Saturday 25 July 2015

चुनावी राजनीति ने रचे जाति समीकरण @जुगनू शारदेय

जातिगत आग्रहों के मामले में बिहार वैसा ही है, जैसे कि देश के अन्य राज्य, पर उसके बारे में यह जरूर सच है कि यहां पिछड़े उतने ही आक्रामक हैं जितने कि सवर्ण। इसकी जड़ में है खेती और चुनावों से हुआ राजनीतिक सशक्तीकरण। बिहार में होने जा रहे चुनाव अपने जातिगत समीकरणों और सोशल इंजीनियरिंग के तकाजों के चलते बेहद पेचीदा हो गए हैं और पूरी संभावना है कि हमें एक त्रिशंकु जनादेश देखने को मिले। पर बिहार में जाति की राजनीति की परिपाटी कब और कैसे कायम हुई? इतिहास में झांककर देखें तो इसके जवाब मिल सकते हैं।
आजादी से पहले इंगलिशिया राजपाट में बिहार के कुछ देसी लोगों को मंत्री पद दिया गया था। जिन्हें मंत्रिपद मिला, वे इंगलिशिया राज के वफादार तो थे ही, शिक्षा के प्रसार में भी इन लोगों ने बहुत कुछ किया था।
इनमें ही एक थे बाबू गणेश दत्त सिंह। उनके जिम्मे स्थानीय स्वशासन था। हालांकि उनके खिलाफ 1928 में एक व्यापक आंदोलन भी हुआ। उन्होंने इंगलिशिया सरकार को खुश करने के लिए गया जिला परिषद को निलंबित कर दिया था। परिषद अध्यक्ष अनुग्रह नारायण सिंह थे। उनको भी हटाया गया। उस जमाने में गया अत्यंत महत्वपूर्ण जिला हुआ करता था। जब तक बिहार बंगाल से अलग न हुआ था, तब तक गया को ही बिहार माना जाता था। आंदोलन के नेता श्रीकृष्ण सिंह थे। उन्होंने उस वक्त की बिहार और ओडिशा विधान परिषद में भी अपने स्वजातीय गणेश दत्त सिंह का खासा विरोध किया था। लेकिन जनमानस यानी राजपूत समुदाय के मन में यही बात थी कि भूमिहार ने राजपूत को बरखास्त कर दिया। तब से बिहार के सवर्णों में राजपूत-भूमिहार का टकराव चल रहा है।
उस काल में जाति की ताकत खत्म करने का काम स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भी किया था। वे सर गणेश दत्त सिंह के विरोधी भी माने गए। वे भी भूमिहार थे। उन्होंने किसान सभा की भी स्थापना की थी। जमींदार भूमिहारों ने भी उनका विरोध किया था। लेकिन इनमें भूमिहीन भूमिहारों की संख्या काफी थी। यही कारण है भूमिहार बहुल इलाकों में वामपंथी पार्टियों की बढ़त थी। बेगूसराय को बिहार का लेनिनग्राद भी कहा गया था। जिला परिषदों का चुनाव आरंभ हो चुका था। उन चुनावों में संभ्रांत पिछड़े समुदाय की हार हुई। इसी के साथ आरंभ हुई भूमिहार समुदाय से चिढ़। जिला परिषदों में चुनाव के बाद पिछड़े समुदाय के यादव, कोयरी, कुर्मी समुदाय ने 1934 के आसपास त्रिवेणी संघ बनाया। इसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने 1935 में बैकवर्ड क्लास फेडरेशन का गठन किया। यह समझ लेना जरूरी है कि बिहार में चुनावों के माध्यम से ही सवर्ण और पिछड़ा समुदाय में खींचतान बढ़ी। यानी कि बिहार के बहुप्रचारित जातिवाद का एक विशिष्ट चुनावी राजनीतिक परिप्रेक्ष्य रहा है।
1937 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों और दलितों के लिए अलग-अलग चुनाव क्षेत्र थे। जमींदारों के लिए भी अलग चुनाव क्षेत्र था। 1937 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। इंगलिशिया सरकार ने महिलाओं के लिए भी अलग चुनाव क्षेत्र बनाया, जैसे पटना सिटी मुस्लिम महिला का सामान्य शहरी क्षेत्र और पटना महिलाओं का सामान्य शहरी क्षेत्र। उसी चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनाने से मना कर दिया तो मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी के मोहम्मद युनूस प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए। उस काल में मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था और प्रधानमंत्री को प्रीमियर।
बहरहाल तीन हफ्तों के बाद मोहम्मद युनूस को इस्तीफा देना पड़ा और श्रीकृष्ण सिंह बिहार के प्रधानमंत्री बने। हालांकि मान्यता यह है कि वे बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे। इसका एक कारण यह भी है कि युनूस ने कभी उस वक्त की विधानसभा का सामना नहीं किया था। बिहार में भूमिहार-राजपूत टकराव की यही पृष्ठभूमि है। आजादी के आंदोलन और कांग्रेस की रणनीति और उससे भी बढ़कर पिछड़ा समुदाय की सत्ता से जुडे रहने की चाहत ने उनको कांग्रेस-प्रिय बना दिया। त्रिवेणी संघ में भी एका न रहा। जिन्हें कांग्रेस में जाना अच्छा न लगा, वे वामपंथी-समाजवादी पार्टियों से जुडने लगे। हर हाल में बिहार में वोट से जाति का रिश्ता जुड़ गया। जाति हिंदू समाज में ही नहीं, अन्य समुदायों में भी बहुत महत्वपूर्ण कारक है। इसका संबंध रोटी और बेटी से है। बेटी का ब्याह जाति में ही होता है। उस जमाने में अंतरजातीय विवाह लाखों में एक होते थे और आज भी यह स्थिति बहुत हद तक बदली नहीं है।
रोटी-बेटी के साथ स्वाभाविक ही वोट का रिश्ता भी जुड़ गया। आज भी बिहार के अनेक नेता अपनी बेटियों के विवाह के लिए स्वजातीय हो जाते हैं। यही गठबंधन वोटवादी भी हो जाता है। कांग्रेस की रणनीति ने संभ्रांत पिछड़ों के आंदोलन के प्रतीक त्रिवेणी संघ को कांग्रेसी बना दिया। त्रिवेणी संघ में यादव, कुर्मी, कुशवाहा थे। सबसे पहले यादव, फिर कुर्मी और अंत में कुशवाहा कांग्रेस से जुड़े। कुशवाहा समुदाय के मन में यह कसक हमेशा बनी रही कि उसे पिछड़ी जाति का सिरमौर नहीं माना गया।
कांग्रेस की आंतरिक राजनीति ने इसे और बढ़ाया। आजादी के आंदोलन के समय ही कांग्रेस ने जान लिया था कि जाति के बल पर कैसे चुनाव जीता जा सकता है। आजादी के बाद चुनाव लड़ने वालों को पता था कि कौन-कौन-से चुनाव क्षेत्र मुस्लिम बहुल हैं। दलितों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र पहले भी था, आजादी के बाद भी बना रहा। रही-सही कसर सवर्ण समुदाय की इस मानसिकता ने पूरी कर दी कि सवर्ण बहुल क्षेत्र के वोटर को कांग्रेस या सवर्ण प्रत्याशी के पक्ष में ही वोट देने के लिए विवश किया जाए। नतीजतन 1962 तक बिहार में जातिवाद आज की तरह सिर चढ़कर नहीं बोलता था, पर पिछड़े समुदाय के मन ही मन में यह उबल रहा था। आमतौर पर उस वक्त के पिछड़े नेता किसी न किसी सवर्ण नेता से जुड़े होते थे। पर एक सच और तथ्य उभर रहा था कि चाहे अगड़े हों या पिछड़े, सब के सब भूमिहार नेतृत्व को नापसंद करते थे।
1961 में श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद कांग्रेस विधायक दल ने अपना नेता मैथिल ब्राह्मण विनोदानंद झा को चुना था। यह अकारण नहीं था कि श्रीबाबू के देहांत के बाद कांग्रेस पार्टी ने एक राजपूत दीपनारायण सिंह को अवसर दिया कि वे मुख्यमंत्री पद की शपथ लें। वे 1 से 18 फरवरी 1961 तक मुख्यमंत्री रहे यानी कांग्रेस को अपना नया नेता चुनने में लगभग दो हफ्ते लगे। यह एक तथ्य है कि भूमिहार समुदाय में श्रीबाबू के उत्तराधिकारी माने जाने वाले महेश प्रसाद सिंह 1957 में विधानसभा का चुनाव हार चुके थे। अनुग्रह बाबू का पहले ही निधन हो चुका था। तब तक उनके पुत्र विधानसभा में नहीं थे। वे बिहार में मंत्री ही 1961 में बने। अब तक राजपूत और भूमिहार का द्वंद्व सतह पर था। नतीजतन झा मुख्यमंत्री बने।
दिसंबर 1963 में कामराज योजना के तहत उन्होंने इस्तीफा दिया। उस समय कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के लिए पहली बार दो गैरब्राह्मणों के बीच टकराव हुआ। पहली बार बिहार में पिछड़ा समुदाय कुर्मी के बीरचंद पटेल के मुकाबले सवर्ण गैरब्राह्मण कायस्थ कृष्णवल्लभ सहाय के बीच मुकाबला हुआ। पटेल वास्तव में राजपूत समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन आखिरी क्षणों में इस समुदाय के नेता सत्येंद्र नारायण सिंह ने अपना समर्थन सहाय को दे दिया। बाद में सिंह ने इसे माना भी, अपनी आत्मकथा में भी इसका जिक्र किया। लेकिन तब तक रोटी-बेटी वाला जातिगत समीकरण, जो चुनाव तक ही सिमटा रहता था, वह बिहार के रोज के जीवन में घुस चुका था।

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