Sunday 31 March 2019

नवंबर 97:रणबीर सेना के नरसंहार से हिल उठा था देश!

 30 नवंबर 1997 यानी आजाद भारत के सबसे बड़े जातीय नरसंहार का अभागा दिन जब बिहार की धरती 58 गरीब-गुरबों के खून से रंग गई और उसी के बाद सवर्णों की खूनी सेना रणबीर सेना का खौफ बिहार के खेत खलिहानों में फैल गया।


मृत्युंजय कुमार झा


30 नवंबर 1997 यानी आजाद भारत के सबसे बड़े जातीय नरसंहार का अभागा दिन जब बिहार की धरती 58 गरीब-गुरबों के खून से रंग गई और उसी के बाद सवर्णों की खूनी सेना रणबीर सेना का खौफ बिहार के खेत खलिहानों में फैल गया। साफ हो गया कि अगड़े-पिछड़े, वंचित और सभ्रांत के बीच छिड़ा वर्ग संघर्ष, जातीय संघर्ष में बदलकर सैकड़ों लोगों की और बलि लेगा।लक्ष्मणपुर बाथे, जैसे खून में नहा गया। अरवल जिले का ये छोटा सा गांव राजनीतिक और जातीय संघर्ष की कभी न भुला सकने वाली जमीन बन गया। मैं मृत्युंजय कुमार झा 15 साल पहले हुए इस हमले का गवाह बना, लक्ष्मणपुर में रणबीर सेना के नरसंहार के दो दिन बाद मैं उसी गांव में पहुंचा।नब्बे के दशक में बिहार के खेत-खलिहान आंदोलनों, अन्याय, शोषण से धधक रहे थे। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार इसी धधक की जीती जागती मिसाल था। वंचितों ने आवाज उठाई, अपना हक मांगा और जमीन पर अपना अधिकार मांगा, उनकी राजनीति करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी - मार्क्सवादी लेनिनवादी यानि भाकपा माले ने हथियार उठाए। सत्ता तक पहुंच रखने वाले सामंतों के खिलाफ जनता एकजुट हुई और उस जनता को सबक सिखाने और अगड़ी जाति के जमींदारों के रसूख की रक्षा के लिए बनी रणबीर सेना ने गोलियां दाग कर उस आवाज को शांत करने की कोशिश की।जब मैं उस गांव में पहुंचा तो ये देखकर हैरान रह गया कि वहां मातम नहीं था बल्कि एक अजीब सा सन्नाटा था। गांव के 58 लोग मारे जा चुके थे पर कोई बातचीत करने, उस अभागी रात की कहानी सुनाने या रणबीर सेना को कोसने वाला नहीं बचा था।मैंने ये जानने की कोशिश की कि अरवल जिले के इस छोटे से गांव पर आखिर अगड़ी जाति की इस सेना का कहर क्यों टूटा। मैंने ये जानने की कोशिश भी की कि अगर रणबीर सेना की दुश्मनी गांव के मर्दों से थी, उन मर्दों से जिन्हें वो नक्सली या माओवादी कहते थे तो फिर 27 महिलाओं और 16 बच्चों को क्यों बेरहमी से मार डाला गया था।धीरे-धीरे 30 नवंबर 1997 की वो रात दोबारा आंखों के सामने जन्म लेने लगी। पता चला कि रात के करीब 9 बजे रात के अंधेरे में कई नावों पर सवार होकर रणबीर सेना के हथियारबंद हत्यारे गांव के बाहरी हिस्से में पहुंचे थे। ये गांव सर्द रात में जल्द सोने की तैयारी में था। रात के 10 बजते-बजते ये हत्यारे बटनबीघा टोले की तरफ बढ़ने लगे। बटनबीघा लक्ष्मणपुर बाथे का बाहरी हिस्सा है जहां मल्लाह और पिछड़ी जाति के लोगों के घर थे। पहले से तय साजिश के तहत इन 14 घरों में आग लगा दी गई। फूस के घर धू-धू कर जल उठे। रात का अंधेरा आग की लपटों से चमक उठा। चीख पुकार मच गई और लोग घरों से निकल कर भागे। इस बात से बेखबर कि सामने रणबीर सेना के हत्यारे पूरे गांव को घेरकर हथियार तान कर उनका इंतजार कर रहे हैं। जो भागा उनकी गोलियों से भून दिया गया। महिलाओं और बच्चों को भी बख्शा नहीं गया। 27 औरतें और 16 बच्चों को मौत की नींद सुला दिया गया। मौत का ये तांडव करीब 3 घंटे तक चलता रहा लेकिन घटनास्थल से सिर्फ 3 किलोमीटर के फासले पर ही मौजूद महेंदिया पुलिस स्टेशन पर मौजूद वर्दीवालों की नींद नहीं टूटी।साफ था ये साजिश सिर्फ किसी हत्यारी सेना ने नहीं रची थी बल्कि इस नरसंहार की जड़ें राजनीतिक थीं। मारे गए सभी लोग भाकपा माले के समर्थक थे और कई राजनीतिक शक्तियां इस पार्टी का जड़ से सफाया करना चाहती थीं। हालांकि, इस नरसंहार को जातीय सम्मान की रक्षा के लिए बेचैन अगड़ों के गुस्से और बिहार के सत्ता सर्किल में रणबीर सेना के बढ़ते दखल के तौर पर प्रचारित किया गया।लेकिन नरसंहार को लेकर सरकारी उदासीनता ये साबित करती रही कि हो न हो रणबीर सेना के इस कलंक को तत्कालीन आरजेडी सरकार का मौन समर्थन हासिल था। ये यकीन करना मुश्किल है कि किसी राज्य के एक गांव में 58 लोगों को मार डाला गया हो, पूरा देश हैरत और सदमे में हो, अखबार लक्ष्मणपुर बाथे में खेली गई खून की होली की खबरों से रंगे हों फिर भी राज्य की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को इलाके का दौरा करने की सुध चार दिन बाद आई थी।मैं खुद एक पत्रकार के नाते हैरान था कि आखिर आजाद मुल्क में एक प्रतिबंधित सेना के हथियारबंद हत्यारे आते हैं, एक गांव में तीन घंटे तक हिंसा का तांडव मचाते हैं और न पुलिस आती है न चार दिन तक सरकार। लेकिन नब्बे के दशक में बिहार की सच्चाई ऐसी ही थी। वर्ग संघर्ष और जातीय संघर्ष बिहार के खेत-खलिहानों में चरम पर थे।

क्या आप जानते हैं लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के 13 घंटे बाद इस घटना की एफआईआर दर्ज की गई थी। और तो और गांव में कत्लेआम के बाद भी मौत का सिलसिला थमा नहीं था। रणबीर सेना के हत्यारों ने उन मल्लाहों को भी नहीं बख्शा जिनकी नावों से वो गांव तक पहुंचे थे। कहा गया कि रणबीर सेना ने 1992 में गया जिले के बारा नरसंहार का बदला लिया है। बारा नरसंहार में नक्सली गुट एमसीसी ने अगड़ी जाति के 37 लोगों की हत्या कर दी थी। 1994 में रणबीर सेना को बैन कर दिया गया।ये वो दौर था जब भोजपुर को लाल इलाका कहा जाता था। क्योंकि इस इलाके में अल्ट्रा लेफ्ट गुटों की तूती बोलती थी। हैरत नहीं है कि ये वही दौर था जब मध्य बिहार के इस इलाके की मिट्टी सबसे ज्यादा नरसंहारों से रंगी गई थी। मध्य बिहार को wild west of East भी कहा जाने लगा था। बिहार के पांच जिले संग्राम भूमि बन चुके थे। संग्राम सवर्णों की निजी सेना और भाकपा माले के बीच, मुद्दा भूमि सुधार का था, मुद्दा जमीन पर भूमिहीनों के हक का था।पटना, जहानाबाद, अरवल, भोजपुर और गया में टकराव हिंसक होता जा रहा था। 1994 से लेकर 2002 तक रणबीर सेना ने बिहार के इन इलाकों में 22 नरसंहारों को अंजाम देकर दानव का कद हासिल कर लिया था। लक्ष्मणपुर बाथे से पहले भी रणबीर सेना खून की होली खेल चुकी थी।-25 जुलाई 1995 को सरथनाथ में 6 लोग मारे गए।
-12 अप्रैल 1996 को नोरापुर में 6 लोगों की हत्या कर दी गई।
-11 जुलाई 1996 को बथानी टोला में 26 लोगों की हत्या कर दी गई।मुकदमे हुए और मुख्य आरोपी ब्रह्मेश्वर मुखिया के सिर पर 277 लोगों की हत्याओं का आरोप भी लगा, लेकिन वो राजनीतिक संरक्षण के बल पर पकड़ से बाहर रहा। बिहार को करीब से देखने वाले जानते हैं कि लालू प्रसाद यादव के दौर में रणबीर सेना के हौसले सबसे ज्यादा बुलंद रहे। नब्बे के इस दशक में सिर्फ रणबीर सेना ही नहीं पनपी बल्कि कई और निजी सेनाओं और उनके खौफ ने जन्म लिया।राजपूतों की कुइर सेना, भूमिहारों की महर्षि सेना, यादवों की लोरिक सेना, कोयरी समुदाय की भूमि सेना, कोयरी समुदाय की ही आजाद सेना और सनलाइट सेना।जाहिर है जातीय सेनाओं ने बिहार को सिर्फ खून में रंगा। हर समुदाय का अपना राजनीतिक एजेंडा था और उसी एजेंडे से उनकी निजी सेनाएं पिछड़ों या अगड़ों का खून बहाती रहीं। आखिर ये संघर्ष थमा और अब संघर्ष राजनीतिक जमीन पर छिड़ पड़ा है। लेकिन क्या रणबीर सेना के मुखिया की सरेआम हत्या, क्या मुखिया को मारी गईं गोलियां बिहार में फिर उसी खूनी संघर्ष की खौफनाक यादें ताजा करेंगी? क्या ये हत्या जेल से निकलने के बाद राजनीति में मुखिया की कद बढ़ाने की कोशिश का नतीजा है? जवाब आने वाले वक्त में ही मिलेगा।

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