मुखिया @सुभाष सिंह सुमन
हर हिंसा के गर्भ में प्रतिहिंसा का बीज पलता है। साफ है कि यदि हिंसा को सही ठहराया नहीं जा सकता तो प्रतिहिंसा भी साथ ही सही ठहराये जाने की योग्यता खो देती है। गांधियन स्कूल कहता भी है कि आंख के बदले आंख की प्रवृत्ति एक दिन पूरी दुनिया को अंधी कर देगी। गांधी हों, दर्शन का गांधियन स्कूल हो… अद्भुत है, पर बिना इत-ऊत के। भौतिकी में जितने पवित्र न्यूटनियन थियरीज हैं, उतने ही पवित्र गांधियन स्कूल के दर्शन। इस पवित्रता की एक दिक्कत है लेकिन, इसे assumptions की जरूरत होती है। न्यूटनियन थियरीज के लिये आपको सर्फेस फ्रिक्शन से लेकर एयर फ्रिक्शन तक तमाम चीजों का नहीं होना assume करना पड़ता है। गांधियन फिलासफी के साथ भी यह दिक्कत।
यहां पर गांधी-सावरकर का पत्राचार एकदम से प्रासंगिक होकर आता है। सावरकर कहते हैं कि गांधी के विचार देवतुल्य, पर यह समाज दैवों का है क्या… यह सवाल भी कर देते हैं।
सावरकर व्यावहारिक हैं, गांधी आदर्शवादी हैं। सावरकर जैसों की सोच कि हिंसा के लिये प्रतिहिंसा करनी होगी। गांधी जैसों की सोच कि हिंसा का हर रूप नाजायज़।
अब हल्के उदाहरण देते हैं। आपकी जमीन है, आपकी बेटी है, आपकी पत्नी है… और कोई आपकी जमीन-बेटी-पत्नी को छेड़ने लग जाए तब आप क्या करेंगे? गांधी के पास है इसका समाधान? गांधी कई जगहों पर स्वप्नलोक में जीते रह गये, यूटोपिया यू नो?
यह जो समाज हमारे गिर्द है, यह कल्पना नहीं है। हमारी पसंद के हिसाब से हमें मिला भी नहीं है यह। यह है भी एकदम से वाहियात। चूंकि यह दैवीय नहीं है, हमको इससे ही काम चलाना पड़ेगा। यदि कोई हमारी जमीन, हमारी बेटी, हमारी पत्नी पर कुदृष्टि डाल दे तो उसको सिरे से कुचल देना हक़ से अधिक जिम्मेदारी हो जाती है।
बाबा ब्रह्मेश्वर, इनकी खूब गलत व्याख्याएं हुईं और पब्लिक डिस्कोर्स बन गयीं। सोचना तो यह भी चाहिए न कि आदमी को बाबा बनना क्यों पड़ा?
बिहार के लिये लालू काल त्रासद रहा है। लालू यादव ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिये किस तरह नक्सलियों को पाला, तथ्य भरे हैं। यह भी तथ्य है कि लालू और नक्सलियों के लक्ष्य कतई एक नहीं थे। इस सहभागिता ने बिहार को बर्बाद किया। एक जबर जाहिल आदमी सिर्फ जातिगत समीकरणों से नेता बन गया था और संस्थागत तरीके से वह मासूम लोगों को कुंठित कर रहा था। दुनिया को फर्क बेशक से न पड़े, मुझे 'भूराबाल साफ करो' याद है। मुझे याद है कि इस हरामी की शह पर बिहार किस कदर अराजक हुआ था।
कई बिगहों में फसलें उगाकर आदमी कटवा नहीं पाता था। ब्रह्मेश्वर मुखिया हर इस तरह के लोगों का नायक है। उन्होंने प्रतिकार की सीख दी। मर गये लेकिन बिहार राज्य से नक्सलवाद नाम की वाहियात चीज़ को जड़ से खत्म कर देने के बहुत बाद। भारत सरकार की सीआरपीएफ जो कई साल बिताकर छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड में नहीं कर पायी, मुखिया ने बहुत कम समय में कर दिखाया।
अब संभव है कि सस्ते एथिक्स गाये जाएं। निश्चित सेनारी और अपसढ़ में हुए नरसंहारों के जवाब में बाथे वगैरह हुए, यह सच है लेकिन कि रणवीरों ने सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान नहीं पहुंचाया। सूक्ष्म स्तर पर देखें तो हम गालीबाजी के शुद्ध समर्थक, बशर्ते कि निजी और ठोस वजह हो। मुखिया के पास समर्थन और वजहें दोनों प्रचंड थीं। नमन रहेगा बाबा को।
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