श्री बाबू का बिहार
आज ‘बिहार का विकास‘
के साथ उसके ‘विकास
पुरुष’ की चर्चा भी
अंतराष्ट्रीय पत्रिका ‘टाईम’ के पन्नों तक पहुँच गई है तब एक बारगी
आधुनिक बिहार के निर्मता और आज़ादी के बाद बिहार के स्वर्णिमकाल के दौरान
मुख्यमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिन्हा को याद करना ज्रुरुरी सा लगता है जिनके
कार्येकाल में देश की पहली पंचवर्षीय योजना में बिहार शीर्ष राज्य बन गया था. 1954
में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर
लाल नेहरु द्वारा गठित विदेशी विशेषजज्ञों की एक उच्च स्तरीय समिति ने उस समय प्रशासनिक
दृष्टिकोण से बिहार को उत्कृष्ट राज्य माना था.
श्रीबाबू
के नाम से लोकप्रिय रहे श्री कृष्ण सिन्हा 1936 से लेकर 1961 में अपनी मृत्यु तक बिहार के
मुख्यमंत्री रहे. उनका शासन काल कई
क्रान्तिकारी क़दमों के लिए जाना जात है ,जिसमें वैद्यनाथ धाम मंदिर (वैद्यनाथ
मंदिर, देवघर) में दलितों का
प्रवेश के दौरान नेतृत्व , जमींदारी उन्मोलन के लिए प्रयास करने वाले तत्कालीन
भारत के प्रथम मुख्यमंत्री. इस तरह के उद्हारण उनकी समाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाते
हैं .उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और आठ साल
कारावास में काटे .
श्रीबाबू
का जन्म अपने ननिहाल मुंगेर जिले के खनवा में 21 अक्टूबर 1887 हुआ था .
वैसे
उनका पैत्रिक गाँव मौर (बरबीघा के पास) शेखपुरा जिले के अंतर्गत आता है .जब वे
मात्र पांच साल के थे तब उनकी माँ की मृत्यु प्लेग की वजह से हो गई थी .उन्होंने
अपनी प्रारंभिक पढ़ाई अपने गाँव और जिला स्कूल मुंगेर से की उसके बाद 1906 में पटना कालेज चले गए जहाँ से उन्होंने
कानून की पढाई पुरी करने के बाद 1915
में मुंगेर वापस आकर वकालत शुरू कर दी .
1916 में
महात्मा गाँधी से बनारस में इनकी मुलाक़ात हुई . 1920 में गाँधी जी से हुई दुबारा मुलाक़ात के
दौरान इन्होने भारत से अंग्रेजी शासन खत्म करने की शपथ ली और 1921 में अपनी वकालत छोड़ असहयोग आंदोलन में
कूद गए .1922 में
इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1923 तक ये जेल में रहे इसी दौरान इन्हें बिहार केसरी के नाम से
जाना गया .
1927
में विधान परिषद के सदस्य बने और 1929 में बिहार प्रदेश कांग्रेस समिति के महासचिव
बन गए. 1930 के सत्याग्रह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. गिरफ्तारी के दौरन उनके
हाथों और छाती पर गंभीर चोटों आईं उन्हें छह
महीने के लिए गिरफ्तार कर जेल भेज दिया फिर सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान दो साल
के लिए फिर से गिरफ्तार किया गया. गांधी - इरविन समझौते के बाद उन्हें रिहा कर
दिया गया .
फिर इन्होने किसान सभा के साथ काम शुरू किया .
9 जनवरी, 1932 में दो साल
सश्रम कारावास और 1000 रुपये का जुर्माना की सजा सुनाई गई .. उन्हें अक्टूबर 1933 में हजारीबाग जेल से रिहा
किया गया. 1934 में बिहार में आए भूकंप के बाद राहत और पुनर्वास
में शामिल हुए .1934
से 1937 के लिए मुंगेर जिला परिषद के अध्यक्ष बने . 1935 में
कांग्रेस की केंद्रीय
सभा के सदस्य बन गए.
20 जुलाई 1937 में जब काँग्रेस को सत्ता मिली तो श्री बाबू को प्रिमीयर बनाया गया . सरकार बनाने के बाद श्री बाबू के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी। अपने कार्य एवम्
व्यवहार से जनता के बीच स्वराज के महत्व सिद्ध करना, सरकार को
जनोन्मुखी एवम् स्वराज का प्रतीक बनाना। इस दिशा में श्री कृष्ण सिंह ने सर्वप्रथम
काँग्रेस के मंत्रियो का वेतन 500 रू0 निर्धारित किया, जो पहले 5000 रू0 था। काँग्रेस ने अपने चुनाव द्योषणाप्रत्र में राजनितिक बंदियो को रिहा
करने का वादा किया था। श्री कृष्ण सिंह ने इस वादा को पुरा करने के लिए योगेन्द्र
शुक्ल सहित 23 अन्य
राजनितिक बंदियो को रिहाई का आदेश देकर स्वकृती हेतु संचिका गवर्नर के पास भेज दी
जिसे गवर्नर ने अस्वीकार कर दिया। इसके विरोध 15 फरवरी 1938 को श्री कृष्ण सिंह ने अपने
मंत्रीमण्डल का इस्तीफा गवर्नर को भेज दिया और उनके इस कदम से सारे देश में हलचल
मच गई। अंत में वायसराय को झुकना पड़ा और राजबंदियो के रिहाई की स्वीकृति मिल गई।
श्री कृष्ण सिंह ने 26 फरवरी 1938 को अपना इस्तीफा वापस ले
लिया। श्री कृष्ण सिंह के नेतृत्व में सरकार ने उलेखनीय कार्य किया। राजबंदियो को
रिहा किया गया, ब्रिटिश
शासन में जब्त 52 पुस्तकों
के प्रकाशन पर से रोक हटा ली गई। स्वायतशासी संस्थाओ द्वारा अपने भवनो पर
राष्ट्रीय झण्डा फहराने की आजादी दी गई।
प्रान्त के विकास हेतु तीन समितियाँ गठित कि गई। एक समिति
प्रान्त की सरकारी सेवाओ मे फैले भ्रष्टाचार एवम् उसके कारणो की जँाच हेतु बनी
दुसरी समिति संथाल परगना के प्रशासन की जाँच कर उसमें आवश्यक सुधार एवम् परिवर्तन
के अनुशंसा हेतु थी और तीसरी समिति, कार्यपालिका से न्यायपालिका
के अलग करने पर विचार करने हेतु बनी थी।
विकास के क्षेत्र में भी इस सरकार ने कई महत्वपुर्ण कार्य
किए। मजदूरों के जीवन स्तर मे सुधार हेतु राजेन्द्र बाबु की अध्यक्षता में श्रम
जाँच समिति बनी। टी0 के0 शाह की अध्यक्षता में शिक्षा
पुर्नगठन समिति बनी। 1938 में सामूहिक साक्षरता अभियान चलाया गया। महिला शिक्षिकाओं के
प्रशिक्षण हेतु व्यवस्था हुई। दलितों, आदिवासियों के आर्थिक एवम्
शैक्षणिक उत्थान हेतु निःशुल्क तकनिकी प्रशिक्षण एवम् शिक्षा की व्यवस्था हुई।
त्रृण के बोझ से दबे हुए किसानो के त्रृण को कम किया गया एवं
कई जगहो पर त्रृण समाप्त किया गया। मनीलेण्डर एक्ट पारित हुआ। रेण्ट रिडक्शन एक्ट
बना। जमीन्दारो की मनमानी रोकने के लिए ’’ बिहार काश्तकारी (संशोधन)
कानून 1938 पारित हुआ। कानून द्वारा भावली मालगुजारी समाप्त कर दी गई। मालगुजारी
में कमी की गई। जमीन्दारो द्वारा नाजायज वसूली पर रोक लगा दी गई। इस प्रकार श्री
कृष्ण सिंह ने बिहार में पहली बार जनता का शासन स्थापित करने का प्रयास किया।
दूसरे विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार की युद्ध निति के
खिलाफ श्री बाबु ने 31 अक्टूबर
1939 को अपने मंत्रीमंडल के सहयोगियों के साथ इस्तीफा दे दिया .
द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद मार्च 1946 में बिहार असेम्बली का चुनाव संपन्न हुआ जिसमें
काँग्रेस को भारी बहुमत मिली। 2 अप्रेल 1946 को बिहार में दुसरी बार काँग्रस की सरकार बनी।
उनके अनेक उल्लेखनीय कार्याे में से एक अति
महत्वपुर्ण कार्य भुमिसुधार कानून का पारित होना है। इसके फलस्वरूप बिहार भारत का
ऐसा पहला राज्य बना जहाॅ 1950 में ही जमीन्दारी प्रथा समाप्त हो गई।
जमीन्दारी प्रथा का तोड़ा जाना आर्थिक और समाजिक शोषण के खिलाफ लड़ाई का प्रथम
पड़ाव था।
1952-57
बीच श्रीबाबू द्वरा बरौनी
तेल रिफाइनरी जैसे उद्योगों, हटिया,
बोकारो स्टील प्लांट, बरौनी उर्वरक संयंत्र, बरौनी थर्मल पावर प्लांट, हाइडल पावर स्टेशन मैथन अल्झौर में
सल्फर खानों, सिंदरी
उर्वरक संयंत्र, कारगिल
कोयला वाशरी, बरौनी
डेयरी परियोजना, आदि
के लिए एचईसी संयंत्र राज्य के सर्वांगीण विकास की नीव रखी गई .
उनका
राज्य के सांस्कृतिक और सामाजिक विकास में भी काफी योगदान था. अनुग्रह नारायण
सिन्हा समाजिक शोध संस्थान, लोक रंगशालाके ,बिहारी छात्रों के लिए कलकत्ता में
राजेंद्र चतरा निवास की स्थापना की थी .बिहार संगीत नृत्य नाट्य परिषद, पटना में संस्कृत कॉलेज, पटना में रवीन्द्र भवन, राजगीर वेणु वन विहार में भगवान बुद्ध
की प्रतिमा ,मुजफ्फरपुर अनाथालय.
श्रीबाबू जब भी चुनाव लड़ते थे,
चुनाव के दौरान अपने चुनाव क्षेत्र में वोट मांगने खुद नहीं जाते थे.
फ़िर भी वे जीतते थे. इतना ही नहीं, जब वे 1957
में कांग्रेस विधायक दल के नेता पद का चुनाव लड़ रहे थे,
तो उन्होंने खुद अपना मत नहीं डाला. उनके खिलाफ़ उनके मित्र डॉ
अनुग्रह नारायण सिंह नेता पद के उम्मीदवार थे. अनुग्रह बाबू उम्मीदवार बनना नहीं
चाहते थे. पर उनके कुछ करीबी लोगों ने उन्हें खड़ा कर दिया था. कांटे की टक्कर में
खुद उम्मीदवार रहने के बावजूद श्रीबाबू ने कहा कि मैं अपना वोट नहीं डालूंगा.
किसके खिलाफ़ मैं वोट डालूं?
समाजवादी नेता पंडित रामनंदन मिश्र ने श्रीबाबू के
बारे में लिखा है कि नयी पुस्तक खरीदने और पढ़ने की उनमें अद्भुत चाहत रहती थी.
श्रीबाबू अपने वेतन का बड़ा हिस्सा उस पर खर्च कर देते थे.
बिहार केसरी को याद करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री
श्यामनंदन मिश्र ने लिखा था कि श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू बिहार की राजनीति में
एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे. लेकिन दुनिया में ऐसी मिसाल कम ही मिलती
है कि ऐसे माने जाने वाले प्रतिद्वंद्वियों में आपस में कभी भी गर्मागर्म बहस नहीं
हुई. वे जब मिलते थे, तो एक होकर ही निकलते थे. मतभेद की बात कौन कहे,
सौहार्द का ही वातावरण होता था. 1957 में नेता पद
के चुनाव में जीतने के बाद अनुग्रह बाबू बधाई देने के लिए श्रीबाबू के यहां आये
थे. श्रीबाबू ने अनुग्रह बाबू को पकड़ कर उन्हें जमीन से ऊपर उठा लिया था. मिलन के
इस अवसर पर श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू की आंखों में आत्मीयता के अविरल आंसू बह रहे
थे.
श्रीबाबू के निधन के बाद उनकी तिजोरी को तीन
सदस्यीय समिति की देखरेख में खोला गया था. समिति के सदस्य थे तत्कालीन कार्यवाहक
मुख्यमंत्री दीप नारायण सिंह, सवरेदय नेता जयप्रकाश नारायण और राज्य के मुख्य सचिव एसजे मजुमदार. श्रीबाबू
के परिजन सरकारी आवास में उनके साथ नहीं रहते थे. उस तिजोरी में मात्र 25 हजार रुपये थे और श्रीबाबू का
लिखा एक नोट भी था. लिखा था कि इसमें से 22 हजार रुपये कांग्रेस पार्टी को दे दिये जायें, जिसका सदस्य रहने से मुङो
प्रतिष्ठा मिली. दो हजार रुपये मेरे राजनीतिक मित्र शाह उजेर मुनीमी के पुत्र को
मिले, जो आर्थिक संकट ग्रस्त हैं. बाकी
एक हजार महेश प्रसाद सिन्हा की पुत्री की शादी में मेरी तरफ़ से उपहार के रूप में
दे दिये जायें.
उनके अनन्य सहयोगी एवं मित्र अनुग्रनारायण सिंह ने लिखा है कि 1921 के बाद का बिहार का इतिहास श्री बाबू के जीवन का
इतिहास है। प्रख्यात समाजवादी चिंतक एवम् नेता मधुलिमये ने अपनी पुस्तक ’’समाजवाद के पचास बरस’’ में लिखा है
कि ’’डा0 श्री कृष्ण
सिंह को यह श्रेय अवश्य मिलना चाहिए कि उन्होने अपने शासन काल में अमेरिका कि
टिनेसी धाटी की तरह बिहार, बंगाल के हित के लिए दामोदर धाटी योजना
बनवाई जिसमें देश हित का ज्यादा ध्यान रखा’’
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