डा. श्रीकृष्ण सिन्हा बनाम जयप्रकाश नारायण
लोकनायक जयप्रकाश नारायण और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने एक-दूसरे को ‘जातिवादी’ कहा था। भले ही इलजाम के तौर पर नहीं, बल्कि कटाक्ष के रूप में। इनके ये पत्रचार कभी सार्वजनिक नहीं हुए, लेकिन अभिलेखागार में मौजूद हैं। चर्चित संघ विचारक प्रो. राकेश सिन्हा ने उन पत्रों को जनवरी में प्रकाशित हो रही अपनी पुस्तक में शामिल किया है। उनकी यह किताब बिहार की राजनीति के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण में संघ की भूमिका पर केंद्रित है।
भारतीय नीति प्रतिष्ठान के निदेशक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राकेश सिन्हा पिछले दिनों पुस्तक मेला में भाग लेने पटना आए थे। दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि औद्योगिकीकरण का नहीं होना बिहार के लिए बहुत दुखद रहा है। इसी के कारण प्रदेश में जातिवाद भी जारी है। अब तो जात-पात की समस्या यहां संस्थागत रूप ले चुकी है। पूंजी का यहां प्रवेश हुआ होता तो जातिवाद खत्म हो चुका होता। जेपी ने 1974 में देश भर में इतना बड़ा आंदोलन खड़ा किया, सभी को साथ लेकर चले। उन्होंने कभी जात-पात की राजनीति नहीं की। वैसे ही श्रीबाबू (श्रीकृष्ण सिंह) ने जाति देख कर सरकार नहीं चलाई। जमींदारों के खिलाफ उनका अभियान चला तो सबसे अधिक उनके स्वजातीय ही प्रभावित हुए। वैसे, इन दोनों ने भी एक-दूसरे पर बड़े ही अनोखे अंदाज में जातिवादी होने का आरोप लगाया। श्रीबाबू को जेपी ने पत्र लिखा-‘यू हैव टन्र्ड बिहार इन टू भूमिहार राज।’ जवाब में श्रीबाबू ने उन्हें लिखा-‘यू आर गाइडेड बाई कदमकुआं ब्रेन ट्रस्ट।’कदमकुआं इलाका उस समय जेपी के स्वजातीयों से भरा था। राजेंद्र बाबू (डॉ. राजेंद्र प्रसाद) भी जातीय सम्मेलनों में जाते थे, लेकिन इन लोगों ने ‘कास्ट’ को कभी अपनी सोच का आधार नहीं बनाया, भले ही ‘कास्ट’ के लोगों ने इन्हें कभी नहीं छोड़ा। दीन दयाल उपाध्याय भी जातिवाद के कट्टर विरोधी थे। 1963 के चुनाव में जौनपुर की सीट से जनसंघ की टिकट उन्हें जातीय समीकरण देखकर दी गई, लेकिन प्रचार में उन्होंने जातीय समीकरण के खिलाफ मुखर होकर आवाज बुलंद की। प्रतिक्रियास्वरूप वे हार गए। तब उन्होंने कहा था-‘मेरी यह हार आगे संघ (आरएसएस) के काम आएगी।’ वाकई आज संघ प्रगतिशील है। बिहार की विडंबना यह भी है कि आपातकाल के ठीक बाद 1977 में औद्योगिकीकरण के जो प्रयास हुए वे 1980 आते-आते समाप्त हो गए। उस दौरान सूबे में पहली बार गैर-वामपंथी ताकतों ने रोजगार, शिक्षा, भ्रष्टाचार जैसे जमीनी मुद्दे उठाए, लेकिन तत्कालीन नेतृत्व ‘अप्रशिक्षित’ था। तत्पश्चात कुछ और नेताओं को भी राजनीति में बड़ा मौका मिला। वे सभी जेपी के शिष्य थे, लेकिन वे भी ‘ट्रेंड’ नहीं थे। ऐसे में वे अपनी-अपनी जाति के नेता बनते गए। बिहार को अभी सिर्फ विकल्प नहीं, एक व्यापक दृष्टि वाले नेतृत्व का विकल्प चाहिए। समाज में बहुत दिनों तक प्रतिक्रयावादी एवं संकीर्ण राजनीति नहीं की जा सकती। जाति आधारित राजनीति के पनपने का एक व्यवहारिक पक्ष यह है कि उसे एक बनी-बनाई जमीन मिल जाती है। एक नेता को अपने समर्थक बनाने में दस साल से अधिक का समय लग जाता है, लेकिन जाति के नाम पर उनके पास हजारों लोग दस घंटे में ही जुट जाते हैं.
एक बार जयप्रकाश नारायण ने डा. श्रीकृष्ण सिन्हा के शासन काल को ‘भूमिहार राज’ कहा तो श्रीबाबू ने भी उन्हें पलट कर यह जवाब दे दिया कि ‘जेपी भी जातपांत से उपर नहीं उठ सके।’ सन् 1957 के चुनाव में पराजित नेता के.बी. सहाय के राजनीतिक भविष्य के मुद्दे पर इन दिग्गज नेताओं के बीच हुए लंबे पत्र -व्यवहार को बिहार की राजनीति का दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय ही माना गया। इस पत्र -व्यवहार ने उस समय कई लोगों का मन खट्टा किया था। इस घटिया पत्र -व्यवहार के प्रसंग को छोड़ दें तो इन नेताओं का व्यक्तित्व इन सब ओछी चीजों से आम तौर पर उपर था। जेपी-श्रीबाबू पत्र-व्यवहार को एक पुस्तक में संजोया है वरिष्ठ पत्रकार डा.एन.एम.पी. श्रीवास्तव ने।इन दोनों नेताओं के बीच हुए पत्र -व्यवहार के विवरण को पढ़ने से ऐसा लगता है कि राजनीति और प्रशासन में भ्रष्टाचार और जातिवाद के बीज बोने का काम उन स्वतंत्रता सेनानियों ने ही जाने -अनजाने कर डाला था जिन नेताओं को स्वतंत्रता के बाद देश के शासन की बागडोर मिली थी।हालांकि यह बात भी मजबूती से कही जा सकती है कि आज देश व प्रदेश के शासन व राजनीति में भ्रष्टाचार व जातिवाद की जो मात्रा है,उसके मुकाबले तब के भ्रष्टाचार व जातिवाद अत्यंत मामूली थे।हालांकि उन स्वतंत्रता सेनानियों से कुछ और संयम की उम्मीद थी। बिहार के प्रथम मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंहा को राजनीति से संन्यास लिए जेपी ने लिखा कि ‘ महेश प्रसाद सिंहा और के.बी.सहाय चुनाव@1957@हार गए।सहाय को कुछ नहीं मिला।पर महेश बाबू राज्य खादी बोर्ड के अध्यक्ष बना दिए गए।उन्हें सरकारी बंगला दे दिया गया।बाद में वे प्रदेश कांग्रेस के खजांची भी बनाए गए।दूसरी ओर तमाम सेवाओं के बावजूद के.बी.सहाय आज कुछ भी नहीं हैं।’ जेपी ने श्रीबाबू को लिखा कि लिखा कि ‘आप मुझसे बेहतर जानते हैं कि बिहार की राजनीति कितना नीचे गिर चुकी है और कितना भ्रष्टाचार पनप चुका है, यह भी आप जानते हैंै। इसके कई कारण होंगे, पर संभवतः सबसे बड़ा कारण यह है कि नेतागण व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और स्वार्थ में लिप्त हैं।आप और अनुग्रह बाबू के बीच प्रतिद्वंद्विता से राज्य में जातीयता ने खतरनाक स्वरूप ग्रहण कर लिया है।’ डा.श्रीकृष्ण सिंहा ने जय प्रकाश नारायण को लिखा कि ‘आप बाजार की गपशप पर विश्वास करते हैं।आपके पत्र में यह संकेत है कि आप महेश बाबू को नीचा करने की और के.बी.सहाय को उठाने की कोशिश कर रहे हैं।मैंने तो वर्षों तक कृष्ण बल्लभ बाबू को ऐसे पद पर रखा जिसका महेश बाबू सपना भी नहीं देख सकते थे।भूमिहारवाद का आरोप भी गलत है। श्रीबाबू ने एक पत्र में लिखा कि जेपी भी जातपांत से उपर नहीं उठ सके हैं और वे चाहते हैं कि उनके स्वजातीय के.बी.सहाय को मैं अपना उतराधिकारी बना दूं। उन दिनों किसी नेता द्वारा अपना उतराधिकारी बनाने की गुंजाइश कम ही थी।वैसे भी डा.श्रीकृष्ण सिंहा के बाद विनोदानंद झा बिहार के मुख्य मंत्री बने थे।कांग्रेस विधायक दल में नेता पद के चुनाव के बाद विजयी होने पर कोई नेता आम तौर पर मुख्य मंत्री बनता था।पर जेपी और श्रीबाबू में जिन दो स्वतंत्रता सेनानियों के राजनीतिक भविष्य को लेकर दुर्भाग्यपूर्ण पत्र व्यवहार हुआ,उन नेताओं के बारे में कुछ जानिए।क्या ये नेतागण जेपी और श्रीकृष्ण सिंहा के ‘संरक्षण’ के हकदार थे ? के.बी.सहाय और महेश प्रसाद सिंहा बाद के वर्षो में क्रमशः मुख्य मंत्री और मंत्री बने।इन पर भ्रष्टाचार के भीषण आरोप लगे।सन् 1967 में जब बिहार में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो इन दो नेताओं सहित कुल छह कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए अय्यर आयोग का गठन किया गया। सुप्रीम कोर्ट के जज रहे अय्यर साहब ने अन्य आरोपितों के साथ- साथ इन दो नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के कुछ आरोपों को सही माना।महेश बाबू पर गंडक सिंचाई योजना के ठेकेदार रमैया के मैनेजर से घूस लेने का आरोप साबित हो गया था।के.बी.सहाय पर अन्य आरोपेां के अलावा अपने ही पुत्र को अपनी ही कलम से नाजायज तरीके से सरकारी खान का पट्टा देने का आरोप सही पाया गया। के.बी.सहाय और महेश बाबूू ने स्वतंत्रता के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थीं।पर आजादी के बाद गद्दी पाने पर वे संयम नहीं रख सके।ऐसा नहीं है कि तब बिहार कांग्रेस में संयमी स्वतंत्रता सेनानियों की कोई कमी थी।पर उनके राजनीतिक कैरियर की चिंता करने वाले जेपी और श्री बाबू जैसे दिग्गज नेता नहीं थे।के.बी.सहाय कुछ वर्षों तक श्रीकृष्ण सिंहा के गुट में थे।पर संबंध बिगड़ा तो के.बी.सहाय ने एक अवसर पर कहा कि ‘यदि साठी @भूमि घोटाला @कांड को लेकर डा.श्रीकृष्ण सिंहा ने मेरा इस्तीफा लिया होता तो उनकी स्थिति भी लज्जास्पद हो जाती क्योंकि वे भी साठी भूमि कांड के लाभान्वितों में शामिल थे।’
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