Monday, 12 January 2015

अभयानंद

श्री अभ्यानंद भारतीये पुलिस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी है और अपने  गरीब बच्चों को भारतीये प्रद्योगिकी संस्थान तक पहुँचने के लिए "सुपर-३०" की स्थापना की! आज दैनिक जागरण पटना संस्करण ने काफी प्रमुखता से इनके विचार एक लेख के रुप मे प्रकाशित किया है ! आशा है आप सभी भी इसे पढ़ कर लाभंवाती होंगे :-




प्राणी का जन्म हुआ। प्राणी को एक व्यवस्था के रूप में देखा जाय तो जन्म के साथ ही इस व्यवस्था का सामाजिक, आर्थिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक के साथ-साथ अन्य आयामों के अन्तर्गत ही, उसके समस्त पर्यावरण से विनिमय प्रारंभ हो जाता है। विनिमय अगर परस्पर लाभकारी हुआ तो व्यवस्था एवं पर्यावरण दोनों के लिए सुखदायी है, अन्यथा अन्तत: यह अहितकर विनियम कष्टों का सबब बनकर रह जाता है। प्राणी के कई कष्ट ऐसे हैं जो उनके शरीर में जन्म के साथ ही उनके जिन्स में निहित रहते हैं। इन कष्टों का जीवन यात्रा के दौरान शनै-शनै विस्तार होता है जिससे कि न केवल वह प्राणी बल्कि उसका पर्यावरण भी उनके कष्टों से आहत हो जाता है। इस प्रकार के कष्ट जो प्राणी के जिन्स में ही निहित हो उसके निराकरण के लिए मानव-जाति नैनो टेक्नोलौजी के माध्यम से सूत्र ढूंढने का प्रयास कर अगर इसमें सफलता मिली तो अहितकर विनिमय, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है, उसके आयाम काफी हद तक घट जायेंगे। कुछ ऐसे कष्ट भी हैं जो जन्म के समय नहीं होते परन्तु जीवन यात्रा के दौरान पर्यावरण और प्राणी के अनेक प्रकार के अहितकर विनिमय से उनकी उत्पत्ति हो जाती है। ये कष्ट साधारणतया शारीरिक एवं मानसिक हैं और इनके निवारण के लिये इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों ने स्टेम सेल टेक्नोलौजी का सहारा लेकर कुछ हद तक सफलता पा ली है। समाज अब आशान्वित है कि ऐसे कष्टों का जब भी जीवन के दौरान उभार होगा तो इस टेक्नोलौजी की सहायता से जन्म के दौरान भंडारण किये गये उनके स्टेम सेल की मदद से उसकी चिकित्सा भी हो पायेगी। ये चर्चा तो शारीरिक एवं मानसिक कष्टों की है जिससे कि प्राणी एवं उसका पर्यावरण काफी त्रस्त रहता है। कई ऐसी समस्यायें हैं जिनका जन्म अशिक्षा के माध्यम से हो जाता है। शिक्षा ही प्राणी एवं पर्यावरण के विनिमय को दशा एवं दिशा देती है। जब शिक्षा की बात चलती है तो सामान्यत: किताबें, स्कूल तथा शिक्षक की कल्पना अनायास होने लगती है। इस अवधारणा को अगर विस्तृत रूप से देखा जाय तो प्राणी के पर्यावरण में जो भी वस्तु निर्जीव अथवा सजीव हो जिसके साथ उसका किसी भी प्रकार का विनिमय का सीधा संबंध उसकी शिक्षा से होता है। यह भी सोचना गलत होगा कि इस पूरी प्रक्रिया में मात्र प्राणी ही शिक्षा ग्रहण कर रहा है। इस व्यवस्था को अगर गहराई से देखा जाय तो न केवल प्राणी बल्कि उसका पर्यावरण भी सीखता है। परस्पर सीखने की प्रक्रिया को ही ऊपर की चर्चा में प्राणी एवं पर्यावरण के विनिमय के रूप में अंकित की गई है। मानवजाति की सम्पूर्ण यात्रा को देखने का यह भी एक दृष्टिकोण है। इस रूप से अगर यात्रा का अवलोकन किया जाय तो प्राणी एवं पर्यावरण में परस्पर सीखने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाना ही शिक्षण माना जायेगा। कुछ विनिमय अहितकर होते हैं, जिन्हें शिक्षा के माध्यम से न्यूनीकृत किया जाता है। उसी प्रकार कुछ विनिमय अच्छे एवं श्रेयस्कर होते हैं जिन्हें शिक्षा के जरिये विस्तारित किया जाता है। शिक्षा ही ऐसी प्रक्रिया है, जिस विनिमय की बात हो रही है उसके सभी आयामों की जड़ में है। समस्या भौतिक हो या मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, सबों के निदान के लिए शिक्षा का ही सहारा लेना पड़ता है। जितनी भी प्रगति, चाहे जिस क्षेत्र में हुई तो उन सबों के पीछे शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है। जिन क्षेत्रों में ऐसा प्रतीत हो कि समुचित प्रगति नहीं हुई है तो उनके कारणों में प्रमुख स्थान अशिक्षा का पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवजाति और उसके पर्यावरण विकास के इतिहास में शिक्षा एक सबल धुरी की तरह उभरी है। प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा और सुशिक्षा में अन्तर क्या है। मेरी अपनी धारणा है कि जब प्राणी अथवा उसके पर्यावरण में से किसी एक के द्वारा विनिमय की ऐसी प्रक्रियाओं को जन्म दिया जाय जिससे किसी एक को अल्पकालिक लाभ हो, तो वह शिक्षा सुशिक्षा नहीं मानी जायेगी। जब भी प्रक्रिया ऐसी बनती है जिससे दोनों पक्षों को दीर्घकालिक लाभ हो तो उस विनिमय प्रक्रिया को सुशिक्षा की संज्ञा दी जा सकती है। सामान्यत: यह पाया गया है कि प्राणी एवं पर्यावरण, दोनों में यह होड़ लगी रहती है कि एक-दूसरे की शक्तियों का गलत प्रयोग कर अपने लिए लाभ उठाया जाय। जो ऐसा करते हैं वे शिक्षा का हवाला देकर इसे सही ठहराने का दावा भी करते हैं। चूंकि यह लाभ अल्पकालिक होता है, अत: लम्बे अंतराल में इससे लाभ कम और घाटा अधिक हो जाता है। इसके विपरीत अगर सुशिक्षा की बात की जाय तो यह पाया जायेगा कि समय के बड़े पैमाने पर ऐसी प्रक्रियाएं पारस्परिक रूप से हितकर साबित होती है। सुशिक्षा का एक यह भी उद्देश्य होना चाहिए कि समय के साथ वैसी शिक्षा जिससे परस्पर लाभ न हो उसका Oास हो। अध्यात्मिक रूप से अगर इस पूरे मामले को देखा जाय तो जब तक प्राणी अपने को पर्यावरण से भिन्न मानता है और पर्यावरण को एक ऐसे शक्ति-स्रोत के रूप में देखता है जिससे वह अपने हित का विस्तार कर सके, तब तक जिस सुशिक्षा की बात की जा रही है वह निरर्थक होगी। प्राणी एवं पर्यावरण के बीच जब सीमाएं टूट जाती हैं तभी सुशिक्षा की अवधारणा विस्तृत रूप से परिलक्षित होने लगती हैं। यह सही है कि जिस सीमा की बात की गई है उसके टूटने के पूर्व उसके आकार का बड़ा होना आवश्यक है। मेरा यह मानना है कि अगर प्राणी निरन्तर प्रयास करे तो वह अपने व्यक्तित्व के साथ-साथ इस सीमा के आकार को भी बड़ा बना सकता है। यह प्रयास निश्चित रूप से एक साधना है। साधना के दौरान यह आभास मिलता है कि प्राणी के अन्दर पर्यावरण का एक बड़ा अंग समाहित हो गया है। ऐसा होने से दोनों के बीच परस्पर विरोध के आयाम घटते हैं। इस स्तर से आगे आने पर ऐसी भी अनुभूति होती है कि एक ऊंचाई के पश्चात प्राणी सूक्ष्म रूप बन कर किसी बहुत बड़ी आकृति (पर्यावरण से भी बड़ी) का एक अंग बन गया और उसमें इस हद तक समाविष्ट हो गया कि दोनों में कोई अन्तर ही न हो। शायद यह वह दशा होती है जब जिन सीमाओं को मिटाने की बात कही जा रही है वह यथार्थ में मिट जाती है। सुशिक्षा की नियति ही है कि वह प्राणी एवं पर्यावरण के बीच विनिमय को ú तक पहुंचाये। हम आज तक ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पूरी व्यवस्था कई प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हो गई है और कभी-कभी मानव भविष्य बुरी तरह विध्वंसकारी अंधकार के रूप में दिख पड़ता है। असाध्य बीमारियां, विश्व के कुछ भागों में असह्य भूखमरी, कुछ अन्य भागों में अलगाववाद/आतंकवाद आदि ऐसी समस्याएं हैं जो निरन्तर उत्तर ढूंढ रही हैं। मानव प्रयासों के बावजूद इनका उत्तर पूर्णतया नहीं पाया गया है। इस तात्कालिक विफलता से कई बार इतनी हतासा पैदा होती है कि चारो तरफ निराशा एवं अंधकार दिखने लगता है। मनुष्य जिन निराकरणों की तलाश में है उन सब का आधार सुशिक्षा है। सुशिक्षा के यंत्र के रूप में टेक्नोलाजी उभर कर आयी है और इसके माध्यम से कुछ समस्याओं का निदान निश्चित रूप से मिला है। उदाहरणस्वरूप संवाद प्रेषण की तकनीकों में व्यापक विस्तार होने से पूरे विश्व में सभी प्रकार के संवाद का आदान-प्रदान हो रहा है। इससे ज्ञान/जानकारी सहज रूप से उपलब्ध हो जा रही है। विनिमय इतना पारदर्शी एवं सहज हो गया है कि समस्त विश्व इसका लाभ उठा पा रहा है। अगर इतिहास में झांके तो ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के बीच सिमट कर रह जाता था। उसका लाभ अन्य उठा नहीं पाते थे। ये मुट्ठी भर लोग अर्जित ज्ञान को अपनी व्यक्तिगत धरोहर के रूप में रखते थे। ऐसी शिक्षा निरर्थक थी। आज विश्व भर में संवाद प्रेषण की तकनीक से सुशिक्षा का विकास हुआ और प्राणी तथा पर्यावरण में पारस्परिक लाभदायक विनिमय से कई समस्याओं का निदान हो पाया। ऐसे कई दृष्टान्त सामने आये हैं जब विभिन्न देशों में कार्यरत चिकित्सकों ने एक-दूसरे से इस तकनीक के माध्यम से संपर्क कर असाध्य बीमारियों का इलाज ढूंढा है। यह सुशिक्षा का ज्वलंत उदाहरण है, जहां एक व्यक्ति अपने ज्ञान को इस तरह विस्तारित करता है, जिससे कि पूरी मानवजाति को उसका लाभ मिल सके।जिन समस्याओं के संबंध में बातें की गई हैं उनका निदान अगर आने वाले कुछ दशकों में सुशिक्षा के माध्यम से नहीं हो पाया तो संभवत: यह समाज विध्वंस एवं अंधकार में प्रविष्ट हो जायेगा। इसके विपरीत अगर सुशिक्षा के माध्यम से तकनीकी निदान हो पाया तो यह व्यवस्था कई गुणा अधिक त्वरण से भविष्य की ओर बढ़ जायेगी। आज मानव जाति के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह न केवल सुशिक्षा की कामना एवं प्रार्थना करे बल्कि ऐसा कोई भी कर्म न करें जिससे कि उसके रास्ते में कोई विघ्न उत्पन्न हो।

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