आज 18 मार्च है. ठीक 20 साल पहले मेरे गांव सेनारी में नरसंहार हुआ था. एक ऐसा कत्ल-ए-आम जिसने पीढ़ियों को बदलकर रख दिया. घर के घर बर्बाद हो गए.
18 मार्च 1999 की वो रात आज भी हमलोगों को जेहन में ऐसे ताजा है जैसे कल की ही बात हो. उस रात को याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उस रात ने मेरे खानदान से सात लोगों को लील लिया था.
नरसंहार के पीड़ितों को कितना न्याय मिला. या उस तरह के हर नरसंहार के पीड़ितों को न्याय मिला भी या नहीं अगर इस सच्चाई को नजदीक से देखेंगे तो पता चलेगा कि राजनीति और जीवन के बीच की खाई कितनी गहरी है.
जीवन चलने का नाम है, हमारी जिंदगी भी चल रही है. लेकिन लाशों पर राजनीति का दौर भी अनवरत चालू है. तब भी हमारे घर वालों, गांववालों की लाशों पर राजनीति हुई थी. आज भी हम लाशों पर राजनीति करते हैं.
इंसानियत न तब थी, न अब है. बदला है तो बस समय. हमारी सोच, हमारी प्राथमिकताएं सब कल भी जाति, धर्म पर आधारित थी, आज भी है.
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