Tuesday 1 December 2015

शहादत की असली वजह तो समझें लेफ्टि.जन. (रिटा.) @सैयद अता हसनैन

पिछले हफ्ते कर्नल संतोष महाडिक कश्मीर के कुपवाड़ा सेक्टर में घुसपैठिए आतंकियों के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए। इस साल की शुरुआत में पुलवामा के ट्राल में कर्नल राय भी ऐसे ही संघर्ष में शहीद हुए थे। इनके बाद सोशल मीडिया के ट्रेंड पर गौर करते हुए अहसास हुआ कि आतंकवाद विरोधी अभियानों में हताहत होने की घटनाओं के बारे में सार्वजनिक क्षेत्र में समझ का कितना अभाव है। यहां तक इशारा किया गया कि सैनिकों के साथ अंग्रिम पंक्ति में लड़ने वाले कमांडिंग ऑफिसरों ने मूर्खतापूर्ण दुस्साहस दिखाया। यह बहुत ही दुखद है।

हाल में की गई एक और टिप्पणी में कहा गया कि हताहतों की संख्या देखते हुए लगता नहीं कि पिछले 30 साल से जम्मू-कश्मीर पर भारतीय सेना का नियंत्रण रहा है। एक अन्य टिप्पणी में तो यह कहा गया कि कमांडिंग ऑफिसर देश की रणनीतिक संपदा होते हैं, जिस पर सरकार बहुत पैसा खर्च करती है और उन्हें अपनी जिंदगी इस तरह ज़ाया नहीं करनी चाहिए। इन टिप्पणियों से न सिर्फ वहां कि परिस्थिति, अभियानों के चरित्र, इलाके की मजबूरियों और जम्मू-कश्मीर के छद्‌म युद्ध में हमारी स्थिति के बारे में अज्ञान जाहिर होता है बल्कि संवेदनशीलता के भी पूर्ण अभाव का पता चलता है। कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारी हैं, जिन्होंने लंबे समय तक चलने वाले आतंकवाद विरोधी अभियानों को नहीं देखा है।
वे इन अभियानों को परंपरागत दृष्टिकोण से ही देखते रहे हैं। सोशल मीडिया से सारे लोगों को टिप्पणियां करने का अधिकार व जरिया मिल गया है, चाहे उन्हें विषय का ज्ञान हो अथवा नहीं। दुर्भाग्य से मीडिया घरानों को भी इस बात का गहरा अहसास नहीं होता कि सोशल मीडिया पर क्या ट्रेंडिंग है और ऐसा कम ही होता है कि वे कोई मूल्यवान जानकारी या विश्लेषण प्रस्तुत कर पाते हों। ऐसी परिस्थिति में सेना के अपने जनसंपर्क-तंत्र को पूरी ताकत से लग जाना चाहिए। उसे सूचनाओं की खामियां पता लगाकर समाचार माध्यमों को मामले की संवेदनशीलता से परिचित कराना चाहिए।

घाटी में अब करीब 200 आतंकी ही शेष हैं और पिछला साल घुसपैठ विरोधी अभियान की सफलता का साल रहा। ऐसे में सेना अब घुसपैठ पर और लगाम लगाने के साथ आतंकवाद विरोधी अभियान चला रही है ताकि भीतरी इलाकों में आतंकियों की संख्या और घटाई जा सके। इन अभियानों में हताहतों की संख्या ज्यादा रहने की आशंका हमेशा रहती है, क्योंकि बड़ी संख्या में तलाशी अभियान मंे लगे सैनिकों को हमले का जोखिम अधिक रहता है। जैसे-जैसे आतंकियों की संख्या घटती जाती है, मारे गए आतंकियों की तुलना में हमारे हताहतों की संख्या बढ़ेगी। सैन्य अभियानों के लिए यह अपरिहार्य घटनाक्रम है, जिसे आम नागरिकों को समझना चाहिए और पेशेवर लोगों को इसे समझाना चाहिए।
एक बार यदि आतंकी उनके लिए बिछाए जाल से बचकर निकल जाएं और तलाशी अभियान की अवधि बढ़ जाए तो सीधी मुठभेड़ का जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। इसमें नियंत्रण रेखा के नजदीक होने वाले अभियान सबसे कठिन होते हैं और घुसपैठ विरोधी ग्रिड की दूसरी पंक्ति में तो यह और अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आतंकी मारे जाएंगे, लेकिन चूंकि वे छिपे हुए हैं तो पहली गोली उनकी ओर से ही चलेगी और हताहत हम होंगे, जब तक कि आप उनका पता लगाकर उन्हें अलग-थलग न कर लें। यही सबसे बड़ी चुनौती है। यदि हम टेक्नोलॉजी के साधनों या खुफिया सू्त्रों के जरिये उनका पता लगा लेते हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि पर्याप्त बल और रणनीति का उपयोग कर उनकी ओर से गोली चलने के पहले ही उन्हें खत्म कर दिया जाएगा।
ये बड़ी जटिल परिस्थितियां होती हैं, जिनमें कई बार सैनिकों को सामने आने का जोखिम लेना पड़ता है ताकि आतंकी गोली चलाने पर मजबूर होकर खुद का पता-ठिकाना उजागर कर दें। अब कमांडिंग अफसरों की बात करें कि क्यों उनके लिए हमेशा जोखिम बना रहता है। सारे अभियानों में कमांडिंग ऑफिसर की मौजूदगी का गोल्डन रूल यह है कि यदि अभियान में दो या अधिक कंपनियां शामिल हैं तो कमांडिंग अॉफिसर अभियान का नेतृत्व करता है। यदि अभियान में दो से कम कंपनियां भी हों तो भी अतिरिक्त बल की जरूरत के आकलन और अभियान का दायरा बढ़ाने के लिए कमांडिंग अॉफिसर की मौजूदगी जरूरी होती है। अब यह तो संयोग की बात है कि कौन-सी टीम का आतंकियों से सबसे पहला सामना होता है। वह कमांडिंग ऑफिसर की टीम भी हो सकती है। यदि आतंकी सैन्य जाल से बचकर निकल गए हों और तलाशी अभियान लंबा खिंच गया हो तो जोखिम बढ़ जाती हैै।
कुपवाड़ा के केरन सेक्टर में अक्टूबर 2013 का अभियान याद कीजिए, जब सेना ने समय से पहले ही 15 से ज्यादा आतंकियों के मारे जाने की घोषणा कर दी थी। मीडिया सैन्य नेतृत्व पर सबूत दिखाने के लिए पूरी ताकत से टूट पड़ा था। इससे तेजी से कार्रवाई करने का दबाव बढ़ गया। शुक्र की बात रही कि तब हमारी ओर से कोई हताहत नहीं हुआ।
याद रहें कि जब तक कमांडिंग अॉफिसर अग्रिम मोर्चे पर नहीं होगा उसे स्थिति की जरूरतों का अहसास नहीं हो सकेगा। इसके अलावा कंपनी कमांडर के अपेक्षाकृत युवा होने से कमांडिंग अफसरों को उनके निकट रहने की अपरिहार्यता महसूस होती है। ऑफिसर कैडर में कमी की समस्या के कारण हम अग्रिम मोर्चे पर भी तुलनात्मक रूप से युवा और अनुभवहीन अफसरों को भेजने पर मजबूर हो जाते हैं।
संभव है कि कमांडिंग अफसर तलाशी के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जा रहा हो और अपनी कमांडिंग ऑफिसर पार्टी (सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित टुकड़ी) के साथ बीच में ही आतंकवादियों से मुठभेड़ हो जाए। नियम ही यही है कि एक बार आतंकवादियों से संघर्ष शुरू हो जाए तो कमांडिंग ऑफिसर की पार्टी और आपातकालीन वाहन वहां पहुंच जाते हैं । वह ऐसे घरों में नहीं जाएगा, जहां से आतंकी खदेड़े नहीं गए हैं या उन्हें निरापद नहीं किया गया है, लेकिन हर वक्त सक्रिय रहने के कारण उस पर खतरा मंडराता रहता है। अपनी कमांड पोस्ट में ही डटा हुआ कमांडिंग ऑफिसर तो कमांडिंग ऑफिसर ही नहीं है।

हमारे सैनिक हताहत तो होंगे, इसमें हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए और मैं यह भी साफ कर दूं कि यदि हमारे अधिकारी व सैनिक इतने सक्रिय और हमेशा अपनी ओर से पहल करने वाले न हों, तो वे हताहत भी नहीं होंगे। कंपनी कमांडर 15 से 17 साल की कड़ी मेहनत के बाद वहां पहुंचते हैं और उन्हें शायद ही किसी सलाह की जरूरत होती है। सूचनाओं की भूखी इस दुनिया में सेना के जनसंपर्क तंत्र को ऐसी जमीनी जानकारी सार्वजनिक क्षेत्र में लानी चाहिए ताकि गलत खबरों पर आधारित अटकलबाजी रोकी जा सके। सुरक्षा का मामला पेशेवर लोगों पर छोड़ देना चाहिए, वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। जहां तक जम्मू-कश्मीर के सुरक्षा परिदृश्य का सवाल है,वह पूरी तरह भारतीय सेना के काबू में है

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