Saturday 25 July 2015

चुनावी राजनीति ने रचे जाति समीकरण @जुगनू शारदेय

जातिगत आग्रहों के मामले में बिहार वैसा ही है, जैसे कि देश के अन्य राज्य, पर उसके बारे में यह जरूर सच है कि यहां पिछड़े उतने ही आक्रामक हैं जितने कि सवर्ण। इसकी जड़ में है खेती और चुनावों से हुआ राजनीतिक सशक्तीकरण। बिहार में होने जा रहे चुनाव अपने जातिगत समीकरणों और सोशल इंजीनियरिंग के तकाजों के चलते बेहद पेचीदा हो गए हैं और पूरी संभावना है कि हमें एक त्रिशंकु जनादेश देखने को मिले। पर बिहार में जाति की राजनीति की परिपाटी कब और कैसे कायम हुई? इतिहास में झांककर देखें तो इसके जवाब मिल सकते हैं।
आजादी से पहले इंगलिशिया राजपाट में बिहार के कुछ देसी लोगों को मंत्री पद दिया गया था। जिन्हें मंत्रिपद मिला, वे इंगलिशिया राज के वफादार तो थे ही, शिक्षा के प्रसार में भी इन लोगों ने बहुत कुछ किया था।
इनमें ही एक थे बाबू गणेश दत्त सिंह। उनके जिम्मे स्थानीय स्वशासन था। हालांकि उनके खिलाफ 1928 में एक व्यापक आंदोलन भी हुआ। उन्होंने इंगलिशिया सरकार को खुश करने के लिए गया जिला परिषद को निलंबित कर दिया था। परिषद अध्यक्ष अनुग्रह नारायण सिंह थे। उनको भी हटाया गया। उस जमाने में गया अत्यंत महत्वपूर्ण जिला हुआ करता था। जब तक बिहार बंगाल से अलग न हुआ था, तब तक गया को ही बिहार माना जाता था। आंदोलन के नेता श्रीकृष्ण सिंह थे। उन्होंने उस वक्त की बिहार और ओडिशा विधान परिषद में भी अपने स्वजातीय गणेश दत्त सिंह का खासा विरोध किया था। लेकिन जनमानस यानी राजपूत समुदाय के मन में यही बात थी कि भूमिहार ने राजपूत को बरखास्त कर दिया। तब से बिहार के सवर्णों में राजपूत-भूमिहार का टकराव चल रहा है।
उस काल में जाति की ताकत खत्म करने का काम स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भी किया था। वे सर गणेश दत्त सिंह के विरोधी भी माने गए। वे भी भूमिहार थे। उन्होंने किसान सभा की भी स्थापना की थी। जमींदार भूमिहारों ने भी उनका विरोध किया था। लेकिन इनमें भूमिहीन भूमिहारों की संख्या काफी थी। यही कारण है भूमिहार बहुल इलाकों में वामपंथी पार्टियों की बढ़त थी। बेगूसराय को बिहार का लेनिनग्राद भी कहा गया था। जिला परिषदों का चुनाव आरंभ हो चुका था। उन चुनावों में संभ्रांत पिछड़े समुदाय की हार हुई। इसी के साथ आरंभ हुई भूमिहार समुदाय से चिढ़। जिला परिषदों में चुनाव के बाद पिछड़े समुदाय के यादव, कोयरी, कुर्मी समुदाय ने 1934 के आसपास त्रिवेणी संघ बनाया। इसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने 1935 में बैकवर्ड क्लास फेडरेशन का गठन किया। यह समझ लेना जरूरी है कि बिहार में चुनावों के माध्यम से ही सवर्ण और पिछड़ा समुदाय में खींचतान बढ़ी। यानी कि बिहार के बहुप्रचारित जातिवाद का एक विशिष्ट चुनावी राजनीतिक परिप्रेक्ष्य रहा है।
1937 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों और दलितों के लिए अलग-अलग चुनाव क्षेत्र थे। जमींदारों के लिए भी अलग चुनाव क्षेत्र था। 1937 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। इंगलिशिया सरकार ने महिलाओं के लिए भी अलग चुनाव क्षेत्र बनाया, जैसे पटना सिटी मुस्लिम महिला का सामान्य शहरी क्षेत्र और पटना महिलाओं का सामान्य शहरी क्षेत्र। उसी चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनाने से मना कर दिया तो मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी के मोहम्मद युनूस प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए। उस काल में मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था और प्रधानमंत्री को प्रीमियर।
बहरहाल तीन हफ्तों के बाद मोहम्मद युनूस को इस्तीफा देना पड़ा और श्रीकृष्ण सिंह बिहार के प्रधानमंत्री बने। हालांकि मान्यता यह है कि वे बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे। इसका एक कारण यह भी है कि युनूस ने कभी उस वक्त की विधानसभा का सामना नहीं किया था। बिहार में भूमिहार-राजपूत टकराव की यही पृष्ठभूमि है। आजादी के आंदोलन और कांग्रेस की रणनीति और उससे भी बढ़कर पिछड़ा समुदाय की सत्ता से जुडे रहने की चाहत ने उनको कांग्रेस-प्रिय बना दिया। त्रिवेणी संघ में भी एका न रहा। जिन्हें कांग्रेस में जाना अच्छा न लगा, वे वामपंथी-समाजवादी पार्टियों से जुडने लगे। हर हाल में बिहार में वोट से जाति का रिश्ता जुड़ गया। जाति हिंदू समाज में ही नहीं, अन्य समुदायों में भी बहुत महत्वपूर्ण कारक है। इसका संबंध रोटी और बेटी से है। बेटी का ब्याह जाति में ही होता है। उस जमाने में अंतरजातीय विवाह लाखों में एक होते थे और आज भी यह स्थिति बहुत हद तक बदली नहीं है।
रोटी-बेटी के साथ स्वाभाविक ही वोट का रिश्ता भी जुड़ गया। आज भी बिहार के अनेक नेता अपनी बेटियों के विवाह के लिए स्वजातीय हो जाते हैं। यही गठबंधन वोटवादी भी हो जाता है। कांग्रेस की रणनीति ने संभ्रांत पिछड़ों के आंदोलन के प्रतीक त्रिवेणी संघ को कांग्रेसी बना दिया। त्रिवेणी संघ में यादव, कुर्मी, कुशवाहा थे। सबसे पहले यादव, फिर कुर्मी और अंत में कुशवाहा कांग्रेस से जुड़े। कुशवाहा समुदाय के मन में यह कसक हमेशा बनी रही कि उसे पिछड़ी जाति का सिरमौर नहीं माना गया।
कांग्रेस की आंतरिक राजनीति ने इसे और बढ़ाया। आजादी के आंदोलन के समय ही कांग्रेस ने जान लिया था कि जाति के बल पर कैसे चुनाव जीता जा सकता है। आजादी के बाद चुनाव लड़ने वालों को पता था कि कौन-कौन-से चुनाव क्षेत्र मुस्लिम बहुल हैं। दलितों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र पहले भी था, आजादी के बाद भी बना रहा। रही-सही कसर सवर्ण समुदाय की इस मानसिकता ने पूरी कर दी कि सवर्ण बहुल क्षेत्र के वोटर को कांग्रेस या सवर्ण प्रत्याशी के पक्ष में ही वोट देने के लिए विवश किया जाए। नतीजतन 1962 तक बिहार में जातिवाद आज की तरह सिर चढ़कर नहीं बोलता था, पर पिछड़े समुदाय के मन ही मन में यह उबल रहा था। आमतौर पर उस वक्त के पिछड़े नेता किसी न किसी सवर्ण नेता से जुड़े होते थे। पर एक सच और तथ्य उभर रहा था कि चाहे अगड़े हों या पिछड़े, सब के सब भूमिहार नेतृत्व को नापसंद करते थे।
1961 में श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद कांग्रेस विधायक दल ने अपना नेता मैथिल ब्राह्मण विनोदानंद झा को चुना था। यह अकारण नहीं था कि श्रीबाबू के देहांत के बाद कांग्रेस पार्टी ने एक राजपूत दीपनारायण सिंह को अवसर दिया कि वे मुख्यमंत्री पद की शपथ लें। वे 1 से 18 फरवरी 1961 तक मुख्यमंत्री रहे यानी कांग्रेस को अपना नया नेता चुनने में लगभग दो हफ्ते लगे। यह एक तथ्य है कि भूमिहार समुदाय में श्रीबाबू के उत्तराधिकारी माने जाने वाले महेश प्रसाद सिंह 1957 में विधानसभा का चुनाव हार चुके थे। अनुग्रह बाबू का पहले ही निधन हो चुका था। तब तक उनके पुत्र विधानसभा में नहीं थे। वे बिहार में मंत्री ही 1961 में बने। अब तक राजपूत और भूमिहार का द्वंद्व सतह पर था। नतीजतन झा मुख्यमंत्री बने।
दिसंबर 1963 में कामराज योजना के तहत उन्होंने इस्तीफा दिया। उस समय कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के लिए पहली बार दो गैरब्राह्मणों के बीच टकराव हुआ। पहली बार बिहार में पिछड़ा समुदाय कुर्मी के बीरचंद पटेल के मुकाबले सवर्ण गैरब्राह्मण कायस्थ कृष्णवल्लभ सहाय के बीच मुकाबला हुआ। पटेल वास्तव में राजपूत समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन आखिरी क्षणों में इस समुदाय के नेता सत्येंद्र नारायण सिंह ने अपना समर्थन सहाय को दे दिया। बाद में सिंह ने इसे माना भी, अपनी आत्मकथा में भी इसका जिक्र किया। लेकिन तब तक रोटी-बेटी वाला जातिगत समीकरण, जो चुनाव तक ही सिमटा रहता था, वह बिहार के रोज के जीवन में घुस चुका था।

Tuesday 21 July 2015

ब्राह्मण (भूमिहार) का इतिहास वर्तमान स्थिति और पुनरुद्धार के उपाय - भूमिका

ब्राह्मण (भूमिहार) या भूमिहार ब्राह्मण के इतिहास पर बात करने से पहले हमें ब्राह्मण के इतिहास पर गौर करना होगा इसके लिए श्रृष्टि की रचना पर विचार करना होगा| सिर्फ तभी हम भूमिहार ब्राह्मण के इतिहास को समग्रता से समझ सकेंगे| श्रृष्टि-रचना की धार्मिक मान्यता के रहस्य को विज्ञान की कसौटी पर कसे बिना हम इसके वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकेंगे|
श्रृष्टि-रचना में श्रीमद्भागवतपुराण और डार्विन के सिद्धांत का विश्लेषण
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श्रृष्टि-रचना के सिद्धांत की व्याख्या श्रीमद्भागवतपुराण (2/5/32-35) द्वितीय स्कन्द, पंचम अध्याय के श्लोक सं 32-35 में विशेष रूप से किया गया है हालांकि पूरा पांचवां और छठा अध्याय श्रृष्टि रचना की ही व्याख्या करता है| भागवतपुराण के अनुसार पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) की रचना करीब-करीब एक साथ एक के बाद एक हुई लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी महाध्वनि (Big Bang Theory) की उपज है जो किसी बड़े ग्रह के सूर्य से टकराने से हुई|
भागवतपुराण के अनुसार पंचमहाभूत अपनी रचना के बाद बड़ी असंगठित अवस्था में थे जिसे चार्ल्स डार्विन ने अपनी पुस्तक ‘The Origin of Species’ में ‘Difused and Unsythecised State’ की संज्ञा दी है| मूलतः भागवतपुराण की असंगठित अवस्था और डार्विन का ‘Difused and Unsynthecysed State’ का अर्थ एक ही है| असंगठित अवस्था के ये महाभूत काफी लम्बे समय तक मूर्त पिंड का आकार नहीं ले पाए थे|
पंचमहाभूत जब संगठित हुए तब एक महाकाय ब्रह्माण्ड रूप अंड-पिण्ड बना| ब्रह्माण्ड रूपी पिंड सहस्त्र वर्षों तक निर्जीव अचेतन अवस्था में जल में पड़ा रहा| इस निर्जीव पिंड और जल में जब क्षोभ हुआ जिसे डार्विन ने ‘Process of Agitation’ कहा अर्थात जल, वायु, आकाश और अग्नि के परस्पर भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया से क्षोभ के कारण उस महापिंड में चेतना का संचार हुआ या वह जीवित हो गया| हमारा धर्मशास्त्र इसका कारण इश्वरीय कृपा और डार्विन आदि आधुनिक वैज्ञानिक इसे ‘Physio-Chemical Reaction’ की प्रक्रिया कहते हैं| आज स्थिर जल जमावट में जब मच्छर, शैवाल आदि जलजीव पैदा हो जाते हैं तो हम उसे ईश्वरीय कृपा नहीं समझते|
हम इस बात पर जोर देकर किसी के धार्मिक विश्वास को प्रभावित करना नहीं चाहते लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि विज्ञान सदा धार्मिक रहस्यों और अंधविश्वासों पर से पर्दा उठाता आया है| जो चाँद कुछ वर्ष पहले तक हमारे लिए ‘चन्द्रलोक’ था वह आज मरुस्थल और बियावान पथरीला निर्जीव उपग्रह है| वैसे भी ब्रह्माण्ड को आकार देने वाले ‘Higs Bosone’ या ‘God Particle’ की खोज कर ली गई है और इसके अन्वेषक प्रोफेसर पीटर हिग्स को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है| वह दिन अब दूर नहीं जब श्रृष्टि की रचना का वैज्ञानिक तथ्य ही सामने होगा|
अब हम इस बात पर विचार करें कि वह विशाल चेतन पिंड क्या था| डार्विन उसे ‘विभिन्न गुण-रूपों के बैक्टीरिया का एक प्राकृतिक मूर्त रूप’ (Formation of Heterogeneous Bacterial Growth) कहता है| इस विशाल चेतन पिण्ड के विभिन्न हिस्से को उसकी आकृति के अनुसार मुँह, बाजू, वक्ष, जानू और पाद की संज्ञा दी गई जैसे बादल का विशाल पिण्ड कभी मुंह, हाथ या पैर की तरह नजर आता है और कभी किसी जानवर की तरह लगता है| इसके विभिन्न हिस्से से इसकी प्रकृति के अनुसार विभिन्न जीव-जन्तु उत्पन्न हुए क्योंकि इसके विभिन्न हिस्सों की उर्वरा शक्ति भिन्न थी| (उदाहरणार्थ एक गन्ने के पौधे के विभिन्न हिस्से में गुणों के अनुसार मिठास अलग-अलग होती है)|
यह चेतन पिण्ड कोई सौ-दो सौ गज में फैला हुआ नहीं बल्कि हजारों-हजार मील में फैला हुआ पदार्थ था और ऐसे ऐसे हजारों पिंड हजारों जगह फैले हुए थे जिससे देश-काल की भिन्नता एवं महाभूतों की स्थानीय विशेषताओं के चलते एक ही प्रकार के जीव के विभिन्न रंग, रूप और आकार बनते गए| कहीं हाथी सफेद तो कहीं हाथी कला, कहीं ऊंट तो कहीं जिराफ, कहीं मानव तो कहीं दानव| इसी के विभिन्न हिस्सों से सर्प, नाग, दानव, वृक्ष, लताएँ आदि सभी पैदा हुए| ये जीव-जन्तु भी सब अचानक एक साथ पैदा नहीं हुए| अंतरिक्ष में मिले मच्छर के जीवाष्मों के अध्ययन से पता चला है कि मच्छर मनुष्यों से 50 करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुए थे जबकि मनुष्य की उत्पत्ति आज से करीब 16 से 20 करोड़ वर्ष पहले हुई थी| खुद पृथ्वी ही आज से करीब 4.55GA (Giga/Billion years) अरब साल पहले स्तित्व में आई है| क्रमिक विकास इतनी मंद गति से होता है कि मनुष्यों को ही अपने चार पैरों से दो पैरों पर खड़े होने में कई लाख वर्ष लगे| सबों पर डार्विन का क्रमिक विकास का सिद्धांत (Theory of Gradual Evolution) ही लागू होता है|
ब्राह्मण की उत्पत्ति
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इस परिप्रेक्ष्य में अब हम ब्राह्मण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करें| हमारा शास्त्र कहता है :-
(१) ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ (अध्याय ३१(११) पुरुष सूक्त, यजुर्वेद)
(२) चतुर्वर्णम् मयाश्रिष्ठ्यम् गुणकर्माविभागशः (गीता)
यजुर्वेद ३१वें अध्याय के पुरुष सूक्त श्लोक सं ११ की पुष्टि ऋग्वेद, और अथर्ववेद के साथ श्रीमद्भागवतपुराण ने भी की है| इसका सटीक अर्थ समझने के लिए हमें पहले यजुर्वेद के श्लोक सं १० का अर्थ समझना होगा| दसवें श्लोक में पूछा गया है कि “उस विराट पुरुष का मुख कौन है, बाजू कौंन है, जंघा कौन है तथा पैर कौन है? इसके उत्तर में श्लोक सं ११ आता है जिसमे कहा गया है कि “ ब्राह्मण ही उसका मुख है, क्षत्रिय बाजू है, वैश्य जंघा है और शूद्र पैर है”| यह कहीं नहीं लिखा है कि प्रजापति (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, बाजूओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शुद्र पैदा हुए| ऐसा अर्थ मात्र भ्रान्ति है| इस पर मैं कोई शास्त्रार्थ करना नहीं चाहता क्योंकि इसकी वास्तविकता मैं पहले ही बता चुका हूँ| हम तो उस दिन की कल्पना भर कर सकते हैं जब अणुओं के टकराव और विष्फोट से उत्पन्न हिग्स बोसोन या (God Particle) श्रृष्टि की रचना का पूरा सिद्धांत 40-50 वर्षों में बदल देगा| तब ब्राह्मण न तो मुख से पैदा हुआ माना जायेगा और नहीं शुद्र पैरों से|
ब्राह्मणों के कार्य
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अध्यापनमध्यायनं च याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्र जन्मन:॥ 10।75
मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार ब्राह्मणों के छह कर्म हैं| साधारण सी भाषा में कहें तो अध्ययन-अध्यापन(पढ़ना-पढाना), यज्ञ करना-कराना, और दान देना-लेना| इन कार्यों को दो भागों में बांटा गया है| धार्मिक कार्य और जीविका के कार्य| अध्ययन,यज्ञ करना और दान देना धार्मिक कार्य हैं तथा अध्यापन, यज्ञ कराना (पौरोहित्य) एवं दान लेना ये तीन जीविका के कार्य हैं| ब्राह्मणों के कार्य के साथ ही इनके दो विभाग बन गए| एक ने ब्राह्मणों के शुद्ध धार्मिक कर्म (अध्ययन, यज्ञ और दान देना) अपनाये और दूसरे ने जीविका सम्बन्धी (अध्यापन, पौरोहित्य तथा दान लेना) कार्य| जिस तरह यज्ञ के साथ दान देना अंतर्निहित है वैसे ही पौरोहित्य अर्थात यज्ञ करवाने के साथ दान लेना| इस तरह वास्तव में ब्राह्मणों के चार ही कार्य हुए – अध्ययन और यज्ञ तथा अध्यापन और पौरोहित्य|
याचकत्व और अयाचकत्व
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ब्राह्मणों के कर्म विभाजन से मुख्यतः दो शाखाएं स्तित्व में आयीं – पौरोहित्यकर्मी या कर्मकांडी याचक एवं अध्येता और यजमान अयाचक| यह भी सिमटकर दो रूपों में विभक्त होकर रह गया – दान लेने वाला याचक और दान देने वाल अयाचक| सत्ययुग से ही अयाचक्त्व की प्रधानता रही| विभिन्न पुराणों, बाल्मीकिरामायण और महाभारत आदि में आये सन्दर्भों से पता चलता है कि याचकता पर सदा अयाचकता की श्रेष्टता रही है| प्रतिग्रह आदि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं जैसा कि मनु जी ने कहा है कि :-
प्रतिग्रह समर्थोपि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ (म.स्मृ. 4/186)
'यदि ब्राह्मण प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए जप और तपस्यादि भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणत्व) का नाश हो जाता है’। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा हैं और ब्रह्मर्षि वशिष्ट ने भी कहा है कि 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।'
भू-धन का प्रबंधन
दंडीस्वामी श्री सहजानंद सरस्वती जी के अनुसार अयाचकता और याचकता किसी विप्र समाज या जाति का धर्म न होकर व्यक्ति का धर्म हैं। जो आज अयाचक हैं कल वह चाहे तो याचक हो सकता हैं और याचक अयाचक। इसी सिद्धांत और परम्परा के अनुसार जब याचक ब्राह्मणों को दान स्वरूप भू-संपत्ति और ग्राम दान मिलने लगे तो याचकों को भू-धन प्रबंधन की जटिलताएं सताने लगीं| पौरोहित्य जन्य कर्मों में संलग्न याचक वर्ग दान में मिली भू-सम्पत्तियों के प्रबंधन के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था| इसलिए आंतरिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आपसी सहयोग और सम्मति से परिवार के कुछ सदस्य अपनी रूचि अनुसार भू-प्रबंधन में संलग्न हो गए|
ब्राह्मणों के पेशागत परिवर्तन के उदाहरण वैदिक काल में परशुराम, द्रोण, कृप, अश्‍वत्थामा, वृत्र, रावण एवं ऐतिहासिक काल में शुंग, शातवाहन, कण्व, अंग्रेजी काल में काशी की रियासत, दरभंगा, बेतिया, हथुआ, टिकारी, तमकुही, सांबे, मंझवे, आदि के जमींदार हैं।
भूदान-धन प्रबन्धक की विशेषताएं एवं इतिहास – ब्राह्मण की विशेष शाखा का उद्भव
आज भी किसी परिवार में प्राकृतिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर हर सदस्य अपनी रूचि अनुसार अलग-अलग काम स्वतः ले लेता है| कोई सरकारी दफ़्तर और कोर्ट कचहरी का काम संभालता है तो कोई पशुधन प्रबंधन में लग जाता है तो कोई ग्राम संस्कृति में संलग्न हो ढोलक बजाने लगता है तो कोई साधारण से लेकर ऊँची-ऊँची नौकरियां करने लगता है तो कोई पूजा-पाठ यज्ञादि में संलग्न हो जाता है| ठीक यही हाल याचकता और अयाचकता के विभाजन के समय हुआ| हालांकि उस समय किसी के उत्कृष्ट और किसी के निकृष्ट होने की कल्पना भी नहीं थी|
भू-संपत्ति प्रबंधन में संलग्न परिवार शुद्ध अयाचकता की श्रेणी में अपने को ढालता गया| याचकों की आर्थिक विपन्नता और अयाचकों की भू-सम्पदाजन्य सम्पन्नता काल-क्रम से उत्तरोत्तर बढ़ती गई तथापि याचकों के सामाजिक प्रभाव और आत्मसम्मान में कोई कमी नहीं थी| ऐसा भी नही था कि याचक ब्राह्मण कृषि कार्य नही करता था लेकिन उसके पास विशेषज्ञता की कमी थी और आत्मसम्मान की अधिकता| वाल्मीकिरामायण के के अयोध्या कांड बत्तीसवें सर्ग के २९-४३वें श्लोक में गर्ग गोत्रीय त्रिजट नामक ब्राह्मण की कथा से अयाचक से याचक बनने का सटीक उदाहरण मिलता है:-
तत्रासीत् पिंगलो गार्ग्यः त्रिजटो नाम वै द्विज; क्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली। ॥ 29॥
इस आख्यान से यह भी स्पष्ट हैं कि दान लेना आदि स्थितिजन्य गति हैं, और काल पाकर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक्-पृथक् दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैं|
इसी तरह के संदर्भ का द्वापरकालीन महाभारत में युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों द्वारा गोधन आदि भू-संपदा के उपहार और दान का वर्णन दुर्योधन द्वारा शकुनि के समक्ष किया गया है|
त्रेता-द्वापर संधिकाल में क्षत्रियत्व का ह्रास एवं अयाचक भू-धन प्रबन्धक द्वारा क्षात्रजन्य कार्यों का संचालन
मनुजी स्पष्ट लिखते हैं कि :
सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्र विदर्हति॥ 100॥
अर्थात ''सैन्य और राज्य-संचालन, न्याय, नेतृत्व, सब लोगों पर आधिपत्य, वेद एवं शास्त्रादि का समुचित ज्ञान ब्राह्मण के पास ही हो सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष को।''
स्कन्दपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा हैं कि जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा हैं तो उन्होंने उत्तर दिया हैं कि :
ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथा वच्चरितः व्रत:।
क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन॥ 13॥
अर्थात् ''ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता हैं, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं। यह सुन वह परशुरामजी के पास, “मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ,” ऐसा बनकर ब्रह्मास्त्र सीखने गया हैं।'' इस तरह ब्रह्मास्त्र की विद्या अगर ब्राह्मण ही जान सकता है तो युद्ध-कार्य भी ब्राह्मणों का ही कार्य हुआ|
उन विभिन्न युगों में भी ब्राह्मणों के अयाचक दल ने ही पृथ्वी का दायित्व संभाला| इससे बिना शंका के यह सिद्ध होता है कि भू-धन प्रबन्धक अयाचक ब्राह्मण सत्ययुग से लेकर कलियुग तक थे और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखी हालांकि वे अयाचक ब्राह्मण की संज्ञा से ही विभूषित रहे| साहस, निर्णय क्षमता, बहादुरी, नेतृत्व क्षमता और प्रतिस्पर्धा की भावना इनमे कूट-कूटकर भरी थी तथा ये अपनी जान-माल ही नहीं बल्कि राज्य की सुरक्षा के लिए भी शक्तिसंपन्न थे|
क्षत्रियत्व का ह्रास
प्राणी रक्षा के दायित्व से जब क्षत्रिय च्युत हो निरंकुश व्यभिचारी और अधार्मिक कार्यों एवं भोग विलास में आकंठ डूब गए तो ब्रह्मर्षि परशुराम जी ने उनका विभिन्न युगों में २१ बार संहार किया और पृथ्वी का दान और राज ब्राह्मणों को दे दिया|
यहाँ पर मैं जरा सा संदार्भातिरेक करूँगा| प्रश्न उठता है कि अगर परशुराम जी ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-विहीन कर दिया तो बाद में क्षत्रिय कहाँ से आ गए? उत्तर यह है कि हालाँकि पौराणिक इतिहास में कहीं भी ऐसा संदर्भ नहीं है की उन्होंने क्षत्रियों के साथ क्षत्राणियों का भी संहार किया| नारी सदा अवध्य ही रही| उन्हीं अवध्य जीवित क्षत्राणियों से ब्राह्मणों ने जो संतानें पैदा कीं वे क्षत्रिय कहलाये इसलिए क्षत्रिय भी ब्राह्मणों की ही संतानें हुईं| शास्त्र भी कहता है की ब्राह्मण वीर्य और क्षत्रिय रज से उत्पन्न संतान क्षत्रिय ही होती हैं ब्राह्मण नहीं| महाभारत में अर्जुन ने युधिष्ठिर से शान्तिपर्व में कहा है कि:
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥ अ.॥ 22॥
''हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?'
कलियुग में अयाचक भू-धन प्रबंधक की स्वतंत्र पहचान व् ब्राह्मणों में सर्वोच्च अधिकार
कलियुग में इस भू-प्रबन्धक की लिखित और अमिट छाप ईशापूर्व से स्पष्ट परिलक्षित होती है| सिकंदर ने जब 331 ईशापूर्व आर्यावर्त पर आक्रमण किया था तो उसके साथ उसका धर्मगुरु अरस्तू भी साथ आया था| अरस्तू ने क्षत्रियों की अराजकता और अकर्मण्यता के संदर्भ में उस समय के भारत की जो दुर्दशा देखी उसका बहुत ही रोचक चित्रण अपने स्मरण ग्रन्थ में इस तरह किया है:-
“Now the ideas about castes and profession, which have been prevalent in Hindustan for a very long time, are gradually dying out, and the Brahmans, neglecting their education,....live by cultivating the land and acquiring the territorial possessions, which is the duty of Kshatriyas. If things go on in this way, then instead of being (विद्यापति) i.e. Master of learning, they will become (भूमिपति) i.e. Master of land”.
“जो विचारधारा, कर्म और जाति प्रधान भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित थी, वह अब धीरे-धीरे ढीली होती जा रही हैं और ब्राह्मण लोग विद्या विमुख हो ब्राह्मणोंचित कर्म छोड़कर भू-संपत्ति के मालिक बनकर कृषि और राज्य प्रशासन द्वारा अपना जीवन बिता रहे हैं जो क्षत्रियों के कर्म समझे जाते हैं। यदि यही दशा रही तो ये लोग विद्यापति होने के बदले भूमिपति हो जायेगे।'' आज हम कह सकते हैं कि अरस्तू की भविष्यवाणी कितनी सटीक और सच्ची साबित हुई|
In the year 399 A.D. a Chinese traveler, Fahian said “owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism....are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called ‘Sang he Kang”, which has been translated by professor Hoffman as ‘Land seizer’.
राज्य संचालन
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यद्यपि अयाचक ब्राह्मणों द्वारा राज्याधिकार और राज्य संचालन का कार्य हरेक युग में होता रहा है लेकिन ईशापूर्व चौथी-पांचवीं सदी से तो यह कार्य बहुत ही ज्यादा प्रचलित हो गया और इसने करीब-करीब एक परम्परा का रूप ले लिया| इसमें सर्व प्रमुख नाम 330 ई.पू. सिकंदर से लोहा लेने वाले सारस्वत गोत्रीय महियाल ब्राह्मण राजा पोरस, 500 इस्वी सुधाजोझा, 700 ईस्वी राजा छाच, और 1001 ईस्वी में अफगानिस्तान में जयपाल, आनंदपाल और सुखपाल आदि महियाल ब्राह्मण राजा का नाम आता है जैसा कि स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘ब्रह्मर्षि वंशविस्तर’ में लिखा है|
भू-धन प्रबंधक ब्राह्मणों में “भूमिहार” शब्द का प्रथम ज्ञात प्रचलन
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हालांकि भूमिहार शब्द का पहला जिक्र बृहतकान्यकुब्जवंशावली १५२६ ई. में आया है लेकिन सरकारी अभिलेखों में प्रथम प्रयोग 1865 की जनगणना रिपोर्ट में हुआ है| इसके पहले गैर सरकारी रूप में इतिहासकार बुकानन ने 1807 में पूर्णिया जिले की सर्वे रिपोर्ट में किया है| इनमे लिखा है :-
“भूमिहार अर्थात अयाचक ब्राह्मण एक ऐसी सवर्ण जाति जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। इसका गढ़ बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश है| पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्राह्मणों को त्यागी नाम की उप-जाति से जाना व पहचाना जाता हैं।“ एम.ए. शेरिंग ने १८७२ में अपनी पुस्तक Hindu Tribes & Caste में कहा "भूमिहार जाति के लोग हथियार उठाने वाले ब्राह्मण हैं (सैनिक ब्राह्मण)। पं. परमेश्वर शर्मा ने ‘सैनिक ब्राह्मण’ नामक पुस्तक भी लिखी है| अंग्रेज विद्वान मि. बीन्स ने लिखा है – “भूमिहार एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमे आर्य जाति की सभी विशिष्टताएं विद्यमान है। ये स्वाभाव से निर्भीक व हावी होने वालें होते हैं।“ 'विक्रमीय संवत् 1584 (सन् 1527) मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों और बाबर से युद्ध हुआ और युद्धोपरांत भूमिहार मदारपुर से पलायन कर यू.पी. एवं बिहार के बिभिन्न क्षेत्रों में फ़ैल गए| गौड़, कान्यकुब्ज सर्यूपारी, मैथिल, सारस्वत, दूबे और तिवारी आदि नाम प्राय: ब्राह्मणों में प्रचलित हुए, वैसे ही भूमिहार या भुइंहार नाम भी सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक अयाचक दल विशेष में प्रचलित हुआ।
भूमिहार शब्द सबसे प्रथम 'बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण' (1526) के 117वें पृष्ठ पर मिलता है| इसमें लिखा हैं कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण के निम्नलिखित पांच प्रभेद हैं:-
(1) प्रधान कान्यकुब्ज
(2) सनाढ्य
(3) सरवरिया
(4) जिझौतिया
(5) भूमिहार
सन् 1926 की कान्यकुब्ज महासभा का जो 19वाँ वार्षिक अधिवेशन प्रयाग में जौनपुर के राजा श्रीकृष्णदत्तजी दूबे, की अध्यक्षता में हुई थी|स्वागताध्यक्ष जस्टिस गोकरणनाथ मिश्र ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग माना है|
जाति के रूप में भूमिहारो का संगठन
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भूमिहार ब्राह्मण जाति ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अयाचक लोगो का एक संगठन है| प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया, उसके बाद सारस्वत, महियल, सरयूपारी, मैथिल, चितपावन, कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए| मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए|
भूमिहार ब्राह्मण महासभा
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१८८५ में द्विजराज काशी नरेश महाराज श्री इश्वरी प्रसाद सिंह जी ने वाराणसी में प्रथम अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा की स्थापना की| बिहार और उत्तर प्रदेश के जमींदार ब्राह्मणों की एक सभा बुलाकर प्रस्ताव रखा कि हमारी एक जातीय सभा होनी चाहिए| सभा के प्रश्न पर सभी सहमत थे| परन्तु सभा का नाम क्या हो इस पर बहुत ही विवाद उत्पन्न हो गया| मगध के बाभनो ने जिनके नेता स्व.कालीचरण सिंह जी थे, सभा का नाम ‘बाभन सभा’ करने का प्रस्ताव रखा| स्वयं महाराज ‘भूमिहार ब्राह्मण सभा’ के पक्ष में थे| बैठक में आम राय नहीं बन पाई, अतः नाम पर विचार करने हेतु एक उप-समिति गठित की गई| सात वर्षो के बाद समिति की सिफारिश पर "भूमिहार ब्राह्मण" शब्द को स्वीकृत किया गया|
१९४७ में ३३वां अखिल भारतीय सम्मलेन टिकारी में पं. वशिष्ठ ना. राय की अध्यक्षता में हुआ| अनेकों संस्कृत विद्यालयों/महाविद्यालयों के संस्थापक/व्यवस्थापक स्वामी वासुदेवाचार्य जी इसके स्वागताध्यक्ष थे| टिकारी सम्मलेन के बाद ४७ वर्षों तक कोई अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण सम्मलेन नहीं हुआ क्योंकि राजा रजवाड़े रहे नहीं जो सम्मेलन आयोजित कराते थे हालांकि क्षेत्रीय सम्मलेन विभिन्न नामों से होते रहे|
१९९४ जून में ३४वां अधिवेशन टिकारी अधिवेशन के ४७ वर्षों बाद अखिल भारतीय भूमिहार बाह्मण सम्मलेन सिमरी, जिला बक्सर बिहार में हुआ विद्वानों और समाजसेवियों के सानिध्य में आचार्य पं. रामख्याली शर्मा की अध्यक्षता में हुआ| इसी सिमरी ग्राम में स्वामी सहजानंद सरस्वती जी ने अपने महान ग्रंथ कर्मकलाप, ब्रह्मर्षि वंश विस्तर, और भूमिहार ब्राह्मण परिचय लिखे हालांकि सीताराम आश्रम, बिहटा, पटना जिला उनका अंतिम निवास था| इस तरह भूमिहार ब्राह्मण महासभा का ११४ वर्षों के इतिहास में मुख्यतः ३४ अधिवेशन हुए हालांकि सभाएं तो पचास से ज्यादा हईं| इसके बाद भी सभाएं तो बहुत हुईं लेकिन उसका क्रमानुसार नामकरण नहीं किया गया|
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कार्यवाही की जाँच के लिए जो सिलेक्ट कमिटी बैठी थी, उसकी जो पाँचवीं रिपोर्ट बंगाल प्रेसिडेन्सी के विषय में प्रकाशित होकर सन् 1812 ई. में लन्दन में छपी हैं, उसके प्रथम भाग के 511 से 513 पृष्ठों तक ऐसा लिखा हुआ हैं – इसमें सभी भूमिहारों को ब्राह्मण ही लिखा गया है:-
''सूबा बिहार” (प्रथम सरकार) बिहार
(3) 10 परगनों की जमींदारी मित्राजीत सिंह कौम ब्राह्मण, टिकारी के निवासी को मिली|
(5) अरंजील और मसौढ़ी इन दो परगनों के जमींदार जसवन्त सिंह वगैरह ब्राह्मण थे।
(9) सौरत और बलिया ये दो परगने खासकर हुलास चौधुरी और आनागिर सिंह नामक ब्राह्मणों की जमींदारी थी।
(11) ग्यासपुर परगने की जमींदारी शिवप्रसाद सिंह ब्राह्मण की थी और उसमें छोटे-छोटे जमींदार भी शरीक थे।
अयोध्या का मुकद्दमा:
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आनंद भवन बिहारी बनाम राम दुलारे त्रिपाठी ACJ Faizabad Suite No 22/1962 – पं. राम दुलारे ने कहा कि महावीर शरण भूमिहार हैं, ब्राह्मण नहीं अतः आनंद बिहारी ठाकुरबाड़ी के सर्बकार नहीं हो सकते क्योंकि सर्बकार सिर्फ विरक्त ब्राह्मण ही हो सकता है भूमिहार नहीं| कोर्ट ने डिक्री पास किया कि भूमिहार हर हाल में ब्राह्मण है| इस आशय की कई डिक्रियां अदालतों ने पास किये हैं|
भूमिहारों का ब्राह्मणत्व से विचलन व् बढ़ती दूरियां
बनारस(काशी), टिकारी, अमावां, हथुआ, बेतिया और तमकुही आदि अनेक ब्राह्मणों (भूमिहार) के राज्यारोहण के बाद सम्पूर्ण भूमिहार समाज शिक्षा, शक्ति, और रोआब के उच्च शिखर पर पहुँच गया था| चारो ओर हमारे दबदबे की दहशत सी फैली हई थी| लोग भूमिहारों का नाम भय मिश्रित अदब से लिया करते थे| सर्वाधिकार प्राप्ति और वर्चस्व के लिए भूमिहार शब्द ही काफी था|
पुनरोद्धार के उपाय:
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अंग्रेजी में एक कहावत है –“It is never too late” किसी भी अच्छे काम की शुरुआत के लिए कभी देर नही होती| हमने अपने आप को गहरे जख्म अवश्य दिये हैं लेकिन मर्ज ला-ईलाज नहीं हुआ है| हाँ, इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर और हरेक स्तर पर सामूहिक और दृढ़ निश्चयी प्रयास की आवश्यकता है| मेरे विचार से निम्नलिखित उपाय कारगर साबित हो सकते हैं:-
• शीघ्रातिशीघ्र हम अपने बच्चों के स्कूल रिकॉर्ड में जाति के स्थान में ‘ब्राह्मण’ या ‘ब्राह्मण (भूमिहार) या भूमिहार ब्राह्मण लिखना शुरू कर दें|
• सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर सरकार पर प्रभाव डालें कि जनगणना आदि सभी अभिलेखों में हमारी जाति ‘ब्राह्मण’ या ‘ब्राह्मण(भूमिहार)’ या भूमिहार ब्राह्मण ही अंकित हो|
• केन्द्रीय और प्रांतीय सभी अभिलेखों से भूमिहार शब्द हटाकर ब्राह्मण या ब्राह्मण(भूमिहार) ही लिखा और माना जाय|
• आवश्यकता पड़ने पर सर्वदलीय सांसद-विधयाक-जनता समिति बनाकर जातीय एकता का प्रदर्शन करते हुए संविधान संशोधन कर इसे सुनिश्चित कराना चाहिए|
• सामान्यतया भूमिहार ब्राह्मणों का बौद्धिक स्तर काफी ऊँचा है लेकिन समुचित सामाजिक विकास के लिए शिक्षा के स्तर को सुधारना आवश्यक है| मैं अंग्रेजी का अंध समर्थक नहीं हूँ लेकिन मेरा ७० वर्षों का अनुभव बताता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में “अंग्रेजी दा जवाब नहीं”!!! आज हमारे युवक अंग्रेजी सीखने के डर से हिंदी का गुणगान करते हैं| अंग्रेजी सीखकर अगर हिंदी का गुणगान करते तो कुछ और बात होती|
• साधनहीन मेधावी बच्चों के शैक्षणिक विकास के लिए ग्राम, प्रखंड, जिला और राज्य स्तर पर उचित एवं समर्पित वित्तीय संगठन की आवश्यकता है| अधिवेशनों में यह प्रस्ताव तो आ जाता है लेकिन उसपर Follow Up या बाद में प्रगति कार्य नहीं किया जाता है| यह सुनिश्चित होना चाहिए| इसके बिना प्रस्ताव किसी काम का नहीं|
• सदस्यता शुल्क – वित्तीय संगठन की स्थापना सदस्यता शुल्क के आधार पर होनी चाहिए| इसमें हरेक ग्राम से लेकर जिला स्तर के सभी स्वजातीय सदस्य बनने चाहिए जिसके लिए एक न्यूनतम शुल्क निर्धारित हो| अधिकतम की कोई सीमा नहीं हो|
• विडंबना यह है कि समाज में जिसके पास धन है वे कुछ कर नहीं सकते और जो कुछ कर सकते हैं उनके पास धन नहीं है| अगर कुछ करना है तो दोनों के बीच सामंजस्य बैठाने की सख्त जरूरत है|
• अभी तक हमारे समाज में ‘एक म्यान में दो तलवार’ नहीं रहने की संभावना व्याप्त है, सामाजिक सद्भाव और सहिष्णुता के समावेश से इसे बदला जा सकता है|
• स्वजातीय एकता और सुरक्षा को ध्यान में रखकर कुछ संगठन बने तो सही लेकिन अंततः व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना ने इसे तार्किक परिणिति तक पहुंचने से रोक दिया| इस पर पुनर्विचार की जरूरत है|
• एक ऐसी स्थायी कार्यकारिणी समिति बने जिसमे ग्रामीण, शिक्षित और दवंग आदि समाज के हर स्तर के लोग हों, ताकि लिए गए निर्णयों को सुचारू रूप से कार्यान्वित किया जा सके तथा इनकी उर्जा को भी सकारात्मक दिशा में प्रयोग किया जा सके और इन्हें महसूस हो कि सामाजिक उत्थान में इनकी भी नितांत आवश्यकता है|
• आंतरिक द्वेष, इर्ष्या और कलह ने हमारे विकास के धार को कुंद कर दिया है, इसे आपसी सौहार्द्र और सामंजस्य से ठीक किया जा सकता है|
• हमे भूमिहार ब्राह्मण की एक ऐसी Close Group Web Site बनानी चाहिए जिसपर समाज के सक्षम लोग जो नौकरियां दे सकते हैं अपनी Vacancy का विज्ञापन दें जिससे सिर्फ स्वजातीय ही आवेदन कर सकें| हाँ, योग्यता के सवाल पर कोई ढील नहीं दी जाय ताकि उनकी गुणवत्ता कायम रहे| लोगों में यह धारणा बनी रहे कि ‘अगर भूमिहार ब्राह्मण है तो काबिल ही होगा’| इससे कम से कम योग्य स्वजातीय युवकों को उचित नौकरी मिल सकेगी जो अन्यथा Corporate Sector के विज्ञापन से अनभिज्ञ रह जाते हैं|
उपसंहार
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हरेक इतिहासकार ने माना है कि भूमिहार ब्राह्मण अर्थात अयाचक ब्राह्मण एक ऐसी सवर्ण जाति है जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया, उसके बाद सारस्वत, महियल, सरयूपारी, मैथिल ,चितपावन, कन्नड़ और केरल के नम्बूदरी आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए| मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए| ‘इस तरह लोग मिलते गए और कारवां बनता गया’| इस जाति ने सत्ययुग से लेकर कलियुग तक किसी न किसी रूप में अपना स्तित्व और प्रभाव अक्षुण्ण रखा| अभी तक पचासों अखिल भारतीय भूमिहार सम्मलेन या भूमिहार महासभा या अखिल भारतीय त्यागी महासभा स्थापित कर और चितपावन, नम्बूदरी आदि ब्राह्मणों को इसका सभापतित्व देकर अयाचक ब्राह्मणों की एकता का परिचय दिया है| हालांकि महासभाओं में लिए गए निर्णयों/प्रस्तावों पर बाद में अग्रेत्तर करवाई या अमल नहीं किया गया| समृधि और सम्पन्नता के सुनहरे समय में गुमराही के दौर से गुजरने के बाद भी सुबह का भूला शाम को घर आने की क्षमता रखने वाली इस जाति के लिए अभी भी खोई प्रतिष्ठा प्राप्त करने की उम्मीद शेष है| इसमें सर्वाधिक आवश्यक है कठिन परिश्रम और मजबूत इरादे से जीवन के हर क्षेत्र में महारत हासिल करने की| सत्ययुग से ही अध्ययन या शिक्षा हमारी रक्तनलिका में प्रवाहित होती रही है| पूर्वजन्म के संस्कार और प्रारब्ध फलानुसार अल्प प्रयास से ही हम उसे वापिस प्राप्त कर सकते हैं| हमारे पास मानसिक शक्ति, बुद्धि, तर्क-शक्ति, दुर्धर्ष साहस और उछलकर वापस आने का अद्भुत कौशल है| जरूरत है इसे अपने व्यवहार में लाकर अपनी सफलता में परिवर्तित करने की|
ले.कर्नल विद्या शर्मा (से.नि.)

आनंद बख्शी : जीवन की सरलता का गीतकार

आनंद बख्शी के बेहद सरल बोलों ने उन्हें आम आदमी का सबसे पसंदीदा गीतकार बना दिया.
40 साल से भी ज्यादा लंबा फिल्मी सफर, चार हजार से भी ज्यादा गीत और 40 बार फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकन. ये आंकड़े खुद ही बता देते हैं कि आनंद बख्शी ने जो रचा उसका दायरा कितना विशाल था. शमशाद बेगम हों या अलका याग्निक या मन्ना डे या फिर कुमार सानू. गायक आते-जाते रहे, उनके लिए शब्द रचने वाला यह गीतकार वहीं रहा.
21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी में जन्मे आनंद बख्शी गीतकार के साथ-साथ गायक भी बनना चाहते थे. अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए वे 14 साल की उम्र में घर से भागकर बंबई आ गए. शुरुआत में मौका नहीं मिला तो जिंदगी चलाने के लिए उन्होंने कई साल तक पहले नौसेना और फिर सेना में काम किया. इस दौरान भी फिल्मी दुनिया में जाने की धुन उनके सिर से उतरी नहीं.
1965 में आनंद बख्शी के करियर ने एक बड़ी करवट ली. इसी साल उनकी दो फिल्में आईं. ये थीं हिमालय की गोद में और जब-जब फूल खिले. इन फिल्मों ने उनकी शोहरत को आसमान पर पहुंचा दिया.
1958 में आनंद बख्शी को पहला ब्रेक मिला. भगवान दादा की फिल्म भला आदमी के लिए उन्होंने चार गीत लिखे. फिल्म तो नहीं चली, लेकिन गीतकार के रूप में उनकी गाड़ी चल पड़ी. इसके बाद उन्हें फिल्में मिलती रहीं. काला समंदर, मेहंदी लगी मेरे हाथ जैसी फिल्मों के लिए उनकी थोड़ी-बहुत चर्चा होती रही.
1965 में आनंद बख्शी के करियर ने एक बड़ी करवट ली. इसी साल उनकी दो फिल्में आई थीं-हिमालय की गोद में और जब-जब फूल खिले. इन दोनों फिल्मों ने उनकी लोकप्रियता को अचानक ही आसमान पर पहुंचा दिया. मैं तो एक ख्वाब हूं से लेकर परदेसियों से न अखियां मिलाना जैसे गाने हर जुबां की पसंद बन गए. इसके बाद तो आराधना, कटी पतंग, शोले, अमर अकबर एंथनी, हरे रामा हरे कृष्णा, कर्मा, खलनायक, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, ताल, गदर-एक प्रेमकथा और यादें तक चार दशक से भी ज्यादा समय तक वे अपने गीतों की फुहारों से लोगों के दिलों को भिगोते रहे.
आनंद बख्शी गायक बनने का सपना लिए भी बंबई आए थे. 1972 में उनकी यह इच्छा पूरी हुई. फिल्म मोम की गुड़िया में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ उन्होंने अपना पहला गाना गाया–‘मैं ढूंढ रहा था सपनों में’. निर्देशक मोहन कुमार को वह गाना इतना अच्छा लगा कि उन्होंने ऐलान कर दिया कि आनंद बख्शी, लता मंगेशकर के साथ एक युगल गीत भी गाएंगे. यह गाना था– ‘बागों में बहार आई, होठों पे पुकार आई‘. यह खूब चला भी.  इसके बाद तो उन्होंने शोले, महाचोर, चरस और बालिकावधू जैसी कई फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी.
सिकंदर और पोरस का एक नाटक देखने के दौरान पोरस को सिकंदर के सामने बंधा देख उन्होंने लिखा–मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए.
आनंद बख्शी की सबसे खास बात थी उनके गीतों के सरल बोल. जब-जब फूल खिले से लेकर कटी पतंग, शोले, हरे रामा हरे कृष्णा, सत्यम शिवम सुंदरम और 2001 में आई उनकी आखिरी फिल्में गदर-एक प्रेमकथा और यादें इसका उदाहरण हैं. यही वजह है कि उन्हें आम आदमी का गीतकार कहा जाता था. उनके गीतों में रहस्यवाद से ज्यादा जीवन की सरलता थी. बहुत आम सी परिस्थितियों से वे गीत खोज लाते थे. मसलन सिकंदर और पोरस का एक नाटक देखने के दौरान पोरस को सिकंदर के सामने बंधा देख उन्होंने लिखा–मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए. यह गीत खासा मशहूर हुआ.
‘बड़ा नटखट है किशन कन्हैया’, ‘कुछ तो लोग कहेंगे’, ‘आदमी मुसाफिर है’, ‘दम मारो दम’ और ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम’ तक आनंद बख्शी ने चार हजार से भी ज्यादा गीत रचे. उदित नारायण, कुमार सानू, कविता कृष्णमूर्ति और एसपी बालसुब्रमण्यम जैसे अनेक गायकों का पहला गीत उन्होंने ही लिखा. 40 बार वे फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित किए गए और चार बार यह पुरस्कार उनकी झोली में आया. आखिरी फिल्मफेयर पुरस्कार उन्हें 1999 में सुभाष घई की फिल्म ताल के गीत इश्क बिना क्या जीना यारों के लिए मिला था.
आनंद बख्शी सिगरेट बहुत पीते थे. इसके चलते उन्हें फेफड़ों और दिल की तकलीफ हो गई. 30 मार्च, 2002 को 72 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. लेकिन आम आदमी की भावनाओं को जुबान देने वाले उनके गीत अमर हैं.

Friday 17 July 2015

श्रीबाबू

बिहार केसरी के नाम से विख्यात एवं आघुनिक बिहार के निर्माता डा० श्री कृष्ण सिंह बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री थे | इनका जन्म २१ अक्टूबर १८८७ ई० को इनके अपने ननिहाल, वर्तमान नवादा जिले के नरहट थाना अंतर्गत खंनवाँ ग्राम में हुआ था | धार्मिक प्रवृति से परिपूर्ण इनकी माता एवं इनके पूज्य पिताजी श्री हरिहर सिंह एक मध्यम भूमिहार ब्राह्मण, जो ग्राम मउर तत्कालीन मुंगेर जिला और वर्तमान बरबीघा, शेखपुरा जिला से थे |

महज पाँच साल अवस्था में इनके माताजी की प्लेग नामक बीमारी से मृत्यु हो गई थी | इन्होने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने ग्राम मउर की पाठशाला में प्राइमरी तक ली और आगे की शिक्षा छात्रवृति पाकर जिला स्कूल मुंगेर से पूरी की | सन् १९०६ ई० में पटना कालेज, पटना विश्विद्यालय के छात्र बने | सन् १९१३ ई०. में एम.ए. की डिग्री हासिल करके सन् १९१४ ई० में कलकत्ता विश्विद्यालय से बी. एल. की डिग्री प्राप्त की | अपनी शिक्षा पूरी कर लेने के उपरांत सन् १९१५ ई० में मुंगेर से वकालत की शुरुआत करते हुए समय के साथ वकालत के क्षेत्र में अपना अहम स्थान प्राप्त किया | इसी दौरान ये परिणय सूत्र में बंधे और दो बेटों, शिवशंकर सिंह और बन्दिशंकर सिंह का जन्म हुआ |

विद्यार्थी जीवन से ही डा० श्री कृष्ण सिंह के अन्दर राष्ट्र प्रेम की भावना एवं समाज सेवा कूट – कूट कर भरी थी और ये लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तथा श्री अरविन्द के विचारों से प्रभावित थे | महात्मा गाँधी से इनकी पहली व्यक्तिगत मुलाकात सन् १९११ ई० में हुई और गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर उनके अनुयायी बन गये |
नव बिहार के निर्माता बिहार केसरी डा० श्री कृष्ण एक महान शिल्पकार थे इन्होने अपनी अद्भुत कर्मठता और सच्चे लगन से राज्य की बहुमुखी विकास योजनाओं की आधारशिला रखने के साथ बिहार के नव निर्माण का उत्कृष्ट संकलन किया | सत्य और अहिंसा के सिद्धांत में आस्था रखने वाले श्री बाबू स्वतंत्रता - संग्राम के अग्रगण्य सेनानियों में से एक थे | इनका का सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र एवं जन - सेवा के लिये समर्पित था |

डा० श्रीकृष्ण सिंह ने पहली जेल यात्रा सन् १९११ ई० में ब्रिटेन के युवराज प्रिन्स ऑफ वेल्स की भारत-यात्रा के बहिष्कार-आंदोलन के क्रम में की थी । मार्च, १९११ ई० में विजयवाड़ा कांग्रेस के निर्णयानुसार तिलक स्वराज्य फंड के लिए एक करोड़ रूपया एकत्र करने का जब निश्चय किया गया तो बिहार प्रान्तीय कांग्रेस समिति द्वारा निर्मित तिलक स्वराज्य फंड के डा० श्रीकृष्ण सिंह संयोजक बनाये गये ।

श्री बाबु सन् १९१७ ई० में लेजिस्लेटिव कौंसिल तथा सन् १९३४ ई० में केन्द्रीय एसेम्बली के सदस्य मनोनीत किए गये । बिहार में स्वायत्त शासन की शुरवात श्री कृष्ण सिंह के बिहार प्रधानमंत्री पद के नेतृत्व में १ अप्रैल १९३७ को हुआ, यह वह तारीख थी जिस दिन सन् १९३१ ई० का भारतीय संविधान लागू हुआ था | ७३ वर्षीय श्री बाबु अपने जीवन के अंतिम घडी ३१ जनवरी १९६१ ई० तक सफलतापूर्वक समाज की सेवा में बने रहे | इन्होंने लगभग २४ वर्ष, १ अप्रैल १९३७ से २ अप्रैल १९४६ तक प्रधानमंत्री एवं २ अप्रैल १९४६ से ३१ जनवरी १९६१ तक मुख्यमंत्री के पद पर कार्यरत रहते हुए प्रदेश का मार्गदर्शन किया |

Tuesday 14 July 2015

Rakesh Mohan / Indian economist

Rakesh Mohan (born 1948) is an Indian economist and former Deputy Governor of Reserve Bank of India.He is the Vice Chairperson of Indian Institute for Human Settlements. He was appointed in November 2012 as an Executive Director of the IMF for a three-year term, and in April 2010, he joined Nestle India, as a non-executive director.
He remained an advisor to numerous ministries in Government of India, including industry, and finance, and later became an important part ofIndian economic reforms in the 1990s, and his report under the 'Rakesh Mohan Committee on Infrastructure', became a "landmark document in the evolution of thinking on economic policy issues".[5] He is the Professor in the Practice of International Economics of Finance, School of Management, and Senior Fellow, Jackson Institute or Global Affairs at Yale University and will shortly be taking over as India's Executive Director at the International Monetary Fund, Washington D.C., USA.


Mohan did his schooling from Mayo College, a boarding school in Rajasthan, followed by BSc (University of London) 1969; BA in Economics, Yale University 1971, M.A. in Economics, 1974 and PhD 1977 from Princeton University;


Mohan started his career in urban economics, 1974 to 1988. During this period, as a part of the World Bank's, City Study project, he studied the city of Bogota, Colombia, 1976–1980. He returned to India in 1980, where he first joined the Planning Commission as a senior consultant, while Manmohan Singh was also a member.
In 1985 according to the American Economic Association he was listed as "Economist" in the Philippines Division of the World Bank with research interests listed as "Economic policy and analysis of the Philippines".
He became the Deputy Governor, Reserve Bank of India (RBI) in September 2002 and moved to North Block in October 2004 as Secretary, Department of Economic Affairs and Chief Economic Advisor to the Finance Minister of India till July 2005, before returning to RBI, where he remained till June 2009,[7][8] when he took up an assignment at Stanford Center for International Development at Stanford University, US, and subsequently joined McKinsey and Co.'s economic research wing. In 2010 back in India from his project, he worked with Nandan Nilekani, Shirish Patel, Keshub Mahindra, Deepak Parekh, to set up Indian Institute for Human Settlements, in Delhi.
In April 2010, he joined the board of directors of Nestle India.
In November 2012, he joined IMF as executive director.In addition to India, Mohan will also represent three other countries including Bangladesh, Sri Lanka and Bhutan on the IMF board.[11]Also, he is on the advisory board of OMFIF where he is regularly involved in meetings regarding the financial and monetary system.

Bibliography

Saturday 11 July 2015

बिहार में जदयू के एक और विधायक गिरफ़्तार

सुनील पांडेय
बिहार में पुलिस ने शनिवार को जनता दल (यूनाइटेड) के विधायक नरेंद्र कुमार पांडेय उर्फ़ सुनील पांडेय को गिरफ़्तार कर लिया.
सुनील पांडेय पिछले एक महीने में गिरफ़्तार होने वाले जद (यू) के दूसरे विधायक हैं, इससे पहले विधायक अनंत कुमार सिंह को पिछले महीने गिरफ़्तार किया गया था.
सुनील भोजपुर ज़िले के तरारी से विधायक हैं. गिरफ़्तारी के बाद उन्हें आरा जेल में रखा गया है.
भोजपुर ज़िले के पुलिस अधीक्षक नवीन चंद्र झा ने विधायक की गिरफ़्तारी की पुष्टि की है.
पुलिस अधीक्षक ने बीबीसी को फोन पर बताया, ‘‘विधायक सुनील को आरा सिविल कोर्ट में हुए विस्फोट के मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया था. पुलिस को अब तक की जांच में जो साक्ष्य मिले हैं उनके आधार पर सुनील की गिरफ्तारी हुई है.’’

विस्फोट में मदद का आरोप

बिहार की राजधानी पटना से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर आरा सिविल कोर्ट में इस साल 23 जनवरी को बम विस्फोट हुआ था. इसमें एक पुलिसकर्मी सहित दो लोगों की मौत हो गई थी.
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जद (यू) के विधायक अनंत सिंह को पिछले महीने गिरफ़्तार किया गया था
विस्फोट के बाद दो क़ैदी फरार हुए थे जिसमें से एक लंबू शर्मा को पिछले महीने दिल्ली से गिरफ़्तार किया गया था.
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक लंबू ने गिरफ़्तारी के बाद दिल्ली पुलिस को यह बयान दिया था कि सुनील पांडेय ने इस विस्फोट में उसकी मदद की थी.

जनहित याचिका

मीडिया रिपोर्ट्स पर संज्ञान लेते हुए पटना हाई कोर्ट ने इसे जनहित याचिका में तब्दील कर दिया था.
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बिहार में विधानसभा चुनाव सितंबर-अक्टूबर में होने की संभावना है
गौरतलब है कि जनवरी में आरा कोर्ट परिसर में हुए विस्फोट के बाद भी पटना हाइकोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया था.
घटना के तुरंत बाद मुख्य न्यायाधीश एल नरसिम्हा रेड्डी ने खुद दौरा कर स्थिति की समीक्षा की थी.
इसके पहले 24 जून को मोकामा से जदयू विधायक अनंत कुमार सिंह को एक अपहरण के मामले में पटना में उनके सरकारी आवास से गिरफ़्तार किया गया था.

Wednesday 8 July 2015

भूमिहार वोट के पीछे क्यों पड़ी हैं पार्टियां ?

बिहार में आज भले ही दोनों गठबंधन जाति को बड़ा मुद्दा नहीं होने की बात कह रही है. लेकिन हकीकत ये है कि पूरा राजनीतिक ताना बाना एक बार फिर से जातियों के आसपास ही बुना जा रहा है. 2010 के चुनाव में जाति का भेदभाव विकास के सामने ढेर हो गया था. नतीजा हुआ कि उस चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 243 में से 206 सीटों पर जीत मिली. कोई भी पार्टी विपक्ष बनने के काबिल नहीं रह गई थी. ऐसा संभव इसलिए हुआ था क्योंकि तब जाति कोई चुनावी मुद्दा रह ही नह गया था. विकास के भूखे बिहार ने नीतीश में विश्वास जताया और रिकॉर्ड सीटें झोली में डाल दी.

लेकिन आज फिर बिहार में जाति की राजनीति की वापसी हो गई है. नेताओं की बयानबाजी, जातीय सम्मेलन, जातीय गोलबंदी, जाति के हिसाब से ट्रांसफर-पोस्टिंग, जाति के हिसाब से पद, कद और कार्रवाई. इतने सारे उदाहरण सामने हैं कि इस सच को झुठलाने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता.
नीतीश कुमार ने भले ही विकास की राजनीति की है. लेकिन उन्होंने अपनी राजनीति में जातीय समीकरण का ख्याल हर कदम पर रखा है. नब्बे के दशक में लालू की राजनीति के शिकार मास लेवल पर सवर्ण समुदाय के लोग हुए थे. इसमें भी भूमिहार समाज उनका पहला टारगेट था. यही वजह रही कि नीतीश के सत्ता में आने के बाद भूमिहारों का खास ख्याल रखा गया. ललन सिंह तब सिर्फ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नहीं थे. बल्कि बिहार की राजनीति उनके दरवाजे से होकर नीतीश तक पहुंचती थी. ललन सिंह जब नीतीश से दूर हुए तो विजय चौधरी ने वो जगह ली. आज भी विजय चौधरी सरकार में नीतीश के बाद नंबर टू की हैसियत रखते हैं. वकील से नेता बने पीके शाही को नीतीश ने न सिर्फ मंत्री बनाया बल्कि लाख विरोध के बाद भी सरकार में अहम जिम्मेदारी दी. बाद में भी नाराज ललन सिंह को पार्टी में लेकर आए और मंत्री तक बनाया. अभयानंद को राज्य का पुलिस प्रमुख बनाना भी इसी राजनीति का हिस्सा रहा है. चंद्र भूषण राय को भोजपुरी अकादमी का चेयरमैन बनाया गया. बाहुबलियों के सामने नतमस्तक होने की तस्वीर सालों से सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बनी हुई है.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि नीतीश आज भी भूमिहार वोटरों में अपना भरोसा तलाश रहे हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि लालू के साथ जाने को लेकर ये समाज नीतीश को पसंद नहीं कर रहा.
नीतीश भूमिहारों में भरोसा तलाश रहे हैं तो बीजेपी इसे अपना पारंपरिक वोट बैंक मानकर चल रही है. वैसे नीतीश की दिलचस्पी से बीजेपी के नेता भयभीत भी दिख रहे हैं. गिरिराज सिंह को केंद्र में मंत्री बनाना बीजेपी की भूमिहार रणनीति का हिस्सा ही तो है.
हाल ही में मुख्यमंत्री पद पर दावा करने वाला सीपी ठाकुर का बयान ऐसे ही सामने नहीं आया था. असल में बीजेपी को इस बात का डर तो है ही कि नीतीश की पार्टी विधानसभा चुनाव में अपने गठबंधन में वही रोल निभाने वाली है जो नीतीश के साथ गठबंधन में बीजेपी निभाती रही है. यानी सवर्णों की राजनीति तुम और पिछड़ों की हम.
लोकसभा चुनाव में गठबंधन टूटने का नतीजा ये हुआ कि न तो नीतीश के साथ पिछड़ी जाति के वोटर रहे और ना ही अगड़ों का साथ मिला. इसी के बाद से नीतीश की राजनीति की दिशा बदली. मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे मंशा ये थी कि महादलितों में जो उनका बेस है उसे फिर से साथ लाया जाए. लेकिन महालदित बेस वापस जुटाने की मुहिम मात खा गई मांझी की एंटी फॉरवार्ड पॉलिटिक्स से. नतीजा हुआ कि मांझी गए और नीतीश फिर से आए.
लोकसभा चुनाव में नीतीश ने 38 में से ( 2 सीटें लेफ्ट को ) सवर्णों को कुल 9 टिकट दिये थे. इनमें सबसे ज्यादा चार भूमिहारों को, 2 राजपूत 2 ब्राह्ण, 1 कायस्थ को टिकट मिला. एनडीए ने कुल 5 भूमिहारों को उम्मीदवार बनाया था. 3 बीजेपी से 1-1 पासवान और कुशवाहा की पार्टी से. बीजेपी के 1 उम्मीदवार को छोड़कर एनडीए के बाकी 4 भूमिहार उम्मीदवार जीते थे. इनमें से जहानाबाद और मुंगेर में मुकाबला भूमिहार उम्मीदवारों के बीच ही रहा.
जहां तक विधायकों की बात है तो 2010 के चुनाव में कुल 26 भूमिहार विधायक बने थे. इनमें से जेडीयू के 12 और बीजेपी से 14 विधायक जीते. फिलहाल उपचुनाव में दो विधायकों के जीतने और एक सीटिंग(अवनीश कुमार सिंह) के इस्तीफे के बाद आंकड़ा 27 का है अभी. जबकि 2005 में ये आंकड़ा 23 था. 1990 में लालू जब पहली बार सत्ता में आए तब बिहार में भूमिहार विधायकों की संख्या 34 थी. लेकिन 5 साल बाद 1995 में आंकड़ा 18 पर आ गया. और साल 2000 में सिर्फ 19 भूमिहार ही जीत पाए थे.
कहने का मतलब ये कि कभी बिहार की राजनीति के केंद्र में रहने वाले भूमिहार समुदाय की राजनीति का दौर लालू-राबड़ी राज में सिमट कर रह गया था. लेकिन नीतीश के आने के बाद भूमिहारों का ग्राफ बढ़ा है.
अभी तक की जो रणनीति है उसके हिसाब से तमाम भूमिहार बाहुबलियों का टिकट मिलना जेडीयू से तय माना जा रहा है. पार्टी के सूत्र बताते हैं कि जेल जाने के बाद भी अनंत सिंह मोकामा से लडेंगे. लालगंज से मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला, रुन्नी सैदपुर से राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी चौधरी, मटिहानी से बोगो सिंह, दरौंधा से अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह, एकमा से बाहुबली धूमल सिंह का जेडीयू से लड़ना फाइनल है.
तरारी से बाहुबली सुनील पांडे विधायक हैं . इस सीट से इस बार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्रभूषण राय भी दावेदारी जता रहे हैं . बीजेपी भी ज्यादातर सीटिंग भूमिहार विधायकों को टिकट देगी. लोक जन शक्ति पार्टी भी दलितों के बाद भूमिहार नेताओं पर ही ज्यादा से ज्यादा दांव लगाने वाली है. वोट बैंक के लिहाज से बिहार में इसकी आबादी महज पांच फीसदी के आसपास है. लेकिन इसका प्रभाव बारह से पंद्रह फीसदी वोट बैंक पर पड़ता है. धन और बाहुबल में भी समाज सबसे आगे है. यही वजह है कि जेडीयू और बीजेपी, दोनों गठबंधन इस वोट बैंक को साधने की तैयारी कर रही है.
राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती के बहाने पीएम का कार्यक्रम, बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती का कार्यक्रम या फिर आरएलएसपी के सांसद अरुण कुमार का नीतीश पर दिया गया छाती तोड़ने वाला बयान . इन सबके पीछे भूमिहार वोट को अपने पाले में करने की रणनीति हैं.
अनंत सिंह भले ही भूमिहारों के नेता नहीं हैं लेकिन उनके बहाने समाज को प्रताड़ित करने का आरोप लगाना एनडीए की उसी रणनीति का हिस्सा है जिसमें वो नीतीश को भूमिहार विरोधी साबित करना चाहता है. कमोबेश इस मुहिम में एनडीए को कामयाबी भी मिल रही है.
भूमिहार विधायक सुरेश शर्मा (बीजेपी) के कब्जे वाले मुजफ्फरपुर से पीएम का चुनावी शंखनाद करना भी इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है. लोकसभा चुनाव में भूमिहारों का वोट कमोबेश एकतरफा एनडीए को मिला था. भूमिहार राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ यानी तमाम सवर्णों की बात करें तो 78 फीसदी सवर्णों ने एनडीए उम्मीदवारों के पक्ष में वोट दिये थे. लालू के कार्यकाल में राजपूत समाज सत्ता के करीब था पर नीतीश के समय वो दूर रह गया. राजपूतों के एक बड़े तबके में नीतीश को लेकर खुन्नस है. लेकिन लालू (रघुवंश, प्रभुनाथ, जगदानंद) की वजह से लोकसभा चुनाव के वक्त जितने वोट मिले थे उतने इस बार भी मिल सकते हैं. बाकी वोट एनडीए को मिलेंगे.
वैसे इस भूमिहार पॉलिटिक्स के साइड इफेक्ट भी हैं. बीजेपी में जहां सुशील मोदी की निजी तौर पर पार्टी के भूमिहार नेताओं से पटती नहीं है वहीं सुशील मोदी खेमा भूमिहार नेताओं को पसंद नहीं करता. सुशील मोदी की वजह से ही बीजेपी के सबसे पुराने विधायकों में से एक अवनीश कुमार ने पार्टी छोड़ दी. बड़े नेता चंद्र मोहन राय ने लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया . 2010 के चुनाव में सीपी ठाकुर के लाख चाहने पर उनके बेटे विवेक को उम्मीदवारी नहीं मिली. ठाकुर को दोबारा अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया. गिरिराज सिंह बेगूसराय से लड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ नवादा लड़ने भेजा गया.

लोक जन शक्ति पार्टी में सूरजभान की छवि बाहुबली नेता की है. उनके चाहने वाले जितने लोगों को पार्टी टिकट देगी उनकी छवि को लेकर भी सवाल उठेंगे सो अलग. आरएलएसपी में भले ही भूमिहार जाति के अरुण कुमार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं. लेकिन इस पार्टी का उदय ही भूमिहार राजनीति के खिलाफ हुआ था.. कभी नीतीश के खास रहे उपेंद्र कुशवाहा जो कि आरएलएसपी के अध्यक्ष हैं वो चाहते थे कि सरकार और संगठन में उन्हें वही रुतबा मिले जो ललन सिंह को मिल रहा था. पर ऐसा हुआ नहीं. नतीजा जब जब ललन सिंह नीतीश के साथ रहे कुशवाहा ने अपना अलग कुनबा बनाया. अरुण कुमार भी इसी दोस्ती के सताए माने जाते हैं. नीतीश के सत्ता में आने के बाद कोइरी नेताओं को समस्या ये हो गई थी कि भूमिहार और कुर्मी से ज्यादा वोट होने के बाद भी उन्हें सरकार में वो रुतबा रुआब हासिल नहीं हो रहा था जो कथित तौर पर भूमिहार नेताओं को मिल रहा था. इन दिनों नीतीश के खिलाफ राजनीति करने वाले कुर्मी-कोइरी नेता अपने समाज में यही बात पेश कर रहे हैं. यही वजह रही कि उपेंद्र कुशवाहा, भगवान सिंह कुशवाहा, नागमणि, दिनेश प्रसाद जैसे बड़े कोइरी नेता एक एक कर नीतीश का साथ छोड़ते चले गए.
फिलहाल बिहार में भूमिहारों की राजनीति को ऐसे समझिए. सरकार में नंबर दो विजय चौधरी के जरिये नीतीश इस समाज की राजनीति कर रहे हैं. अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सह जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार के जरिये उपेंद्र कुशवाहा अपनी राजनीति कर रहे हैं. पासवान के पास बाहुबली राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सूरजभान हैं. कांग्रेस के पास पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह हैं. जॉर्ज के करीबी रहे डॉक्टर हरेंद्र कुमार के जरिये लालू इस समाज पर डोरे डाल रहे हैं. जहां तक बीजेपी का सवाल है तो केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर के जरिये इस समाज को साधने की कोशिश हो रही है.
वैशाली, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, लखीसराय, मुंगेर, जहानाबाद, नवादा जिलों के साथ ही पटना जिले के एक बड़े हिस्से में भूमिहार वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है. तिरहुत के इलाके से सबसे ज्यादा भूमिहार विधायक पिछली बार जीते थे. कोसी और मिथिला (1-1सीट छोड़कर ) के इलाके को छोड़ कर राज्य के हर हिस्से से पिछली बार भूमिहार विधायक जीते थे.

Tuesday 7 July 2015

Modi wants CBI to hand over sensitive division to officer with controversial past Arun Kumar Sharma's name has been associated with the Ishrat Jahan encounter killing as well as Snoopgate.

Modi wants CBI to hand over sensitive division to officer with controversial past
The Central Bureau of Investigation is under pressure to hand over its highly sensitive Policy Division to the Gujarat police official whose name featured in the Ishrat Jahan encounter as well as the case involving the alleged spying on a woman architect when Narendra Modi was the chief minister of the state, highly placed officials said.

Arun Kumar Sharma, an India Police Service officer from the 1987 batch, was transferred to the CBI as one of its joint directors in April. But he is yet to be given any charge.

According to highly placed officials, Prime Minister Narendra Modi has sent a clear signal to the CBI that Sharma should be given the charge of the Policy Division. But CBI director Anil Sinha, who is opposed to the idea, has refused to do this.

The CBI insiders see in Modi’s move an attempt to establish a direct channel with the supposedly autonomous investigative agency. “For a Prime Minister who has established his own direct link in different ministries through the secretary and joint secretary level officials bypassing ministers, it is only natural to try opening up a direct channel with the CBI bypassing its director,” said a CBI official.

Key functions

The Policy Division deals with all matters relating to policy, organisation, vigilance and security in the CBI, correspondence and liaison with the Prime Minister’s Office and government ministries, and implementing special programmes related to vigilance and anti-corruption. It is so important that the joint director in charge of this division is seen as the number two in the investigative agency. The JDP, as the joint director in-charge of the Policy Division is referred to, participates in high-level meetings with government ministries along with the CBI director.

At present, this division is under CBI joint director RS Bhatti, an IPS officer of the 1990 batch.  Both CBI Director Anil Sinha and Bhatti belong to the Bihar cadre.

“The Policy Division is so significant that only a joint director with some experience in the agency gets charge of it,” a senior CBI official said. "Sharma has never been to the CBI. Besides, his name has cropped up in some controversial cases. Questions would be raised if he is put in charge of the Policy Division."

Encounter case

Sharma’s name had appeared on a CD purporting to contain details of discussions between top Gujarat leaders and police officials to derail the investigations into the Gujarat police killing of Mumbai college student Ishrat Jahan in 2004. They claimed that she and the three men shot dead with her were on their way to Gujarat to kill Modi. The CD, which was submitted to the CBI by chargesheeted police officer GL Singhal, contained details of a meeting between Modi’s personal secretary GC Murmu, Sharma and a few other Gujarat ministers and policemen.

Sharma also featured in the claimed operation to illegally snoop on a young woman architect from Bangalore in 2009. The snooping had reportedly been ordered by minister of state for home Amit Shah for his “saheb”. Neither Amit Shah nor any of the police officials involved in the snooping operation has come out to explain who this “sahib” is.

According to a senior BJP official in Gujarat, Sharma was very close to Modi when he was the state chief minister. Before being appointed as the CBI joint director in April, he headed Ahmadabad Detection of Crime Branch as special commissioner, a post created for the first time.

Thursday 2 July 2015

किसान आंदोलन के प्रणोता @केसी त्यागी

आज तक किसानों को देश की सियासत में वह भागीदारी नहीं मिली है, जिसके वे हकदार हैं. आज कृषि और किसान हित दोनों ही राजनीतिक एजेंडे से बाहर हैं. किसानों के नेतृत्व के मुद्दे पर देश में राजनीति और वोट लेने के बाद हशिये पर धकेल देने की परंपरा जारी है. कभी सेज तो अब भूमि अधिग्रहण बिल लाकर किसानों को कमजोर करने और उनको खेती छोड़ने पर मजबूर करने का खेल चल रहा है. इसलिए किसान आत्महत्या को मजबूर है.
 
आज स्वामी सहजानंद सरस्वती जी की पुण्यतिथि है. गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह के सफल प्रयोग के बाद देश की बड़ी आबादी के आर्थिक प्रश्नों पर आंदोलित एवं संगठित करने का कार्य सबसे ज्यादा उन्हीं के नाम लिखा हुआ है. तब किसानों की समाजार्थिक स्थिति सोचनीय थी. मुट्ठी भर लोगों के हाथ में ही उत्पादन के साधन थे. किसान-श्रमिक अर्धगुलामी की अवस्था में जी रहे थे. ऐसे समय में उन्होंने भारत में संगठित किसान आंदोलन खड़ा किया. उन्होंने अंगरेजी दासता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और किसानों को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराने के लिए निर्णायक संघर्ष किया.
 
गांधी के चंपारण सत्याग्रह एवं किसानों के गांधी कहे जानेवाले स्वामी सहजानंद सरस्वती का काल खंड एक साथ रहा. जब गांधीजी का आगमन बिहार के चंपारण में हुआ, तो वही वह समय था जब सहजानंद सरस्वती जी भूमिहीनों, किसानों के लिए अलख जगाये हुए थे. उच्च वर्ग में पैदा हुए उन्होंने हमेशा केवल भूमिहीनों एवं किसानों के लिए संघर्ष किया. कांग्रेस में जो किसानों के प्रति लचीलापन आया, वह भी स्वामी जी के विचार के कारण था. 1917 में जारशाही से मुक्ति के बाद रूस की क्रांति और लेनिन के विचारों से वह प्रभावित थे.
 
5 दिसंबर, 1920 में पटना में मौलाना मजहरुलहक के आवास पर गांधीजी की उनकी पहली मुलाकात ने उनके जीवन को बदल दिया और वह मौलाना आजाद एवं गांधीजी के व्याख्यानों से प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल हो गये. स्वामी जी वहीं से नागपुर कांग्रेस में चले गये और वहां से लौट कर 1921 में बक्सर चले गये. उस समय जब कांग्रेस ने कौंसिलों के बायकाट का निश्चय किया, तो हथुवा के महाराज कौंसिल के लिए खड़े हुए. कांग्रेस के लोगों ने एक अनपढ़ धोबी को उनके खिलाफ खड़ा किया, स्वामी जी ने सभा में कहा ‘राजा महाराजा से हमारा धोबी बहुत अच्छा है.’ धोबी हथुवा महाराज को हरा कर चुनाव जीत गया.
 
सामंतों एवं जमींदारों के अत्याचार को भीतर से देख कर स्वामी जी अंदर से इस सामंतवाद के खिलाफ होने लगे. उन्हें लगने लगा कि मुठ्ठी भर जमींदारों, राजा-महाराजों के अलावा पूरी जनता भूमिहीन किसान है और इन दोनों के हित एक-दूसरे के खिलाफ हैं.
 
उन्होंने 1927 में पश्चिम पटना किसान सभा बनायी. उनका विश्वास था किसानों के मजबूत हुए बिना जमींदार उनका सहयोग नहीं करेंगे. 1929 आते-आते स्वामी जी का कद काफी बढ़ा. 17 नवंबर, 1929 को प्रांतीय किसान सभा हुई, जिसके सभापति स्वामी जी थे. इस सभा में मंत्री बाबू कृष्ण सिंह, बाबू राजेंद्र प्रसाद, बाबू ब्रिज किशोर प्रसाद, बाबू रामदयालु सिंह, बाबू अनुग्रहनारायण सिंह आदि कांग्रेस के प्रमुख नेता थे.
 
अप्रैल,1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और स्वामी जी को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया. एमजी रंगा, इएमएस नंबूदरीपाद,पंडित कार्यानंद शर्मा,पंडित यमुना कार्यजी, आचार्य नरेंद्र देव,राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया,जेपी नारायण,पंडित यदुनंदन शर्मा,पीसुंदरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े. सभा ने उसी साल किसान घोषणापत्र जारी कर जमींदारी प्रथा के समग्र उन्मूलन और किसानों के सभी कर्ज माफ करने की मांग उठायी. अक्तूबर 1937 में सभा ने लाल झंडा को संगठन का निशान घोषित किया.
 
इस दौरान स्वामी जी के नेतृत्व में किसान रैलियों में जुटनेवाली भीड़ कांग्रेस की सभाओं में आनेवाली भीड़ से कई गुना ज्यादा होती लगी. संगठन की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसकी सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी, जो 1938 में बढ़ कर दो लाख पचास हजार हो गयी. शायद इसीलिए इसके नेताओं की कांग्रेस से दूरियां बढ़ गयी. किसान आंदोलन के संचालन के लिए पटना के समीप बिहटा में उन्होंने आश्रम स्थापित किया.
 
किसान को अधिकार दिलाने और उन्हें संगठित करने के लिए आजीवन सक्रिय रहे स्वामी सहजानंद ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कई रैलियां की. सीपीआइ भी स्वामीजी को अपना आदर्श मानती रही. आजादी की लड़ाई के दौरान जब उनकी गिरफ्तारी हुई, तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया.
 
स्वामी सहजानंद संघर्ष के साथ हीं सृजन के भी प्रतीक पुरुष थे. उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकों की रचना की. सामाजिक व्यवस्था पर जहां उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति जैसी पुस्तकें हिंदी में लिखी, वहीं ब्रह्मर्षि वंश विस्तर और कर्मकलाप नामक दो ग्रंथों का प्रणयन संस्कृत और हिंदी में किया. उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष के नाम से प्रकाशित है.
 
आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन के संघर्षो की दास्तान उनकी- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी जैसी पुस्तकें लिख कर अपने अनुभव साझा किये.
 
स्वामी जी आध्यात्मिकता के भी प्रतीक पुरुष थे. वह किसानों के रहनुमा के साथ संन्यासी के रूप में भी प्रसिद्ध रहे. पढ़ाई के दौरान ही कम उम्र में आध्यात्म उन्हें आकर्षित करने लगा. जिसको देखते हुए परिजनों ने उनकी शादी करा दी. 
 
परंतु पत्नी की मृत्यु के एक साल बाद ही काशी चले गये. शंकराचार्य जी की परंपरा के अनुसार दंडी स्वामी अद्वैतानंद जी से दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बन गये. भारत भर तीर्थो के भ्रमण कर पुन: काशी पहुंच कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने.
जीवनभर किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी सहजानंद सरस्वती26जून, 1950को महाप्रयाण कर गये.
 
लेकिन उससे पहले स्वामी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जिसका हक छीना जाये या छिन गया हो, उसे तैयार करके उसका हक उसे वापस दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी की लड़ाई और असली समाजसेवा का रहस्य है. लेकिन आज इस दौर में किसानों की जो दुर्दशा है, वह किसी से छिपी नहीं है, चाहे वह प्रकृति हो या सरकार. उसका शोषण पहले की तरह जारी है. कहने को तो यह देश किसानों का है और देश की एक बड़ी आबादी की जीविका का आधार भी खेती है.
 
लेकिन दु:खद है कि आज तक किसानों को देश की सियासत में वह भागीदारी नहीं मिली है, जिसके वे हकदार हैं. आज कृषि और किसान हित दोनों ही राजनीतिक एजेंडे से बाहर हैं. किसानों के नेतृत्व के मुद्दे पर केवल देश में राजनीति और वोट लेने के बाद हशिये पर धकेल देने की परंपरा जारी है.
 
कभी सेज तो अब भूमि अधिग्रहण बिल लाकर किसानों को कमजोर करने और उनको खेती छोड़ने पर मजबूर करने का खेल चल रहा है. इसलिए किसान आत्महत्या करने को मजबूर है. आज यदि स्वामी जी होते, तो फिर लट्ठ उठा कर हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर देते. लेकिन दुर्भाग्य से किसान सभा भी है. उनके नाम पर अनेक संघ और संगठन सक्रिय हैं, लेकिन स्वामी जी जैसा निर्भीक नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता.