अधिकाँश मित्रों ने महाराज फ़तेह बहादुर शाही (Fateh Bahadur Shahi) के बारे में अधिक पढ़ा-सुना नहीं होगा. महाराज फतेहबहादुर शाही वर्तमान उत्तरप्रदेश और बिहार के बड़े इलाके एवं सीमावर्ती क्षेत्र के शासक रहे हैं.
बिहार के सारण जिले की हुसैपुर रियासत के मालिक थे, जो कि यूपी के कुशीनगर जिले तथा बिहार के हथुआ क्षेत्र से भी सम्बंधित रहे. माना जाता है कि फतेहबहादुर शाही के पूर्वज मयूर भट्ट, ईसा पूर्व में ही पश्चिमी भारत से संस्कृत एवं ज्योतिष की शिक्षा लेने वाराणसी आ गए थे. मयूर भट्ट की प्रतिभा से प्रभावित होकर श्रावस्ती के महाराज ने अपनी कन्या का विवाह उनसे कर दिया. शुरुआत में मयूर भट्ट आजमगढ़ में रहे, लेकिन फिर वहाँ से गोरखपुर चले गए और सारण जिले में अपना स्थायी ठिकाना कायम किया.
भारत के Fake Historians नकली इतिहासकारों (अर्थात वामपंथी) ने बंकिमचन्द्र के उपन्यास आनंदमठ एवं प्रख्यात कविता “वन्देमातरम” को ऐसा कहकर प्रचारित किया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के खिलाफ इन दोनों की कोई भूमिका नहीं है. वामी इतिहासकारों ने उस कालखंड में भी “हिन्दू-मुस्लिम” फर्जी एकता को अधिक बढ़ावा देते हुए इसे “संन्यासी-फ़कीर क्रांति” कहा, ताकि बंकिमचन्द्र (Anand Math and Bankim Chandra) द्वारा रची गयी एवं स्थापित की जा सकने वाली हिन्दू राष्ट्रवादी आवाजों को दबाया जा सके. इसीलिए वामपंथ लिखित फर्जी इतिहास में भवानी पाठक, देवी चौधरानी तथा मजनू शाह जैसे वास्तविक नायकों के विपरीत “संन्यासी-फ़कीर आन्दोलन” को ही किताबों में प्रमुखता से स्थान मिला. लेकिन अंग्रेजों की एक बात तो माननी पड़ेगी कि उन्होंने कई स्थानों पर भारतीय इतिहास में घटित कई घटनाओं को बिलकुल उसी स्वरूप में कलमबद्ध किया, जैसी वे घटित हुई थीं. इसीलिए ब्रिटिश लायब्रेरी में रखे रिकॉर्ड के अनुसार हुसैपुर के एक ब्राह्मण राजा (उन दिनों भूमिहार शब्द प्रचलन में नहीं था) फतेहबहादुर शाही का जबरदस्त आतंक अंग्रेजों के सिर चढ़कर बोलता था. अंग्रेज इतिहासकार आगे लिखते हैं कि यह बड़ा ही आश्चर्यजनक था कि “संन्यासी विद्रोह” को अकेले फ़तेह शाही ने लगातार तेईस वर्षों तक पूरी बहादुरी के साथ जारी रखा और अंग्रेजों की नाक में दम किए रहे. सन 1767 को अब लगभग 250 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन फतेहबहादुर शाही की बहादुरी, लड़ाकूपन एवं जीवटता का पाठ्यपुस्तकों में कहीं भी अच्छे से उल्लेख नहीं है. सन 1767 में शाही ने 5000 सैनिकों और एक छोटे से तोपखाने के सहारे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को लगातार खदेड़े रखा.
केवल पच्चीस तलवारबाजों के साथ जादोपुर में रातोंरात हमला करके राजा फतेहबहादुर शाही ने मीर जमाल का क़त्ल किया था. बरका बाज़ार, और लाईन बाज़ार में उन्होंने सरेआम अंग्रेज कमांडरों को ललकारा था, लेकिन लेफ्टिनेंट अर्क्सईन और लेफ्टिनेंट हार्डिंग की हिम्मत नहीं हुई कि वे सामने आ सकें. (कलकत्ता रिव्यू, 1883, पृष्ठ 80). 1765 के बक्सर युद्ध में बेतिया, काशी और हुसैपुर के लोगों ने विद्रोह करने का फैसला किया था. उनकी सेनाएँ गंगा पार करके बलिया पहुँचीं जहाँ काशी के महाराज द्विजराज बलवंत सिंह के साथ फतेहबहादुर शाही ने तमाम योजनाएँ बनाईं और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया. आगे चलकर काशी नरेश बलवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात उनका बेटा चेतसिंह ने भी ब्राह्मण राजा फतेहबहादुर शाही से मधुर सम्बन्ध बनाए रखे. धीरे-धीरे अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन आगे फैलने लगा. पंडित शाही ने राजकाज अपने परिजन को सौंपकर अपनी राजधानी को खत्म कर दिया और संन्यासी बन गए. बेतिया के राजा ने अंग्रेजों को तीन बार हराया. उस समय राजा फतेहबहादुर शाही ने संन्यासियों और गोरखपुर के नाथ-पंथियों को इकठ्ठा करके अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की. इस प्रकार जिसे “संन्यासी विद्रोह” कहा जाता है वह वास्तव में महाराज शाही के संन्यासी रूप की ही देन थी. पंडित फ़तेह शाही का अंग्रेजों से यह युद्ध उनके मरते दम तक चलता रहा और उन्होंने लगभग पच्चीस वर्ष तक इस पूरे क्षेत्र में अंग्रेजों को पैर नहीं जमाने दिए. वामपंथी इतिहासकारों ने अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ती एवं घृणित सेकुलर मानसिकता के कारण इस युद्ध को “संन्यासी-फ़कीर युद्ध” नाम दे डाला, जबकि इसमें मुस्लिमों का कोई रोल था ही नहीं. यही संन्यासी विद्रोह बंकिमचंद्र के उपन्यास "आनंदमठ" का मूल आधार है. यहाँ तक कि संन्यासी विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ “वन्दहूँ माता भवानी” का जो नारा लगाया जाता था, वही आगे चलकर बंकिमचंद्र के “वन्देमातरम” का प्रेरणा स्रोत बना. वामियों द्वारा इस ब्राह्मण योद्धा महाराज को इतिहास की पुस्तकों से योजनाबद्ध तरीके से गायब किया गया. हालाँकि आनंद भट्टाचार्य, जैमिनी मोहन घोष. कुलदीप नारायण, जगदीश नारायण, मैनेजर पाण्डेय, भोलानाथ सिंह जैसे इतिहासकारों एवं लोक-गायकों ने महाराज फतेहबहादुर शाही की वीरता के किस्सों को अपनी रचनाओं में जीवित रखा है.
अतः ऐसा स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है, कि 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से काफी पहले ही अंग्रेजों को खदेड़ने और उनसे लगातार युद्ध करने की प्रक्रिया आरम्भ की जा चुकी थी, परन्तु 1857 की क्रान्ति को अधिक प्रचार-प्रसार मिला, जबकि राजा फतेहबहादुर शाही को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला....
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