Friday 8 June 2018

ललितेश्वर प्रसाद शाही

देश की आज़ादी की लड़ाई इतनी आसान नहीं थी। हर मोड़ पर अंग्रेज़ों के दमन और धोखा का सामना हो रहा था। 1937 में भी कुछ ऐसा ही हुआ। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अनुसार भारत में प्रांतीय चुनाव संपन्न कराया गया। जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, उस वक्त का मद्रास आज का तमिलनाडु, उस वक्त का बॉम्बे आज का महाराष्ट्र इन 6 प्रदेशों में कांग्रेस को बहुमत हासिल हुई।


 

मगर 1935 एक्ट के अंदर एक प्रावधान था जिसके अन्तर्गत गवर्नर को यह वीटो पॉवर हासिल था कि मिनिस्ट्री जो भी निर्णय लेगी उसे वह रोक सकती है। कांग्रेस इस वीटो पॉवर के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही थी। कांग्रेस ने तय किया कि जब तक इस वीटो पॉवर को हटाया नहीं जाएगा वह ज्वॉइन नहीं करेगी। इसे देखते हुए अंग्रेज़ों ने कांग्रेस के बदले दूसरी बहुमत प्राप्त लोगों को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाना शुरू कर दिया। बिहार में एक ग्रैंड होटल के मालिक मोहम्मद यूनुस को सीएम बना दिया गया।

 

इसका विरोध कई स्तर पर हुआ। मगर इसी समय मुज़फ्फरपुर के एक स्कूली छात्र ललितेश्वर प्रसाद शाही ने भी इस विरोध की कमान संभाली और फिर क्या वह नारा लगाते हुए सड़कों पर निकल पड़ा। उसने अपने नेतृत्व में शहर के सभी स्कूलों में हड़ताल करा दी। वैशाली जिले के रहने वाले ललितेश्वर प्रसाद शाही अपनी छोटी सी उम्र में ही आज़ादी की लड़ाई के मैदान में उतर गए थे। इनका नाम भले ही इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हैं मगर ललितेश्वर प्रसाद जैसे कई वीर योद्धाओं ने हमारे देश की आज़ादी के लिए अपना पूरा जीवन कुर्बान कर दिया।

 

देसी भावना के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदे

 

वैशाली के सैन गांव में जन्मे ललितेश्वर ने बचपन से ही अपने घर में देसी भावना को देखा था। ललितेश्वर बताते हैं कि मैंने अपने पिता को कभी भी खादी के अलावा कुछ और पहनते नहीं देखा। इस देसी भावना के साथ ही वे 10,12 साल की छोटी सी उम्र में ही हाथों में झंडा लेकर सड़कों पर नारा लगाने निकल पड़े। 1934 में मुज़फ्फरपुर के एक स्कूल में नामांकन के बाद से तो वे खुल कर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े।

 

आज़ादी का पूरा वाकया आज भी नहीं भूले

 

ललितेश्वर प्रसाद 90 पार कर चुके हैं मगर आज भी आज़ादी की लड़ाई का हर एक वाकया उन्हें मुंहज़ुबानी याद है। उस वक्त चल रही पूरे विश्व की घटना उन्होंने जिस तरह से बताई शायद ही किसी किताब के पन्नों में पढ़ने को मिलती होगी

 

छात्र जीवन में कम्युनिस्टों के संपर्क में आये

 

रूस में 1917 की क्रांति के बाद वहां समाजवादी सरकार सत्ता में आई। रूस की इस क्रांति के बाद अंग्रज़ों में यह डर बैठ गया कि भारत में भी कहीं रूस जैसी ही क्रांति न हो जाए। इसी डर से भारत में आगे चलकर कम्युनिस्टों पर बैन लगा दिया गया। इस बैन के बाद सभी कम्युनिस्ट अंडरग्राउंड हो गए। वे खुले रूप में सामने नहीं आ सकते थे इसलिए उन्होंने अपनी लड़ाई को जारी रखने के लिए छात्रों, मज़दूरों के बीच शामिल होना शुरू किया। इसी क्रम में ललितेश्वर प्रसाद भी कम्युनिस्टों के प्रभाव में आये।

 

इस लुटेरी सरकार को जला दो, ना दो एक पाई, ना दो एक भाई

 

उस वक्त कम्युनिस्ट छुप-छुपकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नोटिस जारी किया करते थे। 'इस लुटेरी सरकार को उलट दो, ना दो एक पाई, ना दो एक भाई' कुछ इस तरह के वक्तव्यों के साथ नोटिस जारी कर जगह-जगह पर्चा फैलाया जाता रहा। ललितेश्वर भी इसमें पीछे नहीं रहते थे। उस वक्त उनमें युवा का जोश था। वे अंग्रेज़ों के दफ्तरों में भी चुपके से नोटिस फेंक आया करते थे। ललितेश्वर बताते हैं कि अंग्रेजों को डराने के लिए उनके दफ्तरों में ही हमने कई नोटिस पहुंचाया हुआ है। उस वक्त हमारे अंदर पकड़े जाने का कोई डर नहीं हुआ करता है। बस देश आज़ाद कराने का एक जोश हमारे अंदर था।

 

कम्युनिस्ट पार्टी से बाद में अलग हो गए

 

हिटलर के दमन को देखते हुए मित्र राष्ट्रों का गठन हुआ। जिसमें इंग्लैंड के साथ रूस भी शामिल था। इंग्लैंड और रूस के सुलह होने पर सभी छिपे कम्युनिस्ट बाहर आ गए। उस समय कम्युनिस्टों ने 'पीपुल्स वॉर' की बात कही और देश आज़ादी के मुद्दे को छोड़ वे पहले हिटलर के नाश के लिए मित्र राष्ट्रों के समर्थन में दिखने लगे। यह देखते हुए ललितेश्वर कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए क्योंकि उनके लिए देश की आज़ादी सबसे बड़ी चीज़ थी।

 

आंदोलन में जेल भी गए

 

1942 में मुज़फ्फरपुर में एक आंदोलन के दौरान वे जेल भी गए। उस समय देश में जुलूस निकालने पर बैन लगा दिया गया था मगर फिर भी ललितेश्वर प्रसाद ने अपने साथियों के साथ जुलूस निकाला जिसके बाद उन्हें और उनके 16 साथियों को जेल में डाल दिया गया और सभी को 3 साल की सज़ा हुई। हांलाकि बाद में किसी ने फ्रीडम कोर्ट में अपील की और इन लोगों को छोड़ दिया गया। 

 

भगत सिंह की फांसी से हुआ गहरा प्रभाव

 

ललितेश्वर बताते हैं कि भगत सिंह को जब फांसी के तख्तों पर चढ़ाया गया था उस समय देश का युवा बहुत ही आहत हुआ था। उनकी फांसी के बाद देशभर के युवाओं में आज़ादी को लेकर जोश भर गया। लोगों ने देशभक्ति के कई गीत बना दिए। हर जगह लोग गीत गाते घूमते नज़र आते। उन दिनों ललितेश्वर प्रसाद पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा। उनका आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का एक मोड़ ये भी था।

 

देशभक्ति के कई नारे लगाये हैं ललितेश्वर प्रसाद ने

 

ललितेश्वर बताते हैं कि हमने आज़ादी की लड़ाई में कई नारे लगाये हैं और लाठियां खाई हैं। अंत में वे एक नारा याद करते हुए उन दिनों की यादों में खो जाते हैं 'मिटा देंगे ज़ालिम तेरा घर देख लेना, शहीदों का असर देख लेना'।

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