साहित्य में संस्कृति के स्तंभ
समय अपनी गति से चलता है, अवसर बनाए जाते हैं। इस बार पाञ्चजन्य की आवरण कथा समय की इसी मंथर-धारा के बीच उछाले गए अवसर का एक कंकड़ है। स्वाभाविक है कि इस कंकड़ से कुछ तरंगें पैदा होंगी। होनी भी चाहिए।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की कालजयी रचना 'संस्कृति के चार अध्याय' के स्वर्ण जयंती वर्ष में साहित्य-संस्कृति के सूर्य की प्रखरता को पुन: अनुभव करने का यह प्रयास है। इस मौके पर दिनकर जी की कोई एक बात या कोई एक पुस्तक भी विमर्श का केंद्र हो सकती थी, किन्तु तब बात अधूरी रह जाती। दिनकर जी को संपूर्णता में समझना है तो किसी एक कृति के बाहर उस धारा में गोता लगाना होगा जिसमें महाकवि का मन तैरता रहता था। 'परशुराम की प्रतीक्षा', 'उर्वशी', 'रश्मिरथी', 'कुरुक्षेत्र'...छोटी-बड़ी अनेक कृतियां हैं। दिनकर जी का विपुल-विविध रचनाकर्म साहित्य में संस्कृति की सरिताओं का संगम है।
दिनकर जी के समस्त रचनाकर्म में छन्दों की लय में बहती, पराभूत भाव के बांध तोड़कर फूट निकलती यह धारा भारतीय पुरखों और परंपराओं का पुण्य प्रवाह है। इतिहास के आख्यान उनकी रचना का आलंबन हैं। ऐतिहासिक-पौराणिक प्रतीकों की धुंधली-गड्डमड्ड छवियां उनकी कलम से प्राण पाती हैं और इस तरह जीवंत हो उठती हैं कि चमत्कृत कर देती हैं।
रामधारी सिंह 'दिनकर' को राष्ट्रकवि कहा गया। यह पदवी यूं ही नहीं हैै। यह राजमुकुट की हामी से बंधी ऐसी कलगी नहीं है जो जिसे राजा चाहे उसकी पगड़ी में टांक दी जाए। हालांकि उन्हें अनेक पुरस्कार और उच्च पद प्राप्त हुए, किन्तु निश्चित ही यह विरुदावलि गायन का पुरस्कार भी नहीं है। कवि के पद जब जनता के मन तक सहज उतरते हैं, आंदोलित, आह्लादित, उद्वेलित करते हैं तो ऐसी पदवी प्राप्त होती है।
स्वयं दिनकर जी का कथन है कि राजनीति साहित्य की चेरी होती है। ऐसा रचनाकार सत्ता के निकट दिख सकता है किन्तु किसी सिंहासन से बंधा हो ही नहीं सकता। निश्चित ही स्वतंत्र भारत में कविश्रेष्ठ मैथिलीशरण गुप्त के बाद यदि रामधारी सिंह 'दिनकर' को इस उपमा से अलंकृत किया गया तो इसकी वजह राजसत्ता की इच्छा से ज्यादा जनता की आकांक्षाओं से जुड़ी थी।
वैसे, हैरानी की बात है कि जो दिनकर भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल के निकट रहे आज उस पार्टी की दिनकर के रचनाकर्म और स्मरण में कोई दिलचस्पी नहीं। स्कूली किताबों में से कैसे दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त सरीखे भारतीयता के पोषक कवि छांटे गए,यह एक बड़ी बहस हो सकती है। यह साहित्यिक मंडलियों से परे राजनीतिक गलियारों तक का विषय हो सकता है परंतु हम इसमें नहीं पड़ते।
अपनी ओजस्वी लेखनी के माध्यम से राष्ट्र और इसकी स्वर्णिम परंपराओं का जयघोष करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के विविध-विपुल रचनाकर्म का स्मरण शोधार्थियों को स्तंभित, आलोचकों को स्पंदित और साहित्य रसिकों को आनंदित करने का कारण बने तो यह प्रयास सार्थक होगा
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की कालजयी रचना 'संस्कृति के चार अध्याय' के स्वर्ण जयंती वर्ष में साहित्य-संस्कृति के सूर्य की प्रखरता को पुन: अनुभव करने का यह प्रयास है। इस मौके पर दिनकर जी की कोई एक बात या कोई एक पुस्तक भी विमर्श का केंद्र हो सकती थी, किन्तु तब बात अधूरी रह जाती। दिनकर जी को संपूर्णता में समझना है तो किसी एक कृति के बाहर उस धारा में गोता लगाना होगा जिसमें महाकवि का मन तैरता रहता था। 'परशुराम की प्रतीक्षा', 'उर्वशी', 'रश्मिरथी', 'कुरुक्षेत्र'...छोटी-बड़ी अनेक कृतियां हैं। दिनकर जी का विपुल-विविध रचनाकर्म साहित्य में संस्कृति की सरिताओं का संगम है।
दिनकर जी के समस्त रचनाकर्म में छन्दों की लय में बहती, पराभूत भाव के बांध तोड़कर फूट निकलती यह धारा भारतीय पुरखों और परंपराओं का पुण्य प्रवाह है। इतिहास के आख्यान उनकी रचना का आलंबन हैं। ऐतिहासिक-पौराणिक प्रतीकों की धुंधली-गड्डमड्ड छवियां उनकी कलम से प्राण पाती हैं और इस तरह जीवंत हो उठती हैं कि चमत्कृत कर देती हैं।
रामधारी सिंह 'दिनकर' को राष्ट्रकवि कहा गया। यह पदवी यूं ही नहीं हैै। यह राजमुकुट की हामी से बंधी ऐसी कलगी नहीं है जो जिसे राजा चाहे उसकी पगड़ी में टांक दी जाए। हालांकि उन्हें अनेक पुरस्कार और उच्च पद प्राप्त हुए, किन्तु निश्चित ही यह विरुदावलि गायन का पुरस्कार भी नहीं है। कवि के पद जब जनता के मन तक सहज उतरते हैं, आंदोलित, आह्लादित, उद्वेलित करते हैं तो ऐसी पदवी प्राप्त होती है।
स्वयं दिनकर जी का कथन है कि राजनीति साहित्य की चेरी होती है। ऐसा रचनाकार सत्ता के निकट दिख सकता है किन्तु किसी सिंहासन से बंधा हो ही नहीं सकता। निश्चित ही स्वतंत्र भारत में कविश्रेष्ठ मैथिलीशरण गुप्त के बाद यदि रामधारी सिंह 'दिनकर' को इस उपमा से अलंकृत किया गया तो इसकी वजह राजसत्ता की इच्छा से ज्यादा जनता की आकांक्षाओं से जुड़ी थी।
वैसे, हैरानी की बात है कि जो दिनकर भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल के निकट रहे आज उस पार्टी की दिनकर के रचनाकर्म और स्मरण में कोई दिलचस्पी नहीं। स्कूली किताबों में से कैसे दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त सरीखे भारतीयता के पोषक कवि छांटे गए,यह एक बड़ी बहस हो सकती है। यह साहित्यिक मंडलियों से परे राजनीतिक गलियारों तक का विषय हो सकता है परंतु हम इसमें नहीं पड़ते।
अपनी ओजस्वी लेखनी के माध्यम से राष्ट्र और इसकी स्वर्णिम परंपराओं का जयघोष करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के विविध-विपुल रचनाकर्म का स्मरण शोधार्थियों को स्तंभित, आलोचकों को स्पंदित और साहित्य रसिकों को आनंदित करने का कारण बने तो यह प्रयास सार्थक होगा
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