Saturday 27 June 2015

Ganga Sharan Singh (Sinha)

Ganga Sharan Singh (Sinha) (1905-1988) was a member of the Rajya Sabha, the Upper House of the Parliament of India, for three terms (1956–62 and 1962-68 from Biharand then a nominated member in 1968-1974).  He was prominent in the Indian National Congress party and a co-founder of the Congress Socialist Party.  He was close toRajendra Prasad, India's first President. He shared a house in Patna with his close friend and nationalist Jayaprakash Narayan.

Gangasharan Sinha, commonly called Ganga Babu, had acquaintance with many Hindi writers but never wrote himself. A good orator, he worked to promote Hindi as a national language. He was among the founding members of the Board of trustees of Bharatiya Jnanpith. The Kedriya Hindi Sansthan, Agra has instituted an award in his honour. TheGovernment of India has instituted Ganga Sharan Singh Awards under Hindi Sevi Samman Awards.   The government of Bihar has instituted an award for literature in his name.
Ganga Sharan Singh was also a member of the Press Council of India between November 16, 1966 and December 31, 1969.

He died in 1988 of a heart attack.

The Government of India had accepted the recommendations of the Ganga Sharan Sinha Committee Report on child education in 1969 and decided to integrate all services for the 0- to 6-year-olds, planning proceeded cautiously, piloted at first, with the ICDS conceptual model.

Monday 15 June 2015

कौन थे ब्रह्मेश्वर मुखिया? @मणिकांत ठाकुर

ब्रहमेश्वर सिंह उर्फ बरमेसर मुखिया बिहार की जातिगत लड़ाईयों के इतिहास में एक जाना माना नाम है.
भोजपुर ज़िले के खोपिरा गांव के रहने वाले मुखिया ऊंची जाति के ऐेसे व्यक्ति थे जिन्हें बड़े पैमाने पर निजी सेना का गठन करने वाले के रुप में जाना जाता है.
बिहार में नक्सली संगठनों और बडे़ किसानों के बीच खूनी लड़ाई के दौर में एक वक्त वो आया जब बड़े किसानों ने मुखिया के नेतृत्व में अपनी एक सेना बनाई थी.
सितंबर 1994 में बरमेसर मुखिया के नेतृत्व में जो सगंठन बना उसे रणवीर सेना का नाम दिया गया.
उस समय इस संगठन को भूमिहार किसानों की निजी सेना कहा जाता था.
इस सेना की खूनी भिड़ंत अक्सर नक्सली संगठनों से हुआ करती थी.
बाद में खून खराबा इतना बढ़ा कि राज्य सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था.
नब्बे के दशक में रणवीर सेना और नक्सली संगठनों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ की बड़ी कार्रवाईयां भी कीं
सबसे बड़ा लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार एक दिसंबर 1997 को हुआ था जिसमें 58 दलित मारे गए थे.
इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की जातिगत समस्या को उजागर कर दिया था. इस घटना में भी मुखिया को मुख्य अभियुक्त माना गया था.
ये नरसंहार 37 ऊंची जातियों की हत्या से जुड़ा था जिसे बाड़ा नरसंहार कहा जाता है. बाड़ा में नक्सली संगठनों ने ऊंची जाति के 37 लोगों को मारा था जिसके जवाब में बाथे नरसंहार को अंजाम दिया गया.
इसके अलावा मुखिया बथानी टोला नरसंहार में अभियुक्त थे जिसमें उन्हें गिरफ्तार किया गया 29 अगस्त 2002 को पटना के एक्सीबिजन रोड से. उन पर पांच लाख का ईनाम था और वो जेल में नौ साल रहे.
बथानी टोला मामले में सुनवाई के दौरान पुलिस ने कहा कि मुखिया फरार हैं जबकि मुखिया उस समय जेल में थे. इस मामले में मुखिया को फरार घोषित किए जाने के कारण सज़ा नहीं हुई और वो आठ जुलाई 2011 को रिहा हुए.
बाद में बथानी टोला मामले में उन्हें हाई कोर्ट से जमानत मिल गई थी.
277 लोगों की हत्या से संबंधित 22 अलग अलग आपराधिक मामलों (नरसंहार) में इन्हें अभियुक्त माना जाता थ. इनमें से 16 मामलों में उन्हें साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया था. बाकी छह मामलों में ये जमानत पर थे.
जब वो जेल से छूटे तो उन्होंने 5 मई 2012 को अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन के नाम से संस्था बनाई और कहते थे कि वो किसानों के हित की लड़ाई लड़ते रहेंगे.
जब मुखिया आरा में जेल में बंद थे तो इन्होंने बीबीसी से इंटरव्यू में कहा था कि किसानों पर हो रहे अत्याचार की लगातार अनदेखी हो रही है.
मुखिया का कहना था कि उन्होंने किसानों को बचाने के लिए संगठन बनाया था लेकिन सरकार ने उन्हें निजी सेना चलाने वाला कहकर और उग्रवादी घोषित कर के प्रताड़ित किया है.
उनके अनुसार किसानों को नक्सली संगठनों के हथियारों का सामना करना पड़ रहा था.

Monday 1 June 2015

ब्रह्मेश्वर मुखिया को नमन क्यों??

1990 के दौर में बिहार में सत्ता परिवर्तन के बाद जब पिछड़ी और दलित जातियों में राजनीतिक,सामाजिक चेतना का उदय हुआ तो उनमे आगे बढ़ने की छटपटाहट दिखी,इसका फायदा सत्ता में बैठे लोगों ने उठाया और उनके मन में समाज में अगड़ी कही जाने वाली जातियों के प्रति जमकर विषवमन किया,नतीजा यह हुआ कि समाज में वैमनष्य बढ़ता गया,कुछ सवर्ण जातियाँ तो तुरंत ही समर्पण मुद्रा में आ गयी लेकिन एक जाति विशेष ने झुकने से मना कर दिया।इसका नतीजा यह हुआ कि इन्हें जमकर प्रताड़ित किया गया,फर्जी मुक़दमे किये गए,पुलिस से कोई सहयोग नही मिले इसलिए इस जाति विशेष के तमाम अधिकारीयों जिसमे डीजीपी से लेकर दारोगा तक शामिल थे,को सीआईडी जैसे महत्वहीन जगहों पर तैनात किया गया।किसी भी राज्य के लिए यह काला दिन कहा जायेगा जब हजार से ज्यादा थानों में एक भी इंस्पेक्टर उस जाति का न हो,एक भी डीएसपी अहम् पदों पर तैनात न हो।इसके बाद इस जाति विशेष की आमदनी के मुख्य श्रोत खेती पर सरकार समर्थित नक्सलियों द्वारा आर्थिक नाकेबंदी लगायी गयी,विरोध करने वालों की हत्या हुई,कानून व्यवस्था केनाम पर हथियार जब्त कर लिए गए।फिर फरवरी 1992 में गया की सम्पूर्ण पुलिस बारा नामकगाँव में पहुँची और दिनभर छापामारी अभियान चलाया,तमाम हथियार जब्त कर लिए गए,यहाँ तक की परंपरागत भाले और तलवार भी,उसी रात उस गाँव में हजार की संख्या में नक्सलियों ने हमला किया,चालीस लोगों के हाथ बांधकर पंक्ति में खड़ा किया गया और फिर बारी बारी से सबके गले काट दिए गए।सम्पूर्ण समाज स्तब्ध और भयाक्रांत था,ऐसे में भोजपुर के लाल बरमेश्वर सिंह ने किसानों की मदद करने का बीड़ा उठाया,उन्होंने किसानों का डर दूर किया,उन्हें संघठित किया और लम्बी लड़ाई के लिए तैयार रहने का आह्वान किया।अब लड़ाई दोतरफा हो चुकी थी,नक्सलियों को जबाब मिलने लगा था,लड़ाई का क्षेत्र भोजपुर से सोन नदी पार कर अरवल(तत्कालीन जहानाबाद)तक फ़ैल चूका था,लक्ष्मणपुर बाथे के रूप में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया जिससे नक्सली थोड़े कमजोर तो हुए लेकिन उन्होंने कुछ दिनों में फिर चौरम में कई किसानों की हत्या कर दी,इसके बाद शंकरबीघा,नारायणपुर जैसे कई गाँवों में नरसंहार हुए,फिर बारी आयी सेनारी की,जहाँ बिल्कुल बारा की तर्ज पर सत्ता समर्थित नक्सलियों ने चालीस जाति विशेष के किसानों की गला काटकर हत्या कर दी।सत्ता पर बैठे लोगों में इस जाति विशेष के प्रति नफरत का आलम यह था कि तत्कालीन महिला मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए सेनारी जाने से मना कर दिया कि ये लोग हमारे वोटर नही हैं।सेनारी के अधिकांश अभियुक्त सत्ता पर आसीन विरादरी से सम्बन्ध रखते थे इसलिए लड़ाई के लिए तैयार किसानों ने अपना लक्ष्य इसी विरादरी को चुना और मियापुर में चालीस लोगों की हत्या की,ये उस दौर का आखिरी नरसंहार था जिसमे शायद असली दोषी मारे गए थे और इसके साथ ही समाज में शक्ति संतुलन भी स्थापित हो गया।कम ही लोग जानते हैं कि बिहार के पहले जातिय नरसंहार को 1978 में कुर्मियों ने पटना के बेलछी नामक गाँव में अंजाम दिया था,जहाँ सांत्वना के लिए इंदिरा गाँधी हाथी पर चढ़कर पहुँची थी,उसके बाद कई नरसंहार यादवों ने अंजाम दिये और इन सभी नरसंहारों के पीछे काकारण भी वही किसान-मजदुर विवाद था लेकिन आज कोई इन्हें दोषी नही कहता बल्कि ये जातियाँ भी भूमिहारोंको ही दोषी ठहराती हैं।ये सही है कि भूमिहार जमींदार थे लेकिन आजादी के बाद अब कोई जमींदार नही है,सौ दो सौबीघा वालों की संख्या पुरे बिहार में ऊँगली पर गिनी जा सकती है,फिर भी कई जातियाँ आज भी भूमिहारों के प्रति विषवमन कर रही हैं ताकि राजनीतिक रूप से सदैव जागरूक रही ये जाति कमजोर ही रहे।आज भूमिहारों की हालत ये है कि इस समाज के युवक मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव,एटीएम गार्ड,अपार्टमेंट गार्ड आदि की नौकरी करते हैं फिर भी सामंत कहे जाते हैं।ये सही है कि इस समाज में कई गुंडे भी पैदा लिए हैं जिन्होंने समाज में आग लगाने में अपना बड़ा योगदान दिया है लेकिन भूमिहारों में से ही कई ने इन तत्वों का बहिष्कार भी किया है।हम भूमिहार जातिय सद्भाव में विश्वास रखते हैं,हमें सामंत या सवर्ण कहलाने का कोई शौक नही है,बस हमें अछूत समझकर टारगेट मत करो नही तो फिर कोई ब्रह्मेश्वर पैदा हो जायेगा।