बिहार में भूमिहार प्रगतिशील समुदाय रहा है. सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में यह समुदाय बिहार में जमींदारी प्रथा के खिलाफ किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहा था. 1910 के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ बिहार में चल रही लड़ाई पर अगर आपकी नजर जाती है तो आपको पता चलेगा कि तुरकौलिया और पिपरा जैसी छोटी जगह पर इस समुदाय ने नील की खेती के खिलाफ पहली बार विद्रोह किया. गांधी के आने के पहले की यह घटना थी. बाद में जब गांधी चंपारण आए तो बिहार में इस समुदाय के बुद्धिजीवी कृष्ण सिंह, रामदयालु सिंह, रामनंदन मिश्रा, कार्यानंद शर्मा और सहजानंद सरस्वती जैसे लोग शामिल हुए. इन्हीं में शामिल सरस्वती ने बाद में बिहार में किसान आंदोलन की जमीन तैयार की, जो बाद में पूरे भारत में संगठित हुआ. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद कम्युनिस्ट और कांग्रेस को थोड़े समय के लिए साथ काम करने का मौका मिला और इसी दौरान किसानों के अलग-अलग चल रहे आंदोलनों को एक साथ लाने का प्रस्ताव ई एम एस नंबूदरीपाद ने रखा और फिर इसके बाद ऑल इंडिया किसान सभा अस्तित्व में आई, जिसके सरस्वती इसके पहले अध्यक्ष बने. सरस्वती की पहल पर इस आंदोलन से कई अहम लोग जुड़े, जिनमें लोहिया, राहुल सांकृत्यायन, जयप्रकाश नारायण जैसे लोग शामिल हुए.
कह सकते हैं कि देश भर में किसान आंदोनल को संगठित करने में इस समुदाय की भूमिका अग्रणी रही है. बिहार में जमींदारी प्रथा और उसके अत्याचारों के खिलाफ लड़ाई की पृष्ठभूमि श्रीमान लालू जी की पैदाइश से पहले की है लेकिन लालू जी ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए सवर्णों विशेषकर भूमिहारों को सामाजिक न्याय की राजनीति की राह में मौजूद ''खलनायक'' बता दिया. दूसरा, दिल्ली में बैठे वामपंथी नेतृत्व ने भी लालू जैसे भ्रष्ट और खतरनाक जातिवादी नेता को आगे बढ़ाने का काम किया. बिहार की राजनीति में यह समय इस जाति के आत्मावलोकन का है, जिसकी प्रगतिशील विरासत सियासत में जानबूझकर धुंधली की जा रही है और उसकी पहचान को अपराधी और दबंगों से जोड़कर दिखाया जा रहा है और प्रतिक्रियावश युवा समाज को इनके साथ खड़े होने में कोई परेशानी नहीं होती. बिहार में जब नेतृत्व जबरन थोपा जा रहा है, वैसे में इस समुदाय को भी अपने इतिहास से रूबरू होने की जरूरत है. (1)
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