Thursday, 21 May 2015

सामासिक संस्कृति से एकात्म संस्कृति तक

आज से लगभग साठ साल पहले हिन्दी साहित्य के ओजस्वी कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने 'संस्कृति के चार अध्याय' नामक सुप्रसिद्ध पुस्तक लिखी थी, जिसका उद्देश्य था बाहरी आर्य और भीतरी अनार्य के बीच भिड़ंतों वाले साम्राज्यवादी इतिहास के मनगढ़ंत किस्सों के बदले आर्य और आर्येतर जातियों में मेल-जोल से विकसित हुई सामासिक संस्कृति को स्थापित करना। निश्चय ही यह संस्कृति-बोध अंग्रेजों की विभेदवादी इतिहास दृष्टि से आगे की धारणा थी। तब स्वाधीन भारत की संघीय संरचना के अनुकूल जनतांत्रिक राजनीति के लिए ऐसे ही सांस्कृतिक इतिहास की जरूरत थी।

इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में दिनकर ने लिखा है, 'एक समय मैं इतिहास का विद्यार्थी अवश्य था, किन्तु जब से कविता और निबन्ध में लगा, तब से इतिहास के साथ मेरा संपर्क, एक प्रकार से छूट-सा गया। तब वर्ष1950 में मुझे छात्रों को साहित्य पढ़ाने के लिए भेजा गया। वहां साहित्य की सामासिक पृष्ठभूमि समझने के क्रम में मुझे इतिहास की पुस्तकें फिर से उलटनी पड़ीं और धीरे-धीरे फिर से मैं इतिहास की गहराई में उतरने लगा।' स्पष्ट है कि साहित्य की 'सामासिक पृष्ठभूमि' समझने के क्रम में दिनकर ने इतिहास से भारतीय संस्कृति की ओर यात्रा की और साहित्य तथा इतिहास में प्राप्त सामासिक लक्षणों के आधार पर ही भारतीय संस्कृति को 'सामासिक संस्कृति' माना। उन्होंने अपनी पुस्तक का समर्पण 'सामासिक संस्कृति' की साकार प्रतिमा के संबोधन सहित भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद के पुनीत कर कमलों में किया है।

भारतीय संस्कृति को सामासिक संस्कृति कहने के पीछे कारण क्या है? यह जानने के लिए समास शब्द के व्याकरणिक अर्थ की कुछ चर्चा कर लेनी चाहिए। व्याकरण में समास के विषय में कहा गया है कि 'समसनं समास:' अर्थात जब बहुत से पदों को मिलाकर एक पद बना दिया जाए तब उसे समास कहते हैं। इस सम्मिश्रण से व्याकरण में समास के पांच भेद बनते हैं, संस्कृति के समास के भेद भी होते ही होंगे पर, अभी तक मेरी जानकारी में इन भेदों का कोई विवरण नहीं है। मुझे व्याकरण के नियम से यही ज्ञात है कि निरर्थक और असंबद्ध शब्दों में कोई समास नहीं होता, समास की यह शर्त है कि समास बनाने वाले पदों में सामर्थ्य अपेक्षित है- 'समर्थ: पदविधि:'। 

इस नियम के अनुसार राष्ट्र की संस्कृति को यदि सामासिक संस्कृति ही बनाकर रखना हो, तब भी निरर्थक और बेमेल तत्वों से यह नहीं बनाई जा सकती। लेकिन, कांग्रेस संस्कृति के नेता और संस्कृतिकर्मी असामासिक तत्वों के बीच भी समास बनाते हुए अक्सर पाए जाते हैं, एक संस्कृति ज्ञाता ने श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के दिनों 'सहामेट' नाम की वामपंथी संस्था से जातक की कथा के आधार पर काशीनगरी के राजा दशरथ की तीन संतानों की जानकारी उजागर करवाई थी जिनके नाम थे- राम, लक्ष्मण और सीता। राम बड़े भाई थे, लक्ष्मण उनके छोटे भाई और सीता सबसे छोटी बहन थी। इस निरर्थक और असंबद्ध बातों से कोई सामासिक संस्कृति नहीं बन सकती। इसी तरह की कई व्यर्थ सामासिकता की कोशिशें हुई हैं जिनका उद्धार तो केवल एकात्म राष्ट्रीय संस्कृति से ही हो सकता है।

संस्कृति के चार अध्याय का लेखन नेहरू-युग में हुआ था। इस पुस्तक की प्रस्तावना जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी। नेहरू ने 'मेरे मित्र और साथी दिनकर' लिखकर दिनकर के प्रति आत्मीयता प्रकट की है। उनका विचार है कि 'भारत में बसने वाली कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है। आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो हमारे भाव, विचार और काम सबके सब अधूरे रह जाएंगे।'

प्रश्न उठता है कि क्या नेहरू युग में कोई अकेली भारतीय जाति भारत पर एकाधिकार का दावा कर रही थी, या आज भी कर है? नहीं। फिर किसके एकाधिकार को निरुत्साहित करना आवश्यक प्रतीत हुआ? वस्तुत: भारत में किसी जाति की नहीं, परोक्ष रूप में एकात्म शक्ति की भूमिका होती है जिसका कभी कभी प्रकटीकरण होता है, इसी एकात्मता में आत्मसाती शक्ति भी है। यह राष्ट्र की चितिशक्ति है, इसके अतिरिक्त दूसरी कोई राष्ट्र को धारण करने वाली शक्ति नहीं है। इतिहास मंथन से विद्वानों को राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में चितिशक्ति का आभास होता है और तब स्वार्थ के कारण बोली बदलने लगती है। 

संस्कृति के चार अध्याय की प्रस्तावना में नेहरू ने लिखा है-'भारत में संस्कृति के सबसे प्रबल उपकरण आर्यों और आर्यों से पहले के भारतवासियांे खासकर, द्रविड़ों के मिलन से उत्पन हुए। इस मिलन, मिश्रण या समन्वय से एक बहुत बड़ी संस्कृति उत्पन्न हुई, जिसका प्रतिनिधित्व हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत करती है।' आर्य और द्रविड़ मिलन की जानकारी देने के बाद नेहरू यह बताते हैं कि 'संस्कृत और प्राचीन पहलवी, ये दोनों भाषाएं एक ही मां से मध्य एशिया में जन्मी थीं। किन्तु, भारत में आकर संस्कृत ही यहां की राष्ट्रभाषा हो गई। यहां संस्कृत के विकास में उत्तर और दक्षिण दोनों ने योगदान दिया। सच तो यह है कि आगे चलकर संस्कृत के उत्थान में दक्षिण वालों का अंशदान अत्यन्त प्रमुख रहा। संस्कृति हमारी जनता के विचार और धर्म का ही प्रतीक ही नहीं बनी, वरन् भारत की एकता भी उसी भाषा में साकार हुई। बुद्ध से लेकर अब तक संस्कृत यहां की जनता की, बोली जाने वाली भाषा कभी नहीं रही, फिर भी सारे भारतवर्ष पर अपना प्रचुर प्रभाव डालती ही आई है।' 

अंग्रेजों से प्राप्त नेहरू की इतिहास दृष्टि विवादित है। जैसे विलियम जोन्स ने लैटिन और संस्कृत को जन्म देने वाली तीसरी भाषा की कल्पना की थी, नेहरू ने भी संस्कृत और पहलवी को जन्म देने वाली मध्य एशिया की तीसरी भाषा की कोरी कल्पना की है। इसी तरह आर्य और द्रविड़ को दो जातियां मानने में कठिनाई आती है। उदाहरण से इस समस्या को देखें- आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य ने स्वयं को 'द्रविड़ शिशु' कहा और वे आर्य ज्ञान के सर्वमान्य प्रवर्तक हुए। इससे ज्ञात होता है कि आर्य और द्रविड़ को अंग्रेजी शब्द 'रेस' के अर्थ में दो जातियां नहीं कहा जा सकता। आर्य शब्द को जाति के अर्थ प्रयोग करना गलत है। 'ऋ' के 'ण्यत्' के योग 'आर्य' शब्द बनता है। 'ऋ' गतौ/गति के अर्थ में है। जिनका अभिप्राय है गमनीय, प्रात्वय, इसके निकट जाना चाहिए, जैसे माता, पिता, गुरु, सुहृत जिनके पास जाने से हित होता है। ऐसा हितकारी व्यक्ति किसी भी वर्ण या जाति समूह का हो सकता है। इसलिए वेद में पूरे विश्व को आर्य बनाने का स्वर सुनाई देता है। गौतम बुद्ध ने अपन उपदेशों को परम्परा से प्राप्त 'अरिय सच्च' अर्थात् आर्य-सत्य कहा है। भारत के उत्तर-दक्षिण भू-भागों में बसने वाले तथाकथित आर्य और द्रविढ़ ऋषि कुलों के गोत्र, वेद, शाखा, सूत्र में से कोई संबंध अवश्य है। इस संबंध को बताने वाले सामाजिक इतिहास के पारंपरिक आधार को आधुनिक इतिहास लेखन अभी शिरोधार्य नहीं कर पाया है, कर लेता तो जातियों के बीच की दूरियां ही नहीं, भारत के विभिन्न भूभागों में बसने वाले देशवासियों के बीच की दूरियां पटती जातीं और तब भारत में सामासिक संस्कृति के बदले एकात्म संस्कृति को स्वीकारना पड़ता।

दिनकर ने भारतीय संस्कृति के चार अध्याय बनाए हैं, उनमें पहले अध्याय का विवरण इस प्रकार है-'आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओें का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृति के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आयार्ें के दिए हुए हैं और उसका दूसरा भाग आर्येतर जातियों का अंशदान है। दूसरे अध्याय का विवरण देखिए- 'महावीर और गौतम बुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्तनधारा को खींच कर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए।' 

तीसरे अध्याय का विषय है-'विजेताओं के मजहब के रूप में इस्लाम भारत पहुंचा और इस देश में हिन्दुत्व के साथ उसका संपर्क हुआ,' और चौथे अध्याय में 'भारत में यूरोप का आगमन तथा उसके संपर्क में आकर हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों ने नवजीवन का अनुभव किया' (लेखक का निवेदन, प्रथम संस्करण से)। दिनकर ने इन्हीं प्रकरणों को 'चार क्रांतियों का संक्षिप्त इतिहास' कहा है और यह भी कहा है कि 'पुस्तक का नाम कदाचित् भारतीय संस्कृति के 'चार सोपान' रख दिया जाता तो इससे यही अर्थ निकलता कि आर्य और आर्येतर संस्कृतियों से आरंभ हुई भारतीय संस्कृति उत्तरोतर युगों सीढि़यां चढ़ती हुई जब अंग्रेज युग में पहुंची, उसने आकाश छू लिया और धन्य हो गई। दिनकर ने ऐसा नहीं किया, उन्होंने नाम संस्कृति के चार सोपान के बदले चार अध्याय ही रहने दिया। और जब 1962 में नेहरू के पंचशील संदेश को चोंच में लेकर उड़ने वाले सुशील, सुशान्त कबूतरों को चीन ने मार डाला, उनकी बौद्ध कूटनीति की हार हो गई, राष्ट्र संकट में पड़ गया, तब कवि दिनकर ने हिमालय से गुहार लगाई- 'मेरे नगपति ! मेरे विशाल!! ़.़.़ रे रोक युधिष्ठर को न यहां, जाने दे तू स्वर्ग धीर। लौटा दे तू गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥' 

यही महाभारती, पौरुष कवि दिनकर की रचनाओं की जान है, लोकप्रियता का कारण है। महाभारत की सतत् प्रवाहमान ऊर्जा यानी गीता के स्वर को सामासिकता की ओट में कितना छिपाया जा सकता है, वह प्रकट हुआ।

कवि राजनीतिक प्रतिष्ठान से वास्तविक आधार नहीं पाता, लोक मानस से ही उसे वास्तविक आधार मिलता है और कवि को यह आधार लोक से एकात्मता के कारण मिलता है। रचनाधर्म से ही संस्कृति सृजित होती है। कवि संस्कृति के इतिहास को आगे बढ़ाता है, वह इतिहास के दबाव में दफन नहीं होता। दिनकर की रचनाओं के भीतर की संस्कृति-धारा के स्रोतों को देखने पर ज्ञात होगा कि उनके द्वारा सृजित संस्कृति जितनी महत्वपूर्ण है उतना सामासिक संस्कृति के चार अध्याय नहीं। इतिहास अध्यायों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण इनके भीतर प्रवाहित विकासोन्मुख वह एकात्मक काल-चेतना होती है जिसमें दिनकर ने सांस्कृतिक तत्वों की इतिहास मालिका बनाई है।

सामासिक संस्कृति में भी विभेदों-विद्वेषों को पाटकर एकात्म राष्ट्रीय संस्कृति को स्थापित करने की चेष्टा है, पर वह शासन के आगे विवश है अथवा कृतज्ञतावश उसके बाहर निकलना नहीं चाहती। समझौतावादी नजरिये से ग्रस्त है, उसे भी कभी-कभार सफलता हाथ लग जाती है, लेकिन इस सफलता की कोई गारंटी नहीं होती। अभिप्राय यह कि राजनीतिक इतिहास के विशेष प्रभाव में होने के कारण ही सामासिक संस्कृति की धारणा एकात्म संस्कृति की धारणा से कमतर है और कम्युनिस्टों की वर्ग संघर्षी संस्कृति की धारणा से बेहतर। अर्थात् सामासिक संस्कृति की धारणा में समकालीन संस्कृति के तत्व अधिक होते हैं और शाश्वत संस्कृति के कम। 

आज पुरास्थलों के उत्खनन और सरस्वती नदी के पुनर्जीवन के प्रयासों से वैदिक संस्कृति का भौगोलिक आधार दुनिया के सामने आते जा रहे हैं। लोग समझने लगे हैं कि आर्य भारत के बाहर से आए या भीतर से बाहर फैल गए, कौन आर्य है और कौन आर्येतर या द्रविड़? किसे किसने लूटा-मारा, गला दबाया? किसे किसने गले लगाया? इत्यादि। इसलिए फूट से लूट की साजिश रचने वाले हुकुमरानी इतिहास के मनगढ़ंत किस्से व्यर्थ होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक स्वरूप को सामासिक मानने से पहले सोचना होगा, क्योंकि आपसी फूट को मानने के बाद ही समास की जरूरत पड़ी, लेकिन एकात्म में समास की कोई जरूरत नहीं पड़ती। पुनर्विचार इसलिए भी आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति पर अंग्रेजी जमाने के क्रूर हमलों के विरुद्ध संघर्ष का अपना इतिहास है, इसी के गर्भ से भारतीय पत्रकारिता और आधुनिक राजनीति का जन्म हुआ है। इस संघर्ष के योद्धाओं की कठोर तपस्या को भुला देने पर हम निस्तेज हो जाएंगे, विश्व में हमारी कोई प्रतिष्ठा शेष नहीं बचेगी।

संस्कृति के मोर्चे पर हुए स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास की एक बानगी महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के आधार' में दी है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को 'अवर्णीनीय बर्बरता का घृणास्पद स्तूप' कहने वाले विलियम आर्चर पर जॉन उड्रफ की आपत्ति का उल्लेख किया है और आसन्न खतरों के प्रति जागरूक रखने वाली उड्रफ की प्रेरणा से परिचित करवाया है। संस्कृति के मोर्चे पर संघर्षरत आधुनिक युग के महारथियों के नामों की लम्बी सूची हैं। इसमें अनेक महवपूर्ण नाम हैं, क्षेत्र और विचार की दृष्टि से इनकी चर्चा की जा सकती है। जैसे 19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी के आरंभिक दिनों में स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता के कार्य, जिनके संपर्क में वेल, ओकाकुर, कुमारस्वामी, अवनीन्द्रनाथ, नंदलाल बोस इत्यादि थे। इस प्रकार 20वीं शताब्दी के अनेक विद्वानों ने इस मोर्चे पर कार्य किए हैं जिनमें साने गुरुजी, सातवलेकर, गोपीनाथ कविराज, भगवद दन्त, बलदेव उपाध्याय इत्यादि नाम लिये जाने चाहिए। भारतीय संस्कृति के मोर्चे पर हुए संघर्ष के इतिहास में दिनकर की पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' का स्थान क्या नेहरू युग की जरूरतें पूरी करने तक सीमित है? नहीं।

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