भूमिहार ब्राह्मणों का गौरवशाली इतिहास और परम्परा@अनाम
वर्तमान में ब्राह्मण समाज को कमजोर समझ कर हर कोई ऐरा-गैरा मुँह उठाकर गाली देने लगा है। आज न तो ब्राह्मण और सवर्ण की किसी दल को चिंता है, और न ही कोई उसके पक्ष में खड़ा होना चाहता है। ब्राह्मणों को गाली देना सत्ता और सफलता की गारंटी माना जाने लगा है। ब्राह्मण कौन हैं?
क्या यह इतने कमज़ोर हैं? नहीं। ब्राह्मण एक बहादुर मार्शल नस्ल (martial race) है। इस देश में ब्राह्मणों (Who are Brahmins) के विरूद्ध निरंतर षड़यंत्र होते रहे उन्हें निरंतर अपमानित किया जाता रहा और शनैः-शनैः इस फैब्रिकेटेड झूठ का नैरेटिव सैट कर दिया गया कि ब्राह्मण अत्याचारी, अनाचारी है और हजारों बरसों से देश में चल रही सामाजिक दुर्व्यवस्था भी ब्राह्मणों की ही देन है। हर कोई यह जानता है कि पूर्व में ब्राह्मणों के नीति निर्देशन में यह भारतवर्ष विश्वगुरू पद पर अधिष्ठित था और सोने की चिडिया कहलाता था। लेकिन बौद्ध काल के समय से इस राष्ट्र के 'सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम' यानि ब्राह्मणों को निरंतर कमजोर किया जाने लगा। ब्राह्मणों को अकारण आत्मग्लानि बोध से भरा गया और उनके भीतर के सहज गुणों को धीरे-धीरे एक षडयंत्र के तहत खत्म कर दिया गया। ब्राह्मण एक धार्मिक योद्धा वर्ण था, जिसने समय समय पर मानवता, त्याग, दया, उदारता, प्रेम, सामाजिक समन्वय हेतु अपने मूल स्वभाव को छोड़कर आयुधजीवी बनकर समाज हित हेतु प्राणोत्सर्ग भी किया है।
पिछले डेढ़ पौने दो सौ साल से वर्तमान समय तक एक विशेष सुनियोजित साजिश के तहत समस्त हिन्दुओं विशेषकर ब्राह्मणों के वीरोचित भाव को शून्यप्राय कर दिया गया है। ब्राह्मण एक आयुधजीवी नस्ल है जिसके संगठनकर्ता भगवान परशुराम को माना जाता है। भगवान परशुराम ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका की संतान थे। जिन्होंने तत्कालीन समय में अन्याय के प्रतिकार हेतु ब्राह्मण समाज को एक छत्र के नीचे लाकर समाज में आदर्श व्यवस्था स्थापित की। भगवान परशुराम (Bhagvan Parshuram) को भगवान श्रीहरि के छठवें अवतार और एक महान योद्धा के रूप में माना जाता है। परशुराम जी को भगवान विष्णु का आवेशावतार भी कहा जाता है
वर्तमान समय में ब्राह्मण समाज के भीतर वीरोचित भाव मात्र केवल भूमिहार ब्राह्मणों (Bhumihar Brahmins), पंजाबी मोहियाल ब्राह्मणों और मराठी चित्तपावन ब्राह्मणों में ही दिखाई देता है। भूमिहार कौन हैं? क्या हैं? यह सब एक रोचक घटनाक्रम है। दरअसल में भूमिहार, ब्राह्मणों की एक उग्र, लड़ाका,योद्धा एवं आयुधजीवी शाखा है। प्रकारांतर से अज्ञानता के कारण जिसे मूल ब्राह्मण समाज से थोड़ा अलग मान लिया गया है, लेकिन यह अज्ञानता ही है। समाज में वर्ग विद्वेष या जातिवादी घृणा फैलाने हेतु भगवान परशुराम और ब्राह्मणों को क्षत्रिय-हन्ता कहकर वर्ग संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। जबकि ऐसा है नहीं। वास्तव में भगवान परशुराम और ब्राह्मणों का संघर्ष मात्र हैहयवंशियों से था। भगवान परशुरामजी और ब्राह्मणों को समाजशत्रु के रूप में देखना हीनबुद्धि ही कहा जायेगा। तो सबसे पहले यह जानना आवश्यक होगा की भूमिहार कौन हैं? आज जबकि अधिकांश ब्राह्मणों को युद्धप्रिय नहीं माना जाता,, फिर इनके भीतर का योद्धा स्वभाव आज तक कैसे संरक्षित रहा। माना जाता है वर्तमान में जितने आधुनिक ग्राम और नगर हैं इन सभी की पुरातन नींव रखने वाले भगवान परशुराम हैं। भगवान परशुराम को भूमि बंदोबस्त का पुरातन जनक भी कहा जा सकता है। भू-राजस्व हेतु भूमि के सही सही बँटवारे और समाज में सुव्यवस्थित प्रणाली भी उन्हीं के द्वारा स्थापित की गयी। अपने स्थापित कार्य से इतर भूमि ग्रहण करने वाला ब्राह्मणों का युद्धप्रिय भूस्वामी समूह भूमिहार कहलाया जो आज भी भगवान परशुराम को अपना आदि प्रवर्तक मानता है।
पंजाब के मोहियाल ब्राह्मणों, महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मणों के बाद ब्राह्मणों में एक लड़ाका वंश भूमिहार को ही माना गया है। वास्तव में भूमिहार ब्राह्मण समस्त आयुधजीवी ब्राह्मणों का सम्मिलित कुलवंश है। समय समय पर पंजाब के सारस्वत मोहियाल ब्राह्मण, महाराष्ट्र के चित्तपावन, कान्यकुब्ज, सरयूपारीण, जुझौतिया, पुष्करणा ब्राह्मण आदि अनेक ब्राह्मण उपवर्ग इस भूमिहार शाखा से सम्बद्ध हुए और इसी में रच बसकर भूमिहार कहलाने लगे। आजीविका और अन्यान्य कारणों से पलायन और पुनर्वासित होना हर युग में रहा है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसना यह पूर्वकालिक समय में भी होता रहा है। कहा जाता है कि भगवान परशुराम तिरहुत बिहार से दस ब्राह्मण परिवारों को लेकर आधुनिक कोंकण के पास स्थित गोमान्तक प्रदेश (गोवा) में गये और उन्होंने उन सभी परिवारों को वहाँ पर यथाविधिपूर्वक स्थापित किया। आज भी यह माना जाता है कि भगवान परशुराम ही गोवा के आदि संस्थापक हैं।
बिहार से कोंकण गोवा बसने के कारण उन लोगों के संबंध बिहार-मगध से बने रहे और दोनों स्थानों पर आना-जाना, बसना-बसाना, विवाहादि संबंध लगातार चलते रहे होंगे ऐसा माना जा सकता है। बिहार में चित्तपावन भूमिहारों के आदिपूर्वज न्यायभट्ट माने जाते हैं। आज भी यदि देखा जाये तो शारीरिक रचना-सौष्ठव, क्रोध और वीरता में भूमिहारों और चित्तपावनों में एकरूपता स्वतः दिखाई देती है। राष्ट्र और धर्म के निमित्त भूमिहारों ने आगे बढ़कर सबसे पहले और सदैव अपना बलिदान दिया है इसमें कोई दो राय नहीं है। बिहार के मगध में भूमिहार ब्राह्मणों के दो रहस्यमय कुल आज भी हैं जिन्हें शुंगनिया भूमिहार ब्राह्मण और चनकिया भूमिहार ब्राह्मण माना जाता है। माना जाता है कि महान ब्राह्मण योद्धा और शासक पुष्यमित्र शुंग के वंशज ही शुंगनिया भूमिहार ब्राह्मण हैं। चाणक्य ने मगध में चंद्रगुप्त मौर्य को नेतृत्वकर्ता बनाकर मगध में सुव्यवस्थित राज्य स्थापित किया था यह बात सर्वविदित है। चाणक्य को विष्णुगुप्त शर्मा या कौटिल्य भी कहा जाता है। मगध में आज भी ब्राह्मण भूमिहारों के चनकिया भूमिहार समूह को चाणक्य के कुल वंश का माना जाता है और इनका कौटिल्य गोत्र इस बात का स्पष्ट और पुष्ट प्रमाण है। समय समय पर ब्राह्मणों की बहुत सी शाखायें प्रशाखायें भूमिहार ब्राह्मणों में आकर मिलती गयीं और एक बड़े योद्धा भूमिहार ब्राह्मण समूह का निर्माण हुआ।
ब्राह्मण भूमिहारों का एक और समूह गंगा जी के किनारे पर बसता है, जिन्हें चकवार भूमिहार ब्राह्मण कहा जाता है। यह समूह चिरायु मिश्र के वंशजों में से है जो गंगा स्नान के निमित्त इधर आए और यहीं बस गये। युद्ध में इन चकवार भूमिहार ब्राहमणों के बराबर का योद्धा कोई नहीं है। समय समय पर इन्होंने अपनी वीरता प्रदर्शित की है। मोहम्मद गोरी से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक की म्लेच्छ सैन्य टुकड़ियों को युद्ध में हराने का पराक्रम यदि किसी के माथे पर बाँधा जायेगा तो वह चकवार भूमिहार ब्राह्मण हैं। इनमें राजा सुन्दर सिंह और राजा बख्तावर सिंह जैसे पराक्रमी ब्राह्मण जमींदार राजा हुए हैं। यह बेगूसराय जनपद के अन्तर्गत आने वाली रियासतें हैं। मुहम्मद शाह के पश्चात भारतवर्ष में मुगलई शासन का पतन हुआ, और कलकत्ता से ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने व्यापारिक जाल के माध्यम से भारत पर कब्जा करने का प्रयास किया। अंग्रेजी कंपनी की इस चाल के विरूद्ध बेगूसराय के भूमिहार ब्राह्मणों ने सशस्त्र संघर्ष किया और समय-समय पर गंगा के माध्यम से अंग्रेजी कंपनी के खजाने को बार-बार लूट लिया. कंपनी के कारिन्दों ने इस बाबत कलकत्ता कमिश्नरी को पत्र भी लिखा। भूमिहार ब्राह्मणों ने कभी भी अंग्रेजी शासन को टैक्स नहीं दिया और यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि भूमिहार ब्राह्मण कभी किसी से भी नहीं डरा है। भूमिहारों का तो स्पष्ट कहना था कि -
"नदी नाला सरकार का, बाकी सब भूमिहार का"।
वास्तव में ब्राह्मण ही इस भूमि देवी का वास्तविक स्वामी रहा है। भगवान वामन से लेकर भगवान परशुरामजी का अवतार यही सिद्ध करता है। आज संपूर्ण देश में किसान आत्महत्या कर रहा है। कर्ज तले दबा हुआ है। यह सब ब्राह्मण से भूमि छीनने का ही प्रतिफल है। ब्राह्मण ही भूमि का वास्तविक स्वामी रहा है जिसने संपूर्ण प्रजा की आजीविका हेतु भू-राजस्व के बंदोबस्त किए और सभी को उनकी आजीविका हेतु साधन उपलब्ध कराये। ब्राह्मण को महीसुर यूँ ही नहीं कहा गया है। ब्राह्मण का अपमान इस राष्ट्र को पतन के गर्त में ले जा रहा है। समय रहते यदि इस बात को समझ लिया जाए तो यह राष्ट्र भविष्य में होने वाली भयानक हानि से बच जायेगा। अन्यथा इस राष्ट्र को कोई नहीं बचा सकता। ब्राह्मण समाज इस राष्ट्र और इसकी समस्त संतानों से अटूट निष्ठा रखता है। राष्ट्र की एकता, अखण्डता और संप्रभुता को ब्राह्मणों ने अपने प्राणों की कीमत पर सींचा है। बंगाल का संन्यासी विद्रोह भी भूमिहार ब्राह्मणों का ही विद्रोह था जिसने म्लेच्छ सत्ता को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। राजा फतेहबहादुर शाही इस विप्लव के सूत्रधार रहे थे। वंदेमातरम वास्तव में "बंदौ माता भवानी" का रणघोष ही था जिसके रणघोष से भूमिहार ब्राह्मणों ने संन्यासी संतों के साथ मिलकर अन्यायी और दमनकारी यवन सत्ता के छक्के छुड़ा दिए थे।
भूमिहार ब्राह्मण गजब के योद्धा हैं और वर्तमान परिस्थितिओं में वास्तविक ब्राह्मण कहलाने के असली हकदार यही हैं। भूमिहार ब्राह्मणों की सैकड़ों स्वतन्त्र रियासतें रही हैं जो काशी, बलिया, टेकारि से लेकर बंगाल, मध्यप्रदेश के कुछ स्थानों पूर्वांचल उत्तरप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ तक रही हैं। चूँकि भारतीय परंपराओं में ब्राह्मण शासन का वास्तविक पात्र नहीं माना गया इसलिये भूमिहार ब्राह्मणों को मजबूरन 'सिंह, शाही, रायबहादुर, प्रधान और राय आस्पद (सरनेम) उधार लेना पड़ा। वैसे बहुत से भूमिहार ब्राह्मण अपने मूल आस्पद शर्मा, पांडेय, तिवारी, मिश्रा, राय, दुबे, उपाध्याय, आदि भी लगाते हैं। अधिकांश 'सिंह' आस्पद वाले भूमिहार भी हैं। लम्बे-तगड़े, सुन्दर गौरवर्णीय यौद्धक आयुधजीवी ब्राह्मण इस पृथ्वी पर साक्षात भूदेव ही हैं। अन्याय को मिटाने का प्रण यदि भूमिहार ब्राह्मण एक बार उठा लें तो उसे जीवन पर्यन्त निभाते हैं। भूमि के अतुलित स्वामित्व के कारण भी यह ब्राह्मण समूह भूमिहार कहलाया, और अकारण सामाजिक द्वेष का शिकार हुआ। अपनी भूमि को निरंतर रक्षित करना, और अपने साम्राज्य में निरंतर वृद्धि करना इनका विशिष्ट गुण रहा है।
काशी नरेश "स्व• विभूति नारायण सिंह" भारत के एक मात्र राजा थे जिन्हें द्विज राजा की उपाधि प्राप्त थी। नारायणी राजवंश (भूमिहार ब्राह्मण परिवार) के सबसे चर्चित महाराजा जिन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए १३०० एकड़ जमीन और सवा ३ लाख रुपये की नगदी राशि पंडित मालवीय जी को सुपुर्द की थी... ब्रिटिश शासन में काशी रियासत की गिनती १३ तोपों की सलामी वाले रियासतों में की जाती थी। आज भी गंगा की अविरल धारा के किनारे रामनगर दुर्ग बामन ऐश्वर्य को बखूबी प्रदर्शित करता दिख जाता है। अभी यहाँ के तत्कालीन महाराजा अनंत नारायण सिंह जी हैं ...
काशी रियासत की पूर्वांचल के १३ जिलों समेत बिहार के ब्याघ्रसर (बक्सर) में ब्राह्मण हुकूमत थी... गाजीपुर, बनारस, चन्दौली, जौनपुर, मिर्जापुर, देवरिया, कुशीनगर, श्रावस्ती, भदोही, संतकबीरनगर, रविदासनगर, अम्बेडकरनगर, गोरखपुर का अधिकांश हिस्सा, मऊ, बलिया, बाद में नवाब हुकूमत से आज़मगढ़ को भी मिला लिया... आदि ज़िले समेत सम्पूर्ण पूर्वांचल पर ब्राह्मण हुकूमत चला करती थी... और काशी एक स्वतंत्र रियासत हुआ करती थी। ये कभी किसी के आधीन नही रही। संस्कृति का विकास और ब्राह्मण के उद्भव की यह सबसे सुंदर जगह काशी है जहाँ ब्राह्मण कभी भूखा नहीं मर सकता। बिहार मे ताकतवर होने के बावजूद भी बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू श्रीकृष्ण सिंह ने दलितों को मंदिर प्रवेश करवाया। जब लगभग सारी जमींदारियां भूमिहार ब्राह्मणों की थी फ़िर भी रामधारी सिंह दिनकर ने जमींदारो पर चोट लगाई, और स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने तो जमींदारो पर लगतार प्रहार किए। भूमिहार ब्राह्मणों में एक एक से वीर योद्धा, बुद्धिजीवी,और महान व्यक्ति हुए हैं। पहलवान मंगला प्रसाद जी,राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर और अनेकानेक महान विभूतियों ने इस कुल में जन्म लेकर इसे धन्य किया है।
भूमिहार ब्राह्मणों का एक बड़ा दल जो सैन्य कार्य हेतु बंगाल गया और जब अंग्रेजों ने इन भूमिहार ब्राह्मणों पर रोक लगाई तो उस समय भी बहूत से भूमिहार वहाँ कुलीन ब्राह्मण यानी 'बारेन्द्र' और 'राधि ब्राह्मण' नाम से जाने जाते हैं और बड़े बड़े जमींदार हैं। बंगाल में इन भूमिहार ब्राह्मणों की वीरता के किस्से आज भी गर्व से कहे सुने जाते हैं, और यह कालांतर मे सैनिक कार्य हेतु यहीं से इधर-उधर गये। इन्हीं ब्राह्मणों का एक समूह अपनी अदम्य वीरता के कारण बंगाल मे चक्रव्रती (चक्रवर्ती) आस्पद (सरनेम) से सुशोभित हुआ। ओडिशा के 'हलवा ब्राह्मण' भी वीर भूमिहार ब्राह्मण ही हैं, जिन्हें टेकारि महाराज के समय भूमिहार सैनिक दल के रूप में ओडिशा भेजा गया था। जहाँ यह समूह 'हलवा ब्राह्मण' यानी हलधारी कृषक ब्राह्मण है, और बाद में यहाँ से गुजरात गये अन्वील ब्राह्मण भी यही भूमिहार ही हैं। गया के भूमिहार ब्राह्मणों के सम्मेलन में मोरारजीभाई देसाई का आना इसी ब्रह्मर्षि परिवार विस्तार के कारण संभव हुआ था।
आयुधजीवी भूमिहार ब्राह्मणों के इस समूह ने अनेकानेक रत्न भारत माता को दिए हैं जिनमें सबसे अग्रणी पण्डित मंगल पांडेय का नाम है। मंगल पांडेय और हजारों भूमिहार ब्राह्मण सिपाहियों ने प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में अंग्रेज़ी शासन के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष किया था। इस कारण अंग्रेज़ी शासन ने अपनी सेना में ब्राह्मण सिपाहियों की भर्ती प्रक्रिया पर पूरी तरह से रोक लगा दी। चाहे भूमिहार चित्तपावन ब्राह्मण हों या मराठी चित्तपावन ब्राह्मण या अन्यान्य ब्राह्मण समूह इन सभी में अन्याय को न सहने और उसके विरूद्ध बगावत करने का स्वाभाविक और नैसर्गिक गुण विद्यमान है। अंग्रेजी शासन कहा करता था कि एक अकेला चित्तपावन भूमिहार या मराठी ब्राह्मण भी पूरी सेना के माध्यम से विप्लव करवाने की अद्भुत क्षमता रखता है। इसीलिए अंग्रेजी शासन ने भारत में ब्राह्मणों से विशेष सतर्कता बरती, और उनके विरूद्ध निरंतर घृणा फैलाई। यह इसी बात से प्रमाणित हो जाता है कि आज भी अंग्रेजों की नाजायज भारतीय औलादें ब्राह्मणों को जब चाहे मुँह उठाकर गाली दे रहीं हैं। ब्राह्मण समाज सहिष्णु, दयालु और जीव मात्र का कल्याण चाहने की अपनी उदात्त भावना के कारण प्रायः शांत रहता है, लेकिन जिस दिन उसका क्रोध उबलेगा तो यह राष्ट्र महाभारत के बाद एक और भयानक विप्लव का साक्षी बनेगा।
आज़ादी से पहले अंग्रेजों के समय में "बंगाल रेजिमेंट" बनाई गयी थी। जिसे उस समय भूमिहार ब्राह्मणों के लिए ही बनाया गया था। क्योंकि उस समय बंगाल बहुत बड़ा राज्य था और वर्तमान बिहार, उड़ीसा आदि भी बंगाल के ही अन्तर्गत आते थे, उसमें नाम मात्र के ही बंगाली थे। यह रेजिमेंट एक बहादुर रेजिमेंट के तौर पर जानी जाती थी। इस रेजिमेंट ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बार बार विद्रोह किया। आख़िरकार अंग्रेज़ों को समझ आ गया कि ब्राह्मण इस राष्ट्र को अपनी माँ मानते हैं और यह लोग सिर्फ भारत के प्रति वफादार हैं। अतः उन्होंने ब्राह्मणों की रेजिमेंट 1st 'बंगाल रेजिमेंट' और 'ब्राह्मण रेजिमेंट' में ब्राह्मणों की भर्ती बंद कर दी, और इस को पूरी बन्द कर दिया गया। बंगाल रेजिमेंट में भूमिहारों की भर्ती पर रोक लगा दी, सिर्फ वही रेजिमेंटें रखी गयीं जो अंग्रेज़ों की वफादार थीं। इनमें यादव और मुसलमानों और उन समूहों की बम्पर भर्तियाँ की गयीं जिन्होंने १८५७ में और अन्य देशीय विद्रोहों को कुचलने में गोरों की मदद की। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद सेना का वही जातीय रूप जारी रखने का फैसला लिया गया वह भी बिना किसी छेड़ छाड़ के। भारतवर्ष में सबसे ज्यादा कुर्बानी देने वाले (आज़ादी के पहले और बाद में) ब्राह्मणों से उनका यश छीन लिया उनको अलग रेजिमेंट ना देकर उनको उनके अधिकार से वंचित किया है।
बहरहाल... परशुराम भगवान के वंशज भूमिहार ब्राह्मणों की कहानी इतनी नही है। नब्बे के दशक में जब एक धूर्त नेता पहली बार सत्ता में आया तो आतंकवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी लेनिनवादी) के नक्सलियों ने बिहार में भूमिहारों और राजपूतों का कत्लेआम शुरू कर दिया। यह सब उस विदूषक चोर नेता की शह पर था, जिसने खुलेआम 'भूराबाल' साफ करो का घृणित नारा दिया था। यह सीधे-सीधे भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) इन सभी की हत्याओं का स्पष्ट संदेश था। पिछड़ा और सूत्र राजनीति के सामाजिक न्याय का झूठा दम्भ भरने वाले इस नेता ने कम्युनिस्ट नक्सली आतंकवादियों को खुला संरक्षण देकर ब्राह्मण और राजपूतों के साथ साथ समस्त सवर्ण जनता की हत्याओं की लोकनिंदित घटनाओं को मूर्त रूप दिया।
इसके मूल में छुपा हुआ उद्देश्य सवर्णों को मारकर उनकी जमीनें छीनने का था। अन्याय के जीवंत स्वरूप इस नेता ने पूरे समाज में दहशत का माहौल पैदा कर दिया। जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो आज़ादी के बाद भारत के दोनों द्विज वर्ण ब्राह्मण और राजपूत पहली बार एक साथ आये। भूमिहार "ब्रहमेश्वर सिंह मुखिया बाबा" की अध्यक्षता में इस अन्यायपूर्ण और दमनकारी आतंकवादी नैक्सस के प्रतिक्रिया स्वरूप रक्षणकर्ता संगठन का गठन हुआ। सवर्ण लोगों पर हो रही हिंसा का दमन किया गया। पूरे राज्य में आतंकवादी कम्युनिस्टों के विरुद्ध हिंसा हुई और असुरों के सहयोगकर्ता भी इस प्रतिक्रिया का शिकार हुए। नक्सलवादियों के पाँव उखड़ गये, और उन्हें भागने पर मजबूर होना पड़ा। अब शासन सत्ता का सहारा लेकर भूस्वामियों पर अत्याचार शुरू हुआ। नक्सली आतंकवाद के विरूद्ध इस रक्षणकर्ता जनसंगठन को अकारण बदनाम कर आतंकवादियों की खुली पैरोकारी की गयी। लेकिन भूमिहार और अन्य सवर्णों ने गाँवों से सवर्ण विरोधी आतंकवादियों और उनके समर्थकों को भागने पर मजबूर कर दिया। सरकार काँप गयी। इस लड़ाई के दौरान कई बार भूमिहार महिलाओं और बेटियों ने अकेले ही आतंकवादी कम्युनिस्ट नक्सलियों से पूरे गाँव की रक्षा की।
5 Comments:
ब्राह्मण से ही धर्म और संस्कृति जीवित रह सकती है। ब्राह्मणों को अपने कर्मो पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
Only Kayastha great ... Bhumihar is agricultural caste ....but ,some were Zamindars also ...It's vedic caste and origin kayastha categorised (kayastha are Brahmins and Kshatriya also).they are Bramkshatriya .before 19th century warriors bhumihars were kayastha .. .And, later some Shudra are Bhumihar.. .Bhumihar means landowners origin
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Sahi kaha aapne
Ok Good
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