Wednesday 8 July 2015

भूमिहार वोट के पीछे क्यों पड़ी हैं पार्टियां ?

बिहार में आज भले ही दोनों गठबंधन जाति को बड़ा मुद्दा नहीं होने की बात कह रही है. लेकिन हकीकत ये है कि पूरा राजनीतिक ताना बाना एक बार फिर से जातियों के आसपास ही बुना जा रहा है. 2010 के चुनाव में जाति का भेदभाव विकास के सामने ढेर हो गया था. नतीजा हुआ कि उस चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 243 में से 206 सीटों पर जीत मिली. कोई भी पार्टी विपक्ष बनने के काबिल नहीं रह गई थी. ऐसा संभव इसलिए हुआ था क्योंकि तब जाति कोई चुनावी मुद्दा रह ही नह गया था. विकास के भूखे बिहार ने नीतीश में विश्वास जताया और रिकॉर्ड सीटें झोली में डाल दी.

लेकिन आज फिर बिहार में जाति की राजनीति की वापसी हो गई है. नेताओं की बयानबाजी, जातीय सम्मेलन, जातीय गोलबंदी, जाति के हिसाब से ट्रांसफर-पोस्टिंग, जाति के हिसाब से पद, कद और कार्रवाई. इतने सारे उदाहरण सामने हैं कि इस सच को झुठलाने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता.
नीतीश कुमार ने भले ही विकास की राजनीति की है. लेकिन उन्होंने अपनी राजनीति में जातीय समीकरण का ख्याल हर कदम पर रखा है. नब्बे के दशक में लालू की राजनीति के शिकार मास लेवल पर सवर्ण समुदाय के लोग हुए थे. इसमें भी भूमिहार समाज उनका पहला टारगेट था. यही वजह रही कि नीतीश के सत्ता में आने के बाद भूमिहारों का खास ख्याल रखा गया. ललन सिंह तब सिर्फ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नहीं थे. बल्कि बिहार की राजनीति उनके दरवाजे से होकर नीतीश तक पहुंचती थी. ललन सिंह जब नीतीश से दूर हुए तो विजय चौधरी ने वो जगह ली. आज भी विजय चौधरी सरकार में नीतीश के बाद नंबर टू की हैसियत रखते हैं. वकील से नेता बने पीके शाही को नीतीश ने न सिर्फ मंत्री बनाया बल्कि लाख विरोध के बाद भी सरकार में अहम जिम्मेदारी दी. बाद में भी नाराज ललन सिंह को पार्टी में लेकर आए और मंत्री तक बनाया. अभयानंद को राज्य का पुलिस प्रमुख बनाना भी इसी राजनीति का हिस्सा रहा है. चंद्र भूषण राय को भोजपुरी अकादमी का चेयरमैन बनाया गया. बाहुबलियों के सामने नतमस्तक होने की तस्वीर सालों से सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बनी हुई है.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि नीतीश आज भी भूमिहार वोटरों में अपना भरोसा तलाश रहे हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि लालू के साथ जाने को लेकर ये समाज नीतीश को पसंद नहीं कर रहा.
नीतीश भूमिहारों में भरोसा तलाश रहे हैं तो बीजेपी इसे अपना पारंपरिक वोट बैंक मानकर चल रही है. वैसे नीतीश की दिलचस्पी से बीजेपी के नेता भयभीत भी दिख रहे हैं. गिरिराज सिंह को केंद्र में मंत्री बनाना बीजेपी की भूमिहार रणनीति का हिस्सा ही तो है.
हाल ही में मुख्यमंत्री पद पर दावा करने वाला सीपी ठाकुर का बयान ऐसे ही सामने नहीं आया था. असल में बीजेपी को इस बात का डर तो है ही कि नीतीश की पार्टी विधानसभा चुनाव में अपने गठबंधन में वही रोल निभाने वाली है जो नीतीश के साथ गठबंधन में बीजेपी निभाती रही है. यानी सवर्णों की राजनीति तुम और पिछड़ों की हम.
लोकसभा चुनाव में गठबंधन टूटने का नतीजा ये हुआ कि न तो नीतीश के साथ पिछड़ी जाति के वोटर रहे और ना ही अगड़ों का साथ मिला. इसी के बाद से नीतीश की राजनीति की दिशा बदली. मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे मंशा ये थी कि महादलितों में जो उनका बेस है उसे फिर से साथ लाया जाए. लेकिन महालदित बेस वापस जुटाने की मुहिम मात खा गई मांझी की एंटी फॉरवार्ड पॉलिटिक्स से. नतीजा हुआ कि मांझी गए और नीतीश फिर से आए.
लोकसभा चुनाव में नीतीश ने 38 में से ( 2 सीटें लेफ्ट को ) सवर्णों को कुल 9 टिकट दिये थे. इनमें सबसे ज्यादा चार भूमिहारों को, 2 राजपूत 2 ब्राह्ण, 1 कायस्थ को टिकट मिला. एनडीए ने कुल 5 भूमिहारों को उम्मीदवार बनाया था. 3 बीजेपी से 1-1 पासवान और कुशवाहा की पार्टी से. बीजेपी के 1 उम्मीदवार को छोड़कर एनडीए के बाकी 4 भूमिहार उम्मीदवार जीते थे. इनमें से जहानाबाद और मुंगेर में मुकाबला भूमिहार उम्मीदवारों के बीच ही रहा.
जहां तक विधायकों की बात है तो 2010 के चुनाव में कुल 26 भूमिहार विधायक बने थे. इनमें से जेडीयू के 12 और बीजेपी से 14 विधायक जीते. फिलहाल उपचुनाव में दो विधायकों के जीतने और एक सीटिंग(अवनीश कुमार सिंह) के इस्तीफे के बाद आंकड़ा 27 का है अभी. जबकि 2005 में ये आंकड़ा 23 था. 1990 में लालू जब पहली बार सत्ता में आए तब बिहार में भूमिहार विधायकों की संख्या 34 थी. लेकिन 5 साल बाद 1995 में आंकड़ा 18 पर आ गया. और साल 2000 में सिर्फ 19 भूमिहार ही जीत पाए थे.
कहने का मतलब ये कि कभी बिहार की राजनीति के केंद्र में रहने वाले भूमिहार समुदाय की राजनीति का दौर लालू-राबड़ी राज में सिमट कर रह गया था. लेकिन नीतीश के आने के बाद भूमिहारों का ग्राफ बढ़ा है.
अभी तक की जो रणनीति है उसके हिसाब से तमाम भूमिहार बाहुबलियों का टिकट मिलना जेडीयू से तय माना जा रहा है. पार्टी के सूत्र बताते हैं कि जेल जाने के बाद भी अनंत सिंह मोकामा से लडेंगे. लालगंज से मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला, रुन्नी सैदपुर से राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी चौधरी, मटिहानी से बोगो सिंह, दरौंधा से अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह, एकमा से बाहुबली धूमल सिंह का जेडीयू से लड़ना फाइनल है.
तरारी से बाहुबली सुनील पांडे विधायक हैं . इस सीट से इस बार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्रभूषण राय भी दावेदारी जता रहे हैं . बीजेपी भी ज्यादातर सीटिंग भूमिहार विधायकों को टिकट देगी. लोक जन शक्ति पार्टी भी दलितों के बाद भूमिहार नेताओं पर ही ज्यादा से ज्यादा दांव लगाने वाली है. वोट बैंक के लिहाज से बिहार में इसकी आबादी महज पांच फीसदी के आसपास है. लेकिन इसका प्रभाव बारह से पंद्रह फीसदी वोट बैंक पर पड़ता है. धन और बाहुबल में भी समाज सबसे आगे है. यही वजह है कि जेडीयू और बीजेपी, दोनों गठबंधन इस वोट बैंक को साधने की तैयारी कर रही है.
राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती के बहाने पीएम का कार्यक्रम, बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती का कार्यक्रम या फिर आरएलएसपी के सांसद अरुण कुमार का नीतीश पर दिया गया छाती तोड़ने वाला बयान . इन सबके पीछे भूमिहार वोट को अपने पाले में करने की रणनीति हैं.
अनंत सिंह भले ही भूमिहारों के नेता नहीं हैं लेकिन उनके बहाने समाज को प्रताड़ित करने का आरोप लगाना एनडीए की उसी रणनीति का हिस्सा है जिसमें वो नीतीश को भूमिहार विरोधी साबित करना चाहता है. कमोबेश इस मुहिम में एनडीए को कामयाबी भी मिल रही है.
भूमिहार विधायक सुरेश शर्मा (बीजेपी) के कब्जे वाले मुजफ्फरपुर से पीएम का चुनावी शंखनाद करना भी इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है. लोकसभा चुनाव में भूमिहारों का वोट कमोबेश एकतरफा एनडीए को मिला था. भूमिहार राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ यानी तमाम सवर्णों की बात करें तो 78 फीसदी सवर्णों ने एनडीए उम्मीदवारों के पक्ष में वोट दिये थे. लालू के कार्यकाल में राजपूत समाज सत्ता के करीब था पर नीतीश के समय वो दूर रह गया. राजपूतों के एक बड़े तबके में नीतीश को लेकर खुन्नस है. लेकिन लालू (रघुवंश, प्रभुनाथ, जगदानंद) की वजह से लोकसभा चुनाव के वक्त जितने वोट मिले थे उतने इस बार भी मिल सकते हैं. बाकी वोट एनडीए को मिलेंगे.
वैसे इस भूमिहार पॉलिटिक्स के साइड इफेक्ट भी हैं. बीजेपी में जहां सुशील मोदी की निजी तौर पर पार्टी के भूमिहार नेताओं से पटती नहीं है वहीं सुशील मोदी खेमा भूमिहार नेताओं को पसंद नहीं करता. सुशील मोदी की वजह से ही बीजेपी के सबसे पुराने विधायकों में से एक अवनीश कुमार ने पार्टी छोड़ दी. बड़े नेता चंद्र मोहन राय ने लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया . 2010 के चुनाव में सीपी ठाकुर के लाख चाहने पर उनके बेटे विवेक को उम्मीदवारी नहीं मिली. ठाकुर को दोबारा अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया. गिरिराज सिंह बेगूसराय से लड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ नवादा लड़ने भेजा गया.

लोक जन शक्ति पार्टी में सूरजभान की छवि बाहुबली नेता की है. उनके चाहने वाले जितने लोगों को पार्टी टिकट देगी उनकी छवि को लेकर भी सवाल उठेंगे सो अलग. आरएलएसपी में भले ही भूमिहार जाति के अरुण कुमार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं. लेकिन इस पार्टी का उदय ही भूमिहार राजनीति के खिलाफ हुआ था.. कभी नीतीश के खास रहे उपेंद्र कुशवाहा जो कि आरएलएसपी के अध्यक्ष हैं वो चाहते थे कि सरकार और संगठन में उन्हें वही रुतबा मिले जो ललन सिंह को मिल रहा था. पर ऐसा हुआ नहीं. नतीजा जब जब ललन सिंह नीतीश के साथ रहे कुशवाहा ने अपना अलग कुनबा बनाया. अरुण कुमार भी इसी दोस्ती के सताए माने जाते हैं. नीतीश के सत्ता में आने के बाद कोइरी नेताओं को समस्या ये हो गई थी कि भूमिहार और कुर्मी से ज्यादा वोट होने के बाद भी उन्हें सरकार में वो रुतबा रुआब हासिल नहीं हो रहा था जो कथित तौर पर भूमिहार नेताओं को मिल रहा था. इन दिनों नीतीश के खिलाफ राजनीति करने वाले कुर्मी-कोइरी नेता अपने समाज में यही बात पेश कर रहे हैं. यही वजह रही कि उपेंद्र कुशवाहा, भगवान सिंह कुशवाहा, नागमणि, दिनेश प्रसाद जैसे बड़े कोइरी नेता एक एक कर नीतीश का साथ छोड़ते चले गए.
फिलहाल बिहार में भूमिहारों की राजनीति को ऐसे समझिए. सरकार में नंबर दो विजय चौधरी के जरिये नीतीश इस समाज की राजनीति कर रहे हैं. अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सह जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार के जरिये उपेंद्र कुशवाहा अपनी राजनीति कर रहे हैं. पासवान के पास बाहुबली राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सूरजभान हैं. कांग्रेस के पास पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह हैं. जॉर्ज के करीबी रहे डॉक्टर हरेंद्र कुमार के जरिये लालू इस समाज पर डोरे डाल रहे हैं. जहां तक बीजेपी का सवाल है तो केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर के जरिये इस समाज को साधने की कोशिश हो रही है.
वैशाली, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, लखीसराय, मुंगेर, जहानाबाद, नवादा जिलों के साथ ही पटना जिले के एक बड़े हिस्से में भूमिहार वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है. तिरहुत के इलाके से सबसे ज्यादा भूमिहार विधायक पिछली बार जीते थे. कोसी और मिथिला (1-1सीट छोड़कर ) के इलाके को छोड़ कर राज्य के हर हिस्से से पिछली बार भूमिहार विधायक जीते थे.

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