो (आइबी) के एक अफसर को इलाहाबाद में इस काम में लगाया गया था कि वह बता सके कि फैसला क्या आने वाला है। वे आज भी हैं।
यह आशंका इंदिरा गांधी को थी। इसका स्पष्ट उल्लेख पुपुल जयकर ने उनकी जीवनी में किया है। 12 जून, 1975 को यह फैसला आया। जिसके चौदहवें दिन अपनी कुर्सी बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगवाया। लोकतंत्र का गला घोटा। नेताओं को बंदी बनाया। उनमें एक राजनारायण भी थे। 1977 के चुनाव में राजनारायण ने इंदिरा गांधी को रायबरेली में हरा भी दिया। लोकतंत्र जीता। तानाशाही हारी।
लेकिन राजनारायण से दूसरा राजनीतिक पाप तब हुआ जब उन्होंने पुन: ‘स्पर्श क्रांतिकारिता‘ के चलते इंदिरा गांधी से हाथ मिलाया। इससे इंदिरा गांधी की वापसी हुई। उसका प्रायश्चित करने का उन्हें काल ने अवसर नहीं दिया। राजनारायण फकीर की भांति दुनिया से विदा हुए। 31 दिसंबर, 1986। न मकान, न जमीन, न बैंक–बैलेंस। वहीं इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर थीं। उन्हें उनके निजी सुरक्षा गार्डों ने मारा। तारीख थी 31 अक्टूबर, 1984।
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