टिकारी राज के तृतीय राजा फ़तेह सिंह
टिकारी राज के तृतीय राजा
राजा फ़तेह सिंह
राजा त्रिभुवन सिंह के चार लड़के हुए.
1. कुंवर फ़तेह सिंह,
2. कुंवर बुनियाद सिंह,
3. कुंवर बेचू सिंह,
4. कुंवर नेहाल सिंह.
1. कुंवर फ़तेह सिंह,
2. कुंवर बुनियाद सिंह,
3. कुंवर बेचू सिंह,
4. कुंवर नेहाल सिंह.
फ़तेह सिंह राजा त्रिभुवन सिंह के बड़े लड़के थे. इनका जन्म सन १७२९ इस्वी में हुआ था. सन १७३६ इसवी में राजा त्रिभुवन सिंह के मरने के बाद उनके उतराधिकारी के रूप में उनके सबसे बड़े लड़के फ़तेह सिंह टिकारी राज के गद्दी पर बैठे. उस समय वे नवालिग़ थे, उनका उम्र मात्र 7 वर्ष की थी. उन्होंने बहुत कम उम्र में टिकारी राज परिवार की मुखिया पद की जिम्मेवारी उठा ली थी.
फ़तेह सिंह के नवालिग़ रहते हुए भी बंगाल के सूबेदार ने उनको राजा की मान्यता दे दि. राजा वीर सिंह के दितीय पुत्र और राजा त्रिभुवन सिंह के मंझले भाई सुंदर सिंह अपने नवालिग़ भतीजे के करपरदाज़ की जिम्मेवारी संभाल ली. वे राजा फ़तेह सिंह के प्रतिनिधि के रूप में टिकारी राज के सारे प्रशासनिक और सैन्य कार्य को करने लगे.
फ़तेह सिंह, अपने पिता के द्वारा किय गरे करार के अनुसार मुर्शिदाबाद के सूबेदार को सैन्य सहायता जारी रखे हुए थे. वे अपनी चाचा सुंदर सिंह के ऊपर टिकारी राज के सारी जिम्मेवारी छोड़ कर बंगाल चले गए. वे बंगाल के नवाब के राज दरबार में मुर्शिदाबाद के रक्षा के लिय उनके सेना के कमांडर के रूप सन १७४६ से १७५९ तक अपनी सेवा का योगदान दी.
इधर टिकारी राज में सुंदर सिंह अपने राज के कार्य और सैन्य अभियान में काफी वयस्त थे इसलिय उन्होंने अपने छोटे भाई छतर के पौत्र तथा कहर सिंह के पुत्र दुंद बहादुर सिंह को भी सन १७५३ में अपना प्रतिनिधि के रूप में बंगाल के नवाब, मुर्शिदाबाद में बहाल कर दिया.
राजा फ़तेह सिंह के अपने पिता के द्वारा किये गए करार के अनुसार मुर्शिदाबाद में टिकारी राज के प्रतिनिधि के रूप में लगातार सेवा की थी. सन १७५७ तक टिकारी राज की सारी कार्यवाही उनके चाचा सुंदर शाह के द्वारा संचालित हो रहा था. उनके बाद बुनियाद सिंह के हाथ में आ गयी थी.
सन १७५९ में राजा फ़तेह सिंह बंगाल से टिकारी वापस लौट आये. वे टिकारी राज के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल के सूबा में अपनी भूमिका को अच्छी तरह से निभायी थी.
दिल्ली की मुग़ल साम्राज्य ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल सूबा का दीवान बनाया. ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारीयों ने दीवान होने के नाते अपनी पूरी मेहनत से शासन और ज़मीन की अच्छी व्यवस्था कायम करने के लिय मालगुजारी पंजी का निर्धारण किया,
उस मालगुजारी पंजी में टिकारी राज के स्थान पर राजा फ़तेह सिंह का नाम लिख दिया गया जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी को टिकारी राज के तरफ से मालगुजारी राजस्व समय पर भुगतान किया जा सके.
राजा फ़तेह सिंह को मालगुजारी पंजी पर अपना नाम दर्ज होने पर शर्मिंदगी महसूस हुई, क्योंकि एक राजा के रूप में मालगुजारी शब्द से उन्हें घोर आपति थी. अतः उन्होंने मालगुजारी पंजी से अपना नाम कटवाकर अपने जगह अपने मंझले भाई बुनियाद सिंह का नाम दर्ज करवा दी.
बुनियाद सिंह के मालगुजारी पंजी में नाम दर्ज होने की वजह से राजा फ़तेह सिंह के वंशज को टिकारी राज के गद्दी से हाथ धोना पड़ा.
बाद में मालगुजार पंजी के अनुसार बुनियाद सिंह के बेटा मित्रजीत सिंह टिकारी राज के राजा बने.
इनके शासन काल में बिहार में महत्त्वपूर्ण घटना क्रम हुआ. सन १७४० इसवी में पटना में हैबत जंग बिहार के नायब नवाब पद पर बैठे. सन १७४८ इसवी बिहार में रूहेला अफगानों का विद्रोह. पटना में बिहार के नायब नवाब हैबत जंग की हत्या कर दी गई.. सन १७५१ में पटना में मराठों का आक्रमण हुआ.
इसी अवधि में बिहार राज्य के मध्य में टिकारी राज, पूरब में नरहट के जागीरदार कामगार खान, समाय के जागीरदार नामदार खान, पच्छिम में सिरिस कुटुम्बा के राजा विशुन सिंह और दक्षिण में राजा रामगढ का शासन चलता था.
इन सब में राजा रामगढ अत्यंत शक्तिशाली थे. वे अंग्रेजों के आँख की किरकिरी बने हुए थे. अंग्रेजों ने छोटे छोटे राजाओं को संगठित कर रामगढ किला पर हमला बोल दिया. रामगढ के राजा भाग कर जंगल में छिप गए. अंग्रेजों ने किले को पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया.
सन १७५८ इसवी में महाराजा सुंदर सिंह की हत्या हो जाने के बाद बुनियाद सिंह ने अपने परिवार के मुखिया और टिकारी राज के राजा पद की जिम्मेवारी संभाल लीे. उन्होंने मुर्शिदाबाद के नये सत्ता से साथ पुनः नयी सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया.
दिल्ली की मुग़ल सत्ता के साथ साथ मुर्शीदाबाद का शासन काफी कमजोर हो चुका था, धीरे धीरे अंग्रेजों के दवाब में वे लोग काम कर रहे थे. मुग़ल शासन और अंग्रेज के द्वैत नियंत्रण से टिकारी राज को प्रशासन कार्य और राजस्व उगाही में काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था.
टिकारी राज में आये दिन तरह तरह के बाहरी परेशानी से तंग आ कर टिकारी राजा ने मुग़ल दरबार और बंगाल के नवाब का संग छोड़ कर अंग्रेजों के साथ होने का मन बना लिया था . उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर के पास अपनी भक्ति एवं निष्ठा के साथ उनमें शामिल होने एक आग्रह पत्र लिखा. दुर्भाग्यवश यह पत्र मीरकासिम के हाथ में जा पहुंचा. उस पत्र को पढ़ कर मीरकासिम बहुत क्रोधित हुआ और वे टिकारी के राजा को कठोर सज़ा देने का विचार कर लिया.
मीरकासिम ने एक दूत टिकारी राज के पास भेजा और कहलवाया की वह उनसे मित्रता करना चाहता है इसलिय वे मुंगेर आ कर उनसे मिले और संधि पत्र पर हस्ताक्षर करे. राजा फ़तेह सिंह मीरकासिम के निमंत्रण पा कर बहुत खुश हुए.
राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और उनके लड़के राजकुमार त्रिलोक सिंह तीनों लोग मीर कासिम से मिलने के लिए मुंगेर किला में जा पहुंचे. अतः वे तीनों लोग मीरकासिम द्वारा बिछाए गए जाल में फंस चुके थे. मुंगेर के किला में आते ही उन तीनों लोग को गिरफ्तार कर काल कोठारी बंद कर दिया गया.
मीरकासिम के आदेशानुसार ५ अक्टूबर १७६३ को मुंगेर के किला में तीनों व्यक्तियों राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और राजकुमार त्रिलोक सिंह का, मुग़ल पठान गोलाम्बस के निर्मम हत्या कर दिया गया. राजकुमार त्रिलोक सिंह की निर्मम रोंगटे खड़ी कर देने वाली हत्या हुई,
उनको पिता और चाचा के सामने उनकी आँख फोड़ी गयी, जीभ काटी गयी और तरह तरह की यातना दि गयी. राजा फ़तेह सिंह को शरीर में बालू की बोरियां बांध कर गंगा नदी में फेंक दिया गया. राजा बुनियाद सिंह को तोप के सामने रख कर उनके शारीर को चीथड़े-चीथड़े उडा दिया गया.
फ़तेह सिंह के हत्या के बाद टिकारी राज में पुरुष सदस्य नहीं होने के कारण टिकारी राज का राजकाज की जिम्मेवारी उनकी विधवा रानी के हाथ में आ गया, उन्होंने लगभग तीन वर्ष तक टिकारी राज के राजकाज चलाया.
मीर कासिम के द्वारा राज कुमार मित्रजित सिंह के हत्या किये जाने के भये से रानी ने मित्रजित सिंह को अज्ञातवास में भेज दिया था. सन १७६५ में मित्रजित टिकारी राज के गद्दी पर बैठे,
राजा फ़तेह सिंह के शासन काल में भारत में घटना चक्र ---
मध्य भारत में दिल्ली और अस पास शासन --
मुहम्मद शाह (१७४८ – १७०२) जिन्हें रोशन अख्तर भी कहते थे, मुगल सम्राट था, इनका शासन काल १७१९-१७४८ तक रहा था. मुहम्मद शाह रंगीला की मृत्यु १७४८ में ४६ वर्ष की आयु में हुई थी.
अहमद शाह बहादुर (१७२५-१७७५) -- ये मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला का पुत्र था और अपने पिता के मृत्यु के बाद १७४८ में २३ वर्ष की आयु में १५वां मुगल सम्राट बना. इसकी माता उधमबाई थी, जो कुदसिया बेगम के नाम से प्रसिद्ध थीं.
अज़ीज़-उद्दीन आलमगीर द्वितीय (१६९९-१७५९) ३ जून १७५४ से ११ दिसम्बर १७५९ तक भारत में मुगल सम्राट रहा. ये मुग़ल बादशाह जहांदार शाह का पुत्र था.
जब फारस के शाह नादिरशाह भारत में आया तब सभी को बड़ी शंका खड़ी हो गई. पेशवा, महाराणा अन्य राजाओं व बुन्देलों को मिला कर जयसिंह, नादिरशाह का संगठित मुकाबला करना चाह रहा था.
हालांकि 24 फरवरी 1739 को करनाल में नादिरशाह मुग़ल सेना को बुरी तरह पराजित कर चुका था. यह भी अफवाह थी कि नादिरशाह जयपुर होता हुआ अजमेर जाएगा. यह जयसिंह के लिए भी बड़ा खतरा था. सब चौकन्ने थे, लेकिन अन्त में वह मथुरा से ही वापस अपने देश लौट गया.
नादिरशाह ने जब फरबरी-मार्च १७३९ को भारत पर हमला किया तब दिल्ली की सहायता के लिय आमेर के राजा जयसिंह नहीं गए. इस का कारण यह था- तब निजाम और कमरुद्दीन उस समय साम्राज्य में उच्च पदों पर थे और नादिरशाह के हमले के लिए वे लोग इनके उत्तरदायी होने का शक कर सकते थे, किन्तु मुग़ल सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला बराबर इनमें विश्वास रख कर इनसे आवश्यक परामर्श करता रहा.
आलमगीर द्वितीय १६वा मुगल बादशाह था, जिसने १७५४ से १७५९ ई.तक राज्य किया. आलमगीर द्वितीय आठवे मुगल बादशाह जहाँदारशाह का पौत्र था.
अहमदशाह को गद्दी से उत्तर दिए जाने के बाद आलमगीर द्वितीय को मुगल वंश का उत्तराधिकारी घोषित किया गया था.इसे प्रशासन का कोई अनुभव नही था. वह बड़ा कमजोर व्यक्ति था और वह अपने वजीर गाजीउद्दीन के नाम से भी जाना जाता है. वजीर गाजीउद्दी ने १७५९ ई.में आलममीर द्वितीय की हत्या करवा दी थी.
आलमगीर द्वितीय के शासन काल में साम्राज्य की सैनिक और वित्तीय स्थिति पूर्णतः अस्त-व्यस्त हो चुकी थी. भूख से मरते सैनिक के दंगे और उपद्रव आलमगीर के शाशन काल में दिन-प्रतिदिन की घटना थी.
अपने वजीर गाजीउद्दीन की मनमानी से भी आलमगीर ने उनके नियंत्रण से अपने को मुक्त करने का प्रयास किया, तो १७५९ ई.में वजीर ने उसकी भी हत्या करवा दी. उसकी लाश को लाल किले के पीछे यमुना नदी में फेंक दिया गया.
पश्चिम में वीर मराठा लड़का का कार्य काल-
जनवरी १७३७ ई० को पेशवा उत्तर भारत में आया उसके साथ होलकर, सिन्धिया, पँवार आदि सभी थे. उदयपुर से आते समय पेशवा से २५ फ़रवरी को महाराजा जयसिंह मालपुरा क्षेत्र के झाड़ली गाँव में मिले. उन्होंने उनको अनेक वस्तुएँ भेंट दी. बाजीराव दिल्ली तक जाकर वापस लौट गया.
उसी वर्ष भोपाल में श्रीमंत बाजीराव पेशवा ने फिर से निजाम को पराजय दी. अंतत: १७३९ में उन्होनें नासिरजंग पर विजय प्राप्त की. अपने शासन के मध्यकाल में ही २८ अप्रैल १७४० को अचानक रोग के कारण उनकी असामयिक मृत्यु हुई.
बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ. नया बालाजी बाजीराव पेशवा ऊर्फ नानासाहेब पेशवा बना. वे अपने पिता से भिन्न प्रकृति के थे. वे दक्ष शासक तथा कुशल कूटनीतिज्ञ तो थे ; किंतु सुसंस्कृत, मृदुभाषी तथा लोकप्रिय होते हुए भी वे दृढ़ निश्चयी नहीं थे. उनके आलसी और वैभव प्रिय स्वभाव का मराठा शासन तथा मराठा संघ पर गलत प्रभाव पड़ा. विशेषत: सिंधिया तथा होल्कर के संघर्ष को नियंत्रित करने में, वे असफल रहे.
दिल्ली राजनीति पर आवश्यकता से अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण उसने अफ़ग़ान के शासक अहमदशाह दुर्रानी से अनावश्यक शत्रुता मोल ली.
उसने आंग्ल शक्ति को रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया और इन दोनों ही कारणों से महाराष्ट्र साम्राज्य पर जबरदस्त आघात पहुँचा.
१७४१ ई० में जब नए मराठा पेशवा बाला राव उत्तर में चढ़ाई की उस समय जयसिंह आगरा के सूबेदार थे. इनकी और नये पेशवा बाला राव की धौलपुर में भेंट हुई. इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दे दी.
नाना साहेब पेशवा के पदासीन होने के समय शाहू के रोगग्रस्त होने के कारण आंतरिक कलह को प्रोत्साहन मिला. इन कुचक्रों से प्रभावित हो सन १७४७ में शाहू ने नाना साहेब को पद से हटा दिया गया था. यद्यपि तुरंत ही उसकी पुन र्नियुक्ति कर शाहू ने स्वभाव जन्य बुद्धि का भी परिचय दिया.
नाना साहेब की सैनिक विजयों का अधिकांश श्रेय पेशवा के चचेरे भाई सदा शिव राव भाऊ की है. सन १७४१ काल में मुगलों से मालवा प्राप्त हुआ, १७४२-५१ तक मराठों ने बंगाल पर निरंतर आक्रमण किए.
१५ दिसम्बर १७४९ में शाहू की मृत्यु के कारण मराठा शासन कला के राज्यधिकरों में नई मान्यता स्थापित हुई. रामराजा की अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता पेशवा के हाथों में केंद्रित हो गई. सतारा की सत्ता समाप्त होकर पूना शासन का केंद्र बन गया.
सन १७४९ में भाऊ ने पश्चिमी कर्नाटक पर सत्ता स्थापित किया. जिससे सतारा की अपेक्षा पेशवा का निवास स्थल पूना शासकीय केंद्र बना. सन १७६० में भाऊ ने ऊदगिर में निजाम अली को पूर्ण पराजय दी.
सन १७६१ में अफ़ग़ान के शासक अहमद शाह दुर्रानी के भारत आक्रमण पर भयंकर अनिष्ट की पूर्व सूचना के रूप में दत्ताजी सिघिंया की हार हुई.
सन १७६१ में पानीपत के रणक्षेत्र पर मराठों की भीषण पराजय हुई. इस मर्मांतक आघात को सहन न कर सकने के कारण पेशवा की मृत्यु हो गयी.
पूर्व में बंगाल के नवाब का शासन काल -
११ अक्टूबर १७३७ को बंगाल में भूकम्प इतना विध्वंशक था की उसमें तीन लाख लोगों की मृत्यु हो गयी थी. बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि हुई थी.
शुजा-उद-दीन मुहम्मद खान बंगाल के नवाब थे. बंगाल के नवाब मुर्शीद क़ुली खान का उत्तराधिकारी उसका दामाद शुजा उद दीन मुहम्मद खान बना. मुग़ल बादशाह मो० शाह ने बिहार का कार्यभार भी शुजा उद दीन को सौंप दी. १७३९ में शुजा उड़ दीन की म्रत्यु हो गयी.
सरफराज़ खान बंगाल के नवाब थे. १७३९ में शुजा उद दीन की म्रत्यु के बाद इसका पुत्र सरफ़राज खान गद्दी पर बैठा. १७४० में बिहार के नायक सूबेदार अलिवर्दी खान ने विद्रोह कर दिया और हेरिया या गिरिया के युद्ध में सरफ़राज़ खान को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और इस तरह अली वर्दी खान बंगाल का नवाब बना.
अलीवर्दी खान बंगाल के नवाब थे. १७४० ईo मे अलीवर्दी खा बंगाल का नवाब बना. अली-वर्दी-खान ने २ करोड़ रुपए मुग़ल बादशाह को देकर नवाब के पद के वैधानिकता को प्राप्त किया.
उधर उड़िसा में सरफ़राज़ खान का दामाद रुस्तम ने अलीवर्दी खान के अधीनता मानने से इनकार कर दिया था. साल भर बाद अलीवर्दी खान ने बिहार और बंगाल पर अपनी पकड़ मज़बूत करने बाद 3 मार्च १७४१ को उड़िसा पर आक्रमण कर दिया और रुस्तम को हरा कर भगा दिया था.
इसने अपने १६ साल के कार्यकाल में कभी भी मुग़ल राजकोष में कोई भी राजस्व का कोई भी हिस्सा जमा नहीं किया.
इसी के समय में मराठों ने बंगाल पे आक्रमण किया और अली-वर्दी-खान से उड़ीसा छिन कर ले गए और बिहार और बंगाल की चौथ के रूप में १२०००० वार्षिक तय हुआ. ये संधि १७६१ में मराठा सरदार रघु जी भोंसले के साथ हुई.
इस आकमण का लाभ उठाकर अंग्रेजो ने फ़ोर्ट विलियम के चारों ओर खाई बना दी, अलिवर्दी खान में मुग़ल बादशाह को दस्तक ३००० रुपए के बदले बंगाल में कर मुक्त व्यापार को निरस्त करने के लिये पत्र लिखा लेकिन इस पत्र का कोई भी उत्तर नहीं आया.
इधर बिहार और पटना का स्थिति -
१० अप्रैल १७४० को बिहार के सूबेदार अलीवर्दी खान ने बंगाल के नवाब को राज महल जिला के पास घोरिया में घेर कर जान से मार दिया और बंगाल के नवाब बन बैठा. मुग़ल बादशाह को रिश्वत दे कर बंगाल के नवाब के पदवी प्राप्त कर ली.
बिहार में उस समय भोजपुर, बेतिया और टिकारी के राजा ने विद्रोह कर दिया था. अलीवर्दी खान ने अपने सेनापति हिदायत खान को बिहार में रामगढ, बेतिया, भोजपुर और टिकारी राज पर आक्रमण करने के लिए भेजा. वह बिहार आ कर सबसे पहले रामगढ किला को घेर लिया. उसने सभी जगह सैन्य करवाई करके विद्रोह को दबा दिया.
इस समय मीर जाफर के बेटा मीरन पलासी युद्ध के बाद पटना के सूबेदार बन गया था.
मुगल साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप उत्तरी भारत में अराजकता का माहौल हो गया. बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने १७५२ में अपने पोते सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था. अलीवर्दी खां की मृत्यु के बाद १० अप्रैल १७५६ को सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना.
टिकारी राज परिवार में फ़तेह सिंह के विधवा रानी लगन कुंवर ने अपने एकमात्र पुत्र कुंवर त्रिलोक सिंह के मुंगेर के किला में मीरकासिम द्वारा हत्या किये जाने के बाद अपने परिवार में पति के सबसे छोटे भाई नेहाल सिंह के पुत्र पीताम्बर सिंह को गोद ले ली.
महाराजा सुंदर शाह के वारिस
कुंवर दूलह सिंह, इनकी 18 वर्ष की अवस्था में किसी युद्ध में मृत्यु हो गयी.
बाद में राजा सुंदर सिंह ने अपने बड़े भाई पीताम्बर सिंह के मंझले बेटे बुनियाद सिंह को गोद ले लिए.
बाद में राजा सुंदर सिंह ने अपने बड़े भाई पीताम्बर सिंह के मंझले बेटे बुनियाद सिंह को गोद ले लिए.
कुंवर छतर सिंह के वारिस
कहर सिंह
दलेर सिंह.
दलेर सिंह.
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