राजनारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कोर्ट से भी हराया था और वोट से भी पुण्यतिथि विशेष: राजनारायण के नाम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हराने का रिकॉर्ड ही नहीं और भी बहुत कुछ दर्ज है जिसकी कभी चर्चा नहीं हुई/ कृष्ण प्रताप सिंह
आज के ही दिन यानी 1986 में 31 दिसंबर को इस संसार को अलविदा कहने वाले समाजवादी नेता ‘लोकबंधु’ राजनारायण की यादों को 1977 में रायबरेली में सीधे चुनावी मुकाबले में पदासीन प्रधानमंत्री को धूल चटाने के उनके अब तक के अटूट रिकॉर्ड की खासी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
उनके व्यक्तित्व के कई अन्य दिलचस्प पहलू इस रिकॉर्ड के बोझ के नीचे ऐसे दब गये हैं कि कभी निकल ही नहीं पाते. यहां तक कि आंदोलनों में सर्वाधिक बार जेल जाने का उनका अनूठा रिकॉर्ड भी अचर्चित ही रह जाता है. वैसे ही जैसे 2011 में उनके वंशज धर्मेंद्र सिंह की आरटीआई के जवाब में सरकार द्वारा यह बताया जाना कि उसकी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची में राजनारायण का नाम ही नहीं है. भले ही 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की हो.
कार्तिक महीने की अक्षय नवमी के दिन 25 नवंबर, 1917 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के मोतीकोट गंगापुर नाम के गांव में जिस भूमिहार परिवार में अनंतप्रताप सिंह के बेटे के रूप में उनका जन्म हुआ, वह एक समय बनारस के महाराजा रहे चेत सिंह और बलवंत सिंह की वंश परंपरा में आता है और धन व मान की दृष्टि से अपना सानी नहीं रखता था.
लेकिन ‘भुक्खड़, फक्कड़ और मस्तमौला’ समाजवादी नेता से लेकर विधायक, सांसद व केंद्रीय मंत्री तक का जीवन जीने के बाद 31 दिसंबर, 1986 को राजनारायण ने राजधानी दिल्ली के लोहिया अस्पताल में अंतिम सांस ली तो उनके बैंक खाते में केवल साढ़े चार हजार रुपये थे. कोई आठ सौ एकड़ पुश्तैनी कृषिभूमि का बड़ा हिस्सा उन्होंने दलितों-पिछड़ों को बांट दिया था, क्योंकि वे अपनी विचारधारा के अनुरूप जोतने-बोने वालों को ही कृषिभूमि का मालिक बनाने के पक्ष में थे और खुद को अपनी मान्यताओं का अपवाद बनाना उन्हें गवारा नहीं था.
काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए-एलएलबी राजनारायण ने 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य बनकर अपनी राजनीतिक पारी शुरू की तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1942 में महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ के नारे के साथ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन का आह्वान किया तो स्टूडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने नौ अगस्त, 1942 को वाराणसी के चारों ओर क्रांतिकारी गतिविधियों का ऐसा बेमिसाल संचालन किया कि गोरी सरकार को उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए पांच हजार रुपयों का इनाम घोषित करना पड़ा. 28 सितंबर को पुलिस की गिरफ्त में आये तो 1945 तक जेल में ही रहे.
आजादी के बाद भी वे आंदोलनकारी राजनीति से विमुख नहीं हुए. आचार्य नरेंद्र देव, डाॅ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए, तो भी आंदोलनों के सिलसिले में अपना एक पैर रेल में तो दूसरा जेल में रखा. 1954-55 में वे इस पार्टी के अध्यक्ष भी बने.
वाराणसी में उन्होंने समय-समय पर काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों के प्रवेश और महारानी विक्टोरिया की मूर्ति के भंजन को लेकर आंदोलन चलाये, तो 1952 में पहली बार उप्र विधानसभा का सदस्य निर्वाचित होने के बाद गरीबों की रोटी के लिए विधानसभा को भी सत्याग्रह का मंच बनाने से परहेज नहीं किया.
आज की तारीख में, जैसा कि पहले बता आये हैं, उनकी बाबत लोग यह तो जानते हैं कि 1971 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की रायबरेली लोकसभा सीट पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से सर्वथा विषम मुकाबले में अपनी हार को उन्होंने कैसे चार ही साल बाद कोर्ट में जीत में बदल दिया. फिर छह साल बाद बाकायदा वोट से हराकर अपनी पुरानी हार का बदला लिया. कैसे 1975 में उन्हें इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट से हासिल हुई जीत ने देश का इमर्जेंसी के काले दिनों से सामना कराया और कैसे 1977 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली के वोटरों द्वारा तोहफे में दी गयी जीत ‘दूसरी आजादी’ की सौगात लेकर आयी. इतना ही नहीं, दो ही साल बाद 1979 में कैसे पलटी मारकर उन्होंने दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर मोरार जी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार गिरवाकर चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया.
लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने 1980 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी के खिलाफ फिर चुनाव लड़ने से यह कहकर मनाकर दिया था कि ‘किसी बेकस को ऐ बेदर्द जो मारा तो क्या मारा! मैं उन्हें कोर्ट से भी हरा चुका और वोट से भी! अब यह तो कोई बहादुरी नहीं कि फिर-फिर हराने के लिए उनका पीछा करता रहूं.’
अलबत्ता, 1980 में वे खुद भी 1977 वाले राजनारायण नहीं रह गये थे. दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार गिराकर उन्होंने देश का ‘दूसरी आजादी’ का सुहाना सपना तोड़ दिया था तो जिस कांग्रेस के खिलाफ चुनकर आये थे, उसी के समर्थन से चौधरी चरण सिंह की नई सरकार बनवाने में भूतपूर्व स्वास्थ्यमंत्री, संजय गांधी के मामा और चौधरी चरण सिंह के हनुमान आदि जानें क्या-क्या बन गये थे! फिर भी उन्होंने अपने लिए कोई ‘सुरक्षित’ लोकसभा सीट नहीं चुनी.
जिस वाराणसी सीट से अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सांसद हैं, वह उन दिनों कांग्रेस के दिग्गज नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी का घर और क्षेत्र हुआ करती थी. राजनारायण यह जानकर भी कि कमलापति को उनके घर में हराना टेढ़ी खीर होगा, उनसे जा टकराये. इतना ही नहीं, इस टक्कर को उन्होंने इंदिरा गांधी से हुई टक्कर जितनी ही दिलचस्प बना दिया.
प्रचार में निकले तो कमलापति त्रिपाठी से उनका पहला आमना-सामना रौहनिया बाजार में हुआ. उन्होंने सादर प्रणाम कर विजय का आशीर्वाद मांगा तो कमलापति ने भी हाथ उठाने में देर नहीं की. लेकिन दृश्य ऐसा था कि जैसे अर्जुन का बाण पितामह भीष्म के चरणों में आ गिरा हो.
लेकिन राजनारायण के निकट इतना ही काफी न था. वे आगे बढ़े और कमलापति के कुर्ते की जेब में हाथ डालकर सारे रुपये निकाल लिये और अपने चुनाव संचालक शतरुद्र प्रकाश की ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘लो, जीप के आज के पेट्रोल का जुगाड़ हो गया!’ कमलापति ने भी कोई प्रतिवाद नहीं किया. बस, मुसकुराकर रह गये.
दूसरे दिन कमलापति के औरंगाबाद मुहल्ले में, जहां उनकी वह ऐतिहासिक पुश्तैनी हवेली है, जिसमें कभी मुगल शाहजादा दाराशिकोह उपनिषदों का अध्ययन करने आया करता था, राजनारायण की सभा थी. तब विरोधियों पर टमाटर, स्याही और अंडे आदि फेंकने का रिवाज नहीं था, लेकिन अचानक हवेली की ओर से कुछ पत्थर बरसे. इससे पहले कि सभा में व्यवधान होता, राजनारायण ने माइक हाथ में लिया और बोले: ‘घबराइये नहीं, बहू जी {कमलापति त्रिपाठी के पुत्र लोकपति त्रिपाठी की भार्या} फूलों से हमारा स्वागत कर रही हैं. राजनारायण की इस एक टिप्पणी ने पत्थरों की बारिश बंद करा दी.
प्रचार के दौरान कमलापति त्रिपाठी थकान और रक्तचाप से पीड़ित हो गये, मगर मैदान कैसे छोड़ते? राजनारायण उनका हालचाल लेने गये और शीघ्र स्वास्थ्यलाभ की कामना करके लौट आये तो डाॅ. कोशलपति त्रिपाठी ने कमलापति से कहा कि बेहतर होगा कि वे कम से कम एक दिन आराम कर लें. लेकिन कमलापति ने कहा, ‘इस रक्तचाप को देखूं या राजनारायण को?’
इस चुनावी टक्कर की एक और बड़ी ही दिलचस्प घटना है. वाराणसी में एक बेनियाबाग है, जिसे अब राजनारायण पार्क कहा जाता है. इसी पार्क में इंदिरा गांधी को कमलापति के समर्थन में सभा करनी थी. लंबी प्रतीक्षा के बाद खबर आई कि गांधी को गोरखपुर की सभा में ही बहुत देर हो गई है और वे वाराणसी नहीं आ पायेंगी, तो गुस्साये कमलापति सभास्थल पर ही धरने पर बैठ गये और ऐलान कर दिया कि वे तभी उठेंगे, जब इंदिरा गांधी आकर सभा को संबोधित कर देंगी. पूरी रात के धरने के बाद सुबह छः बजे इंदिरा गांधी आईं और उन्होंने बाग में कमलापति के साथ रात भर जमे रहे जनसमुदाय के समक्ष भाषण दिया.
आगे इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों में खूब दांव-पेंच, यहां तक कि साम-दाम-दंड-भेद सब चले. कड़े मुकाबले में हार के अंदेशे से परेशान कमलापति को उन दिनों के ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रबलतम शत्रु’ राजनारायण के विरुद्ध अल्पसंख्यक मतदाताओं का समर्थन पाने के लिए जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अब्दुल्ला बुखारी को वाराणसी बुलवाना पड़ा, लेकिन शिष्टाचार का एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. अंततः मतगणना में कमलापति ने राजनारायण को 24 हजार वोटों से हरा दिया.
2014 के लोकसभा चुनाव में इसी वाराणसी में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से मुकाबला हुआ तो वाराणसी वालों की बड़ी इच्छा थी कि वह कमलापति व राजनारायण के मुकाबले जैसा ही शालीन हो. लेकिन न नरेंद्र मोदी कमलापति त्रिपाठी सिद्ध हुए और न अरविंद केजरीवाल राजनारायण बन पाये.
राजनारायण की बाबत डॉ राममनोहर लोहिया प्रायः कहते थे, ‘राजनारायण का हृदय शेर का है. ऐसे शेर का, जो व्यवहार में गांधीवादी है.’ और ‘देश में उनके जैसे तीन चार लोग भी हों तो कोई तानाशाही उसके लोकतंत्र पर अपनी काली छाया डालने की हिमाकत नहीं कर सकती.’
1975 में श्रीमती गांधी की तानाशाही ने लोहिया के इस कथन को गलत सिद्ध करना चाहा तो राजनारायण जिस तरह उनके प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे, आज के अघोषित आपातकाल में वह उससे लड़ने वालों की बड़ी प्रेरणा हो सकता है.
राजनारायण अपनी लोकप्रिय छवि के विपरीत दर्शन व संस्कृति में भी गहरी दिलचस्पी लेते थे. एक समय वे समाजवादियों के इतिहासप्रसिद्ध पत्र ‘जन’ के संपादक मंडल में भी रहे. फिर वाराणसी से प्रकाशित ‘जनमुख’ साप्ताहिक का संपादन किया. उनके निधन के लंबे अरसे बाद 2007 में भारतीय डाक तार विभाग ने उनपर एक स्मारक डाक टिकट जारी किया था
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