सकरवार वंश
सकरवार वंश
आईए जानते हैं ब्रह्मर्षि समाज का इतिहास (भूमिहार ,त्यागी, महियाल, गालव, चितपावन, नम्बूदरीपाद, नियोगी, अनाविल,..वारेंद्र या राढ़ीय .....आदि)
कहते हे की भूमिहार ब्राह्मण (अयाचक ब्राह्मण/ब्रह्मर्षि समाज ) का इतिहास भगवान् परशुराम से शुरू होता है। गुरु दत्तात्रेय ने भगवान् परशुराम को जीवन मृत्यु के चक्र से मोक्ष प्रदान किया था ,हिन्दू मान्यता अनुसार ब्रह्मर्षि वैदिक संस्कृति का पोषक व संरक्षक ही नहीं संपूर्ण राष्ट्र का स्वस्ति वाचक है । ब्रह्मर्षि सदैव ही सत्य एवं ज्ञान की रक्षा के लिए तत्पर रहें हैं - चाहे वो वैदिक मीमांसा हो, या रावण रचित गणित सूत्र या फिर चाणक्य द्वारा राष्ट्र निर्माण ...यहाँ तक कि ब्रह्मर्षि ने हिदुत्व के बहार निकलकर बौध , जैन , सिख और इस्लाम (हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ) सत्य की रक्षा की हैं।
ब्रह्मर्षि राज्य के शासकीय, नैतिक, धार्मिक व न्यायिक क्षैत्रों में शासक का सर्वोच्च सलाहकार था। यहाँ तक ही नहीं आवश्यकता पडने पर ब्रह्मर्षि ने सैन्य संचालन भी बहुत ही बहादुरी व कुशलतापूर्वक किया। इस प्रकार यह जाति हमेशा जन्म से ब्राह्मण व कर्म से क्षत्रिय रही।
भूमिहार ब्राह्मण (अयाचक ब्राह्मण/ब्रह्मर्षि समाज ) को बाभन भी कहा जाता है । वे ही ब्राह्मण जो भगवान् परशुराम ने क्षत्रिय राजाओं से अर्जित की गयी भूमि को जिन ब्राह्मणों को दान दिया था या जीते हुए राज्य को उन्होंने ब्राह्मणों को सौंप दि उन्हें भूमिहार ब्राह्मण कहा गया है। जोकि कालान्तर में त्यागी, महियाल, गालव, चितपावन, नम्बूदरीपाद, नियोगी, अनाविल,औदिच्य कार्वे, राव, हेगडे, अयंगर एवं अय्यर आदि कई अन्य उपनामों से पहचाने जाने लगे।
प्रारंभ में पौरोहित्य जन्य कर्मों में संलग्न याचक वर्ग दान में मिली भू-सम्पत्तियों के प्रबंधन के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था इसलिए आंतरिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आपसी सहयोग और सम्मति से परिवार के कुछ सदस्य अपनी रूचि अनुसार भू-प्रबंधन में संलग्न हो गए। जोकि कालान्तर में वैदिक कर्मकांड को छोड़कर सामंती वृति अपनाना पड़ा।.
त्रेता-द्वापर संधिकाल में क्षत्रियत्व का ह्रास एवं अयाचक भू-धन प्रबन्धक द्वारा क्षात्रजन्य कार्यों का संचालन
मनुजी स्पष्ट लिखते हैं कि :
सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्र विदर्हति॥ 100॥
अर्थात ''सैन्य और राज्य-संचालन, न्याय, नेतृत्व, सब लोगों पर आधिपत्य, वेद एवं शास्त्रादि का समुचित ज्ञान ब्राह्मण के पास ही हो सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष को।''
भू-धन प्रबन्धक अयाचक ब्राह्मण (भूमिहार/त्यागी) सत्ययुग से लेकर कलियुग तक थे और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखी हालांकि वे अयाचक ब्राह्मण (बाभन/त्यागी) की संज्ञा से ही विभूषित रहे।.
साहस, निर्णय क्षमता, बहादुरी, नेतृत्व क्षमता और प्रतिस्पर्धा की भावना इनमे कूट-कूटकर भरी थी तथा ये अपनी जान-माल ही नहीं बल्कि राज्य की सुरक्षा के लिए भी शक्तिसंपन्न थे।
कुछ कर्मकांडी भूमिहार ब्राह्मण प्राचीन समय से पुरोहिती करते चले आ रहे है , प्रयाग, पटना ,हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार ब्राह्मण, राजपूत,बंदौत , कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्ष से करते चले आ रहे हैं और गजरौला, ताँसीपुर के राजपूतों की यही इनका पेशा है। गया के देव के सूर्यमंदिर के पुजारी भूमिहार ब्राह्मण है.।
भूमिहार ब्राह्मण बिहार, उत्तर प्रदेश क्षेत्र से भारत भूमि के उत्तर हिमालय की तलहटी, सिंधु, व गंगा के मैदान, ब्रह्मावर्त में शरावती (सरस्वती) नदी के किनारे बसे या अफग़़ानिस्तान,केरल, पंजाब ,महाराष्ट्र ,हरियाणा, मध्य प्रदेश व राजस्थान आदि प्रदेश में बसे। उन दिनों में ब्राह्मणों अपने प्रवास या मूल के स्थान के द्वारा जाना जाता था।
7200 विक्रम सम्वत् पूर्व देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा हेतु एक विराट युद्ध राजा सहस्रबाहु सहित समस्त आर्यावर्त के 21 राज्यों के क्षत्रिय राजाओ के विरूद्ध हुआ, जिसका नेतृत्व ऋषि जमदग्नि के पुत्र ब्रह्मऋषि भगवान परशुराम ने किया, इस युद्ध में आर्यावर्त के अधिकतर ब्राह्मणों ने भाग लिया और इस युद्ध में भगवान परशुराम की विजय हुई तथा इस युद्ध के उपरान्त अधिकतर ब्राह्मण अपना धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषादि का कार्य त्यागकर समय-समय पर कृषि क्षेत्र में संलग्न होते गये, जिन्हे अयाचक ब्राह्मण व खांडवायन या भूमिहार व त्यागी कहा जाने लगा।
Bhujbal bhumi bhup binu kinhi,
bipul bar maheedevan dinhee.
(Ram-Charit-Manas)
भूमिहार शब्द का अर्थ संस्कृत व्याकरण के अनुसार भूमि हरने वाला या छीनने वाला है या भूमि को हार (माला) के समान गले लगाने वाला है। इन दोनो ही अर्थ के अनुसार वे वास्तव में भूमि के बड़े प्रेमी है जमीन की प्राप्ति या रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार है।
एम.ए. शेरिंग ने १८७२ में अपनी पुस्तक Hindu Tribes & Caste में कहा "भूमिहार ब्राह्मण जाति के लोग हथियार उठाने वाले ब्राह्मण हैं (सैनिक ब्राह्मण)"। पं. परमेश्वर शर्मा ने ‘सैनिक ब्राह्मण’ नामक पुस्तक भी लिखी है ।
अंग्रेज विद्वान मि. बीन्स ने लिखा है – “भूमिहार ब्राह्मण एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमे आर्य जाति की सभी विशिष्टताएं विद्यमान है। ये स्वाभाव से निर्भीक व हावी होने वालें होते हैं।“
पंडित अयोध्या प्रसाद ने अपनी पुस्तक "वप्रोत्तम परिचय" में भूमिहार को- भूमि की माला या शोभा बढ़ाने वाला, अपने महत्वपूर्ण गुणों तथा लोकहितकारी कार्यों से भूमंडल को शुशोभित करने वाला, समाज के हृदयस्थल पर सदा विराजमान- सर्वप्रिय ब्राह्मण कहा है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "बाणभट की आत्मा कथा " में काशी के भूमिहार ब्राहमणों को भूमि अग्रहार ब्राह्मन की संज्ञा दी है एवं उन परिस्थितियों की चर्चा की है जिनमे भूमिहार ब्राहमणों ने वैदिक कर्मकांड को छोड़कर सामंती वृति अपनाना पड़ा.।
हिन्दी शब्दसागर : 1925 नागरी प्राचारिणी सभा काशी के लोग कहते है की जब भगवान परशुराम ने पृथ्वी को क्षतियो से रहित कर दिया, तब जिन ब्राहणो को उन्होने राज्य का भार सौंपा उन्ही के वंशधर ये भूमिहार या बाभन है।
जमींदार ब्राह्मण शब्द का अर्थ होते हैं-बाभन या त्यागी
भूमिहार-सरकारी अभिलेखों में प्रथम प्रयोग 1865 की जनगणना रिपोर्ट में हुआ है.।
इसके पहले गैर सरकारी रूप में इतिहासकार बुकानन ने 1807 में पूर्णिया जिले की सर्वे रिपोर्ट में किया है।
इनमे लिखा है :-
“भूमिहार अर्थात अयाचक ब्राह्मण एक ऐसी सवर्ण जाति जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। इसका गढ़ बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश है
पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्राह्मणों को त्यागी नाम की उप-जाति से जाना व पहचाना जाता हैं।“
(कान्यकुब्ज वंशावलियाँ भूमिहार शब्द सबसे प्रथम 'बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण' (1526) के 117वें पृष्ठ पर मिलता है
इसमें लिखा हैं कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण के निम्नलिखित पांच प्रभेद हैं:-
(1) प्रधान कान्यकुब्ज
(2) सनाढ्य
(3) सरवरिया
(4) जिझौतिया
(5) भूमिहार
सन् 1926 की कान्यकुब्ज महासभा का जो 19वाँ वार्षिक अधिवेशन प्रयाग में जौनपुर के राजा श्रीकृष्णदत्तजी दूबे, की अध्यक्षता में हुई थी. कान्यकुब्ज महासभा ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग माना है ।
भूमिहार ब्राहमण और अन्य ब्राहमण समाज अपने गुण , कर्म तथा धर्म से सर्वथा अलग - अलग जातियां नहीं है । कान्यकुब्ज वंशावली से यह विदित है की काश्यप गोत्र के सभी कान्यकुब्ज ब्राहमण भूमिहार ब्राह्मणों को मदारपुर युद्ध के आधार पर अपना पूर्वज मानती है. यह कान्यकुब्ज ब्राहमण समाज का दावा है.इसके लिए आप कान्यकुब्ज ब्राहमण की आधिकारिक वेबसाइट देखिये या वंशावली देखिये.
कान्यकुब्ज हितकारी' मासिक पत्र के सन् 1926 के दो अंकों में भी इसी बात की चर्चा यों हुई थी, ''कई बार बड़ी-बड़ी सभाओं के मंचों एवं ब्राह्मण जाति के इतिहास वेत्ताओं के श्रीमुखों से यह मसला अब निर्विवाद सिध्द हो चुका है कि सरयूपारीण, सनाढय, जुझौतिया, भूमिहार, पर्वतीय, बंगाली आदि सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं।
कान्यकुब्ज) बृहद्वंश की शाखाएँ फैलकर सनाढय, पहाड़ी, जुझौतिया, सरयूपारी, छतीसगढ़ी, भूमिहार और अनेक बंगाली ब्राह्मणों की स्थापना हुई। समय के फेर से, शीघ्र गमनागमन के साधनों के अभाव से, प्रान्त विशेष की वेशभूषा की विभिन्नता से, खान-पान की असाम्यता आदि कारणों से ऐसा भेद-भाव उत्पन्न हो गया कि वे एक-दूसरे को भूल से गये और वह पुरानी एकता स्वप्नवत् हो गयी।''
11 जनवरी, 1916 ई. के भारतमित्र में भी इसी विषय की संपादकीय टिप्पणी ऐसी निकली है कि 'मैथिलों और भूमिहारों के वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं.
वारेंद्र या राढ़ीय श्रेणी के ब्राह्मण दुर्गादास लहेरी महाशय ने जो पुस्तक 'पृथ्वीवीर इतिहास' नामक वंगभाषा में लिखी और श्री धीरेंद्रनाथ लहेरी ने हावड़ा (कलकत्ता) से प्रकाशित की है, उसके द्वितीय खण्ड के अध्याय 22 के 347वें पृष्ठ में जो कुछ लिखा है वह इस प्रकार है :
मैथिल ब्राह्मण - भूमिहार ब्राह्मण गण मैथिल ब्राह्मण गणेरई एकटी शाखा बलिया प्रसिद्ध1 इहांदेर उत्पत्ति संबंधों किंवदंती एई - परशुराम कत्तरृक पृथ्वी नि:क्षत्रिया हईले ये सकल ब्राह्मण सेई क्षत्रियागणेर भूसंपत्ति ग्रहण करने, ब्राह्मणोचित क्रिया2कर्म परित्याग करिया राज्यशासनादि कार्ये व्रती हन, ताहाँरई भूमिहार-ब्राह्मण बलिया परिचित हइया छिलेन। आदम सुमारी रा तालिकाय ईहाँरा 'बाभन' संज्ञाय अभिहित।
इसका अनुवाद यों है :
भूमिहार ब्राह्मण गण मैथिल ब्राह्मणों की शाखा मात्र है। उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंवदंती है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों को नष्ट किया था, उस समय जिन ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का राज्य लिया और राज्य कर्म में लगने से ब्राह्मणोचित कर्म (प्रतिग्रहादि) को त्याग दिया, उनकी ही संतान भूमिहार ब्राह्मण हैं। मर्दुमशुमारी में इनको 'बाभन' लिखा है।
१९२९ में सारस्वत ब्राह्मण महासभा ने भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग मानते हुए अनेक प्रतिनिधियों को अपने संगठन का सदस्य बनाया।
अंग्रेजो ने यहाँ के सामाजिक स्तर का गहन अध्ययन कर अपने गजेतिअरों एवं अन्य पुस्तकों में भूमिहारो के उपवर्गों का उल्लेख किया है गढ़वाल काल के बाद मुसलमानों से त्रस्त भूमिहार ब्राह्मन ने जब कान्यकुब्ज क्षेत्र से पूर्व की ओर पलायन प्रारंभ किया और अपनी सुविधानुसार यत्र तत्र बस गए तो अनेक उपवर्गों के नाम से संबोधित होने लगे,यथा -ड्रोनवार , गौतम, कान्यकुब्ज, जेथारिया आदि. अनेक कारणों, अनेक रीतियों से उपवर्गों का नामकरण किया गया. कुछ लोगो ने अपने आदि पुरुष से अपना नामकरण किया और कुछ लोगो ने गोत्र से. कुछ का नामकरण उनके स्थान से हुवा जैसे - सोनभद्र नदी के किनारे रहने वालो का नाम सोन भरिया, सरस्वती नदी के किनारे वाले सर्वारिया, सरयू नदी के पार वाले सरयूपारी, आदि. मूलडीह के नाम पर भी कुछ लोगो का नामकरण हुआ जैसे, जेथारिया, हीरापुर पण्डे, वेलौचे, मचैया पाण्डे, कुसुमि तेवरी, ब्र्हम्पुरिये , दीक्षित , जुझौतिया , आदि भूमिहार ब्राह्मण (सरयू नदी के तट पर बसने वाले ) पिपरा के मिसिर , सोहगौरा के तिवारी , हिरापुरी पांडे, घोर्नर के तिवारी , माम्खोर के शुक्ल, भरसी मिश्र, हस्त्गामे के पांडे, नैनीजोर के तिवारी , गाना के मिश्र , मचैया के पांडे, दुमतिकार तिवारी , आदि. भूमिहार ब्राह्मन में हैं. " वे ही ब्राह्मण भूमि का मालिक होने से भूमिहार कहलाने लगे और भूमिहारों को अपने में लेते हुए भूमिहार लोग पूर्व में कनौजिया से मिल जाते हैं।
भारतीय संसक्रति में "शिव" एवं ब्राम्हण दोनों का शीर्षस्थ स्थान हे। शिव को महादेव एवं ब्राम्हण को भूमिदेव की संज्ञा से अलंकरत किया गया हे| ब्राम्हण में भी शीर्षस्थ सुशोभित– अयाचक ब्राम्हण हे| अयाचक के इष्टदेव "रुद्र" का प्रतिरूप –रुद्र महाराज | इस क्रम से इस प्रतिक्रम मुख्य "सूर्य" प्रतिपादित हे| रुद्र महालय के भग्नावशेष अयाचक ब्राम्हण की स्थिति के ही प्रतिरूप हे, पर बात भिन्न हे की यह कटु सत्य किसी के ह्रदय में टीस उत्पन्न करता हे| काशिराज,द्विजराज महामहिम की उपाधि बनारस महाराजा को सैकड़ों वर्षो से प्राप्त है.रूद्रदेव या महादेव ब्रह्मर्षि समाज का ईष्ठ देवता हैं ।
काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मण हैं, भगवाण शिव के अवतार माने जाते हैं। आज भी काशी नरेश को शहर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
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सैयद वंश व मुगलकालीन खंडहरों के ध्वंसावशेष
By Publish Date:Mon, 05 Mar 2012 07:24 PM (IST) | Updated Date:Mon, 05 Mar 2012 07:24 PM (IST)
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सैयद वंश व मुगलकालीन खंडहरों के ध्वंसावशेष
बीबीपुर कदीम गांव का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी काफी बढ़ जाता है कि यहां सैयद वंश से लेकर मुगलकालीन खंडहरों के ध्वंसावशेष देखने को मिलते हैं। मदारपुर युद्ध हारने के बाद बाह्माण भूमिहारों के प्रथम आगमन को कच्ची कोट व झंझावा पोखरा प्रमाणित कर रहे हैं। यहां मुगल शहजादे अकबर के आगमन की चर्चा जन-जन से सुनी जाती है। वहीं पूर्वाचल के क्रांतिकारियों ने यहां जन्म लेकर भारत माता की रक्षा के लिए आजीवन संघर्ष किया।
भारत में मुगलकाल के पूर्व 1414 से 1451 ई. तक सैयद वंश का शासन था, जिसका संचालन स्वतंत्र रुप से जौनपुर से होता था। जौनपुर सूबे में आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर जनपद आते थे। बीबीपुर गांव में सैयद वंश के शासकों ने एक पक्की कोट बनवाया था, जिसका ध्वंसावशेष आज भी सिलनी नदी के किनारे पुराने पुल के पास मौजूद है। 1451 ई. में सैयद वंश का शासन समाप्त होने पर लोधी वंश का शासन शुरू हो गया। 1526 ई. में मुगल बादशाह की सेनाओं ने देश पर आक्रमण कर दिया। कानपुर- फर्रूखाबाद के बीच बिल्हौर रेलवे स्टेशन के पास मदारपुर गांव में क्षेत्र के भृगु वंशीय ब्राह्माण भूमिहारों ने संगठित होकर मुगल सेना के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। किंतु बाबर की ताकतवर सेनाओं के आगे ये लोग टिक नहीं पाये और भारी नरसंहार हुआ। अफरातफरी के बीच कुछ लोगों ने क्षेत्र के बढ़नी गांव में डेरा डाला तो कुछ बचे लोगों ने बिहार की ओर कूच कर दिया। मदारपुर से बीबीपुर आये भीम शाह के सहोदर भाई जीवन शाह बड़े बहादुर व तलवारबाज थे। उनकी वीरता से प्रसन्न होकर लोधी शासक ने उन्हें मनमानी भू- सम्पत्ति अर्जित करने की छूट दे दी। फलस्वरुप उन्होंने टौंस (तमसा) नदी से लेकर पश्चिम सिलनी नदी के तट पर ओरा से गंगटिया मुजफ्फरपुर तक अपना भूआधिपत्य जमा लिया। इसके बाद सैयद कोट पर कब्जे को लेकर दोनों पक्षों में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में कोट की सुरक्षा में लगे सात सैयद नौजवान मारे गये, जिनके शव अलग-अलग स्थानों बीबीपुर, गजयपुर, ओरा, मेढ़ी, मुकुंदपुर, बिशौली तथा भोर्रा मकबूलपुर में पाये गये। बाद में सभी शवों को बीबीपुर गांव के सिवान में इकट्ठे दफनाया गया जो स्थान आज भी 'सतखन्नी' के नाम से प्रसिद्ध है।
इतना ही नहीं उक्त सातों गांवों में अलग-अलग मजारों पर भी सैयद की पूजा-अर्चना होती है। बीबीपुर स्थित कोट के खंडहर के उपर सैयद के अनुयायियों ने एक छोटी सी पक्की मजार का निर्माण कराया है जहां हर वीरवार (गुरुवार) को पूजा-अर्चना के साथ मेला भी लगता है। सैयद कोट पर कब्जे के बाद भीमशाह के वंशज बदली शाह एवं विनोद शाह ने एक कच्ची कोट एवं बड़े पोखरे का निर्माण कराया जो आज भी झंझवा पोखरा के नाम से गांव में मौजूद है तो कच्ची कोट के टीले नाईयों की बस्ती के पास देखने को मिलते हैं।
1565-66 ई. के मध्य मुगल शाहजादे अकबर का आगमन जौनपुर सूबे के परगना निजामाबाद (अब आजमगढ़) में हुआ, जिसे उस समय हनुमंतगढ़ के नाम से जाना जाता था। जौनपुर सूबे के सूबेदार कुली अली खां की बगावत को कुचल कर वापस जौनपुर जाते समय अकबर ने ससैन्य यहां विश्राम किया था। इसी बीच अकबर का जन्मदिन भी आ गया और निजामाबाद से मंदुरी तक सेना का पड़ाव पड़ गया। सिलनी नदी की गोद में बीहड़ों के बीच बसे सुरक्षित गांव की कोट में बेगमों को ठहराया गया। इसलिए गांव का नाम बीबीपुर कदीम पड़ा। सेना के तंबुओं एवं घोड़ों के लिए जहां खूंटे गाड़े गये उस स्थान की जगह खुटौली गांव बसा है। हाथियों के बांधने वाले स्थान का नाम गजयपुर पड़ा। अकबर बादशाह के जन्मदिन पर जहां टीका लगाया गया उसका नाम टीकापुर। पड़ोस के गांव वालों ने टीकाकरण का विरोध किया तो उसका नाम मेढ़ी पड़ा। अकबर के गुरु व उत्तराधिकारी बैरम खां के नाम पर बैरमपुर गांव का नामकरण हुआ।
भूमिहार ब्राह्मण भगवन परशुराम को प्राचीन समय से अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते है-
१. एम.ए. शेरिंग ने १८७२ में अपनी पुस्तक Hindu Tribes & Cast में कहा है कि, "भूमिहार जाति के लोग हथियार उठाने वाले ब्राहमण हैं (सैनिक ब्राह्मण)।"
२. अंग्रेज विद्वान मि. बीन्स ने लिखा है - "भूमिहार एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमे आर्य जाति की सभी विशिष्टताएं विद्यमान है। ये स्वाभाव से निर्भीक व हावी होने वालें होते हैं।"
३. पंडित अयोध्या प्रसाद ने अपनी पुस्तक "वप्रोत्तम परिचय" में भूमिहार को- भूमि की माला या शोभा बढ़ाने वाला, अपने महत्वपूर्ण गुणों तथा लोकहितकारी कार्यों से भूमंडल को शुशोभित करने वाला, समाज के हृदयस्थल पर सदा विराजमान- सर्वप्रिय ब्राह्मण कहा है।
४. विद्वान योगेन्द्र नाथ भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक हिन्दू कास्ट & सेक्ट्स में लिखा है की भूमिहार ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति का पता उनके नाम से ही लग जाता है, जिसका अर्थ है भूमिग्राही ब्राह्मण। पंडित नागानंद वात्स्यायन द्वारा लिखी गई पुस्तक - " भूमिहार ब्राह्मण इतिहास के दर्पण में "
" भूमिहारो का संगठन जाति के रूप में "
भूमिहार ब्राह्मण जाति ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अयाचक लोगो का एक संगठन ही है. प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगो को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया,उसके बाद सारस्वत,महियल,सरयूपारी,मैथिल,चितपावन,कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए.मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए.
भूमिहार ब्राह्मण के कुछ मूलों ( कूरी ) के लोगो का भूमिहार ब्राह्मण में संगठित होने की एक सूची यहाँ दी जा रही है :
१. कान्यकुब्ज शाखा से :- दोनवार ,सकरवार,किन्वार, ततिहा , ननहुलिया, वंशवार के तिवारी, कुढ़ानिया, दसिकर, आदि.
२. सरयू नदी के तट पर बसने वाले से : - गौतम, कोल्हा (कश्यप), नैनीजोर के तिवारी , पूसारोड (दरभंगा) खीरी से आये पराशर गोत्री पांडे, मुजफ्फरपुर में मथुरापुर के गर्ग गोत्री शुक्ल, गाजीपुर के भारद्वाजी, मचियाओं और खोर के पांडे, म्लाओं के सांकृत गोत्री पांडे, इलाहबाद के वत्स गोत्री गाना मिश्र ,आदि.
३. मैथिल शाखा से : - मैथिल शाखा से बिहार में बसने वाले कई मूल के भूमिहार ब्राह्मण आये हैं.इनमे सवर्ण गोत्री बेमुवार और शांडिल्य गोत्री दिघवय - दिघ्वैत और दिघ्वय संदलपुर, बहादुरपुर के चौधरी प्रमुख है. (चौधरी, राय, ठाकुर, सिंह मुख्यतः मैथिल ही प्रयोग करते है )
४. महियालो से : - महियालो की बाली शाखा के पराशर गोत्री ब्राह्मण पंडित जगनाथ दीक्षित छपरा (बिहार) में एकसार स्थान पर बस गए. एकसार में प्रथम वास करने से वैशाली, मुजफ्फरपुर, चैनपुर, समस्तीपुर, छपरा, परसगढ़, सुरसंड, गौरैया कोठी, गमिरार, बहलालपुर , आदि गाँव में बसे हुए पराशर गोत्री एक्सरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण हो गए.
५. चित्पावन से : - न्याय भट्ट नामक चितपावन ब्राह्मण सपरिवार श्राध हेतु गया कभी पूर्व काल में आये थे.अयाचक ब्रह्मण होने से इन्होने अपनी पोती का विवाह मगध के इक्किल परगने में वत्स गोत्री दोनवार के पुत्र उदय भान पांडे से कर दिया और भूमिहार ब्राह्मण हो गए.पटना डाल्टनगंज रोड पर धरहरा,भरतपुर आदि कई गाँव में तथा दुमका,भोजपुर,रोहतास के कई गाँव में ये चित्पवानिया मूल के कौन्डिल्य गोत्री अथर्व भूमिहार ब्राह्मण रहते हैं
अंगरेजी राज के एक पुराने गजेटियर से मिले 'सकरवार कुल' के वंशवृक्ष के मुताबिक सकरवार कुल के पूर्वज पंडित काम देव मिश्र और पंडित धाम देव मिश्र ने सन् 1530 ई. के आस-पास सकराडीह को आबाद किया...भारत के मध्यकालीन ऐतिहासिक अभिलेखों के मुताबिक 1528 में बाबर का सिपहसालार 'मीर बाक़ी' जब अपनी फौज को लेकर पूरब की ओर बढ़ रहा था तब कानपुर के पास 'मदारपुर' में ब्राह्मण जमींदारों की एक बहादुर फौज के साथ मुगलों का भयानक युद्ध हुआ। ब्राह्मण योद्धा बहादुरी से लड़े लेकिन मुगलों की आग उगलती तोपों और बंदूकों (Matchlocks) के सामने इन देसी जांबाजों की तलवारें, भाले, बरछे और तीर-कमान काम नहीं आए। इन नए विदेशी हथियारों के सामने बहादुरी को हार जाना पड़ा। 'कान्यकुब्ज बंशावली' के मुताबिक इस युद्ध में पानीपत के तीसरे युद्ध से भी ज्यादा रक्तपात हुआ था और सभी ब्राह्मण योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए।
मदारादिपुराख्यस्य भुइंहारा द्विजास्तु ये।
तेभ्यश्च यवनेण्दै्रश्च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥
तेभ्यश्चब्राह्मणा: सर्वे परास्ता अभवंस्तत:॥
इस युद्ध के बाद इन योद्धाओं के जीवित बचे इक्के दुक्के परिजन पूरब की ओर प्रस्थान कर गए। स्वामी सहजानंद सरस्वती के मुताबिक सकरवार वंश का मूल स्थान फतेहपुर जिले का फतुहाबाद है, जो कानपुर से ज्यादा दूरी पर नहीं है। इतिहासकार डॉ. Anand Burdhan के मुताबिक यह एक घोर आश्चर्य का विषय है कि खानवा में राणा सांगा के बाद आक्रमणकारी मुगलिया फौज के सामने मदारपुर ही आखिरी बड़ी चुनौती था लेकिन इतिहासकार इस खूनी जंग के बारे में चुप्पी साध गए ।
'कान्यकुब्ज वंशावली' में भी कुछ तथ्य शोध और ज्ञान-विज्ञान के तत्कालीन सीमित साधनों या फिर मौखिक परंपरा पर निर्भरता के चलते आपस में गडमड दिखाई पड़ते हैं। उक्त वंशावली का समकालीन संदर्भ सामग्री के साथ अध्ययन करने पर इसकी विसंगतियां सामने आती हैं। उक्त वंशावली में लिखा है कि मदारपुर के युद्ध के बाद गर्भू तिवारी के अलावा कोई ब्राह्मण नहीं बचा। और इन्ही गर्भू तिवारी से 'कश्यप गोत्रिय भूमिहार ब्राह्मणों' का वंश आगे बढ़ा। ये कथन युद्ध की भयावहता को दर्शाने के लिए तथ्यों का सरलीकरण लगता है। मदारपुर का युद्ध सन् 1528 में हुआ लेकिन उससे काफी पहले गहडवाल राजाओं के शासन काल में ही कश्यप गोत्रिय भूमिहार ब्राह्मण काशी क्षेत्र में आ चुके थे और 'इब्राहिम लोधी' के शासन काल से पहले ही गाजीपुर, बलिया, मऊ और आजमगढ़ में उक्त कुल के कई गांव अस्तित्व में आ चुके थे।
अब चूंकि तमाम ऐतिहासिक स्रोत 'सांकृत गोत्रिय सकरवार कुल' के सकराडीह पर आगमन का समय मदारपुर के युद्ध के बाद साबित करते हैं, इसलिए नि:संदेह मदारपुर का युद्ध सांकृत गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणोंं के जांबाज पूर्वजों ने ही लड़ा था।
अब सकरवार नाम वाले अयाचक दलीय ब्राह्मणों का विवरण सुनिये। ये ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण सांकृत गोत्रवाले फतुहाबाद के मिश्र हैं। जो अन्य ब्राह्मणों की तरह यवन राज्यकाल में वहाँ से इस देश में चले आये जैसा कि प्रथम दिखलाया जा चुका हैं। फतूहाबाद फतहपुर जिले में एक स्थान हैं। वहाँ से आकर इनके पूर्वज प्रथम रेवतीपुर, गहमर और करहिया ग्रामों (जो गाजीपुर के जमानियाँ परगने में हैं) के बीच में रहने वाले सकरा नामक स्थान में बसे। जो अब भी नाम के लिए डीह के रूप में ऊँचा स्थान पड़ा हुआ हैं और वहाँ मकान वगैरह कुछ भी नहीं रह गये हैं। परन्तु लोग उसे 'सकराडीह' अब तक पुकारते ही हैं। फिर वहाँ से बहुत विस्तार होने या और अनुकूलताओं एवं प्रतिकूलताओं के कारण वे लोग हटकर रेवतीपुर, शेरपुर, सुहवल तथा आरा जिले के सैकड़ों गाँवों मे जा बसे और उस जिले का सरगहा परगना और जमानियाँ परगने का बहुत सा भाग अब छेंके हुए हैं, बल्कि मुहम्मदाबाद परगने (गाजीपुर) में भी शेरपुर, रामपुर, हरिहरपुर आदि गाँवों में रहते थे। अन्त में सकराडीह से हटकर चारों ओर बसे। इसीलिए सकरा में रहने के समय अपना पूर्व स्थान फतहपुर ही बतलाते थे। परन्तु जब वहाँ से भी हटे तो सकरा ही पूर्व स्थान बतलाने लगे। लेकिन पूर्व का फतूहाबाद या फतहपुर नहीं छूटा, इसलिए सकरवार कहलाने पर भी पूछने पर यही कहते थे कि फतहपुर सकरा से आये हैं, क्योंकि फतहपुर के साथ सकरा भी जुड़ गया। काल पाकर सकरा की जगह सकरी और सिकरी भी कहलाने लगा और फतहपुर प्रथम का था ही। बस लोग भूल से समझने लगे कि हम लोग फतेहपुर सीकरी से आये हैं, जो आगरे के पास हैं। इस भ्रम या भूल में विशेष सहायता सिकरीवार राजपूतों के (जो आगरे के पास और अन्य जिलों में तथा ग्वालियर में विशेष रूप से पाये जाते हैं) वंचक भाटों ने की। क्योंकि उन्होंने सिकरीवार और सकरवार को एक ही समझ लिया और रुपया ठगने के लालच से सकरवार ब्राह्मणों का फतेहपुर सीकरी से ही आना बतलाया। परन्तु असल बात तो यही हैं कि फतहपुर जिले से आकर सकरा में रहे, इसलिए फतहपुर सकरा ही उनके डीह कहे जा सकते हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह हैं कि सकरवार और सिकरीवार इन नामों के भेद के साथ-साथ गोत्रों में भी भेद हैं। अर्थात् सिकरीवार राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाये जाते हैं, शाण्डिल्य गोत्र हैं, ऐसा अन्वेषण करने से पता लगा हैं। और इस बात को स्वीकार करते हुए मिस्टर शेरिंग ने भी अपनी जाति विषयक अंग्रेजी पुस्तक (जिसका हाल प्रथम कह चुके हैं) के प्रथम खण्ड के 189 पृष्ठ में सकरवारों के वर्णन प्रसंग में सिकरीवार क्षत्रियों का शाण्डिल्य गोत्र ही लिखा हैं। जैसा कि 'They are Sandel gotra or order. परन्तु सकरवार ब्राह्मणों का तो सांकृत गोत्र प्रसिद्ध ही हैं। इससे नि:संशय ही सकरवार ब्राह्मणों को फतहपुर सकरा से आने के बदले फतेहपुर सीकरी से आना बतलाने वाले सभी ठग हैं।
इन सकरवार नामधारी ब्राह्मणों का प्रसिद्ध सांकृत गोत्र ही उस किंवदन्ती को मिथ्या सिद्ध कर रहा हैं, जो मूर्खतावश जोड़ी गयी हैं और जिसको बहुत से अंग्रेजों ने भी लिख दिया हैं कि ''गाजीपुर के प्राचीन राजा गाधि के चार पुत्र अचल, विचल, सारंग और रोहित थे, जिनके ही वंशज रेवतीपुर, सुहवल और सरंगहा परगना आदि स्थानों के सकरवार हैं'' इत्यादि। क्योंकि यदि ये लोग गाधि के वंशज होते, तो इनका गोत्र कौशिक होता, जैसा कि गाधि और उनके पुत्र विश्वामित्रा आदि का माना जाता हैं। इससे ये सब कल्पनाएँ निर्मूल और अश्रद्धेय हैं। इससे इन्हीं के आधार पर करहिया और गहमर के सकरवार क्षत्रियों और सकरवार ब्राह्मणों को एक सिद्ध करने का साहस करना नितान्त भूल हैं। जबकि वे लोग दो-एक गाँवों में ही रहते हैं, परन्तु सकरवार ब्राह्मण तो सुहवल, रेवतीपुर, रामपुर और शेरपुर एवं सरंगहा आदि में भरे पड़े हैं। अत: इन सकरवार राजपूतों के विषय में वही बात विश्वसनीय हैं, जिसका कथन प्रथम ही कर चुके हैं और जो दोनवार और किनवार क्षत्रियों के विषय में भी कही जा चुकी हैं।
यद्यपि कोई-कोई ऐसा सिद्ध करने का साहस कर सकते हैं कि जो सिकरीवार राजपूत पश्चिम में पाये जाते हैं, उन्हीं की एक शाखा ये सकरवार राजपूत भी हैं और सिकरीवार शब्द ही बिगड़ते-बिगड़ते सकरवार हो गया हैं। तथापि यह उनका प्रयत्न व्यर्थ ही हैं, क्योंकि यदि ऐसी बात होती तो सिकरीवार और सकरवार इन दोनों राजपूतों के गोत्र एक ही होते। परन्तु वे लोग (सिकरीवार) शाण्डिल्य गोत्र वाले और ये गहमर, करहिया वाले सकरवार राजपूत सांकृत गोत्र वाले ही हैं। ये लोग गाधि राजा के भी वंशज नहीं हैं, क्योंकि ऐसी दशा में इनका गोत्र कौशिक होना चाहिए। इसलिए इन राजपूतों की व्यवस्था वही हैं जो कही जा चुकी हैं। यदि इन सकरवार क्षत्रियों को गाधिवंशजों या सिकरीवार क्षत्रियों से ही मिलाने का कोई यत्न करे तो अच्छा हैं, वे लोग उधर ही जा मिलें। इससे भी सकरवार ब्राह्मणों का कोई हर्ज नहीं हैं। ये लोग तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं ही। जैसे अयाचक ब्राह्मणों और राजपूतों में सकरवार नाम वाले पाये जाते हैं, वैसे ही मैथिल ब्राह्मणों में भी सकरीवार या सकरवार नाम वाले ब्राह्मण पाये जाते हैं। यह नाम उन लोगों के प्रथम सकरी स्थान में रहने से हैं, जो दरभंगा शहर से उत्तर-पूर्व में स्थित हैं और बंगाल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे की मधुबनी और झंझारपुर वाली लाइनों का जंक्शन हैं। इस कथन का यहाँ तात्पर्य यह हैं कि एक ही नाम वाले एक या भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने से अनेक जातियों के लोग एक ही नाम वाले हो सकते हैं। परन्तु इससे उनके एक जाति सम्बन्धी होने का संशय नहीं किया जा सकता। अत: निर्विवाद सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों का सकरवार भी नाम प्रथम सकराडीह के निवास से ही पड़ा हैं। हमारे पूरवज काम मरिश्रा और धाम मिश्रा थे। जो सांकरवार बंस के थे। युद्ध में राणा सांगा कि मौत और सेना के हार जाने के बाद बाबर कि सेना दारा सांकरवार बंस के लोगो को परेशान किया जाने लगा। काम मरिश्रा और धाम मिश्रा ने अपने लोगो जिसमे यादव भी थे के साथ फतेह पुर सिकरी को छोङ कर माँ कमछ्या के साथ सकरा डीह पर आकर बस गये। जहा का जमीदार कुतरुवा नामक आदमी थे। जिसको इन लोगो का वहा रहना पसन्द नही था। कुतरुवा को मारने के लिए दुल्ह राय ने अपने तीनो पुत्र को बुलाये जिनके साथ पशुराम राय जो दुल्ह राय के नाती थे भी थे। दुल्ह राय जी ने पशुराम राय जी को कुतरुवा के मरने के योग्य बतलाये और उन्हें ही इस कम को सोपा गया। पशुराम राय जी ने अपनी सूझ बुध से कुतरुवा को मरे और उसका सिर दुल्ह राय को दिए। दुल्ह राय राय बूढ़े हो चले थे। दुल्ह राय ने अपने दोनों पुत्रो और नाती को बराबर बराबर का हिसेदार बनाकर शेरपुर गाँव में तीन पटियों को बसाये। पशुराम राय पटी में चार धर चन्दभान राय ,मेदनिराय ,राजराय अन्य हुए। उसके बाद भी शेरपुर को आनेवाले सरकारो दारा समय समय गाव को लूटा गया जलया गया।
१८ अगस्त १९४७ को डॉ शिवपुजन राय के साथ गाव के ही ८ लोगो ने देश कि अजादी कि लड़ाई में अपने प्राणों कि आहुति देदिये न जेन कितनो ने तिरगें को लेकर आगेजो कि गोली के शिकार हुए। कारण यही था शुरू से ये जाति के लोग लडाकू प्रबृति के थे। किसी कि गुलामी पसंद नही थी
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