भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़ा गोलीकांड : जयराम विप्लव
15 फरवरी 1932 की दोपहर सैकड़ों आजादी के दीवाने मुंगेर जिला के तारापुर थाने पर
तिरंगा लहराने निकल पड़े | उन अमर सेनानियों ने हाथों में राष्ट्रीय झंडा और
होठों पर वंदे मातरम ,भारत माता की जय नारों की गूंज लिए हँसते-हँसते गोलियाँ
खाई थी |
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े गोलीकांड में देशभक्त पहले से लाठी-गोली
खाने को तैयार हो कर घर से निकले थे | 50 से अधिक सपूतों की शहादत के बाद
स्थानीय थाना भवन पर तिरंगा लहराया |
आजादी मिलने के बाद से हर साल 15 फरवरी को स्थानीय जागरूक नागरिकों के द्वारा
तारापुर दिवस मनाया जाता है।
तारापुर में शहीद स्मारक के विकास और संरक्षण को लेकर सक्रीय सामजिक कार्यकर्ता
चंदर सिंह राकेश बताते हैं कि जालियावाला बाग से भी बड़ी घटना थी तारापुर
गोलीकांड । सैकड़ों लोगों ने धावक दल को अंग्रेजों के थाने पर झंडा फहराने का
जिम्मा दिया था। और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए जनता खड़ी होकर भारतमाता की जय, वंदे
मातरम्.आदि का जयघोष कर रही थी । भारत माँ के वीर बेटों के ऊपर अंग्रेजों के
कलक्टर ई ओली एवं एसपी डब्ल्यू फ्लैग के नेतृत्व में गोलियां दागी गयी थी ।
गोली चल रही थी लेकिन कोई भाग नहीं रहा था । लोग डटे हुए थे | इस गोलीकांड के
बाद कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर हर साल देश में 15 फरवरी को तारापुर दिवस
मनाने का निर्णय लिया था।
घटना के बाद अंग्रेजों ने शहीदों का शव वाहनों में लाद कर सुलतानगंज की गंगा
नदी में बहा दिया था । शहीद सपूतों में से केवल 14 की ही पहचान हो पाई थी ।
ज्ञात शहीदों में विश्वनाथ सिंह (छत्रहार), महिपाल सिंह (रामचुआ), शीतल
(असरगंज), सुकुल सोनार (तारापुर), संता पासी (तारापुर), झोंटी झा (सतखरिया), सिंहेश्वर
राजहंस (बिहमा), बदरी मंडल (धनपुरा), वसंत धानुक (लौढि़या), रामेश्वर मंडल
(पड़भाड़ा), गैबी सिंह (महेशपुर), अशर्फी मंडल (कष्टीकरी) तथा चंडी महतो
(चोरगांव) थे । 31 अज्ञात शव भी मिले थे, जिनकी पहचान नहीं हो पायी थी । और कुछ
शव तो गंगा की गोद में समा गए थे |
इलाके के बुजुर्गों के अनुसार शंभुगंज थाना के खौजरी पहाड में तारापुर थाना पर
झंडा फहराने की योजना बनी थी । खौजरी पहाड ,मंदार ,बाराहाट और ढोलपहाड़ी तो जैसे
क्रांतिकारियों की सुरक्षा के लिए ही बने थे | प्रसिद्द क्रन्तिकारी
सियाराम-ब्रह्मचारी दल भी इन्हीं पहाड़ों में बैठकर आजादी के सपने देखा करते थे
| थाना बिहपुर से लेकर गंगा के इस पार बांका –देवघर के जंगलों –पहाड़ों तक
क्रांतिकारियों का असर बहुत अधिक हुआ करता था | मातृभूमि की रक्षा के लिए जान
लेने वाले और जान देने वाले दोनों तरह के सेनानियों ने अंग्रेज सरकार की नाक
में दम कर रखा था |
इतिहासकार डी सी डीन्कर ने अपनी किताब “ स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का
योगदान “ में भी तारापुर की इस घटना का जिक्र करते हुए विशेष रूप से संता पासी और शीतल चमार
के योगदान का उल्लेख किया है |
पंडित नेहरु ने भी 1942 में तारापुर की एक यात्रा पर 34 शहीदों के बलिदान का उल्लेख
करते हुए कहा था “ The faces of the dead freedom fighters were blackened in
front of the resident of Tarapur “
अमर शहीदों की स्मृति में मुंगेर से 45 km दूर तारापुर थाना के सामने शहीद
स्मारक भवन का निर्माण 1984 में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह ने करवाया
था |
तारापुर के प्रथम विधायक बासुकीनाथ राय, नंदकुमार सिंह ,जयमंगल सिंह ,हित्लाल
राजहंस आदि के प्रयास से शहीद स्मारक के नाम पर एक छोटा सा मकान खड़ा तो हो गया
लेकिन तब के बाद सरकार ने स्मारक के संरक्षण और विस्तार में कोई दिलचस्पी नहीं
दिखाई है | शहीद स्मारक के सामने तिराहे पर शहीदों की मूर्तियां लगाने की कवायद
वर्षों से चल रही है | वर्तमान में चंदर सिंह राकेश की कोशिशों से हर साल
कार्यक्रम हो जाता है लेकिन तारापुर के शहीदों को उचित स्थान ना तो इतिहास की
पुस्तकों में मिल पाया और ना ही सरकार के कार्यक्रमों –योजनाओं में |
बिहार और देश के गौरव को बढ़ाने वाले तारापुर के शहीदों को केंद्र और राज्य
दोनों सरकार द्वारा सम्मान दिया जाना चाहिए जिसके वे असली हक़दार हैं
No comments:
Post a Comment