Sunday 31 March 2019

नवंबर 97:रणबीर सेना के नरसंहार से हिल उठा था देश!

 30 नवंबर 1997 यानी आजाद भारत के सबसे बड़े जातीय नरसंहार का अभागा दिन जब बिहार की धरती 58 गरीब-गुरबों के खून से रंग गई और उसी के बाद सवर्णों की खूनी सेना रणबीर सेना का खौफ बिहार के खेत खलिहानों में फैल गया।


मृत्युंजय कुमार झा


30 नवंबर 1997 यानी आजाद भारत के सबसे बड़े जातीय नरसंहार का अभागा दिन जब बिहार की धरती 58 गरीब-गुरबों के खून से रंग गई और उसी के बाद सवर्णों की खूनी सेना रणबीर सेना का खौफ बिहार के खेत खलिहानों में फैल गया। साफ हो गया कि अगड़े-पिछड़े, वंचित और सभ्रांत के बीच छिड़ा वर्ग संघर्ष, जातीय संघर्ष में बदलकर सैकड़ों लोगों की और बलि लेगा।लक्ष्मणपुर बाथे, जैसे खून में नहा गया। अरवल जिले का ये छोटा सा गांव राजनीतिक और जातीय संघर्ष की कभी न भुला सकने वाली जमीन बन गया। मैं मृत्युंजय कुमार झा 15 साल पहले हुए इस हमले का गवाह बना, लक्ष्मणपुर में रणबीर सेना के नरसंहार के दो दिन बाद मैं उसी गांव में पहुंचा।नब्बे के दशक में बिहार के खेत-खलिहान आंदोलनों, अन्याय, शोषण से धधक रहे थे। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार इसी धधक की जीती जागती मिसाल था। वंचितों ने आवाज उठाई, अपना हक मांगा और जमीन पर अपना अधिकार मांगा, उनकी राजनीति करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी - मार्क्सवादी लेनिनवादी यानि भाकपा माले ने हथियार उठाए। सत्ता तक पहुंच रखने वाले सामंतों के खिलाफ जनता एकजुट हुई और उस जनता को सबक सिखाने और अगड़ी जाति के जमींदारों के रसूख की रक्षा के लिए बनी रणबीर सेना ने गोलियां दाग कर उस आवाज को शांत करने की कोशिश की।जब मैं उस गांव में पहुंचा तो ये देखकर हैरान रह गया कि वहां मातम नहीं था बल्कि एक अजीब सा सन्नाटा था। गांव के 58 लोग मारे जा चुके थे पर कोई बातचीत करने, उस अभागी रात की कहानी सुनाने या रणबीर सेना को कोसने वाला नहीं बचा था।मैंने ये जानने की कोशिश की कि अरवल जिले के इस छोटे से गांव पर आखिर अगड़ी जाति की इस सेना का कहर क्यों टूटा। मैंने ये जानने की कोशिश भी की कि अगर रणबीर सेना की दुश्मनी गांव के मर्दों से थी, उन मर्दों से जिन्हें वो नक्सली या माओवादी कहते थे तो फिर 27 महिलाओं और 16 बच्चों को क्यों बेरहमी से मार डाला गया था।धीरे-धीरे 30 नवंबर 1997 की वो रात दोबारा आंखों के सामने जन्म लेने लगी। पता चला कि रात के करीब 9 बजे रात के अंधेरे में कई नावों पर सवार होकर रणबीर सेना के हथियारबंद हत्यारे गांव के बाहरी हिस्से में पहुंचे थे। ये गांव सर्द रात में जल्द सोने की तैयारी में था। रात के 10 बजते-बजते ये हत्यारे बटनबीघा टोले की तरफ बढ़ने लगे। बटनबीघा लक्ष्मणपुर बाथे का बाहरी हिस्सा है जहां मल्लाह और पिछड़ी जाति के लोगों के घर थे। पहले से तय साजिश के तहत इन 14 घरों में आग लगा दी गई। फूस के घर धू-धू कर जल उठे। रात का अंधेरा आग की लपटों से चमक उठा। चीख पुकार मच गई और लोग घरों से निकल कर भागे। इस बात से बेखबर कि सामने रणबीर सेना के हत्यारे पूरे गांव को घेरकर हथियार तान कर उनका इंतजार कर रहे हैं। जो भागा उनकी गोलियों से भून दिया गया। महिलाओं और बच्चों को भी बख्शा नहीं गया। 27 औरतें और 16 बच्चों को मौत की नींद सुला दिया गया। मौत का ये तांडव करीब 3 घंटे तक चलता रहा लेकिन घटनास्थल से सिर्फ 3 किलोमीटर के फासले पर ही मौजूद महेंदिया पुलिस स्टेशन पर मौजूद वर्दीवालों की नींद नहीं टूटी।साफ था ये साजिश सिर्फ किसी हत्यारी सेना ने नहीं रची थी बल्कि इस नरसंहार की जड़ें राजनीतिक थीं। मारे गए सभी लोग भाकपा माले के समर्थक थे और कई राजनीतिक शक्तियां इस पार्टी का जड़ से सफाया करना चाहती थीं। हालांकि, इस नरसंहार को जातीय सम्मान की रक्षा के लिए बेचैन अगड़ों के गुस्से और बिहार के सत्ता सर्किल में रणबीर सेना के बढ़ते दखल के तौर पर प्रचारित किया गया।लेकिन नरसंहार को लेकर सरकारी उदासीनता ये साबित करती रही कि हो न हो रणबीर सेना के इस कलंक को तत्कालीन आरजेडी सरकार का मौन समर्थन हासिल था। ये यकीन करना मुश्किल है कि किसी राज्य के एक गांव में 58 लोगों को मार डाला गया हो, पूरा देश हैरत और सदमे में हो, अखबार लक्ष्मणपुर बाथे में खेली गई खून की होली की खबरों से रंगे हों फिर भी राज्य की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को इलाके का दौरा करने की सुध चार दिन बाद आई थी।मैं खुद एक पत्रकार के नाते हैरान था कि आखिर आजाद मुल्क में एक प्रतिबंधित सेना के हथियारबंद हत्यारे आते हैं, एक गांव में तीन घंटे तक हिंसा का तांडव मचाते हैं और न पुलिस आती है न चार दिन तक सरकार। लेकिन नब्बे के दशक में बिहार की सच्चाई ऐसी ही थी। वर्ग संघर्ष और जातीय संघर्ष बिहार के खेत-खलिहानों में चरम पर थे।

क्या आप जानते हैं लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के 13 घंटे बाद इस घटना की एफआईआर दर्ज की गई थी। और तो और गांव में कत्लेआम के बाद भी मौत का सिलसिला थमा नहीं था। रणबीर सेना के हत्यारों ने उन मल्लाहों को भी नहीं बख्शा जिनकी नावों से वो गांव तक पहुंचे थे। कहा गया कि रणबीर सेना ने 1992 में गया जिले के बारा नरसंहार का बदला लिया है। बारा नरसंहार में नक्सली गुट एमसीसी ने अगड़ी जाति के 37 लोगों की हत्या कर दी थी। 1994 में रणबीर सेना को बैन कर दिया गया।ये वो दौर था जब भोजपुर को लाल इलाका कहा जाता था। क्योंकि इस इलाके में अल्ट्रा लेफ्ट गुटों की तूती बोलती थी। हैरत नहीं है कि ये वही दौर था जब मध्य बिहार के इस इलाके की मिट्टी सबसे ज्यादा नरसंहारों से रंगी गई थी। मध्य बिहार को wild west of East भी कहा जाने लगा था। बिहार के पांच जिले संग्राम भूमि बन चुके थे। संग्राम सवर्णों की निजी सेना और भाकपा माले के बीच, मुद्दा भूमि सुधार का था, मुद्दा जमीन पर भूमिहीनों के हक का था।पटना, जहानाबाद, अरवल, भोजपुर और गया में टकराव हिंसक होता जा रहा था। 1994 से लेकर 2002 तक रणबीर सेना ने बिहार के इन इलाकों में 22 नरसंहारों को अंजाम देकर दानव का कद हासिल कर लिया था। लक्ष्मणपुर बाथे से पहले भी रणबीर सेना खून की होली खेल चुकी थी।-25 जुलाई 1995 को सरथनाथ में 6 लोग मारे गए।
-12 अप्रैल 1996 को नोरापुर में 6 लोगों की हत्या कर दी गई।
-11 जुलाई 1996 को बथानी टोला में 26 लोगों की हत्या कर दी गई।मुकदमे हुए और मुख्य आरोपी ब्रह्मेश्वर मुखिया के सिर पर 277 लोगों की हत्याओं का आरोप भी लगा, लेकिन वो राजनीतिक संरक्षण के बल पर पकड़ से बाहर रहा। बिहार को करीब से देखने वाले जानते हैं कि लालू प्रसाद यादव के दौर में रणबीर सेना के हौसले सबसे ज्यादा बुलंद रहे। नब्बे के इस दशक में सिर्फ रणबीर सेना ही नहीं पनपी बल्कि कई और निजी सेनाओं और उनके खौफ ने जन्म लिया।राजपूतों की कुइर सेना, भूमिहारों की महर्षि सेना, यादवों की लोरिक सेना, कोयरी समुदाय की भूमि सेना, कोयरी समुदाय की ही आजाद सेना और सनलाइट सेना।जाहिर है जातीय सेनाओं ने बिहार को सिर्फ खून में रंगा। हर समुदाय का अपना राजनीतिक एजेंडा था और उसी एजेंडे से उनकी निजी सेनाएं पिछड़ों या अगड़ों का खून बहाती रहीं। आखिर ये संघर्ष थमा और अब संघर्ष राजनीतिक जमीन पर छिड़ पड़ा है। लेकिन क्या रणबीर सेना के मुखिया की सरेआम हत्या, क्या मुखिया को मारी गईं गोलियां बिहार में फिर उसी खूनी संघर्ष की खौफनाक यादें ताजा करेंगी? क्या ये हत्या जेल से निकलने के बाद राजनीति में मुखिया की कद बढ़ाने की कोशिश का नतीजा है? जवाब आने वाले वक्त में ही मिलेगा।

Tuesday 26 March 2019

वामपंथी दलों का गढ़ रहे बेगूसराय से टिकट दिए जाने पर बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह पार्टी से नाराज हो गए हैं। उन्‍होंने मांग की है कि पार्टी नवादा से टिकट न देने के पीछे उनका गुनाह बताए। उधर, गिरिराज के इस बयान के बाद बेगूसराय से सीपीआई प्रत्‍याशी कन्‍हैया कुमार ने उन पर तंज कसा है।

बिहार का लेनिनग्राद कहे जाने वाले बेगूसराय में सियासी संग्राम बेहद दिलचस्प हो गया है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के खिलाफ एक तरफ कन्हैया कुमार सीपीआई से मैदान में हैं, दूसरी ओर महागठबंधन की ओर से आरजेडी ने तनवीर हसन को दोबारा मैदान में उतारा है। त्रिकोणीय लड़ाई के आगाज से पहले ही बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह लगातार पार्टी नेतृत्व से सीट बदलने का बार-बार आग्रह करते दिख रहे हैं। वह नवादा या अररिया से टिकट दिए जाने की मांग कर रहे हैं और चर्चा यह भी है कि बेगूसराय सीट न बदले जाने पर चुनाव न लड़ने की पेशकश कर सकते हैं।

गिरिराज को क्या फ़र्क पड़ने वाला है । हारेगा तो पाकिस्तान एयरलाइंस में भारतीयों को पाकिस्तान का वीजा देकर पाकिस्तान भेजने की नौकरी कर लेगा ।


नवादा के बजाय बेगूसराय से टिकट मिलने पर खुलेआम नाराजगी जताने वाले गिरिराज सिंह ने अब इसे आत्मसम्मान से जोड़ दिया है। रविवार को उन्होंने कहा, 'मुझसे बिना पूछे, बिना सलाह-मशविरा किए ही सीट बदल दी गई। पार्टी ने सीट बदलने से पहले मुझे विश्वास में नहीं लिया, इससे मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंची है। बिहार में किसी सांसद या मंत्री की सीट नहीं बदली गई, लेकिन मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया। मैं इससे दुखी हूं।'

गिरिराज सिंह भले ही इसे स्वाभिमान का रंग दे रहे हैं, लेकिन इसके पीछे बेगूसराय में उनकी जाति के वोटों का गणित जो उन्हें परेशान किए हुए है। आइए, समझते हैं क्या है वहां का गणित।

बेगूसराय में भूमिहार वोटों का गणित
अपने बयानों को लेकर अक्सर चर्चा में रहने वाले गिरिराज सिंह बेगूसराय में जातीय वोटों के गणित से संतुष्ट नहीं हैं। बेगूसराय में 2014 के चुनाव में बीजेपी के भोला सिंह ने आरजेडी के तनवीर हसन को करीब 58 हजार वोटों से मात दी थी। बीजेपी के भोला सिंह को करीब 4.28 लाख वोट मिले थे, वहीं आरजेडी के तनवीर हसन को 3.70 लाख वोट मिले थे। सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह 1,92,639 वोट पाकर तीसरे नंबर पर थे।


बेगूसराय लोकसभा सीट पर भूमिहार मतदाताओं की तादाद सबसे अधिक करीब पौने पांच लाख है। यहां 2.5 लाख मुसलमान, कुशवाहा और कुर्मी करीब दो लाख और यादव मतदाताओं की संख्या करीब 1.5 लाख है। विवादों में जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के सीपीआई से मैदान में उतरने के बाद यहां लड़ाई त्रिकोणीय हो गई है। कन्हैया युवा हैं और गिरिराज की ही जाति भूमिहार से ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में गिरिराज सिंह को डर सता रहा है कि अगर कन्हैया ने भूमिहार वोट काटते हैं, जिसकी संभावना प्रबल है, तो उनकी हार हो जाएगी।

लालगढ़ में 'कमल' के मुरझाने का डर
बेगूसराय की धरती हमेशा से वामपंथियों के लिए उर्वर रही है और वामपंथी आंदोलन के कर्ताधर्ता लोगों में भूमिहार जाति के नेता आगे रहे हैं। 1967 के आम चुनाव में सीपीआई के योगेंद्र शर्मा ने यहां से जीत दर्ज की थी। यहां की बलिया सीट, जो 2009 के चुनाव के समय खत्म हो गई, से 1988 और 1991 में सीपीआई के सूरज नारायण सिंह सांसद बने थे। 1996 में भी इस सीट से सीपीआई के शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ने जीत दर्ज की, जबकि बेगूसराय लोकसभा सीट पर 1996 में इसी पार्टी के चुनाव चिह्न पर नामांकन दर्ज करने वाले रमेंद्र कुमार को तकनीकी कारणों से निर्दलीय चुनाव लड़ना पड़ा और वह जीते भी।

हालांकि, पिछले कुछ चुनावों में बड़ी संख्या में भूमिहारों ने बीजेपी और जेडी(यू) का समर्थन किया है। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की ओर से जेडी(यू) के राजीव रंजन सिंह, वर्ष 2009 में डॉक्टर मोनजीर हसन और वर्ष 2014 में बीजेपी के भोला सिंह ने जीत दर्ज की थी। राजीव रंजन और भोला सिंह दोनों ही भूमिहार थे।

वर्ष 2014 में भी गिरिराज सिंह बेगूसराय से लड़ना चाहते थे, लेकिन उन्हें नवादा से टिकट दिया गया। भोला सिंह के निधन के बाद अब बीजेपी ने गिरिराज सिंह बेगूसराय से टिकट दिया है। जातीय समीकरण के लिहाज से देखें तो भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ और कुर्मी वोटों के बल पर गिरिराज सिंह की स्थिति इस सीट पर मजबूत है।


गिरिराज की नाराजगी, कन्हैया को मिला मौका
गिरिराज सिंह के बयान के बाद अब कन्हैया कुमार को मौका मिल गया है। कन्हैया अब हमलावर मुद्रा में हैं और लगातार तंज कस रहे हैं। उन्होंने गिरिराज सिंह को पाकिस्तान टूर ऐंड ट्रैवल्स विभाग के वीजा मंत्री कहकर कटाक्ष किया। कन्हैया ने ट्वीट किया है, 'बताइए, लोगों को जबरदस्ती पाकिस्तान भेजने वाले पाकिस्तान टूर ऐंड ट्रैवल्स विभाग के वीजा मंत्री जी नवादा से बेगूसराय भेजे जाने पर हर्ट हो गए।' उन्होंने आगे लिखा है, 'मंत्री जी ने तो कह दिया -बेगूसराय को वणक्कम।'

गिरिराज के लिए सेफ सीट थी नवादा
नवादा सीट गिरिराज सिंह के लिए सेफ सीट थी। यहां करीब 30 फीसदी वोटर भूमिहार हैं। गिरिराज को उम्मीद थी कि वह भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ, गैर यादव और पिछड़े वोटों की मदद से एक बार फिर लोकसभा पहुंच जाएंगे। उन्हें यहां पर त्रिकोणीय लड़ाई का डर भी नहीं है। हालांकि एनडीए में सीटों के बंटवारे के बाद अब यह सीट एलजेपी के खाते में है। नवादा सीट पर पिछले 10 साल से बीजेपी का कब्जा है। वर्ष 2014 में नवादा सीट पर गिरिराज ने एक लाख से अधिक वोटों से जीत दर्ज की थी।

Sunday 24 March 2019

रामाशीष राय

कौन हैं, "रामाशीष राय" , जिन्हें देवरिया संसदीय क्षेत्र से भाजपा टिकट की आवाज दिल्ली, लखनऊ, तथा देवरिया में भाजपा के मूल कैडर उठा रहे हैं !
---------------------------------------
प्रस्तुति-
डा० अभय सोशियोलोजिस्ट
----------------------------------------
कालांतर में भाजपा की युवा शाखा "भाजयुमो" के राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बनाये गये, भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं में शुमार,
पूर्व एम एल सी रामाशीष राय 1984 के बाद के उस समय, देवरिया जनपद के पथरदेवा मंडल (ब्लाक) क्षेत्र के भाजपा अध्यक्ष थे, जो समय भाजपा के लिये सबसे कठिन दौर के रूप में जाना जाता है, जब भाजपा अपनी लगभग सारी सीटें तो हारी ही तथा उसके सारे बड़े नेता हार चुके थे।

जनता में भाजपा विरोधियों का आतंक था तथा कदम कदम पर चुनौतियां थीं , जबकि जनता अभी भाजपा से ठीक ठीक परिचित भी नहीं थी और जनता तक भाजपा के विचारों को पहुंचाने हेतु समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज की जरूरत थी और इस फौज को बनाने हेतु ऐसे गृहत्यागी पूर्णकालिक योग्य नौनिहालों की जरूरत थी जो नौनिहाल अपने माता पिता और परिवार को छोड़कर अपनी योग्यता को भाजपा को खड़ा करने में लगाने के लिये पार्टी तथा देश के लिये अपना तन, मन, धन और जीवन समर्पित कर सकें।हालांकि इस से भी कड़ी शर्त थी कि वे अत्यंत योग्य हों । उस समय भाजपा की यह स्थिति नहीं बन पायी थी कि कोई सांसद या विधायक मात्र बनने की आशा से ये गृहत्याग नहीं करने वाला था, बल्कि ये गृहत्याग करना था तो केवल देश और हिंदुत्व की बेहतरी के सपने को पूरा करने के लिये करना था।

पूरे देश से ऐसे त्यागी, तपस्वी युवा तलाशे जा रहे थे जिनमें उच्च कोटि की संगठनात्मक क्षमता भी हो और जो भाजपा , देश तथा हिंदुत्व के लिये अपना सबकुछ लगा देने की उच्च कोटि की त्याग-बलिदान की भावना भी रखते हों।

कसौटी बड़ी कड़ी थी, जिसे पूर्वांचल में चंद लोग पूरा कर पाये, जिनमें तत्कालीन पथरदेवा अध्यक्ष रहते गांव गांव में धूल फांककर भाजपा संगठन खड़ा कर रहे "रामाशीष राय" जी भाजपा संगठन द्वारा सर्वोपरि पाये गये।

तबसे पार्टी ने इनकी प्रतिभा और समर्पण तथा संगठनात्मक क्षमता  का लाभ उठाकर इन्हें उ० प्र० भाजयुमो का प्रदेश मंत्री,प्रदेश महामंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय महामंत्री, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनाकर पार्टी को जन जन तक पहुंचाया।

Thursday 21 March 2019

सेनारी नरसंहार @रिम्मी शर्मा

आज 18 मार्च है. ठीक 20 साल पहले मेरे गांव सेनारी में नरसंहार हुआ था. एक ऐसा कत्ल-ए-आम जिसने पीढ़ियों को बदलकर रख दिया. घर के घर बर्बाद हो गए.

18 मार्च 1999 की वो रात आज भी हमलोगों को जेहन में ऐसे ताजा है जैसे कल की ही बात हो. उस रात को याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उस रात ने मेरे खानदान से सात लोगों को लील लिया था.

नरसंहार के पीड़ितों को कितना न्याय मिला. या उस तरह के हर नरसंहार के पीड़ितों को न्याय मिला भी या नहीं अगर इस सच्चाई को नजदीक से देखेंगे तो पता चलेगा कि राजनीति और जीवन के बीच की खाई कितनी गहरी है.

जीवन चलने का नाम है, हमारी जिंदगी भी चल रही है. लेकिन लाशों पर राजनीति का दौर भी अनवरत चालू है. तब भी हमारे घर वालों, गांववालों की लाशों पर राजनीति हुई थी. आज भी हम लाशों पर राजनीति करते हैं.

इंसानियत न तब थी, न अब है. बदला है तो बस समय. हमारी सोच, हमारी प्राथमिकताएं सब कल भी जाति, धर्म पर आधारित थी, आज भी है.

#SenariMassacre #20Years #Bihar #Politics

Wednesday 20 March 2019

जब मालदा से लेकर बंगलादेश तक होती थी भूमिहारों की हुकूमत





सिंघाबाद रियासत के महाराजा सह चर्चित तबला वादक महाराजा भैरवेंद्र नारायण राय | बंगाल व  बांग्लादेश की मिट्टी के एक बड़े हिस्से पर अपनी हुकूमत चलाने वाला भूमिहार राजवंश


सिंघाबाद रियासत को नाच गान मुजराओं को तरजीह देने वाला रियासत भी माना जाता था |
रियासत के राजा को “तब्याफों” का आश्रय दाता भी कहा जाता था |
मालदा ज़िले में कई स्कूल और अस्पताल का निर्माण इनके द्वारा करवाया गया |

सोनाड़ी से सिंहाबाद –
फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में ग़ाज़ीपुर(यूपी) के ‘सोनाड़ी’ गांव से जाकर बंगाल के मालदा जिले में ‘राजा भैरवेंद्र नारायण राय’ के पूर्वजों ने ‘सिंहाबाद रियासत’ की नींव रखी।आजादी के बाद सिंहाबाद की राजबाड़ी के साथ रियासत का तीन-चौथाई हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में चला गया।

आज की तारीख में राजा भैरवेंद्र नारायण राय के वंशज कोलकाता और मालदा में निवास करते हैं। उनके प्रपौत्र ‘सौराजीत रॉय’ बांग्ला फिल्मों के निर्माता निर्देशक हैं जबकि उनकी बहन ‘श्रेष्ठा रॉय’ भी फिल्म निर्माण में ही सक्रिय हैं।

बुलबुलचंडी जमींदारी (पाटीदार – सिंघाबाद)

बंगाल के मालदा ज़िले में ही भूमिहार समाज की एक और बड़ी जमींदारी थी | इसके राजा राजेन्द नारायण राय और अमरेंद्र नारायण राय काफी चर्चित हुए ..बिहार का पूर्णिया ज़िले की अधिकांश जमींदारी इनके आधीन थी ।

 

राष्ट्रगीत की रचना हुई थी भूमिहार महाराजा के महल में





महाराजा बीरेंद्र नारायण राय (स्वर्गीय)
पूर्व मंत्री , पूर्व विधायक – नाबाग्राम (मुर्शीदाबाद)


बंगाल में भूमिहार समाज की शान – लालगोला रियासत

चर्चित लालगोला महाराज बीरेंद्र नारायण राय सर्वप्रथम निर्दलीय मुर्शीदाबाद विधानसभा से चुनाव जीत कलकत्ता पहुंचे । फिर लगातार 5 बार मुर्शीदाबाद जिले की “नाबाग्राम विधानसभा सीट से कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत मंत्री रहे ।।

लालगोला रियासत को बंगाल की चौथी बड़ी रियासत मानी जाती है ।। इसे देशभक्तों का शरणार्थी स्थल भी माना जाता है ।। बंकिम चंद्र चटर्जी ने लालगोला महल में ही रह कर राष्ट्रगीत वंदेमातरम और आनंदमठ की रचना की थी ।।

सियासी समीकरण की दृश्टिकोण से मुर्शिदबाद ज़िले में 80 हज़ार के पार भूमिहार मत हैं ।।
यँहा से कुलीन ब्राह्मण समुदाय से आने वाले बाहुबली सांसद अधीर रंजन चौधरी भूमिहारों के नेता माने जाते हैं ।। भूमिहार और कुलीन ब्राह्मण के बीच बंगाल में वैवाहिक संबंध भी बनते हैं ।
वहीं भूमिहार बाहुबलि परिमल मिश्रा का भी जबरदस्त बोलबाला है ।

 

Tuesday 19 March 2019

कुसुम राय

कुसुम रॉय का जन्म 14 अगस्त 1968 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम महत्तम राॅय और माता का नाम सूर्यमती देवी था। उनका विवाह राजेश राॅय से हुआ। कुसुम राॅय की दो संतानें हैं। कुसुम रॉय भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता हैं और उत्तर प्रदेश से पूर्व राज्यसभा सदस्य रह चुकी हैं । वह उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ सीट से सम्बन्ध रखती हैं। 

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव 2017 के लिए वह बीजेपी की प्रत्याशी हो सकती हैं। उन्हें लखनऊ पश्चिमी विधानसभा सीट से टिकट दिया जा सकता है। कुसुम रॉय उत्तर प्रदेश महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष भी रह चुकी हैं।

कुसुम राॅय नवंबर 1995 से 2000 तक लखनऊ नगर निगम से पार्षद रही। इसके साथ ही वह मई 1999 से जून 1999 तक उत्तर प्रदेश सोशल एडवाईजरी बोर्ड की चेयरपर्सन रही। ये पद कैबिनेट मिनिस्टर के लेवल का पद होता है। नबंबर 1999 से दिसंबर 1999 तक राज्य महिला कमीशन की चेयरपर्सन रही।

फरवरी 2003 से नवंबर 2008 तक वह विधायक रही। इस बीच उनके राजनीतिक जीवन में तमाम परिवर्तन आये। मार्च 2003 से मार्च 2004 तक उन्होंने बीजेपी से अलग होकर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय जन क्रांति पार्टी की ओर से विधानसभा में नेतृत्व किया। इस बीच वह अक्टूबर 2003 से फरवरी 2004 तक उत्तर प्रदेश सरकार में पब्लिक वर्क विभाग में मंत्री भी रही।

नवंबर 2008 में उन्हें बीजेपी की ओर से राज्यसभा सदस्य चुना गया। इस बीच वह नवंबर 2008 से मई 2009 तक ग्रामीण विकास कमेटी की सदस्य रही। इस बीच उन्हें कई कमेटियों का सदस्य भी बनाया गया।

बता दें कि लोकसभा चुनाव 2014 में कुसुम रॉय ने लखनऊ सीट से इलेक्शन लड़ने की इच्छा जताई थी। जिसके बाद बीजेपी हाईकमान सकते में आ गया था। दरअसल यहाँ से राजनाथ सिंह और लाल जी टंडन में चुनाव लड़ने को लेकर पहले से मतभेद चल रहे थे। आखिर बाद में राजनाथ सिंह को ही टिकट दी गयी थी।  

कुसुम रॉय के पति राजेश राय को लखनऊ की एक स्थानीय अदालत ने पांच साल जेल की सजा सुनाई थी। दरअसल राजेश राय राज्य के सूचना केन्द्र में प्रभारी के पद पर कार्यरत थे। इस पद पर उनकी नियुक्ति 1991-92 में कल्याण सिंह सरकार के दौरान हुई थीं। जिसमें राजेश रॉय पर 1993 में दलित उत्पीड़न का एक मामला दर्ज हुआ था जिसमें कोर्ट ने उन्हें पांच साल की सजा सुनाई थी।