Friday 23 June 2017

आजादी की लड़ाई का विस्मृत नायक फतेह बहादुर शाही

भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के क्रम में बिहार के सारण के हुस्सेपुर राज्य का प्रतिरोध एक ऐसी अदृश्य ऐतिहासिक कड़ी है जो स्वाधीन भारत में भी अपने मूल्यांकन की राह देख रही है। 23 साल लम्बे चले इस संघर्ष के नायक थे हुस्सेपुर राज्य के महाराजा फतेह बहादुर शाही और पूर्वांचल की आजादमिजाज भोजपुरिया जनता।

                ऐसे समय में जब देश भर में 1857 के पहले स्वतन्त्रता संघर्ष की डेढ़ सौवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है, अक्षयवर दीक्षित के सम्पादन में आया यह निबन्ध संग्रह एक ओर क्षेत्री नायकों के महत्त्व और राष्ट्र के प्रति उनके अवदान को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर इतिहास लेखन की क्षैतिज पद्धति और परम्परा को प्रश्नांकित भी करता है ‘भोजपुरी समाज और साहित्यकी विवेचना के दौरान आलोचक मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, ‘‘यह आश्चर्यजनक बात है कि भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण पर विचार करते समय साम्राज्यवाद के विरुद्ध भोजपुरी क्षेत्र के संघर्ष की कोई विशेष चर्चा नहीं होती। इसका एक कारण यह भी है कि जिस साहित्य के आधार पर भारतीय और हिन्दी नवजागरण की बात की जाती है वह मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग का साहित्य है, जिसमें गाँव के लोगों के संघर्ष का कहीं कोई उल्लेख नहीं है...फतेह शाही के संघर्ष की गाथामीर जमाल वधनाम के काव्य में है जो सम्भवतः आज भी अप्रकाशित है।“
                बक्सर की लड़ाई में मीर कासिम का साथ दे चुके शाही ने अंग्रेजों को कर देने से इनकार कर दिया और अपने सशस्त्र प्रतिरोध में आसपास के रजवाड़ों, जमींदारों से भी मदद की अपील की, लेकिन बनारस के चेत सिंह जैसे इक्के-दुक्के ही सामने आए दोनों ने मिलकर वारेन हेस्टिंग्स की सेना के छक्के छुड़ा दिए1857 के समर को गौरवपूर्ण मानते हुए भीप्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1765 क्यों नहीं?’ में ब्रजेश कुमार पाण्डेय की राय है, ‘‘जब हम सारण के गजेटियर, अन्य अभिलेखों एवं गोपालगंज जिले के हथुआ राज्य की स्थापना के पूर्व वृत्तान्त पर दृष्टिपात करते हैं तो इसकोप्रथममानने पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। हुस्सेपुर एवं तमकुही राज्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसके राजा महाराज बहादुर फतेह शाही ने 1765 से आरम्भ कर लगातार तेईस वर्षों तक अनवरत अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया। जनसहयोग से दो दशक से ऊपर तक चलने वाला यह संघर्ष उस राजा की अदम्य स्वातंत्र्य चेतना एवं वैदेशिक सत्ता के प्रति सतत घृणा का ऐसा दस्तावेज है जिसे अनदेखा करना सिर्फ एक योद्धा के योगदान को नकारना वरन् सम्पूर्ण स्वाधीनता संघर्ष के प्रति अन्याय करना है।
                संघर्ष की खासियत यह रही कि जनता निर्भय होकर राजा को ही कर देती रही। सैनिक छावनी में तब्दील हुस्सेपुर से दूर गोरखपुर के निकट बागजोगिनी के जंगलों से गुरिल्ला युद्ध चला रहे फतेह शाही ने उन सबकी हत्या कर दी जिन्हें कम्पनी ने राजस्व वसूली के लिए नियुक्त किया। इनमें शाही के सगे चचेरे भाई बसन्त शाही भी शामिल थे, जिनके वंशजों ने आगे चलकर अंग्रेजी सहायता से हथुआ राज की स्थापना की। कई बार विद्रोही राजा से समझौते की पेशकश कर चुके किंकर्तव्यविमूढ़ अंग्रेज अफसरों ने हेस्टिंग्स को कई पत्र लिखे। इन पत्रों को भी संग्रह में स्थान दिया गया है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा के आदिवासी इलाकों से लेकर आन्ध्र और मैसूर तक अनेक विद्रोहों को गिनाते हुए शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की शिकायत है कि इतिहाज्ञों ने इन महत्त्वपूर्ण संघर्षों के साथ तो न्याय किया और तर्कसंगत अध्ययन।
                क्रान्तिचेता फतेह बहादुर शाही का अन्त रहस्यमयी परिस्थितियों में हुआ। उनकी कहानी को समय की आँधी में इतिहास भले ही दर्ज कर पाया हो, लेकिन पूर्वांचल की अमराइयों, चैपालों, पगडंडियों और लोकोक्तियों में फतेह बहादुर शाही हमेशा अमर रहेंगे।  
                                     साभारः इंडिया टुडे (08.08.2007)

         पुस्तकभारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का प्रथम वीर नायक, संपादकअक्षयवर दीक्षित
              प्रकाशन--अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार, कीमत125 रुपये 

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home