Tuesday 28 July 2020

न लालू..न नीतीश..न मोदी...न IAS/IPS चाहिए... बिहार-यूपी को आठ-दस संप्रदा बाबू चाहिए / सत्य प्रकाश

न लालू..न नीतीश..न मोदी...न IAS/IPS चाहिए...
बिहार-यूपी को आठ-दस संप्रदा बाबू चाहिए
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सोचिए...अगर संपद्रा बाबू का जन्म गुजरात में हुआ होता । सोचिए...अगर वो पंजाब में पैदा हुए होते । फिर मेडिसिन की दुनिया में रेनबैक्सी और दूसरे ग्रुप का कम अल्केम का झंडा हर तरफ होता । फोर्टिस और मैक्स जैसे अस्पताल अल्केम (संप्रदा सिंह जी की कंपनी) के पास होते । कभी पटना में पढ़ते-रहते मैंने संपद्रा सिंह के बारे में नहीं सुना कि “देखो..देखो कौन आया ?...बिहार का शेर आया..। जबकि बीएन कॉलेज के एक कार्यक्रम में संपद्रा, अर्जुन सिंह और लालू यादव तीनों को मैंने सुना...और देखा । लेकिन जयकार उसकी लगी जिसने पूरे बिहार के समाज को सोध ( चूना लगा) दिया। मंच के नीचे खड़े होकर जयकारा...सुना भी तो...उन जातिवादी करैतों के लिए जिन्होंने पूरे बिहार को ऐसा डसा कि पता ही नहीं चला कि कब इस पूरे समाज की सांस उखड़ गई । अब ये नहीं पता चल पा रहा कि जातिपाहिज की हुकहुकी में फंसा ये समाज बाहर कब निकलेगा ?


भले संपद्रा सिंह का नाम संपद्रा यादव होता...मेरे लिए वो तब भी अहम होते। संपद्रा महतो होता...तब भी । संपद्रा पासवान होता...तो भी । संपद्रा कुशवाहा होता..फिर भी । लेकिन वो संप्रदा होता । अभी कुछ दिनों पहले मैंने अपने गांव के कुछ लड़कों की तस्वीरें लंदन-पेरिस में घूमते हुए देखी । एफिल टावर पर पोज वाली तस्वीरें देख...पहले तो आश्चर्य हुआ...लेकिन सेकंड बाद ही उससे ज्यादा कहीं खुशी हुई। लगा एफिल टावर पर उसकी बाहें मुझे भी पुकार रही है । वो सिर्फ उसकी बाहें न हो मेरी भी बाहें हो । उसके पैर में मेरी भी सफलता के जूते हों । बाद में पता चला वो सारे लड़के जो नब्बे के दशक में असामाजिक जातिवादी शासन व्यवस्था की भेंट चढ़ गए थे...उनमें से कई की घर वापसी...अल्केम ने कराई । कोई दूसरी कंपनी में भी बड़ी पोस्ट पर गया तो...शुरूआत अल्केम से की । आरोप लगते हैं कि संपद्रा सिंह की कंपनी में बायोडेटा की पहली शर्त होती थी कि आप जाति से भूमिहार हों । वैसे मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो यादव हैं, कुशवाहा हैं और अल्केम में ऊंचे ओहदे पर हैं । लेकिन फिर भी...अल्केम में काम करने वाले ज्यादातर लड़के भूमिहार हैं...ऐसा बिहार में लोग कहते हैं । मेरे पास इस बात के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं...इसलिए मैं ये दावे से नहीं कह सकता कि ऐसा नहीं होगा । लेकिन एक क्षण के लिए मान लीजिए कि क्या हुआ अगर भूमिहार को ही नौकरी दी...दी तो । उसे लेबर बनने से तो रोका। लालू जी ने तो अपनी पार्टी के टिकट बांटने के समय शायद खुला ऐलान कर दिया था...कि किसी भूमिहार को टिकट नहीं दूंगा। प्रभुनाथ सिंह की भरी सभा में लालू जी की तरफ से की गई बेईज्जती कुछ स्थानीय पत्रकारों से मैंने सुनी । कितना सच...कितना झूठ पता नहीं । लेकिन अगर ये सही है तो एक राजनेता होते हुए जब लालू जी ने डंके की चोट पर ऐसा किया । जग्गनाथ मिश्रा जी ने बोर्ड ऑफिस और इंटर काउंसिल को मैथिल ब्राह्मण रिहैविटेशन सेंटर बना दिया...। महामाया प्रसाद ने घर-घर से लालाओं को खोजवा कर अप्वाइंटमेंट लेटर बांटे । छोटे बाबू ( सतेन्द्र बाबू) ने राजपूतों को हर थाने में तैनात कर दिया । श्री बाबू ने...खोज-खोज भूमिहार हेडमास्टर बनाए । तो फिर संपद्रा सिंह ने क्या गलत किया । पूरे राजनेताओं के झूंड में इस मामले में पूरा बिहार एक ही इंसान का कायल है और रहेगा। वो हैं कर्पूरी ठाकुर । जिन्होंने...अपनी जाति की कहीं ज्यादा उपेक्षा की । अपने परिवार की उससे भी ज्यादा । परिवार को दरकिनार करने के मामले में दूसरे नंबर पर नीतीश दिखते हैं...आगे क्या होगा पता नहीं।


लेकिन बात संपद्रा सिंह की हो रही ...जिन्होंने अपनी अरजी हुई कंपनी में ऐसा किया तो आप उसे उस बिहार में कैसे सिर्फ एक ही कसौटी पर तौल सकते हैं...जहां धड़कन सुनने पर जाति का पता चलता है । वैसे पता नहीं...संपद्रा सिंह ने कितना भूमिहारवाद किया । लेकिन आरोप है...और इसलिए मैंने लिखा कि...कितना अच्छा होता...हमारे बीच कोई लालू यादव, कोई जगन्नाथ मिश्र न होता...संपद्रा यादव या संपद्रा मिश्रा ही होता। भले वो बिहार के यादवों और मिश्राओं को ही खूब रोजगार देता । संपद्रा कुशवाहा ही होता जो कुशवाहा को रोजगार देता । किसी स्तर पर तो इस जातिवाद का रत्ती भर फायदा होते देखते...मन को लगता कि जिस ‘वाद’ का सबसे बड़ा चलन अपने समाज में देखा...उसका ये फायदा तो है।


ख़ैर...संपद्रा होना इतना आसान नहीं था । अल्केम के लिए पत्नी का मंगलसूत्र बेच देना । ग़ैरियत के लिए पटना में छाता बेचना ( 25 बीघा खेतिहर बाप का बेटा होने के वाबजूद ...वो भी 70 के दशक में ) । बिहार में घूम-घूमकर डॉक्टरों से दवाई लिखने के लिए कहना । तब..जब MR वाला टर्म भी नहीं था। और...देखते-देखते पहले नेशनल से मल्टीनेशनल फिर फोबर्स की लिस्ट में आ जाना । अदभुत कहानी है संपद्रा बाबू की । सोचिए अगर उनकी कंपनी में रोजगार पाने वाले युवक...रोगजार न पाते तो कितने और भुटकुन शुक्ला होते, शहर-शहर कितने मिनी नरेश होते, और हर इलाके में एक नया छोटन शुक्ला होता। जहानाबाद-गया के सैकड़ों भूमिहार लड़के 90 के दशक में खड़ी रणवीर सेना को पाल-पोस रहे होते । ऐसे हजारों परिवारों को एक संपद्रा सिंह ने बचा लिया । काश ऐसे 10-20 और होते । लेकिन हाय से बिहार का समाज...बेटा जन्मा तभी उसके संस्कार का बखान पंडीजी ये पूछकर होता है कि कलेक्टर/एसपी...या डॉक्टर-इंजीनियर बनेगा कि नहीं । बेटी के नामकरण में भी पंडीजी यही बताते हैं कि कलेक्टर/एसपी के यहां जाएगी की नहीं ( ब्याह कलेक्टर-एसपी के घर में होगा )। कोई पंडीजी से ये नहीं पूछता कि मेरा बेटा संपद्रा सिंह..किंग महेन्द्र या अनिल अग्रवाल जैसा होगा कि नहीं । काश...चार दशक पहले ये समझ में आ गया होता...तो आज PHD करके ठकुरटोली के पप्पू दा...नोएडा के बड़का मॉल में गार्ड न होते । सामने देखकर...कन्नी न काटते । न लजाते...न लजाने देते । लेकिन गलती पप्पू दा की नहीं । गलती परवरिश की है । जिसमें हमने यहीं सुना....पढ़ाई मतलब नौकरी । नौकरी मतलब सरकारी...खेती मतलब तरकारी । नौकरी प्राइवेट है और आप 7-8 लाख महीने का पा रहे हैं तो भी बिहार में लोग यही कहेंगे कि बाल-बच्चे को पाल रहा है । मतलब हमारे समाज की नजर में हम कामचलाउ हैं । अगर सरकारी नौकरी में हैं...भले चपरासी-कलर्क या पुलिस में भी हैं तो तीसमार खां हैं। चाहे जिंदगी भर क्लर्क ही क्यों न रह जाएं। सिपाही जी ही क्यों न रह जाएं ।


ऐसा ही हमारा समाज है । हमलोगों ने जब भी बिहार में पैसे वालों के बारे में सुना...ये नहीं सुना कि वो कैसे आगे निकला । उसके उद्योग–धंधों के बारे में नहीं बताया गया । कैसे वो बीवी के गहने बेचकर कब आगे बढ़ निकला...ये किस्सा किसी ने नही सुनाया। कहां छाता बेचा ? कहां घड़ी बेची ? किसी को मतलब नहीं । बल्कि ऐसे ज्यादातर लोगों के बारे में जब भी सुना तो ज्यादातर यही सुना कि फलां एक नंबर का चोर है साला । कभी गुजरात में मुकेश और अनिल भाई के बारे में बोलकर देखिएगा । वडोदरा या जामनगर के चौराहे पर बोलकर देखिए । हो सकता है रिक्शा वाले भी घेर लें। लेकिन हमलोग इसलिए सिर्फ गाली देते रहते हैं...देते रहे हैं कि वो हमसे आगे निकल गया । अरे...तुम भी निकलो...जो निकल गया वो चोर कैसे हो गया ? चोर तो वो कलेक्टर/एसपी ज्यादा है..जिसने...दुख्खम-सुख्खम में पढ़ाई की...सिस्टम में घुस गया...लेकिन जब लौटाने की बारी आई तो मौका देख कर निकल गया। जिले में बैठकर आय प्रमाण पत्र और निवास प्रमाण पत्र देने के लिए भी घूस का पैसा खाने लगा। जिन असहाय और गरीबों के बीच से निकला उन पर ही रौब की झड़ी लगा दी । पहले अपने गांव को छोड़ा, फिर अपने गवार को...आगे अपने प्रदेश को....। थोड़ा और आगे बढ़ा तो अपने संस्कार...अपनी बोली, अपनी संस्कृति सब छोड़ दी। किसी ने गाजियाबाद का पासपोर्ट बना लिया । किसी ने नोएडा का । किसी ने दिल्ली का । किसी ने हैदराबाद का । किसी ने मुंबई का । कुछ को तो मरना भी हुआ तो बक्सर से गाजियाबाद रेल में कटने आ गया । मतलब काली कमाई...और कलह दोनों के लिए परदेसिया ही बना ( सारे IAS/IPS ऐसे नहीं)।
संपद्रा सिंह और किंग महेन्द्र ने तो जो कमाया कंपनी बनाकर सबके सामने । डंके की चोट पर बिहारी बनकर रहा...पूरी दुनिया में बिहारी बनकर ही घूमा । रही बात नेताओं-नौकरशाहों को घूस खिलाने की...डॉक्टर्स को कमीशन खिलाने की...तो इसे तो हमने-आपने ही सिस्टम की धमनियों में दौड़ा रखा है । नहीं तो 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रेमचंद्र का लोकप्रिय शीर्षक नकम का दारोगा न होता । और...इतने चाव से चाचाजी इसे न पढ़ाते । वो वाला हिस्सा खूब स्ट्रेस देकर...कि ‘सैलरी..और ऊपर की कमाई में अजोरिया- अन्हरिया ( शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष ) वाला अंतर है ।


ख़ैर...आप कहेंगे कि विषयान्तर हो गए। नहीं भई...बिल्कुल विषय पर हूं । संपद्रा सिंह ने खूब कमाया ( बिहार की भाषा में खूब लूटा ) । सवाल ये है कि किसने छोड़ दिया । इसलिए इन्हीं दो में से चुनना है तो संपद्रा सिंह/यादव/ साव/ कुशवाहा को क्यों न चुनें । कम से कम बिहार के हजारों लोगों को जलालत से तो इन्होंने बचाया । बाकी लोगों ने तो 10 करोड़ लोगों को भी जोकर बनाया, बिहारी को दिहाड़ी का पर्यायवाची बना डाला। इसलिए फिर से कह रहा...जब तक सूरज चांद रहेगा...संपद्रा तेरा नाम रहेगा ।
#Alkem Laboratories #sampradasingh

Friday 24 July 2020

टिकारी राज के तृतीय राजा फ़तेह सिंह

टिकारी राज के तृतीय राजा
राजा फ़तेह सिंह
राजा त्रिभुवन सिंह के चार लड़के हुए.
1. कुंवर फ़तेह सिंह,
2. कुंवर बुनियाद सिंह,
3. कुंवर बेचू सिंह,
4. कुंवर नेहाल सिंह.
फ़तेह सिंह राजा त्रिभुवन सिंह के बड़े लड़के थे. इनका जन्म सन १७२९ इस्वी में हुआ था. सन १७३६ इसवी में राजा त्रिभुवन सिंह के मरने के बाद उनके उतराधिकारी के रूप में उनके सबसे बड़े लड़के फ़तेह सिंह टिकारी राज के गद्दी पर बैठे. उस समय वे नवालिग़ थे, उनका उम्र मात्र 7 वर्ष की थी. उन्होंने बहुत कम उम्र में टिकारी राज परिवार की मुखिया पद की जिम्मेवारी उठा ली थी.
फ़तेह सिंह के नवालिग़ रहते हुए भी बंगाल के सूबेदार ने उनको राजा की मान्यता दे दि. राजा वीर सिंह के दितीय पुत्र और राजा त्रिभुवन सिंह के मंझले भाई सुंदर सिंह अपने नवालिग़ भतीजे के करपरदाज़ की जिम्मेवारी संभाल ली. वे राजा फ़तेह सिंह के प्रतिनिधि के रूप में टिकारी राज के सारे प्रशासनिक और सैन्य कार्य को करने लगे.
फ़तेह सिंह, अपने पिता के द्वारा किय गरे करार के अनुसार मुर्शिदाबाद के सूबेदार को सैन्य सहायता जारी रखे हुए थे. वे अपनी चाचा सुंदर सिंह के ऊपर टिकारी राज के सारी जिम्मेवारी छोड़ कर बंगाल चले गए. वे बंगाल के नवाब के राज दरबार में मुर्शिदाबाद के रक्षा के लिय उनके सेना के कमांडर के रूप सन १७४६ से १७५९ तक अपनी सेवा का योगदान दी.
इधर टिकारी राज में सुंदर सिंह अपने राज के कार्य और सैन्य अभियान में काफी वयस्त थे इसलिय उन्होंने अपने छोटे भाई छतर के पौत्र तथा कहर सिंह के पुत्र दुंद बहादुर सिंह को भी सन १७५३ में अपना प्रतिनिधि के रूप में बंगाल के नवाब, मुर्शिदाबाद में बहाल कर दिया.
राजा फ़तेह सिंह के अपने पिता के द्वारा किये गए करार के अनुसार मुर्शिदाबाद में टिकारी राज के प्रतिनिधि के रूप में लगातार सेवा की थी. सन १७५७ तक टिकारी राज की सारी कार्यवाही उनके चाचा सुंदर शाह के द्वारा संचालित हो रहा था. उनके बाद बुनियाद सिंह के हाथ में आ गयी थी.
सन १७५९ में राजा फ़तेह सिंह बंगाल से टिकारी वापस लौट आये. वे टिकारी राज के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल के सूबा में अपनी भूमिका को अच्छी तरह से निभायी थी.
दिल्ली की मुग़ल साम्राज्य ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल सूबा का दीवान बनाया. ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारीयों ने दीवान होने के नाते अपनी पूरी मेहनत से शासन और ज़मीन की अच्छी व्यवस्था कायम करने के लिय मालगुजारी पंजी का निर्धारण किया,
उस मालगुजारी पंजी में टिकारी राज के स्थान पर राजा फ़तेह सिंह का नाम लिख दिया गया जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी को टिकारी राज के तरफ से मालगुजारी राजस्व समय पर भुगतान किया जा सके.
राजा फ़तेह सिंह को मालगुजारी पंजी पर अपना नाम दर्ज होने पर शर्मिंदगी महसूस हुई, क्योंकि एक राजा के रूप में मालगुजारी शब्द से उन्हें घोर आपति थी. अतः उन्होंने मालगुजारी पंजी से अपना नाम कटवाकर अपने जगह अपने मंझले भाई बुनियाद सिंह का नाम दर्ज करवा दी.
बुनियाद सिंह के मालगुजारी पंजी में नाम दर्ज होने की वजह से राजा फ़तेह सिंह के वंशज को टिकारी राज के गद्दी से हाथ धोना पड़ा.
बाद में मालगुजार पंजी के अनुसार बुनियाद सिंह के बेटा मित्रजीत सिंह टिकारी राज के राजा बने.
इनके शासन काल में बिहार में महत्त्वपूर्ण घटना क्रम हुआ. सन १७४० इसवी में पटना में हैबत जंग बिहार के नायब नवाब पद पर बैठे. सन १७४८ इसवी बिहार में रूहेला अफगानों का विद्रोह. पटना में बिहार के नायब नवाब हैबत जंग की हत्या कर दी गई.. सन १७५१ में पटना में मराठों का आक्रमण हुआ.
इसी अवधि में बिहार राज्य के मध्य में टिकारी राज, पूरब में नरहट के जागीरदार कामगार खान, समाय के जागीरदार नामदार खान, पच्छिम में सिरिस कुटुम्बा के राजा विशुन सिंह और दक्षिण में राजा रामगढ का शासन चलता था.
इन सब में राजा रामगढ अत्यंत शक्तिशाली थे. वे अंग्रेजों के आँख की किरकिरी बने हुए थे. अंग्रेजों ने छोटे छोटे राजाओं को संगठित कर रामगढ किला पर हमला बोल दिया. रामगढ के राजा भाग कर जंगल में छिप गए. अंग्रेजों ने किले को पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया.
सन १७५८ इसवी में महाराजा सुंदर सिंह की हत्या हो जाने के बाद बुनियाद सिंह ने अपने परिवार के मुखिया और टिकारी राज के राजा पद की जिम्मेवारी संभाल लीे. उन्होंने मुर्शिदाबाद के नये सत्ता से साथ पुनः नयी सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया.
दिल्ली की मुग़ल सत्ता के साथ साथ मुर्शीदाबाद का शासन काफी कमजोर हो चुका था, धीरे धीरे अंग्रेजों के दवाब में वे लोग काम कर रहे थे. मुग़ल शासन और अंग्रेज के द्वैत नियंत्रण से टिकारी राज को प्रशासन कार्य और राजस्व उगाही में काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था.
टिकारी राज में आये दिन तरह तरह के बाहरी परेशानी से तंग आ कर टिकारी राजा ने मुग़ल दरबार और बंगाल के नवाब का संग छोड़ कर अंग्रेजों के साथ होने का मन बना लिया था . उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर के पास अपनी भक्ति एवं निष्ठा के साथ उनमें शामिल होने एक आग्रह पत्र लिखा. दुर्भाग्यवश यह पत्र मीरकासिम के हाथ में जा पहुंचा. उस पत्र को पढ़ कर मीरकासिम बहुत क्रोधित हुआ और वे टिकारी के राजा को कठोर सज़ा देने का विचार कर लिया.
मीरकासिम ने एक दूत टिकारी राज के पास भेजा और कहलवाया की वह उनसे मित्रता करना चाहता है इसलिय वे मुंगेर आ कर उनसे मिले और संधि पत्र पर हस्ताक्षर करे. राजा फ़तेह सिंह मीरकासिम के निमंत्रण पा कर बहुत खुश हुए.
राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और उनके लड़के राजकुमार त्रिलोक सिंह तीनों लोग मीर कासिम से मिलने के लिए मुंगेर किला में जा पहुंचे. अतः वे तीनों लोग मीरकासिम द्वारा बिछाए गए जाल में फंस चुके थे. मुंगेर के किला में आते ही उन तीनों लोग को गिरफ्तार कर काल कोठारी बंद कर दिया गया.
मीरकासिम के आदेशानुसार ५ अक्टूबर १७६३ को मुंगेर के किला में तीनों व्यक्तियों राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और राजकुमार त्रिलोक सिंह का, मुग़ल पठान गोलाम्बस के निर्मम हत्या कर दिया गया. राजकुमार त्रिलोक सिंह की निर्मम रोंगटे खड़ी कर देने वाली हत्या हुई,
उनको पिता और चाचा के सामने उनकी आँख फोड़ी गयी, जीभ काटी गयी और तरह तरह की यातना दि गयी. राजा फ़तेह सिंह को शरीर में बालू की बोरियां बांध कर गंगा नदी में फेंक दिया गया. राजा बुनियाद सिंह को तोप के सामने रख कर उनके शारीर को चीथड़े-चीथड़े उडा दिया गया.
फ़तेह सिंह के हत्या के बाद टिकारी राज में पुरुष सदस्य नहीं होने के कारण टिकारी राज का राजकाज की जिम्मेवारी उनकी विधवा रानी के हाथ में आ गया, उन्होंने लगभग तीन वर्ष तक टिकारी राज के राजकाज चलाया.
मीर कासिम के द्वारा राज कुमार मित्रजित सिंह के हत्या किये जाने के भये से रानी ने मित्रजित सिंह को अज्ञातवास में भेज दिया था. सन १७६५ में मित्रजित टिकारी राज के गद्दी पर बैठे,
राजा फ़तेह सिंह के शासन काल में भारत में घटना चक्र ---
मध्य भारत में दिल्ली और अस पास शासन --
मुहम्मद शाह (१७४८ – १७०२) जिन्हें रोशन अख्तर भी कहते थे, मुगल सम्राट था, इनका शासन काल १७१९-१७४८ तक रहा था. मुहम्मद शाह रंगीला की मृत्यु १७४८ में ४६ वर्ष की आयु में हुई थी.
अहमद शाह बहादुर (१७२५-१७७५) -- ये मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला का पुत्र था और अपने पिता के मृत्यु के बाद १७४८ में २३ वर्ष की आयु में १५वां मुगल सम्राट बना. इसकी माता उधमबाई थी, जो कुदसिया बेगम के नाम से प्रसिद्ध थीं.
अज़ीज़-उद्दीन आलमगीर द्वितीय (१६९९-१७५९) ३ जून १७५४ से ११ दिसम्बर १७५९ तक भारत में मुगल सम्राट रहा. ये मुग़ल बादशाह जहांदार शाह का पुत्र था.
जब फारस के शाह नादिरशाह भारत में आया तब सभी को बड़ी शंका खड़ी हो गई. पेशवा, महाराणा अन्य राजाओं व बुन्देलों को मिला कर जयसिंह, नादिरशाह का संगठित मुकाबला करना चाह रहा था.
हालांकि 24 फरवरी 1739 को करनाल में नादिरशाह मुग़ल सेना को बुरी तरह पराजित कर चुका था. यह भी अफवाह थी कि नादिरशाह जयपुर होता हुआ अजमेर जाएगा. यह जयसिंह के लिए भी बड़ा खतरा था. सब चौकन्ने थे, लेकिन अन्त में वह मथुरा से ही वापस अपने देश लौट गया.
नादिरशाह ने जब फरबरी-मार्च १७३९ को भारत पर हमला किया तब दिल्ली की सहायता के लिय आमेर के राजा जयसिंह नहीं गए. इस का कारण यह था- तब निजाम और कमरुद्दीन उस समय साम्राज्य में उच्च पदों पर थे और नादिरशाह के हमले के लिए वे लोग इनके उत्तरदायी होने का शक कर सकते थे, किन्तु मुग़ल सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला बराबर इनमें विश्वास रख कर इनसे आवश्यक परामर्श करता रहा.
आलमगीर द्वितीय १६वा मुगल बादशाह था, जिसने १७५४ से १७५९ ई.तक राज्य किया. आलमगीर द्वितीय आठवे मुगल बादशाह जहाँदारशाह का पौत्र था.
अहमदशाह को गद्दी से उत्तर दिए जाने के बाद आलमगीर द्वितीय को मुगल वंश का उत्तराधिकारी घोषित किया गया था.इसे प्रशासन का कोई अनुभव नही था. वह बड़ा कमजोर व्यक्ति था और वह अपने वजीर गाजीउद्दीन के नाम से भी जाना जाता है. वजीर गाजीउद्दी ने १७५९ ई.में आलममीर द्वितीय की हत्या करवा दी थी.
आलमगीर द्वितीय के शासन काल में साम्राज्य की सैनिक और वित्तीय स्थिति पूर्णतः अस्त-व्यस्त हो चुकी थी. भूख से मरते सैनिक के दंगे और उपद्रव आलमगीर के शाशन काल में दिन-प्रतिदिन की घटना थी.
अपने वजीर गाजीउद्दीन की मनमानी से भी आलमगीर ने उनके नियंत्रण से अपने को मुक्त करने का प्रयास किया, तो १७५९ ई.में वजीर ने उसकी भी हत्या करवा दी. उसकी लाश को लाल किले के पीछे यमुना नदी में फेंक दिया गया.
पश्चिम में वीर मराठा लड़का का कार्य काल-
जनवरी १७३७ ई० को पेशवा उत्तर भारत में आया उसके साथ होलकर, सिन्धिया, पँवार आदि सभी थे. उदयपुर से आते समय पेशवा से २५ फ़रवरी को महाराजा जयसिंह मालपुरा क्षेत्र के झाड़ली गाँव में मिले. उन्होंने उनको अनेक वस्तुएँ भेंट दी. बाजीराव दिल्ली तक जाकर वापस लौट गया.
उसी वर्ष भोपाल में श्रीमंत बाजीराव पेशवा ने फिर से निजाम को पराजय दी. अंतत: १७३९ में उन्होनें नासिरजंग पर विजय प्राप्त की. अपने शासन के मध्यकाल में ही २८ अप्रैल १७४० को अचानक रोग के कारण उनकी असामयिक मृत्यु हुई.
बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ. नया बालाजी बाजीराव पेशवा ऊर्फ नानासाहेब पेशवा बना. वे अपने पिता से भिन्न प्रकृति के थे. वे दक्ष शासक तथा कुशल कूटनीतिज्ञ तो थे ; किंतु सुसंस्कृत, मृदुभाषी तथा लोकप्रिय होते हुए भी वे दृढ़ निश्चयी नहीं थे. उनके आलसी और वैभव प्रिय स्वभाव का मराठा शासन तथा मराठा संघ पर गलत प्रभाव पड़ा. विशेषत: सिंधिया तथा होल्कर के संघर्ष को नियंत्रित करने में, वे असफल रहे.
दिल्ली राजनीति पर आवश्यकता से अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण उसने अफ़ग़ान के शासक अहमदशाह दुर्रानी से अनावश्यक शत्रुता मोल ली.
उसने आंग्ल शक्ति को रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया और इन दोनों ही कारणों से महाराष्ट्र साम्राज्य पर जबरदस्त आघात पहुँचा.
१७४१ ई० में जब नए मराठा पेशवा बाला राव उत्तर में चढ़ाई की उस समय जयसिंह आगरा के सूबेदार थे. इनकी और नये पेशवा बाला राव की धौलपुर में भेंट हुई. इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दे दी.
नाना साहेब पेशवा के पदासीन होने के समय शाहू के रोगग्रस्त होने के कारण आंतरिक कलह को प्रोत्साहन मिला. इन कुचक्रों से प्रभावित हो सन १७४७ में शाहू ने नाना साहेब को पद से हटा दिया गया था. यद्यपि तुरंत ही उसकी पुन र्नियुक्ति कर शाहू ने स्वभाव जन्य बुद्धि का भी परिचय दिया.
नाना साहेब की सैनिक विजयों का अधिकांश श्रेय पेशवा के चचेरे भाई सदा शिव राव भाऊ की है. सन १७४१ काल में मुगलों से मालवा प्राप्त हुआ, १७४२-५१ तक मराठों ने बंगाल पर निरंतर आक्रमण किए.
१५ दिसम्बर १७४९ में शाहू की मृत्यु के कारण मराठा शासन कला के राज्यधिकरों में नई मान्यता स्थापित हुई. रामराजा की अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता पेशवा के हाथों में केंद्रित हो गई. सतारा की सत्ता समाप्त होकर पूना शासन का केंद्र बन गया.
सन १७४९ में भाऊ ने पश्चिमी कर्नाटक पर सत्ता स्थापित किया. जिससे सतारा की अपेक्षा पेशवा का निवास स्थल पूना शासकीय केंद्र बना. सन १७६० में भाऊ ने ऊदगिर में निजाम अली को पूर्ण पराजय दी.
सन १७६१ में अफ़ग़ान के शासक अहमद शाह दुर्रानी के भारत आक्रमण पर भयंकर अनिष्ट की पूर्व सूचना के रूप में दत्ताजी सिघिंया की हार हुई.
सन १७६१ में पानीपत के रणक्षेत्र पर मराठों की भीषण पराजय हुई. इस मर्मांतक आघात को सहन न कर सकने के कारण पेशवा की मृत्यु हो गयी.
पूर्व में बंगाल के नवाब का शासन काल -
११ अक्टूबर १७३७ को बंगाल में भूकम्प इतना विध्वंशक था की उसमें तीन लाख लोगों की मृत्यु हो गयी थी. बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि हुई थी.
शुजा-उद-दीन मुहम्मद खान बंगाल के नवाब थे. बंगाल के नवाब मुर्शीद क़ुली खान का उत्तराधिकारी उसका दामाद शुजा उद दीन मुहम्मद खान बना. मुग़ल बादशाह मो० शाह ने बिहार का कार्यभार भी शुजा उद दीन को सौंप दी. १७३९ में शुजा उड़ दीन की म्रत्यु हो गयी.
सरफराज़ खान बंगाल के नवाब थे. १७३९ में शुजा उद दीन की म्रत्यु के बाद इसका पुत्र सरफ़राज खान गद्दी पर बैठा. १७४० में बिहार के नायक सूबेदार अलिवर्दी खान ने विद्रोह कर दिया और हेरिया या गिरिया के युद्ध में सरफ़राज़ खान को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और इस तरह अली वर्दी खान बंगाल का नवाब बना.
अलीवर्दी खान बंगाल के नवाब थे. १७४० ईo मे अलीवर्दी खा बंगाल का नवाब बना. अली-वर्दी-खान ने २ करोड़ रुपए मुग़ल बादशाह को देकर नवाब के पद के वैधानिकता को प्राप्त किया.
उधर उड़िसा में सरफ़राज़ खान का दामाद रुस्तम ने अलीवर्दी खान के अधीनता मानने से इनकार कर दिया था. साल भर बाद अलीवर्दी खान ने बिहार और बंगाल पर अपनी पकड़ मज़बूत करने बाद 3 मार्च १७४१ को उड़िसा पर आक्रमण कर दिया और रुस्तम को हरा कर भगा दिया था.
इसने अपने १६ साल के कार्यकाल में कभी भी मुग़ल राजकोष में कोई भी राजस्व का कोई भी हिस्सा जमा नहीं किया.
इसी के समय में मराठों ने बंगाल पे आक्रमण किया और अली-वर्दी-खान से उड़ीसा छिन कर ले गए और बिहार और बंगाल की चौथ के रूप में १२०००० वार्षिक तय हुआ. ये संधि १७६१ में मराठा सरदार रघु जी भोंसले के साथ हुई.
इस आकमण का लाभ उठाकर अंग्रेजो ने फ़ोर्ट विलियम के चारों ओर खाई बना दी, अलिवर्दी खान में मुग़ल बादशाह को दस्तक ३००० रुपए के बदले बंगाल में कर मुक्त व्यापार को निरस्त करने के लिये पत्र लिखा लेकिन इस पत्र का कोई भी उत्तर नहीं आया.
इधर बिहार और पटना का स्थिति -
१० अप्रैल १७४० को बिहार के सूबेदार अलीवर्दी खान ने बंगाल के नवाब को राज महल जिला के पास घोरिया में घेर कर जान से मार दिया और बंगाल के नवाब बन बैठा. मुग़ल बादशाह को रिश्वत दे कर बंगाल के नवाब के पदवी प्राप्त कर ली.
बिहार में उस समय भोजपुर, बेतिया और टिकारी के राजा ने विद्रोह कर दिया था. अलीवर्दी खान ने अपने सेनापति हिदायत खान को बिहार में रामगढ, बेतिया, भोजपुर और टिकारी राज पर आक्रमण करने के लिए भेजा. वह बिहार आ कर सबसे पहले रामगढ किला को घेर लिया. उसने सभी जगह सैन्य करवाई करके विद्रोह को दबा दिया.
इस समय मीर जाफर के बेटा मीरन पलासी युद्ध के बाद पटना के सूबेदार बन गया था.
मुगल साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप उत्तरी भारत में अराजकता का माहौल हो गया. बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने १७५२ में अपने पोते सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी नियुक्‍त किया था. अलीवर्दी खां की मृत्यु के बाद १० अप्रैल १७५६ को सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना.
टिकारी राज परिवार में फ़तेह सिंह के विधवा रानी लगन कुंवर ने अपने एकमात्र पुत्र कुंवर त्रिलोक सिंह के मुंगेर के किला में मीरकासिम द्वारा हत्या किये जाने के बाद अपने परिवार में पति के सबसे छोटे भाई नेहाल सिंह के पुत्र पीताम्बर सिंह को गोद ले ली.
महाराजा सुंदर शाह के वारिस
कुंवर दूलह सिंह, इनकी 18 वर्ष की अवस्था में किसी युद्ध में मृत्यु हो गयी.
बाद में राजा सुंदर सिंह ने अपने बड़े भाई पीताम्बर सिंह के मंझले बेटे बुनियाद सिंह को गोद ले लिए.
कुंवर छतर सिंह के वारिस
कहर सिंह
दलेर सिंह.

Saturday 11 July 2020

पत्रकारों के लिए लड़ने वाले पत्रकार धर्मराज राय

रांची में अगर कोई पत्रकारों के लिए लड़ने वाला पत्रकार हुआ तो वह एक
मात्र शख्स थे धर्मराज राय। सरकार, प्रशासन या अखबार के मालिकों के गलत
कामों का कोई विरोध करने में सक्षम था तो धर्मराज राय ही थे। 1982 में जब
बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने बिहार प्रेस बिल लाया तो रांची
में सर्वप्रथम आंदोलन का बिगुल धर्मराज राय ने ही फूंका। बिहार क्लब और
रांची टाइम्स के कार्यालय में पत्रकारों की बैठक बुलाना और इस पर सभी
पत्रकारों से विचार मंथन करने का काम धर्मराज राय ने किया। उस आंदोलन को
लेकर समन्वय समिति बनायी गयी जिसमें उत्तम सेन गुप्ता, बलबीर दत्त, दिलीप
कुमार दाराद इत्यादि पत्रकार शामिल हुए। उस आंदोलन के दौरान पहली बार
मैंने बिहार क्लब में आयोजित बैठक में रांची के पत्रकारों और
साहित्यकारों की एकजुटता देखी थी। सभी को धर्मराज राय ने एकजुट किया था।
बैठक में पत्रकार विशेश्वर चटर्जी, रामचंद्र वर्मा, एसपी सिन्हा, डीपी
दासगुप्ता, शारदा रंजन पांडेय, महेंद्र प्रसाद, चंद्रभूषण शर्मा आरएन झा,
बीएन झा, राजदेव तिवारी सहित काफी संख्या में रांची के पत्रकार एकत्रित
हुए। पत्रकारों के आंदोलन को धार देने के लिए उसी बिहार क्लब में पहली
बार टेलीग्राफ के संपादक एमजे अकबर आये थे। तब मुझे भी जानकारी हुई कि
एमजे अकबर भी बिहार के निवासी हैं।
रांची एक्सप्रेस में पत्रकारों को वेतनमान देने का आंदोलन भी धर्मराज राय
ने खड़ा किया था और इसका पत्रकारों को लाभ यह हुआ कि प्रबंधन को झुकना पड़ा
और सभी कर्मचारियों की नौकरी पक्की करनी पड़ी। यहां तक कि वेतनमान भी देना
पड़ा था। यह अलग बात है कि बाद में वे रांची एक्सप्रेस छोड़कर दैनिक आज में
चले गये।
एक समय था धर्मराज राय साइकिल पर चलकर रांची शहर में समाचार संकलन का काम
किया करते थे। इसके बाद उन्होंने एक मोपेड खरीद ली थी। उनके कंधे पर एक
हैडलुम का झोला अवश्य लटका रहता था। एक दौर ऐसा भी आया जब पुलिस की गाड़ी
में बैठक कर कोई चलता हुआ पत्रकार मुझे नजर आया तो वह थे धर्मराज राय।
रांची एक्सप्रेस के दफ्तर में जब वे शाम को पहुंचते थे तो उनकी झोली
नेताओं की प्रेस विज्ञप्ति से भरी होती थी।
मैं धर्मराज राय को 1977-78 से जानता था। तब मैं रांची जिला स्कूल का
छात्र था और कविताएं लिखा करता था। एक दिन एक कविता लेकर जनता टाइम्स के
संपादक शारदा रंजन पांडे से मिलने मेन रोड स्थित बागला प्रिंटिंग प्रेस
के कार्यालय में गया था। वहीं श्री पांडे ने मेरा परिचय देते हुए धर्मराज
राय को कहा था-देखो बाप तो कविता लिखता ही है अब बेटा भी कविता लिखने
लगा। पांडे जी ने धर्मराय जी को बताया कि मैं रामकृष्ण उन्मन का सुपुत्र
हूं। इसके बाद मेरी पहली कविता जनता टाइम्स में ही प्रकाशित हुई थी। तब
वहा धर्मराज राय और एसएन विनोद भी काम किया करते थे।
श्री राय खुद भी कविताएं लिखते थे और कवियों का आदर और सम्मान भी करना
जानते थे। कई बार तो ऐसा भी होता था कि रांची के आसपास के जिलों में
आयोजित कवि सम्मेलनों में कवियों को ले जाने का काम भी धर्मराज राय किया
करते थे। कौन कवि कवि सम्मेलन में जाने के लिए कितना फीस लेगा उसे भी
धर्मराज राय तय कर लेते थे। कवि सम्मेलन खत्म होने के बाद कवियों की फीस
भी वे दे देते थे। उन कवियों में मेरे पिता रामकृष्ण उन्मन, लंठ आजमगढ़ी,
रामचंद्र वर्मा, प्रकाश फिक्री, उपेन्द्र दोषी इत्यादि शामिल थे।
उन्होंने व्यंग्यकार राधाकृष्ण की स्मृति में अपनी पत्रिका ब्रह्मर्षि
समाज दर्पण का विशेषांक निकाला। इसके लिए उन्होंने राधाकृष्ण जी के अपर
बाजार स्थित आवास पर बैंड बाजा बजवाया और रांची के अधिकांश पत्रकारों और
साहित्यकारों को बुलाकर भरी गर्मी में सत्तु का शर्बत पिलाया। इस अवसर पर
उन्होंने कहा था कि मैं रांची के साहित्याकारों की स्मृति को जीवित रखना
चाहता हूं। इसलिए इस तरह आयोजन कर रहा हॅूं।
एक साल पहले वे मेरे आवास पर आये और कहा कि तुम अपने पिता की कविताओं और
साहित्यिक गतिविधियों का संकलन करो मैं उनकी स्मृति में भी अपनी पत्रिका
का विशेषांक निकालना चाहता हॅूं। उन्होंने मुझे बताया था कि 1973 मे वे
पत्रकारिता करने के लिए रांची आये थे और कोकर के होकर रह गये।

श्री राय का 4 जुलाई को जमशेदुपर में निधन हो गया। वे ब्लड कैंसर से पीड़ित थे।

Thursday 9 July 2020

हथुआ राज पैलेस

सूबे के सबसे बड़े निजी घरों में से एक है 495 कमरों वाला हथुआ राज पैलेस. तीन पीढ़ियों ने 42 वर्षो में किया था पैलेस का निर्माण, 1901 में हुआ था गृह प्रवेश। प्राचीन हथुआ राजवंश के भव्यता व वैभव के प्रतीक के रूप में विशाल हथुआ राज पैलेस आने-जाने वाले पर्यटकों को खूब लुभाता है। हथुआ-मीरगंज मुख्य मार्ग पर 17 एकड़ के विशाल परिसर में स्थित 495 कमरों वाला यह राज पैलेस हथुआ राज के वंशजों का वर्तमान पैतृक निवास स्थल है। सूबे के सबसे बड़े निजी घरों में से एक यह पैलेस ब्रिटेन के बर्किंघम पैलेस का प्रतिरूप है। यहां रूकना या घूमना एक राजसी एहसास के जैसे है और इतिहास के उन पलों में लौटना है,जब राजतंत्र हुआ करता था। खूबसूरत पैलेस के निर्माण में पूर्वी व पश्चिमी वास्तुकला के प्रभाव का मिश्रण है। वास्तुकला के इजिप्टियन शैली में इस पैलेस का वाह्य निर्माण हुआ है। पैलेस के आगे खूबसूरत विशाल गार्डेन की खूबसूरती देखते बनती है। हथुआ राज के वर्तमान वंशज महाराज बहादुर पंडित मृगेन्द्र प्रताप साही, महारानी पूनम साही, युवराज कौस्तुभ मणि प्रताप साही, युवरानी विदिशा साही, राजकुमारी आद्या चिन्मयी साही के नेतृत्व में राजशाही के शानदार विरासत को जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि इसकी भव्यता को कायम रखना राज परिवार के लिए काफी मुश्किल व चुनौती पूर्ण है। पैलेस में सालों भर कार्यक्रमों का दौर चलता रहता है। दूर-दूर से लोग इस पैलेस को देखने और समझने आते रहते हैं। हालांकि सुरक्षा की दृष्टि से इस पैलेस में सामान्य ढंग से प्रवेश पर रोक है। कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच अनुमति के बाद ही प्रवेश संभव है।