Friday 19 December 2014

Sir CPN Singh / Nalini singh $ Daughter by Court Order : Ratna Vira

Sukaran Singh
Mr. Sukaran Singh works in the office of the Chairman, Tata Group and is responsible for developing opportunities in the newly liberalizing defense industry in India and in large energy projects.
Prior to joining the Tata Group in 2003, Mr. Singh was with McKinsey & Company. While at McKinsey, Mr. Singh worked on a number of corporate, marketing and operations strategy initiatives in the metals, energy and IT industries.
Prior to that, Mr. Singh worked in the Chairman's Office at Samsung in Seoul, South Korea where he was involved in corporate restructuring issues.
Mr. Singh earned his MBA in Finance/ Marketing from the University of Chicago and his MA in Economics from the University of Oxford in the UK, and his BA, Economics from St.Stephen's College, Delhi University.

Nalini Singh (born February 17, 1945) is an Indian journalist.
She has been the anchor for several current affairs programs on Doordarshan, and is most known for her program, 'Aankhon Dekhi', on investigative journalism.

Early life

She is daughter of consumer rights activist, H. D. Shourie, and the sister of Indian journalists, Deepak Shourie, and Arun Shourie, who has also been a Union minister 

Career

Singh is also the managing director, TV Live India Pvt Ltd, and Managing Editor of News Channel, IBN7.

Personal life

She is also the daughter-in-law of Sir Chandeshwar Prasad Narayan Singh , former Governor of Uttar Pradesh and first Indian Ambassador to Nepal. She has one daughter (Ratna Vira, Author) and one son (Sukaran Singh, VP - Tata Advanced Systems).

Selected bibliography

Books
  • Singh, Nalini; Jain, Devaki; Chand, Malini (1980). Women's quest for power: five Indian case studies. Sahibabad, Distt. Ghaziabad, Delhi, India: Vikas Publishing.ISBN 9780706910216.
पहली बार अंग्रेजी का कोई उपन्यास पूरा पढ़ा। उपन्यास हिन्दी के भी मैंने लगभग नहीं पढ़े हैं। विज्ञान का छात्र रहा हूं और इंजीनियरिंग पढ़ना था इसलिए साहित्य-कहानी में दिलचस्पी रही नहीं। वो तो पत्रकारिता का चस्का लगा और जनसत्ता में नौकरी मिल गई कि दिल्ली चला आया और जब तक तय हुआ कि पत्रकारिता की नौकरी मेरे लिए नहीं है, अनुवाद करके गुजर-बसर करने लायक कमाने लगा था। नौकरी छोड़कर भी काम चलता रहा और मैं पत्रकार ही रह गया। पर यह अलग मुद्दा है और बताना यह था कि अंग्रेजी का जो पहला उपन्यास मैंने पढ़ा वह क्या है और क्यों पढ़ा।

पत्नी अस्पताल में थीं और लैपटॉप पर मैं काम नहीं करता, कई दिन अस्पताल में रहने के कारण अखबार पढ़ने के बाद भी समय बच जा रहा था तो लगा कि एक चर्चित उपन्यास पड़ा है, क्यों नहीं उसे पढ़ डाला जाए। और पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। उपन्यास है- 'डॉटर बाई कोर्ट ऑर्डर' और इसे लिखा है मशहूर टीवी पत्रकार नलिनी सिंह की बेटी रत्ना वीरा ने।

असल में यह कहानी रत्ना वीरा की अपनी कहानी है और आदर्श बेटी के मेरे पैमाने पर रत्ना एकदम फिट बैठती हैं। बिहार के एक जमीन्दार परिवार में पैदा हुआ और जमशेदुपर के टेल्को कॉलोनी में पला-बढ़ा मैं जब दिल्ली आया तभी महिलाओं पर अत्याचार आदि के बारे में पता चला और घरेलू हिन्सा रोकने के लिए कानून बनाए जाने तक की स्थितियों के बारे में जानने के बाद महिला सशक्तिकरण के बारे में मेरी राय है कि बेटी को इतना मजबूत बनाया जाना चाहिए कि जरूरत पड़े तो पिता और भाई से भी लड़कर अपना हक ले सके। रत्ना वीरा की कहानी की मूल किरदार ने पिता और भाई से भी क्रूर अपनी मां से लड़ाई लड़ी। उस मां से जिसके अच्छे राजनैतिक संपर्क हैं और जो उसे जिन्दा दफन करने की धमकी देती है। दूसरी ओर, उसके दो छोटे बच्चे हैं और पति से भी अलग हो चुकी है।

कहानी की मुख्य किरदार अरण्या के पति कृष ने हालांकि उसका पूरा साथ दिया है पर यह लड़ाई उसने लगभग अकेले लड़ी है। पारिवारिक स्थितियां ऐसी थीं उसकी बुआ (बिहार में फुआ कहते हैं और पुस्तक में भी फुआ ही कहा गया है) जो उसकी सहेली जैसी थीं मुकदमे के दौरान उससे खुलकर बातें नहीं करती थीं और पहली बार खुलकर बात तब की जब मामला निपट गया। कहानी यह है कि अरण्या की मां उसके पढ़े लिखे पिता को किसी लायक नहीं रहने देती और ना वो कोई काम करते हैं और ना कमाते हैं। दादा के देहांत के बाद मां संपत्ति पर कब्जा करना चाहती हैं और इसमें अपनी बेटी को कोई हिस्सा नहीं देती हैं। इससे बचने के लिए वे अदालत को बताती ही नहीं हैं कि उनकी कोई बेटी भी है और जब बेटी को पता चलता है कि मां दादा की संपत्ति में उसे हिस्सा नहीं देना चाहती हैं तो वह मुकदमा दायर करती है और इस दरम्यान मां अदालत में कहती हैं कि उन्हें याद नहीं है कि उनकी कोई बेटी भी है। आखिरकार अदालत अरण्या को मान्यता देती है और वह अदालत के आदेश से बेटी का हक पाती है। इसी लिए पुस्तक का नाम है – डॉटर बाई कोर्ट ऑर्डर।

आंखें खोल देने वाली कहानी। महिलाओं और बेटियों को मजबूत बनाने की हवाई बातें करने वालों को बताती है कि आप बेटियों को पढ़ाओ बाकी वो खुद संभाल लेगी। काश यह पुस्तक हिन्दी में होती तो वो लोग भी इसे पढ़ पाते जो बेटियों को सिर्फ शादी करने के लिए पढ़ाते हैं और पढ़ाने पर खर्च करने की बजाय दहेज इकट्ठा करते हैं और आखिरकार दुल्हा खरीद लाते हैं या फिर कम पैसे होने का बहाना बनाकर बेमेल शादी कर देते हैं उसका हिस्सा नालायक बेटे को देकर उसे भी किसी लायक नहीं छोड़ते और यह कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.

कॉरपोरेट एक्ज़ीक्यूटिव से लेखिका बनीं रत्ना वीरा ने अपना पहला उपन्यास 'डॉटर बाई कोर्ट ऑर्डर' लु़टियन्स दिल्ली के रईसों के पारिवारिक संपत्ति विवादों की पृष्ठभूमि में लिखा है। कहानी की नायिका, अरण्या, एक दुखी पुत्री के रुप में सामने आती है जो अपने दादा की संपत्ति में अपना पाने के लिए अदालत का सहारा लेती है और परिवार की बेटी के रूप में अपनी पहचान स्थापित करती है।
अरण्या उच्च शिक्षा प्राप्त है, अच्छी नौकरी करती है, वो अदालत जाने का निर्णय करती है जब उसे पता चलता है कि उसके माता-पिता और भाई ने दादा जी की कीमती भू-संपत्ति को पाने के लिए करीब एक दशक से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन इस पूरी कानूनी लड़ाई के दौरान उसके परिवार ने संपत्ति हड़पने की नीयत से अदालत से उसकी पहचान को छिपाया और उसे भी अंधेरे में रखा। इस पूरे षडयंत्र की सूत्रधार अरण्या की मां, कामिनी, है जो उसे जन्म से ही अपने लिए एक अपशकुन मानती है। अरण्या एक आजाद खयाल लड़की है जो अपनी शर्तों पर जीना चाहती है जो कि कामिनी को पसंद नहीं। कुल मिला कर यही इस उपन्यास का सार है। रत्ना वीरा का कहना है कि उनके उपन्यास की कहानी काल्पनिक है। लेकिन चर्चा ये है कि ये उपन्यास उनके जीवन की घटनाओं पर आधारित है। गौरतलब है कि रत्ना वीरा वरिष्ठ पत्रकार नलिनी सिंह और एसपीएन सिंह की पुत्री तथा वरिष्ठ पत्रकार-राजनेता-लेखक अरुण शौरी की भांजी हैं।
हालांकि रत्ना के अनुसार उनके उपन्यास के पात्र काल्पनिक हैं लेकिन उनके रिश्तेदारों और पात्रों में काफी समानता है। उदाहरण के लिए रत्ना के उपन्यास की मां, कामिनी, एक पत्रकार है जो एक राजनेता के पुत्र से विवाह करती है। कामिनी को एक चालाक, अभद्र, गाली गलौज करने वाली महिला के रूप में दिखाया गया है जो सफलता पाने के लिए दूसरों का उपयोग करने से नहीं चूकती। असल जीवन में नलिनी सिंह ने उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल सीपीएन सिंह के पुत्र एसपीएन सिंह से विवाह किया। अपन्यास में अरण्या के दादा, ईश्वर धारी को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री दिखाया गया है। सिंह जहां पटना विश्वविद्यालय के कुलपति रहे वहीं धारी को रांची विवि का कुलपति बताया गया है।

उपन्यास की मुख्य नायिका अरण्या का किरदार स्वयं रत्ना से मेल खाता है। रत्ना ने अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से की वहीं अरण्या क्वीन्स कॉलेज जाती है जिसे अंग्रेजी साहित्य पढ़ने के लिए भारत का सबसे बढ़िया कॉलेज बताया गया है। दोनो उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड जातीं हैं और स्वदेश वापस लौट कर कॉरपोरेट दुनिया में अपना कैरियर बनाती हैं। अरण्या की ही तरह रत्ना के अपनी मां नलिनी सिंह से रिश्ते बहुत सामान्य नहीं रहे हैं, रत्ना इस तथ्य को अपने एक इण्टरव्यू में स्वीकार भी कर चुकी हैं। अरण्या के एक मामा भी है, यूडी मामा, कामिनी का भाई जिसका एक उज्ज्वल कैरियर है और जो कई कुछ गलत नहीं करता। असल जिन्दगी में, नलिनी सिंह के भाई अरुण शौरी भाजपा के जाने माने नेता और वरिष्ठ पत्रकार हैं। यूडी भी अरण्या की तरह क्वीन्स कॉलेज पढ़ने जाता है। अरुण शौरी भी सेंट स्टीफेन्स के छात्र रहे हैं। उपन्यास में यूडी को उसकी आम जनता में छवि के उलट अहंकारी और कपटी बताया गया है।

रत्ना को इस बात की परवाह नहीं कि उनके रिश्तेदार और जानने वाले इस उपन्यास के बारे में क्या सोचते हैं। रत्ना के लिए ये एक काल्पनिक कहानी है यदि किसी को कोई आपत्ति है तो वो उससे निपटने को तैयार हैं। रत्ना का कहना है कि उन्होंने ये उपन्यास महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए लिखा है कि उन्हें अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए। 2005 में संपत्ति कानून में संसोधन करके सरकार ने बेटियों को पैतृक संपत्ति में बेटों के समान ही हक़ प्रदान किया है लेकिन परिवार आज भी बेटियों के इस हक़ की उपेक्षा करते हैं। रत्ना वीरा ने अपनी मां और परिवार से लड़ कर पुश्तैनी संपत्ति में अपना हक़ पाया और समाज में स्थापित चेहरों से नकाब को हटाते हुए अपनी पहचान को भी स्थापित किया है। रत्ना वीरा लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से परा-स्नातक हैं। वे एमटीएस इंडिया में उप-निदेशक कॉरपोरेट कम्यूनिकेशंस तथा यस बैंक की कार्यकारी उपाध्यक्ष रहीं हैं। रत्ना अपने पुत्र और पुत्री के साथ गुड़गांव में रहती हैं और अपने दूसरे उपन्यास पर काम कर रही हैं।

A seemingly innocuous remark over an innocent cup of tea and Aranya discovers that her family has been fighting a decade-long legal battle over her grandfather's expansive estate. And all this while, they not only kept her in the dark, but they also kept her very existence out of the court's knowledge!

A cesspool of emotions, half-truths, betrayals and the unspooling of long buried dirty family secrets threaten to overpower Aranya and disrupt what modicum of peace and balance she has in her life as a single mother of two children. At the centre of this storm is the one woman who, ever since the day Aranya was born, has had nothing but curses and abuses for her; who has deliberately kept her name out of the court; who has wished her dead for every day of her life; who refuses to now remember her birth. The woman who is her mother. Her own mother.

This is the story of a woman fighting against power, money, deceit and treachery for her right to be recognised as a daughter. A daughter by court order.

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home