Wednesday 30 December 2015

बाजीराव

अगर पेशवा कम उम्र में ना चल बसता, तो ना अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें। बाजीराव का केवल चालीस साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले दो सौ साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता। आज की पीढ़ी को बाजीराव बल्लाल भट्ट की जिंदगी का ये पहलू भी जानने की जरूरत है।

जब संजय लीला भंसाली ने बाजीराव मस्तानी नाम की फिल्म बनाने का ऐलान किया था, तो लग रहा था कि शायद अब तक हिंदुस्तान के इतिहासकारों ने मराठा इतिहास के सबसे बड़े नायक के साथ जो अन्याय किया है, वो कुछ हद तक दूर होगा। शिवाजी ने एक सपने की नींव रखी थी, लेकिन उस सपने को पूरा किया था बाजीराव बल्लाल भट्ट यानी पेशवा बाजीराव प्रथम ने। कितने आम लोग उसे जानते थे? संजय लीला भंसाली ने एक तरह से इतिहास पर एक उपकार किया है। मराठा और हिंदुस्तानी इतिहास के साथ न्याय किया है, लेकिन ये न्याय अब भी अधूरा है।


भंसाली की मजबूरियां थीं कि फिल्म को हिंदू-मुस्लिम दोनों तरह के दर्शकों की कसौटी पर खरा उतारते हुए उसका रोमांटिक चरित्र ही बनाए रखना था। सवाल है कि क्या था शिवाजी का वो सपना, जिसे बाजीराव बल्लाल भट्ट ने पूरा कर दिखाया? दरअसल जब औरंगजेब के दरबार में अपमानित हुए वीर शिवाजी आगरा में उसकी कैद से बचकर भागे थे तो उन्होंने एक ही सपना देखा था, पूरे मुगल साम्राज्य को कदमों पर झुकाने का। मराठा ताकत का अहसास पूरे हिंदुस्तान को करवाने का। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने का। इस सपने को किसने पूरा किया? पेशवाओं ने, खासकर पेशवा बाजीराव प्रथम ने। उन्नीस-बीस साल के उस युवा ने तीन दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा। मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गया। नहीं दिखाया भंसाली ने ये सब, जबकि उनके हर तीसरे सीन में बाजीराव ये कहता दिखाया गया कि दिल्ली को तो हम कभी भी झुका देंगे। लगा था कि भंसाली मराठा साम्राज्य का वो सपना पूरा होता हुआ परदे पर दिखाएंगे, लेकिन वो चूक गए।




आगे की पीढ़ियां बाजीराव को जानेंगी, भंसाली को इसका क्रेडिट मिलना चाहिए, लेकिन एक रोमांटिक हीरो की तरह जानेंगी, एक ऐसे योद्धा की तरह जानेंगी, जिसने कट्टर ब्राह्मणों से टक्कर लेकर भी अपनी मुस्लिम बीवी को बनाए रखा। बेटे का संस्कार ना करने पर उसका नाम बदलकर गुस्से में कृष्णा से शमशेर बहादुर कर दिया, इसलिए जानेंगी। जोधा अकबर की तरह बाजीराव मस्तानी को भी जाना जाएगा। लेकिन क्या वो ये जानेंगी कि हिंदुस्तान के इतिहास का बाजीराव अकेला ऐसा योद्धा था, जिसने 41 लड़ाइयां लड़ीं और एक भी नहीं हारी, जबकि शिवाजी का भी रिकॉर्ड ऐसा नहीं है। वर्ल्ड वॉर सेकंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर’ में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है और लिखा है कि बाजीराव कभी हारा नहीं। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है। बाद में यही आक्रमण शैली सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपनाई गई, जिसे ‘ब्लिट्जक्रिग’ बोला गया। निजाम पर आक्रमण के एक सीन में भंसाली ने उसे दिखाने की कोशिश भी की है।


बाजीराव पहला ऐसा योद्धा था, जिसके समय में 70 से 80 फीसदी भारत पर उसका सिक्का चलता था। वो अकेला ऐसा राजा था जिसने मुगल ताकत को दिल्ली और उसके आसपास तक समेट दिया था। पूना शहर को कस्बे से महानगर में तब्दील करने वाला बाजीराव बल्लाल भट्ट था, सतारा से लाकर कई अमीर परिवार वहां बसाए गए। निजाम, बंगश से लेकर मुगलों और पुर्तगालियों तक को कई कई बार शिकस्त देने वाली अकेली ताकत थी बाजीराव की। शिवाजी के नाती शाहूजी महाराज को गद्दी पर बैठाकर बिना उसे चुनौती दिए, पूरे देश में उनकी ताकत का लोहा मनवाया था बाजीराव ने। आज भले ही नई पीढ़ी के सामने उसे भंसाली की फिल्म के जरिए हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल के तौर पर पेश किया गया हो, लेकिन ये कौन बताएगा कि देश में पहली बार हिंदू पद पादशाही का सिद्धांत भी बाजीराव प्रथम ने दिया था। हर हिंदू राजा के लिए आधी रात मदद करने को तैयार था वो, पूरे देश का बादशाह एक हिंदू हो, उसके जीवन का लक्ष्य ये था, लेकिन जनता किसी भी धर्म को मानती हो उसके साथ वो न्याय करता था। उसकी अपनी फौज में कई अहम पदों पर मुस्लिम सिपहसालार थे, लेकिन वो युद्ध से पहले हर हर महादेव का नारा भी लगाना नहीं भूलता था। उसे टैलेंट की इस कदर पहचान थी कि उसके सिपहसालार बाद में मराठा इतिहास की बड़ी ताकत के तौर पर उभरे। होल्कर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतें जो बाद में अस्तित्व में आईं, वो सब पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की देन थीं।


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ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा थी, छत्रसाल की मौत के बाद उसका तिहाई हिस्सा भी बाजीराव को मिला। कभी वाराणसी जाएंगे तो उसके नाम का एक घाट पाएंगे, जो खुद बाजीराव ने 1735 में बनवाया था, दिल्ली के बिरला मंदिर में जाएंगे तो उसकी एक मूर्ति पाएंगे। कच्छ में जाएंगे तो उसका बनाया आइना महल पाएंगे, पूना में मस्तानी महल और शनिवार बाड़ा पाएंगे। अकबर की तरह उसको वक्त नहीं मिला, कम उम्र में चल बसा, नहीं तो भव्य इमारतें बनाने का उसको भी शौक था, शायद तभी आज की पीढ़ी उसको याद नहीं करती। नहीं तो अकबर के अलावा कोई और मुगल बादशाह नहीं था, जिससे उनकी तुलना बतौर योद्धा, न्यायप्रिय राजा और बेहतर प्रशासक के तौर पर की जा सके।


दिल्ली पर आक्रमण उसका सबसे बड़ा साहसिक कदम था, वो अक्सर शिवाजी के नाती छत्रपति शाहू से कहता था कि मुगल साम्राज्य की जड़ों यानी दिल्ली पर आक्रमण किए बिना मराठों की ताकत को बुलंदी पर पहुंचाना मुमकिन नहीं, और दिल्ली को तो मैं कभी भी कदमों पर झुका दूंगा। छत्रपति शाहू सात साल की उम्र से 25 साल की उम्र तक मुगलों की कैद में रहे थे, वो मुगलों की ताकत को बखूबी जानते थे, लेकिन बाजीराव का जोश उस पर भारी पड़ जाता था। धीरे धीरे उसने महाराष्ट्र को ही नहीं पूरे पश्चिम भारत को मुगल आधिपत्य से मुक्त कर दिया। फिर उसने दक्कन का रुख किया, निजाम जो मुगल बादशाह से बगावत कर चुका था, एक बड़ी ताकत था। कम सेना होने के बावजूद बाजीराव ने उसे कई युद्धों में हराया और कई शर्तें थोपने के साथ उसे अपने प्रभाव में लिया।


इधर उसने बुंदेलखंड में मुगल सिपाहसालार मोहम्मद बंगश को हराया। मुगल असहाय थे, कई बार पेशवा से मात खा चुके थे, पेशवा का हौसला इससे बढ़ता गया। 1728 से 1735 के बीच पेशवा ने कई जंगें लड़ीं, पूरा मालवा और गुजरात उसके कब्जे में आ गया। बंगश, निजाम जैसे कई बड़े सिपहसालार पस्त हो चुके थे।


इधर दिल्ली का दरबार ताकतवर सैयद बंधुओं को ठिकाने लगा चुका था, निजाम पहले ही विद्रोही हो चुका था। उस पर औरंगजेब के वंशज और 12 वें मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला कहा जाता था, जो कवियों जैसी तबियत का था। जंग लड़ने की उसकी आदत में जंग लगा हुआ था। कई मुगल सिपाहसालार विद्रोह कर रहे थे। उसने बंगश को हटाकर जय सिंह को भेजा, जिसने बाजीराव से हारने के बाद उसको मालवा से चौथ वसूलने का अधिकार दिलवा दिया। मुगल बादशाह ने बाजीराव को डिप्टी गर्वनर भी बनवा दिया। लेकिन बाजीराव का बचपन का सपना मुगल बादशाह को अपनी ताकत का परिचय करवाने का था, वो एक प्रांत का डिप्टी गर्वनर बनके या बंगश और निजाम जैसे सिपहासालारों को हराने से कैसे पूरा होता।


उसने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू किया। मुगल बादशाह ने आगरा के गर्वनर सादात खां को उससे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हार राव होल्कर और पिलाजी जाधव की सेना यमुना पार कर के दोआब में आ गई। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति बहुत दिलचस्प थी। इधर मल्हार राव होल्कर ने रणनीति पर अमल किया और मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने डींगें मारते हुआ अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद मथुरा की तरफ चला आया।


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बाजीराव को पता था कि इतिहास क्या लिखेगा उसके बारे में। उसने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़ कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब मुगलों की जड़ यानी दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया। दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके। देश के इतिहास में ये अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं, एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला।


बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, केवल पांच सौ घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मौहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में आठ से दस हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के पांच सौ लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी। ये 28 मार्च 1737 का दिन था, मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन। कितना आसान था बाजीराव के लिए, लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी।


वो तीन दिन तक वहीं रुका, एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए। लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो तीन दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गया। बुरी तरह बेइज्जत हुआ मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी, वो पुराना मुगल वफादार था, मुगल हुकूमत की इज्जत को बिखरते नहीं देख पाया। वो दक्कन से निकल पड़ा। इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों एमपी के सिरोंजी में मिले। लेकिन कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उसको केवल इतना बताया कि वो मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है।


निजाम दिल्ली आया, कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाया और बाजीराव को बेइज्जती करने का दंड देने का संकल्प लिया और कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट से बड़ा कोई दूरदर्शी योद्धा उस काल खंड में पैदा नहीं हुआ था। ये बात साबित भी हुई, बाजीराव खतरा भांप चुका था। अपने भाई चिमना जी अप्पा के साथ दस हजार सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर वो अस्सी हजार सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़ा। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था, ताकि फिर सिर ना उठा सकें।


दिल्ली से निजाम के अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं, 24 दिसंबर 1737 का दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम की समस्या ये थी कि वो अपनी जान बचाने के चक्कर में जल्द संधि करने के लिए तैयार हो जाता था। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने पचास लाख रुपये बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे। चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था, सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए।


ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट यहीं नहीं रुका, अगला अभियान उसका पुर्तगालियों के खिलाफ था। कई युद्दों में उन्हें हराकर उनको अपनी सत्ता मानने पर उसने मजबूर किया। अगर पेशवा कम उम्र में ना चल बसता, तो ना अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें। बाजीराव का केवल चालीस साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले दो सौ साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता। आज की पीढ़ी को बाजीराव बल्लाल भट्ट की जिंदगी का ये पहलू भी जानने की जरूरत है।



Baji Rao Mastani:A Historical Appraisal--++++ Bajio Rao was a Kshitipavan Konkanasth Bhumidhar Brahman that has been a class of non ritualist clan of militarised Brahman. Like many other classes viz Mohiyal/ Mahivariya , Bhumihar/ Apratigrahi Magadhiya, Tyagi/ Tyagvir Gaud, Desai/ Desastha, Ayangar, Dadhich, Niyogi,Devsarma/ Varendriya and Rarhiya Ayachak, Jujhautiya/Ayudhiya/ Kashmiri Jujhhar Raina and Bali, Jajpuriya Pattnayak etc Kishipavan now called Chitpavan make their claim of being militarised by Lord Parsuram and they were brought to Konkan from Mithila/Trihotrapur and Magadh obviously to fight against Sahararjun in Audichaya Desh, the western India. Historically they are descendants of Vakatakas, the Brahman dynasty contemporaneous to mighty Guptas of Magadh. They had matrimonial alliance with Magadhans.Chipavans formed the landed aristocracy of Brahmins in Marathvara. Some Chitpavans are descendants of Kadamba and Vishnukundins the two ruling Brahman families of Deccan. Being traditional Zamindars they were often called Deshmukh and Deshpandey both meaning village headman.Baji Rao ,the illustrious son of Peshva Balaji Visvanath was very different from his father. His father visited battle fields and made war logistics but never commanded army as a warrior. He remained with the army till Marathas inflicted a crushing defeat.However , BajiRao was a belligerent warrior. He was a great diplomat too. He never lost a single battle. His impeccable bravery ascertained victory over Mughals, Nizam m, Bangas Pathan, Sidhis of Janjira and many other kingdoms. He was appointed as Peshva at the age of 20.In next 20 years he got 41 victories . His heroic saga can only be compared with Samudragupta. At the age of 27 while operating in Malva he got message of Chhatrasal the valiant Bundela Rajput to defend his kingdom from Md Shah Bangash the most turbulent wave that had tormented Bundelkhand. Rau took it as a challenge and uprooted Pathans showing extraordinary valour and zeal. There is no explicit evidence how he got Mastani, the daughter of RuhaniBai a damsel of Persian origin from Hyderabad. Chhatrasal himself married her to Rau is also obscure. But Mastani was undoubtedly an influential character. She was believed to be an excellent horse rider and to some extent she expertized herself in swordsmanship.Of course Bhau loved her passionately but he never showed insanity. It was never a Heer Ranjha sort of affair. Except one or two events no episode of her life was full of so much of brutality and bigotry. Sanjay Leela Bhansali has made it a mere filmic drama that seriously lacks historical orientation. It's surprising Bani Rao' s most celebrated victory battle of Palkhed has not been picturized. Even battle of Bhopal has not dazzled on the screen. His rapid move to Delhi has also not been shown. More surprisingly Baji Rao's nationalist advocacy has not been given àny room. His frenzied outburst for Hindu Pad Padsahi doesn't echo in this film. Rau's solemn vow of uniting India from Attock to Cutack is not referred. Jadunath Sarkar even did not truthfully portrayed his personality in his work. Colonial historians never wanted to highlight his achievements . Marxist historians who propagated Nehruwian hypothesis of Màking in Nation deliberately declined to accept his contribution . It is matter of long debate and its difficult to cover all such issues on a Facebook note. Last but not the least it is pertinent to write Mastani did not live long life after Rau. Her son Krishna Rao alias Shamsher was granted Zamindari of Banda. He died in 3rd battle of Panipat along with Sadashiv Rao and Visvanath Rao like worthy son of great Peshvas. His successors supported Nana Sahib in 1857.The Mastani Mahal has presently accommodated Rana Dinkar Kelkar Museum. Salute to Rao and homage to his pious beloved Mastani.


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