मराठा लड़ाका को बिहार में प्रवेश की सूचना पा कर बंगाल के नवाब अलीवर्दी खान, दिल्ली के मुग़ल बादशाह के प्रतिनिधि हिदायत अली खान और सुंदर सिंह ने मराठा लड़ाका को रोकने के लिय आगे की रणनीति बनाने लगे. उनलोगों ने आपस में मिल कर तय किया की मराठा से युद्ध करना है और उसे यहाँ से पराजित कर उसे भगाना हैं. अब मराठा आक्रमणकारी युद्ध के द्वारा रोक कर उसे वापस भेजने की तैयारी होने लगी.
मराठा लड़ाका बिहार के इलाका से होते हुए बंगाल पहुँच गया. दक्षिण भारत की सैन्य विरासत में ‘मारो और भागो’ की छापामार रणनीति एक अहम रही है. मराठों ने लाचार बंगालवासियों के खिलाफ इसी रणनीति को अपनाया था. इस समय बंगाल में नवाब अलीवर्दी खान का शासन था. तब मराठों की इस सैन्य रणनीति ने नवाब की सेना को बुरी तरह उलझा दिया था. हालांकि इससे पहले कुछ एक मौकों पर आमने-सामने की लड़ाई में उसने मराठों को हराया था लेकिन ज्यादातर समय वे नवाब की सुस्त घुड़सवार सेना को चकमा देकर आबादी वाले क्षेत्रों से लूटमार करने में लग जाते थे.
मराठा सैनिकों की लूट का यह सिलसिला दस साल तक चला. उनकी इस मुहिम ने सीमाक्षेत्र के बंगालवासियों को कंगाल कर दिया और यहां बड़े स्तर पर गरीबी फैल गई. इन सालों में मराठा लड़ाका लड़ाका ने चार लाख लोगों को मौत के घाट उतारा था और यहां बंगाल के इलाके में बड़े स्तर पर लोगो में गरीबी फैल गई.
इधर अब मुर्शिदाबाद में अलीवर्दी खान, हिदयात अली खान और सुंदर सिंह की संयुक्त सेना ने डट कर मराठा लड़ाका सैनिकों का मुकाबला किया. मराठा लड़ाका हार कर वापस लौट गया. उनलोग लौटते समय बंगाल के कई इलाका को बुरी तरह रौदते हुए वापस नागपुर पहुँच गया.
इधर अजीमाबाद में एक और मुशीबत आ खड़ा हुआ अफ़ग़ान सरदार मुस्तफा खान के नेतृत्व में अफगानों की बड़ी सेना ने चढ़ाई कर दी. उस समय पटना में अलीवर्दी खान के दामाद जैनुद्दीन अजीमाबाद के सूबेदार थे वे घबरा कर सुंदर सिंह तथा अन्य कुछ ज़मींदारों से सहायता माँगा. राजा सुंदर सिंह ने अपनी सेना तथा अन्य ज़मींदारों के सैन्य बल के साथ पटना पहुँच गए. सभी ने एक साथ मिल कर मुस्तफा खान के सेना पर चढ़ाई कर दी. इस युद्ध में मुस्तफा खान की हार हुई और उसका एक करीबी रिश्तेदार हैबत जंग मारा गया. युद्ध हार कर मुस्तफा खान अजीमाबाद से भाग खड़ा हुआ.
सन १७४३ इसवी में पुन के मराठा बालाजी राव पेशवा के पचास हज़ार सवार के साथ बंगाल पर आक्रमण करने के लिय गया जिला से गुजरा और गया में जहाँ पहुंचा ज़मींदारों ने सर झुका लिया. सिवाय एक अहमद खान के जो दाउद खान के पोते थे और गोह में उनकी ज़मींदारी थी. उसने गौसगढ़ में नाममात्र उनका मुकाबला किया, बाद में उन्होंने पचास हज़ार रूपया जुरमाना मराठा को दे कर अपनी जान बचा ली. पहले मराठा लड़ाका मुंगेर होता हुआ भागलपुर पहुँचा और वहां से बंगाल के मुर्शिदाबाद इलाका में प्रवेश कर गया. दो तीन साल के बाद मराठा सेना बंगाल से युद्ध कर के वापसी के समय सन १७४५ के फ़रवरी माह में गया होती टिकारी पंहुची. वहां उसने अपने दुश्मन अलीवर्दी खान के मित्र राजा सुंदर सिंह के टिकारी किला के बाहरी इलाका को विनाश करते हुए सोन नदी को पार करते हुए इस जिले से बहार निकल गयी.
२० जून १७४५ में अफगान सरदार ने दुबारा पटना पर चढ़ाई कर दी. अलीवर्दी खान और राजा सुंदर सिंह की संयुक्त सेना पटना पहुँच गयी, इनलोगों की मुस्तफा खान की अफगान सेना से बक्सर के पास जगदीशपुर के मैदान में जबरदस्त लड़ाई हुई. इस युद्ध में अफगान सरदार मुस्तफा खान की हार हुई और वह मारा गया.
सन १७५१ इसवी में मराठा बालाजी बाजीराव पेशवा के नेतृत्व में मराठा लड़ाका पटना पहुंचा. अलीवर्दी खान और सुंदर सिंह के संयुक्त सेना ने फतुहा में उनलोगों के साथ जबरदस्त युद्ध किया जिसमें मराठा सरदार बालाजी बाजीराव पेशवा युद्ध हार गए.
इस जीत के बाद महाराजा सुंदर शाह की बहादुरी और वफादारी जगजाहिर हो गया. उनकी साहसिक कार्य दिन पर दिन बहुत कम समय में निखरते जा रहा था. महाराजा सुंदर सिंह की बहादुरी और कार्य को देख कर दिल्ली की मुग़ल बादशाह के द्वारा उन्हें बहुत सम्मान मिलने लगा.
उनकी यात्रा के लिय एक विशेष झालरदार पालकी की व्यवस्था की गयी. ऊंट के पीठ पर नागडा बजाता हुआ आदमी और टिकारी राज के निशान बने हुए ध्वज के साथ चलते थे. इस तरह के तगमा एवं सम्मान बड़े बड़े रजवाड़े को मिलता था.
राजा सुंदर शाह अपने पराक्रम से अनेक युद्ध में एक बहुत बड़ा मददगार हो कर उभरे. उन्हें दिल्ली के मुग़ल बादशाहों एवं बंगाल के नवाबों के द्वारा बराबर प्यार और सम्मान मिलता रहा था. वे अपनी शक्ति और बुधि से टिकारी राज का काफी विस्तार किया.
९ अप्रैल १७५६ इसवी में अलीवर्दी खान की 80 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गयी. उनकी पुत्री के लड़का सिराजदौला बंगाल के नवाब बना.पलासी के युद्ध में वह हार गए थे और मारे गए थे. २३ जून १७५७ इसवी को मीर जाफर बंगाल के नवाब बने. मीर जाफ़र के बड़ा लड़का अजीमाबाद के सूबेदार बनाये गए. इन सब घटित घटनाओ से सुंदर सिंह का मन बहुत व्यथित हुआ. वे अपने मित्र अलीवर्दी खान के परिवार वालों की दुर्दशा से दुखी हो कर उनके दुश्मनों के खिलाफ बदला लेने के मन बना लिय.
सुंदर सिंह एक सशक्त सेना जो युद्ध सामान से पूर्ण लैस बनाने की तैयारी करने लगे. उनकी सोच थी की एक बड़ा फौज लेकर अंग्रेजों, बंगाल के नवाब एवं अजीमाबाद के सूबेदार से युद्ध कर उनकी पराजित करना था. इसी सम्बन्ध में सुंदर सिंह इलाहबाद के नाजिम कुली खान, अवध के नवाब सुज़ाउदौला तथा दिल्ली के मुग़ल बादशाह अली गौहर से संपर्क करना शुरू कर दिया . वे सभी लोग सुंदर सिंह को सहायता करने के लिय तैयार हो गए. सभी लोग की सेना कर्मनाशा नदी के पास आ गयी थी. सुंदर सिंह उनकी सेना को आगवानी के लिय कर्मनाशा नदी पास चले गए थे. इसी समय राजा का भावुक पत्र राजकुमार को मिला और संभावित युद्ध को टाल दिया गया.
नरहट परगना के जागीरदार कामगार खान को महाराज सुंदर सिंह से जबरदस्त दुश्मनी थी, वे महाराजा के विरोधी थे. सुंदर सिंह ने कामगार खान को कई बार हराया एवं उसे प्रताड़ित किया था, उससे उसका किला और धन इत्यादि सब छिन लिया था. कामगार खान राजा के खिलाफ बराबर साजिश रचते रहता था.
कामगार खान ने राजा सुंदर सिंह के एक विश्वासी सैनिक घुलाम गौस को अपना बदला लेने के लिय इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. गुलाम गौस राजा के एक विश्वासी अंगरक्षक था. गुलाम गौस बहुत पहले से ही राजा सुंदर सिंह की हत्या करने की योजना बना रहा था. अब खतरनाक योजना में कामगार खान का सान्निध्य उसे प्राप्त हो गया था. उनलोगों के द्वारा एक खतरनाक षड्यंत्र तैयार की जा रही थी.
महाराजा सुंदर सिंह सन १७५८ को बसंत पंचमी के तीन बजे सुबह, रोज के दिनचर्या के तरह कसरत कर रहे थे. उसी समय गुलाम गौस अपने तलवार से राजा सुंदर सिंह के सर पर प्रहार कर उनका सर काट लिया. महाराजा सुंदर सिंह की हत्या हो गयी. गुलाम गौस राजा के सर को ले कर भागा जा रहा था लेकिन राजा के रिश्तेदार सूरत सिंह ने उसे पीछा कर के पकड़ कर गुलाम गौस की हत्या कर दी.
महाराजा सुंदर सिंह के समय मगध में टिकारी राज काफी प्रसिद्ध था. टिकारी राज की सीमा बहुत दूर तक फ़ैल गयी थी.टिकारी किला का निर्माण अभेद रूप में हो चूका था. टिकारी किला के आसपास टिकारी शहर ख़ूबसूरत रूप में बस चुका था.
सुंदर सिंह अपने नाम के अनुरूप सुंदर थे. ये कद काठी से काफी मजबूत थे. इनके पास इनका मनपसंद तलवार था. उन्होंने अपने तलवार का नामकरण काली किया हुआ था. उनका काली तलवार वर्षों तक टिकारी किला में शोभा बढाती रही थी. प्रत्येक वर्ष दशहरा में देवी पूजा में काली तलवार की पूजा होती थी.
महाराजा सुंदर सिंह अपने बड़े भाई राजा त्रिभुवन सिंह की मृत्यु के बाद से सन १७५८ तक का उनका शासन का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा रहा था. उनके द्वारा कई युद्ध में विजय, टिकारी राज का विस्तार, अपनी विशाल सेना का विस्तार में काफी योगदान रहा. उनका २२ वर्ष के कार्यकाल टिकारी राज के लिय मील का पत्थर साबित हुआ. उन्होंने अपने शासन कार्यकाल में मगध के नौ परगना पर कब्ज़ा कर लिया था और कई परगना के छोटे छोटे भाग पर विजय प्राप्त कर उसे अपने राज में मिला लिए थे.
सुंदर सिंह के पराक्रम का अन्दाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है की बिहार के दक्षिण में सुदूर कई दुर्गम पहाडी गढ़ पर भी उनका कब्ज़ा रहा था. वह टिकारी राज के सबसे महानतम शासक थे. आज भी लोग टिकारी राज के बाद सबसे पहले सुंदर सिंह के नाम याद करते है।
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