Tuesday 21 July 2015

आनंद बख्शी : जीवन की सरलता का गीतकार

आनंद बख्शी के बेहद सरल बोलों ने उन्हें आम आदमी का सबसे पसंदीदा गीतकार बना दिया.
40 साल से भी ज्यादा लंबा फिल्मी सफर, चार हजार से भी ज्यादा गीत और 40 बार फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकन. ये आंकड़े खुद ही बता देते हैं कि आनंद बख्शी ने जो रचा उसका दायरा कितना विशाल था. शमशाद बेगम हों या अलका याग्निक या मन्ना डे या फिर कुमार सानू. गायक आते-जाते रहे, उनके लिए शब्द रचने वाला यह गीतकार वहीं रहा.
21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी में जन्मे आनंद बख्शी गीतकार के साथ-साथ गायक भी बनना चाहते थे. अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए वे 14 साल की उम्र में घर से भागकर बंबई आ गए. शुरुआत में मौका नहीं मिला तो जिंदगी चलाने के लिए उन्होंने कई साल तक पहले नौसेना और फिर सेना में काम किया. इस दौरान भी फिल्मी दुनिया में जाने की धुन उनके सिर से उतरी नहीं.
1965 में आनंद बख्शी के करियर ने एक बड़ी करवट ली. इसी साल उनकी दो फिल्में आईं. ये थीं हिमालय की गोद में और जब-जब फूल खिले. इन फिल्मों ने उनकी शोहरत को आसमान पर पहुंचा दिया.
1958 में आनंद बख्शी को पहला ब्रेक मिला. भगवान दादा की फिल्म भला आदमी के लिए उन्होंने चार गीत लिखे. फिल्म तो नहीं चली, लेकिन गीतकार के रूप में उनकी गाड़ी चल पड़ी. इसके बाद उन्हें फिल्में मिलती रहीं. काला समंदर, मेहंदी लगी मेरे हाथ जैसी फिल्मों के लिए उनकी थोड़ी-बहुत चर्चा होती रही.
1965 में आनंद बख्शी के करियर ने एक बड़ी करवट ली. इसी साल उनकी दो फिल्में आई थीं-हिमालय की गोद में और जब-जब फूल खिले. इन दोनों फिल्मों ने उनकी लोकप्रियता को अचानक ही आसमान पर पहुंचा दिया. मैं तो एक ख्वाब हूं से लेकर परदेसियों से न अखियां मिलाना जैसे गाने हर जुबां की पसंद बन गए. इसके बाद तो आराधना, कटी पतंग, शोले, अमर अकबर एंथनी, हरे रामा हरे कृष्णा, कर्मा, खलनायक, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, ताल, गदर-एक प्रेमकथा और यादें तक चार दशक से भी ज्यादा समय तक वे अपने गीतों की फुहारों से लोगों के दिलों को भिगोते रहे.
आनंद बख्शी गायक बनने का सपना लिए भी बंबई आए थे. 1972 में उनकी यह इच्छा पूरी हुई. फिल्म मोम की गुड़िया में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ उन्होंने अपना पहला गाना गाया–‘मैं ढूंढ रहा था सपनों में’. निर्देशक मोहन कुमार को वह गाना इतना अच्छा लगा कि उन्होंने ऐलान कर दिया कि आनंद बख्शी, लता मंगेशकर के साथ एक युगल गीत भी गाएंगे. यह गाना था– ‘बागों में बहार आई, होठों पे पुकार आई‘. यह खूब चला भी.  इसके बाद तो उन्होंने शोले, महाचोर, चरस और बालिकावधू जैसी कई फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी.
सिकंदर और पोरस का एक नाटक देखने के दौरान पोरस को सिकंदर के सामने बंधा देख उन्होंने लिखा–मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए.
आनंद बख्शी की सबसे खास बात थी उनके गीतों के सरल बोल. जब-जब फूल खिले से लेकर कटी पतंग, शोले, हरे रामा हरे कृष्णा, सत्यम शिवम सुंदरम और 2001 में आई उनकी आखिरी फिल्में गदर-एक प्रेमकथा और यादें इसका उदाहरण हैं. यही वजह है कि उन्हें आम आदमी का गीतकार कहा जाता था. उनके गीतों में रहस्यवाद से ज्यादा जीवन की सरलता थी. बहुत आम सी परिस्थितियों से वे गीत खोज लाते थे. मसलन सिकंदर और पोरस का एक नाटक देखने के दौरान पोरस को सिकंदर के सामने बंधा देख उन्होंने लिखा–मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए. यह गीत खासा मशहूर हुआ.
‘बड़ा नटखट है किशन कन्हैया’, ‘कुछ तो लोग कहेंगे’, ‘आदमी मुसाफिर है’, ‘दम मारो दम’ और ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम’ तक आनंद बख्शी ने चार हजार से भी ज्यादा गीत रचे. उदित नारायण, कुमार सानू, कविता कृष्णमूर्ति और एसपी बालसुब्रमण्यम जैसे अनेक गायकों का पहला गीत उन्होंने ही लिखा. 40 बार वे फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित किए गए और चार बार यह पुरस्कार उनकी झोली में आया. आखिरी फिल्मफेयर पुरस्कार उन्हें 1999 में सुभाष घई की फिल्म ताल के गीत इश्क बिना क्या जीना यारों के लिए मिला था.
आनंद बख्शी सिगरेट बहुत पीते थे. इसके चलते उन्हें फेफड़ों और दिल की तकलीफ हो गई. 30 मार्च, 2002 को 72 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. लेकिन आम आदमी की भावनाओं को जुबान देने वाले उनके गीत अमर हैं.

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home