Saturday 21 May 2016

भूमिहार वंश

वैसे तो भूमिहार वंश की उत्पत्ति के सबन्ध के इतिहास को प्राचीन किंवदन्तियों के आधार पर अनेक विद्वानों ने लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। ऎसा माना जाता है कि भगवान परशुराम जी ने क्षत्रियों को पराजित कर जो ज़मीन थी, उसे ब्राह्मणों को दे दिया, जिसके बाद ब्राह्मणों ने पूजा-पाठ का परम्परागत पेशा छोड़ जमींदारी शुरू कर दी और बाद में युद्ध में प्रवीनता भी हासिल कर ली थी। ये ब्राह्मण ही भूमिहार ब्राह्मण कहलाये। और तभी से परशुराम जी को भूमिहारो का जनक और भूमिहार-ब्राह्मण वंश का प्रथम सदस्य माना जाता है।
भूमिहार या बाभन (अयाचक ब्राह्मण) एक ऐसी सवर्ण जाति है जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। बिहार, पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं झारखण्ड में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्रहामणों को से जाना व पहचाना जाता हैं। मगध के महान पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही ब्राह्मण राजवंश भूमिहार ब्राह्मण (बाभन) के थे भूमिहार ब्राह्मण भगवन परशुराम को प्राचीन समय से अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते है
भूमिहार ब्राह्मण समाज में उपाधिय है भूमिहार, पाण्डेय, तिवारी/त्रिपाठी, मिश्र ,शुक्ल ,उपाध्यय ,शर्मा, ओझा ,दुबे\द्विवेदी इसके अलावा राजपाट और ज़मींदारी के कारन एक बड़ा भाग भूमिहार ब्राह्मण का राय ,शाही ,सिंह, उत्तर प्रदेश में और शाही , सिंह (सिन्हा) , चौधरी (मैथिल से ) ,ठाकुर (मैथिल से ) बिहार में लिखने लगा
भूमिहार ब्राह्मण कुछ जगह प्राचीन समय से पुरोहिती करते चले आ रहे है अनुसंधान करने पर पता लगा कि प्रयाग की त्रिवेणी के सभी पंडे भूमिहार ही तो हैं।हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार ब्राह्मण, राजपूत,बंदौत , कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्ष से करते चले आ रहे हैं और गजरौला, ताँसीपुर के त्यागी राजपूतों की यही इनका पेशा है। गया के देव के सूर्यमंदिर के पुजारी भूमिहार ब्राह्मण ही मिले। हलाकि गया के देव के सूर्यमंदिर का बड़ा हिसा सकद्विपियो को बेचा जा चूका है
बनारस राज्य भूमिहार ब्राह्म्णों के अधिपत्य में 1725-1947 तक रहा | इसके अलावा कुछ अन्य बड़े राज्य बेतिया,हथुवा,टिकारी,तमकुही,लालगोला इत्यादि भी भूमिहार ब्राह्म्णों के अधिपत्य में रहे | बनारस के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने अंग्रेज वारेन हेस्टिंग और अंग्रेजी सेना की ईट से ईट बजा दी थी | 1857 में हथुवा के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने अंग्रेजो के खिलाफ सर्वप्रथम बगावत की |
अनापुर राज अमावा राज. बभनगावां राज भरतपुरा धरहरा राज शिवहर मकसुदपुर राज औसानगंज राज नरहन स्टेट जोगनी एस्टेट पर्सागढ़ एस्टेट (छपरा ) गोरिया कोठी एस्टेट (सिवान ) रूपवाली एस्टेट जैतपुर एस्टेट हरदी एस्टेट ऐनखाओं जमींदारी ऐशगंज जमींदारी भेलावर गढ़ आगापुर स्टेट पैनाल गढ़ लट्टा गढ़ कयाल गढ़ रामनगर जमींदारी रोहुआ एस्टेट राजगोला जमींदारी पंडुई राज केवटगामा जमींदारी घोसी एस्टेट परिहंस एस्टेट धरहरा एस्टेट रंधर एस्टेट अनापुर एस्टेट ( इलाहाबाद) चैनपुर मंझा मकसूदपुर रुसी खैरअ मधुबनी नवगढ़ - भूमिहार से सम्बंधित है असुराह एस्टेट कयाल औरंगाबाद में बाबु अमौना तिलकपुर ,शेखपुरा स्टेट जहानाबाद में तुरुक तेलपा स्टेट क्षेओतर गया बारों एस्टेट (इलाहाबाद) पिपरा कोय्ही एस्टेट (मोतिहारी) इत्यादि ये सभी अब इतिहास के गोद में समां चुके है |
दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती (जुझौतिया ब्राह्मण,भूमिहार ब्राह्मण,किसान आंदोलन के जनक),बैकुन्ठ शुक्ल (१४ मई १९३४ को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा फासी),यमुना कर्जी,शील भद्र याजी ,मंगल पांडे १८५७ के क्रांति वीर,कर्यनन्द शर्मा,योगेन्द्र शुक्ल,चंद्रमा सिंह,राम बिनोद सिंह,राम नंदन मिश्र,यमुना प्रसाद त्रिपाठी, महावीर त्यागी,राज नरायण,रामवृक्ष बेनीपुरी,अलगू राय शास्त्री,राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर,राहुल सांस्कृत्यायन,बनारस के राजा चैत सिंह ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह किया वारेन हेस्टिंग और अंग्रेजी सेना को धूल चटाई ,देवीपद चौधरी,राज कुमार शुक्ल (चम्पारण आंदोलन कि शुरुवात की),फ़तेह बहादुर शाही हथुवा के राजा १८५७ में अंग्रेजो के खिलाफ सर्व प्रथम विद्रोह किया,काशी नरेश द्वारा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए कई हज़ार एक्कड़ का भूमि दान ,योगेंद्र नारायण राय लालगोला(मुर्शिदाबाद) के राजा अपने दान व परोपकारी कार्यो के लिए प्रसिद्ध, इत्यादि महान व्यक्तित्व भूमिहार ब्राह्मण से थे
भूमिहार ब्राह्मण भगवन परशुराम को प्राचीन समय से अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते है-
१. एम.ए. शेरिंग ने १८७२ में अपनी पुस्तक Hindu Tribes & Cast में कहा है कि, "भूमिहार जाति के लोग हथियार उठाने वाले ब्राहमण हैं (सैनिक ब्राह्मण)।"
२. अंग्रेज विद्वान मि. बीन्स ने लिखा है - "भूमिहार एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमे आर्य जाति की सभी विशिष्टताएं विद्यमान है। ये स्वाभाव से निर्भीक व हावी होने वालें होते हैं।"
३. पंडित अयोध्या प्रसाद ने अपनी पुस्तक "वप्रोत्तम परिचय" में भूमिहार को- भूमि की माला या शोभा बढ़ाने वाला, अपने महत्वपूर्ण गुणों तथा लोकहितकारी कार्यों से भूमंडल को शुशोभित करने वाला, समाज के हृदयस्थल पर सदा विराजमान- सर्वप्रिय ब्राह्मण कहा है।
४. विद्वान योगेन्द्र नाथ भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक हिन्दू कास्ट & सेक्ट्स में लिखा है की भूमिहार ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति का पता उनके नाम से ही लग जाता है, जिसका अर्थ है भूमिग्राही ब्राह्मण। पंडित नागानंद वात्स्यायन द्वारा लिखी गई पुस्तक - " भूमिहार ब्राह्मण इतिहास के दर्पण में "
" भूमिहारो का संगठन जाति के रूप में "
भूमिहार ब्राह्मण जाति ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अयाचक लोगो का एक संगठन ही है. प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगो को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया,उसके बाद सारस्वत,महियल,सरयूपारी,मैथिल,चितपावन,कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए.मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए.
भूमिहार ब्राह्मण के कुछ मूलों ( कूरी ) के लोगो का भूमिहार ब्राह्मण में संगठित होने की एक सूची यहाँ दी जा रही है :
१. कान्यकुब्ज शाखा से :- दोनवार ,सकरवार,किन्वार, ततिहा , ननहुलिया, वंशवार के तिवारी, कुढ़ानिया, दसिकर, आदि.
२. सरयू नदी के तट पर बसने वाले से : - गौतम, कोल्हा (कश्यप), नैनीजोर के तिवारी , पूसारोड (दरभंगा) खीरी से आये पराशर गोत्री पांडे, मुजफ्फरपुर में मथुरापुर के गर्ग गोत्री शुक्ल, गाजीपुर के भारद्वाजी, मचियाओं और खोर के पांडे, म्लाओं के सांकृत गोत्री पांडे, इलाहबाद के वत्स गोत्री गाना मिश्र ,आदि.
३. मैथिल शाखा से : - मैथिल शाखा से बिहार में बसने वाले कई मूल के भूमिहार ब्राह्मण आये हैं.इनमे सवर्ण गोत्री बेमुवार और शांडिल्य गोत्री दिघवय - दिघ्वैत और दिघ्वय संदलपुर, बहादुरपुर के चौधरी प्रमुख है. (चौधरी, राय, ठाकुर, सिंह मुख्यतः मैथिल ही प्रयोग करते है )
४. महियालो से : - महियालो की बाली शाखा के पराशर गोत्री ब्राह्मण पंडित जगनाथ दीक्षित छपरा (बिहार) में एकसार स्थान पर बस गए. एकसार में प्रथम वास करने से वैशाली, मुजफ्फरपुर, चैनपुर, समस्तीपुर, छपरा, परसगढ़, सुरसंड, गौरैया कोठी, गमिरार, बहलालपुर , आदि गाँव में बसे हुए पराशर गोत्री एक्सरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण हो गए.
५. चित्पावन से : - न्याय भट्ट नामक चितपावन ब्राह्मण सपरिवार श्राध हेतु गया कभी पूर्व काल में आये थे.अयाचक ब्रह्मण होने से इन्होने अपनी पोती का विवाह मगध के इक्किल परगने में वत्स गोत्री दोनवार के पुत्र उदय भान पांडे से कर दिया और भूमिहार ब्राह्मण हो गए.पटना डाल्टनगंज रोड पर धरहरा,भरतपुर आदि कई गाँव में तथा दुमका,भोजपुर,रोहतास के कई गाँव में ये चित्पवानिया मूल के कौन्डिल्य गोत्री अथर्व भूमिहार ब्राह्मण रहते हैं
भूमिपति ब्राह्मणों के लिए पहले जमींदार ब्राह्मण शब्द का प्रयोग होता था..याचक ब्राह्मणों के एक दल ने ने विचार किया की जमींदार तो सभी जातियों को कह सकते हैं,फिर हममे और जमीन वाली जातियों में क्या फर्क रह जाएगा.काफी विचार विमर्श के बाद " भूमिहार " शब्द अस्तित्व में आया." भूमिहार ब्राह्मण " शब्द के प्रचलित होने की कथा भी बहुत रोचक है।
बनारस के महाराज ईश्वरी प्रसाद सिंह ने १८८५ में बिहार और उत्तर प्रदेश के जमींदार ब्राह्मणों की एक सभा बुलाकर प्रस्ताव रखा की हमारी एक जातीय सभा होनी चाहिए.सभा बनाने के प्रश्न पर सभी सहमत थे.परन्तु सभा का नाम क्या हो इस पर बहुत ही विवाद उत्पन्न हो गया.मगध के बाभनो ने जिनके नेता स्व.कालीचरण सिंह जी थे ,सभा का नाम " बाभन सभा " करने का प्रस्ताव रखा.स्वयं महराज "भूमिहार ब्राह्मण सभा " के पक्ष में थे.बैठक मैं आम राय नहीं बन पाई,अतः नाम पर विचार करने हेतु एक उपसमिति गठित की गई.सात वर्षो के बाद समिति की सिफारिश पर " भूमिहार ब्राह्मण " शब्द को स्वीकृत किया गया और साथ ही साथ इस शब्द के प्रचार व् प्रसार का काम भी हाथ में लिया गया.इसी वर्ष महाराज बनारस तथा स्व.लंगट सिंह जी के सहयोग से मुजफ्फरपुर में एक कालेज खोला गया.बाद में तिरहुत कमिश्नरी के कमिश्नर का नाम जोड़कर इसे जी.बी.बी. कालेज के नाम से पुकारा गया.आज वही कालेज लंगट सिंह कालेज के नाम से प्रसिद्द है।
भूमिहार ब्राह्मणों के इतिहास को पढने से पता चलता है की अधिकांश समाजशास्त्रियों ने भूमिहार ब्राह्मणों को कान्यकुब्ज की शाखा माना है.भूमिहार ब्राह्मन का मूलस्थान मदारपुर है जो कानपुर - फरूखाबाद की सीमा पर बिल्हौर स्टेशन के पास है..१५२८ में बाबर ने मदारपुर पर अचानक आक्रमण कर दिया.इस भीषण युद्ध में वहा के ब्राह्मणों सहित सबलोग मार डाले गए.इस हत्याकांड से किसी प्रकार अनंतराम ब्राह्मण की पत्नी बच निकली थी जो बाद में एक बालक को जन्म दे कर इस लोक से चली गई.इस बालक का नाम गर्भू तेवारी रखा गया.गर्भू तेवारी के खानदान के लोग कान्यकुब्ज प्रदेश के अनेक गाँव में बसते है.कालांतर में इनके वंशज उत्तर प्रदेश तथा बिहार के विभिन्न गाँव में बस गए.गर्भू तेवारी के वंशज भूमिहार ब्रह्मण कहलाये .इनसे वैवाहिक संपर्क रखने वाले समस्त ब्राह्मण कालांतर में भूमिहार ब्राह्मण कहलाये
अंग्रेजो ने यहाँ के सामाजिक स्तर का गहन अध्ययन कर अपने गजेतिअरों एवं अन्य पुस्तकों में भूमिहारो के उपवर्गों का उल्लेख किया है गढ़वाल काल के बाद मुसलमानों से त्रस्त भूमिहार ब्राह्मन ने जब कान्यकुब्ज क्षेत्र से पूर्व की ओर पलायन प्रारंभ किया और अपनी सुविधानुसार यत्र तत्र बस गए तो अनेक उपवर्गों के नाम से संबोधित होने लगे,यथा - ड्रोनवार ,गौतम,कान्यकुब्ज,जेथारिया आदि.अनेक कारणों,अनेक रीतियों से उपवर्गों का नामकरण किया गया.कुछ लोगो ने अपने आदि पुरुष से अपना नामकरण किया और कुछ लोगो ने गोत्र से.कुछ का नामकरण उनके स्थान से हुवा जैसे - सोनभद्र नदी के किनारे रहने वालो का नाम सोन भरिया, सरस्वती नदी के किनारे वाले सर्वारिया,,सरयू नदी के पार वाले सरयूपारी,आदि.मूलडीह के नाम पर भी कुछ लोगो का नामकरण हुआ जैसे,जेथारिया,हीरापुर पण्डे,वेलौचे,मचैया पाण्डे,कुसुमि तेवरी,ब्र्हम्पुरिये ,दीक्षित ,जुझौतिया ,आदि।
पिपरा के मिसिर ,सोहगौरा के तिवारी ,हिरापुरी पांडे, घोर्नर के तिवारी ,माम्खोर के शुक्ल,भरसी मिश्र,हस्त्गामे के पांडे,नैनीजोर के तिवारी ,गाना के मिश्र ,मचैया के पांडे,दुमतिकार तिवारी ,आदि.भूमिहार ब्राह्मन में हैं. " वे ही ब्राह्मण भूमि का मालिक होने से भूमिहार कहलाने लगे और भूमिहारों को अपने में लेते हुए भूमिहार लोग पूर्व में कनौजिया से मिल जाते हैं
भूमिहारो में आपसी भाईचारा और एकता होती है। भूमिहार अंतर्विवाही है और जाती में ही विवाह करते है। पहले वर्ष के अंत में माता काली की पूजा करना, गरीबों और शरणागतों को भोजन करना और वस्त्र बाटना भूमिहारो के बहुत से गावों में एक प्रथा थी। भूमिहार को भूमि दान में मिलती थी। और स्वयं भी तलवार के दम पर भूमिहारो ने भूमि अर्जित की है। कृषि कर्म भूमिहारो का पेशा था। आज भूमिहार हर क्षेत्र में अग्रणीय है। ब्राह्मण होने के कारण भूमिहार स्वयं हल नहीं जोतते है।
१. सर्वप्रथम १८८५ में ऋषिकुल भूषण काशी नरेश महाराज श्री इश्वरी प्रसाद सिंह जी ने वाराणसी में अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा की स्थापना की.
२. १८८५ में अखिल भारतीय त्यागी महासभा की स्थापना मेरठ में हुई.
३. १८९० में मोहियल सभा की स्थापना हुई.
४. १९१३ में स्वामी सहजानंद जी ने बलिया में आयोजित
५. १९२६ में पटना में अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता चौधरी रघुवीर नारायण सिंह त्यागी ने की.
६. १९२७ में प्रथम याचक ब्राह्मण सम्मलेन की अध्यक्षता सर गणेश दत्त ने की.
७. १९२७ में मेरठ में ही अखिल भारतीय त्यागी महासभा की अध्यक्षता राय बहादुर जगदेव राय ने की.
८. १९२६-२७ में अपने अधिवेशन में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों ने प्रस्ताव पारित कर भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग घोषित करते हुए अपने समाज के गठन में सम्मलित होने का निमंत्रण दिया.
९. १९२९ में सारस्वत ब्राह्मण महासभा ने भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग मानते हुए अनेक प्रतिनिधियों को अपने संगठन का सदस्य बनाया.
१०. १९४५ में बेतिया (बिहार) में अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता डा.बी.एस.पूंजे (चित्पावन ब्राह्मण) ने की.
११. १९६८ में श्री सूर्य नारायण सिंह (बनारस ) के प्रयास से ब्रहामर्शी सेवा समिति का गठन हुआ.और इश वर्ष रोहनिया में एक अधिवेशन पंडित अनंत शास्त्री फडके (चित्पावन ) की अध्यक्षता में हुआ.
१२. १९७५ में लक्नाऊ में भूमेश्वर समाज तथा कानपूर में भूमिहार ब्राह्मण समाज की स्थापना हुई.
१३. १९७९ में अखिल भारतीय ब्रह्मर्षि परिषद् का गठन हुआ.
१४. ८ मार्च १९८१ गोरखपुर में भूमिहार ब्राह्मण समाज का गठन
१५. २३ अक्टूबर १९८४ में गाजीपुर में प्रांतीय भुमेश्वर समाज का अधिवेशन जिसकी अध्यक्षता श्री मथुरा राय ने की.डा.रघुनाथ सिंह जी ने इस सम्मलेन का उदघाटन किया.
१६. १८८९ में अल्लाहाबाद में भूमेश्वर समाज की स्थापना हुई

प्रसिद्ध लेखक, समाजवादी विचारक और चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा

प्रसिद्ध लेखक, समाजवादी विचारक और चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा बिहार के एक राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखते हैं. सिन्हा छोटी उम्र से ही समाज को लेकर अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सचेत थे. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय नवीं कक्षा में पढ़ाई करने के दौरान ही वे उसका हिस्सा बन चुके थे. उन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लिया और राम मनोहर लोहिया के साथ भी काम किया, फिर जेपी आंदोलन का भी हिस्सा रहे. कुछ समय उन्होंने मुंबई में एक खलासी के रूप में भी काम किया. पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाले सिन्हा ने विभिन्न विषयों पर कई किताबें और अनेक लेख लिखे हैं. बिहार पर केंद्रित, केंद्र और राज्य संबंधों पर लिखी हुई इनकी किताब ‘द इंटरनल कॉलोनी : ए स्टडी इन रीजनल एक्सप्लॉयटेशन’ काफी चर्चित रही. वहीं कृषि और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को उन्होंने ‘द बिटर हार्वेस्ट: एग्रीकल्चर ऐंड इकोनॉमिक क्राइसिस’ में दर्ज किया. ‘सोशलिज्म ऐंड पावर’ लिखने के बाद उन्हें एक राजनीतिक विचारक के रूप में भी पहचान मिली. आपातकाल के समय सिन्हा दिल्ली में ही थे. आपातकाल को एक आम नागरिक की स्वतंत्रता पर हमला मानने वाले सिन्हा ने उन अनुभवों को ‘इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव : रिप्रीव ऐंड चैलेंज’ नाम की किताब की शक्ल दी. सिन्हा अहिंसा में विश्वास करते हैं और गांधी जी का यह प्रभाव उनकी किताब ‘द अनआर्म्ड प्रोफेट’ में दिखता है.88 साल की उम्र में मुजफ्फरपुर (बिहार) के मणिका गांव में एक साधारण जिंदगी गुजार रहे सच्चिदानंद सिन्हा से बातचीत. देश में इन दिनों राष्ट्रवाद का हो-हल्ला कुछ ज्यादा ही मचा हुआ है. आपने इस बारे में सुना और पढ़ा ही होगा लेकिन इस विषय पर कुछ कहा नहीं. क्या सोचते हैं आप?
इस विषय को अगर प्रचलित तौर-तरीकों से समझने की कोशिश करेंगे तो पता चलेगा कि यह शब्द ‘फलां’ के आ जाने से उछला और बढ़ा है. हालांकि मैं इसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखता हूं. यह कोई नई बात नहीं है. 18वीं सदी में इंग्लैंड में जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई, तब यह शब्द उछला था. यूरोप में पांचवीं-छठी सदी में फॉल्करवॉन्डरुंग (लोगों का पलायन) नाम का आदिवासी आंदोलन हुआ था, जिसके बाद सभी आदिवासी बिखर गए थे. राज्यों की तरह अलग-अलग रहने लगे थे. इसका असर यूरोप में था. यही कारण था कि यूरोप में पहले कोई भी राजा, कहीं का राजा बन सकता था. फ्रांस का राजा किसी दूसरे देश का भी राजा बन सकता था. लेकिन 18वीं सदी में जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई तो राष्ट्रवाद जैसी अवधारणा सामने आई. इसका मकसद कर आदि से बचाना था. नतीजा यह हुआ था कि स्कॉटलैंड, उरुग्वे, इंग्लैंड जैसे कई देश आपस में मिलकर ग्रेट ब्रिटेन बन गए थे. लेकिन जिस ब्रिटेन से इस राष्ट्रवाद की बात चली थी वहां हाल और हालात बदल चुके हैं. अब तो स्कॉटलैंड में एक स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी है, जो इसी आधार पर चुनाव लड़ती है कि वह चुनाव जीती और उसकी सरकार आई तो वह स्कॉटलैंड को एक अलग देश बनाएगी और लोग उसका समर्थन भी करते हैं. ये बातें तो आपने वैश्विक परिवेश में कहीं लेकिन भारत में अचानक यह शब्द उफान मारने लगा है और इसका रूप-स्वरूप अलग है. इस पर क्या कहेंगे?
सतही तौर पर देखेंगे तो इसके केंद्र में मोदी दिखेंगे, भाजपा दिखेगी, राजनीति दिखेगी लेकिन ये परिधि भर हैं. केंद्र कुछ और है. ये सब तो हथियार और औजार भर हैं. राष्ट्रवाद की जरूरत हमेशा से पूंजीवादियों को रही है. उन्हें एक राष्ट्र ज्यादा सूट करता है. इसकी वजह भी है. अब एक इंडस्ट्री लगाने के लिए कोयला एक राज्य से चाहिए, बिजली का कारखाना किसी दूसरे राज्य में लगता है, लौह अयस्क कहीं और से चाहिए और कुछ दूसरी चीजें किसी अन्य राज्य से. इसके लिए जंगल उजाड़ने होते हैं, नदियों को खत्म करना होता है, आदिवासियों के गांव उजाड़ने होते हैं. यह सब अलग-अलग खंड में बंटे इलाके में इतनी आसानी से तो होगा नहीं, इसलिए एक राष्ट्र और उसमें व्याप्त राष्ट्रवादी धारणा उनके लिए फायदेमंद होती है. छत्तीसगढ़ का उदाहरण लीजिए. अब वहां बार-बार कहा जाता है कि माओवादी हैं, इसलिए आसानी से सेना को उतार दिया जाता है. छत्तीसगढ़ का राष्ट्र का हिस्सा होने का यह फायदा है कि वहां प्राकृतिक संसाधनों को लेना है तो राष्ट्र की धारणा का इस्तेमाल कर सेना उतारिए, अपना काम कीजिए. इसलिए मैं कह रहा हूं कि राजनीति वगैरह सिर्फ औजार भर होते हैं. पूंजीवाद को अनंत विस्तार चाहिए और जल्दी भी चाहिए, इसलिए इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.
आप प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का हमेशा विरोध करते हैं. एक बड़ा वर्ग सवाल उठाता है कि प्राकृतिक संसाधन का इस्तेमाल नहीं होगा तो तरक्की कैसे होगी, जीवन कैसे चलेगा?
पहली बात तो ये है कि मैं प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का विरोधी नहीं, मैं उसके दोहन का विरोध करता हूं. रही बात तरक्की की तो कैसी तरक्की? क्या ऐसी तरक्की कि कुछ सालों बाद दुनिया ही न बचे? आप खुद सोचिए. ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. जब दुनिया में आबादी लगातार बढ़ रही है और धरती के अंदर जो प्राकृतिक संसाधन हैं या कि धरती की सतह पर जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधन हैं, वे बढ़ नहीं रहे तो कोई भी क्या कहेगा? यही न कि इनका इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए ताकि यह दुनिया लंबे समय तक चले. लेकिन हो तो उलटा रहा है. आबादी बढ़ने के साथ साधनों की भूख बढ़ती जा रही है और इसलिए संसाधनों का दोहन भी बढ़ता जा रहा है. सीधी-सी तो बात है. अब अगर एक आदमी को अथाह संपदा चाहिए, कई मकान चाहिए, कई गाड़ियां चाहिए तो उसके लिए यह संसाधन तो बस सीमित समय के लिए ही है. बाकी अगर मैं गलत कहता हूं तो मान लीजिए, गलत कहता हूं. आपने राष्ट्रवाद पर बातें कहीं. उभार तो क्षेत्रवाद का भी इन दिनों तेजी से हुआ है और कहा जा रहा है कि इस देश में ही कई देश बनते जा रहे हैं.
क्षेत्रवाद तो स्वाभाविक है. राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की बात आरोपित है.
लेकिन एक समय तो ऐसा था जब गांधी जैसे लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान चला रहे थे तो उसके केंद्र में भी यही था कि इससे भारत एक देश जैसा बनेगा. या कि एक समय में विवेकानंद जब धर्म की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे तो कहते थे कि धर्म लोगों को जोड़ता है, भारत एक राष्ट्र बनता है इससे.
देखिए, चीजें समय-संदर्भ के हिसाब से देखी जाती हैं. जब अंग्रेज आए थे तो हमारी लड़ाई उनसे थी. उस समय कई तंत्र ऐसे विकसित किए जा रहे थे, जिसके जरिए अंग्रेजों से लड़ा जा सके. अच्छा आप एक उदाहरण देखिए, चीजें शायद स्पष्ट होंगी. भारत में मुगलों की सत्ता खत्म हो चुकी थी. मुगलिया साम्राज्य सिर्फ दिल्ली तक सिमटकर रह गया था. उस समय मुगलों से सारे लोग लड़ रहे थे लेकिन जब 1857 की लड़ाई हुई तो मुगलों से लड़ने वाले राजाओं, जमींदारों आदि ने भी सर्वसम्मति से मिलकर उसी मुगल साम्राज्य के बहादुरशाह जफर को भारत का शासक बना दिया. ऐसा इसलिए कि उस समय स्थिति अलग थी. अंग्रेजों से लड़ने के लिए भारत को एक सूत्र में बांधना जरूरी था.
आपने राष्ट्रवाद को पूंजीवाद से जोड़ा लेकिन इन दिनों तो ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ कहने पर भी जोर दिया जा रहा है और जो नहीं कह रहा उसे देशद्रोही बताया जा रहा है.
कुछ मूर्ख भाजपाई और कुछ संघी हैं, यह सब उनकी बात है. नासमझ हैं तो क्या कीजिएगा. मुसलमान ‘भारत माता की जय’ कह देंगे या ‘वंदे मातरम’ कहने लगेंगे तो इससे भाजपा को क्या फायदा होगा, यह समझ से परे की बात है. ऐसी बातें जो कहते हैं उन्हें मुसलमानों की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए. उस धर्म में बुतपरस्ती की पाबंदी है तो इस भावना का ख्याल करना चाहिए. लेकिन क्या कीजिएगा. आरएसएस जैसे संगठन का तो उदभव ही धर्म विशेष के विरोध में हुआ था इसलिए उनके लोग दूसरे धर्म वाले को उकसाने के लिए ऐसा कहते रहते हैं. हम तो 88 की उम्र में पहुंच गए हैं, इसलिए थोड़ा अनुभव है. हमने आजादी की लड़ाई देखी है. अब आज राष्ट्र की चिंता आरएसएस के लोग इतना करते हैं तो उन्हें बताना चाहिए कि जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तो उसमें उसने क्या भूमिका निभाई थी. मैंने तो कहीं नहीं देखा था. दरअसल आरएसएस तो मुस्लिम लीग के पूरक संगठन की तरह रहा. मुस्लिम लीग वाले कहते थे कि हिंदू के साथ हम कैसे रहेंगे, अलग देश दे दीजिए तो वही आरएसएस वाले कहने लगे कि मुस्लिम इस देश में कैसे रहेंगे, यह तो हिंदुओं का देश है हाल ही में आरएसएस के एक बड़े पदाधिकारी का बयान आया कि राष्ट्रीय झंडा तो तिरंगा है ही लेकिन भगवा झंडे को भी राष्ट्रीय झंडे की तरह मान सकते हैं.
चलिए, अब यह तो कम से कम कहने लगे कि तिरंगा राष्ट्रीय झंडा है. यह कहने में या मानने में भी तो उन्हें इतने साल लग गए.
देश में एक शोर यह भी चल रहा है कि मोदी के आने के बाद खतरे बढ़ गए हैं. असहिष्णुता बढ़ गई है. धर्मांधता बढ़ गई है. आप क्या मानते हैं? क्या वाकई में मोदी के आ जाने के बाद देश अचानक इस कदर असुरक्षित हो गया है?
अभी हाल में असहिष्णुता वाला जो मसला उठा था, उसका संदर्भ दूसरा था. देश में कई लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की हत्या होने लगी थी. ऐसे लोगों की हत्या हो रही थी जो धर्म की संकीर्णता के खिलाफ आवाज उठा रहे थे लेकिन वे किसी एक धर्म का विरोध तो कर नहीं रहे थे. मैं एक बात कहूं. असल में मोदी के साथ जो कुनबा है और उनका जो अतीत रहा है, उससे लोगों को डर लगता है. अब देखिए, मोहन भागवत आए तो कहने लगे कि आरक्षण पर ही पुनर्विचार होना चाहिए. उनके कुनबे में और भी कई लोग हैं, जिनसे लोग डरते हैं. लेकिन असहिष्णुता या अराजकता वाली जो स्थिति है, वह एकबारगी से मोदी के आ जाने से ही देश में आ गई है, ऐसी बात नहीं. यह तो वर्षों से दुनिया में फैली है. अब बताइए जर्मनी दार्शनिकों का ही देश रहा और उससे ज्यादा असहिष्णु देश कौन हो सकता है, जहां हिटलर के समय में हजारों कत्ल हुए. दुनिया के और भी देशों में असहिष्णुता इसी तरह देखी जाती रही है.
आरक्षण पर आप क्या सोचते हैं? इसमें किसी बदलाव की जरूरत है?
आरक्षण तो अस्थायी व्यवस्था है. इसमें अभी बदलाव क्यों चाहिए? लोहिया कहते थे कि तीन चीजें चाहिए ताकि जो वंचित हैं उनका आत्मबल बढ़ सके. एक- सहभोज, दूसरा आरक्षण और तीसरा अंतरजातीय विवाह. आरक्षण न होता तो जो आज थोड़े-बहुत दलित या वंचित जाति के लोग कुछ अच्छी जगहों पर दिख रहे हैं, वे दिखते क्या? या किसी दलित या वंचित का बेटा बड़े संस्थानों में पढ़ने जाता क्या? नहीं. पीढ़ियों से जिस समाज का आत्मबल ही मरा रहा है, आकांक्षाओं को मारा जाता रहा है, उसे विशेष अवसर तो चाहिए ही ताकि उसमें आकांक्षा तो जगे, आत्मबल तो जगे. किसी एक जाति अथवा समूह का कोई एक आदमी जब किसी अच्छे पद पर जाता है तो उस जाति अथवा समाज के लोगों का आत्मबल बढ़ता है. उसमें भी आगे बढ़ने की आकांक्षा जगती है. इसलिए आरक्षण अभी तो चाहिए ही.
मोदी शासन के तकरीबन दो साल हो गए. मनमोहन सिंह भी दस साल रहे थे. आप आर्थिक-सामाजिक स्तर पर होने वाले बदलाव पर बारीक नजर रखते हैं. दोनों में क्या फर्क है?
दोनों की तमाम नीतियां एक हैं. बस एक ही फर्क है कि मनमोहन सिंह बोलते नहीं थे लेकिन काम वही करते थे जो आज मोदी कर रहे हैं. मोदी चूंकि प्रचारक रहे हैं इसलिए अपने कामों का आक्रामक तरीके से प्रचार करते हैं. मेक इन इंडिया का मोदी इतना शोर मचा रहे हैं. यही काम तो मनमोहन सिंह भी कर रहे थे. दुनिया भर से उद्योगपतियों को भारत बुलाकर निवेश करने को कह रहे थे लेकिन वे बता नहीं रहे थे. मोदी उसे बता रहे हैं. स्टाइल का फर्क है, बाकी कुछ नहीं. वैसे गहराई से देखें तो कांग्रेस और भाजपा में ही कोई फर्क नहीं है. बस दोनों के स्टाइल में ही फर्क है. कांग्रेस भाजपा के कम्युनल कार्ड का विरोध करती है तो भाजपा वाले भी कांग्रेस के शासन में हुए कार्यों का विरोध करते हैं. अब भाजपाई तो कम्युनल आधार पर भी कांग्रेस को घेर रहे हैं. सिख दंगों की फाइल उसी लिए तो खुली है. दोनों एक से ही हैं. कांग्रेस-भाजपा एक जैसे ही हैं. समाजवादियों को देखा ही जा रहा है. वामपंथियों से एक उम्मीद बचती है कि वे शायद आधारभूत सवालों को सुलझाएं. आप क्या सोचते हैं?
आप वामपंथियों से किसी बदलाव की उम्मीद करते हैं और ऐसा सवाल पूछ रहे हैं तो यह सवाल ही निरर्थक है. इस उम्मीद के साथ रहना ही बेमानी है. दुनिया में वामपंथियों के दो मॉडल रूस और चीन में हैं, दोनों का हाल देख लीजिए. रूस घोर तानाशाही का शिकार हुआ. चीन घनघोर पूंजीवादी राष्ट्र बन गया. कम्युनिस्ट तो राजनीतिक तौर पर दुनिया में खत्म हो रहे हैं, फिर उनसे क्यों उम्मीद कर रहे हैं. वे दुनिया में राजनीतिक तौर पर खत्म होंगे भी. उन्होंने मार्क्स के सिद्धांत को ही इकलौते सूत्र के रूप में आत्मसात कर लिया है और उसी से दुनिया में बदलाव चाहते हैं. ऐसा होगा क्या? मार्क्स तो यूरोप में रहते थे. यूरोप से बाहर गए नहीं. उन्होंने यूरोप में औद्योगिक क्रांति के समय फैक्टरियों की लड़ाई देखी. कहा कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, पूंजीपति हार जाएंगे. अब पूंजीपति सिर्फ मजदूरों पर जुल्म तो करते नहीं. वे गांव उजाड़ते हैं, नदी खत्म करते हैं, जंगल खत्म करते हैं, किसानों को खत्म करते हैं, आदिवासियों को उजाड़ते हैं. अब तो सिर्फ फैक्टरी के संघर्ष की बात रही नहीं. लेकिन कम्युनिस्ट अब भी वर्ग संघर्ष के नाम पर सिर्फ मजदूरों के एकीकरण से क्रांति की उम्मीद करते हैं तो उनका फैलाव या उनके जरिए बदलाव होने से रहा. इसलिए आप गौर कीजिए कि वामपंथी दलों के जो ट्रेड यूनियन हैं या मजदूर संगठन हैं, वे अभी भी बहुत मजबूत स्थिति में हैं लेकिन उनका राजनीतिक आधार सिमटता गया.
कास्ट बनाम क्लास में किसे महत्वपूर्ण मानते हैं?
अभी हाल ही में एक आयोजन में गया था. वहां वक्ता के तौर पर बुलाया गया था. विषय था- हिंदी इलाके में वामपंथियों की हालत ऐसी क्यों हुई? उसमें मैंने कास्ट बनाम क्लास पर ही बात कही थी. मैं यह मानता हूं कि जो क्लास है उसे ही इकलौता और मूल आधार नहीं माना जा सकता. क्लास में तो आज जो मजदूर है वह कल पैसा आने से भूमिहीन न होकर भूपति हो सकता है, फैक्टरी का मालिक बन सकता है. क्लास तो बदलता रहता है लेकिन कास्ट एक स्थायी तत्व है. इसकी शिफ्टिंग नहीं होती. जो हरिजन है, वह हरिजन ही रहेगा. जो भूमिहार है, वह भूमिहार ही रहेगा और उस आधार पर जो सामाजिक भेदभाव होते हैं, वह होते रहेंगे. वामपंथियों ने सिर्फ क्लास फैक्टर को पकड़ा, जो रूप-स्वरूप बदलता रहता है. कास्ट को पकड़ा ही नहीं, इसलिए वे हिंदी इलाके में राजनीतिक तौर पर कमजोर हुए और लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार जैसे नेताओं का उदय हुआ, वे बड़े नेता बन भी गए.
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने तो मिलकर बिहार में सरकार भी बना ली.
हां, वोट के लिए ऐसा मेल-मिलाप होता रहता है. नारे बदलते रहते हैं. कभी सामाजिक न्याय का नारा तो कभी कुछ. लेकिन नीतियां बदलंे तब तो. वैसे मैं नीतीश कुमार के एक काम का असर तो देख रहा हूं. उन्होंने लड़कियों को साइकिल देने का जो फैसला लिया था, उसका असर अब दिख रहा है. नीतीश को उसका फायदा भी मिला. महिलाएं उनके साथ हुईं. लेकिन अभी जो शराबबंदी का फैसला उन्होंने लिया है, वह बहुत हड़बड़ी में लिया. शायद बाद में बुद्धि आए. अब ताड़ी पर भी प्रतिबंध लगा दिया है. एक बड़े समूह के जीविकोपार्जन पर ही रोक लगा दी. किसानों के पास भी बड़ी संख्या में ताड़ आदि के पेड़ हैं, वे उनका क्या करेंगे? ताड़ का कई तरीके से उपयोग किया जा सकता है. इस ओर उन्हें विचार करना चाहिए.
देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
बताया तो पहले ही. प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दुरुपयोग और दोहन देश के भविष्य को दांव पर लगा रहा है. कुछ लोग बहुत ताकतवर हो जाएंगे लेकिन यह देश और दुनिया रहने लायक ही नहीं बचेगी, तब क्या होगा? बाकी सारे मसले तो आते-जाते रहते हैं. यह बेसिक सवाल है, इस पर सोचना चाहिए. अब हम लोग गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. बस रुककर सोचना चाहिए. गांधी की प्रतिमाएं बनाकर और गांधी के विचारों को मारकर गांधी को याद करने का मतलब नहीं. गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चलाकर गांधी युग लाने का शोर करने का मतलब नहीं. गांधी को पहले ही डर था कि यह जो पूंजीवादी सभ्यता आएगी, वह शैतानी सभ्यता होगी. इसी शैतानी सभ्यता से बचना और लोगों को बचाना होगा.

Friday 13 May 2016

उपेन्द्र राय

हाल ही में ‘सहारा न्यूज नेटवर्क’ (Sahara News Network) से इस्तीफा देने के बाद दिग्गज पत्रकार उपेन्द्र राय ने ‘तहलका’ (Tehelka) जॉइन कर लिया है। उन्हें यहां सीईओ और एडिटर-इन-चीफ की जिम्मेदारी दी गई है। इससे पहले वह सहारा न्यूज नेटवर्क में भी सीईओ व एडिटर-इन-चीफ की भूमिका निभा रहे थे।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार तहलका समूह जल्द ही एक न्यूज चैनल और अखबार की लॉन्चिंग की प्लानिंग कर रहा है।
राय पिछले 6 महीने से सहारा में थे और यहां उनकी ये तीसरी पारी थी। सहारा न्यूज में जुड़ने से पहले वह ‘बिजनेस वर्ल्ड’ मैगजीन (Businessworld Magazine) के साथ जुड़े हुए थे, वे यहां मैगजीन के ग्रुप एडिटोरियल एडवाइजर थे।
राय ने अपने करियर की शुरुआत 1 जून, 2000 को लखनऊ में राष्ट्रीय सहारा से की थी। उन्होंने यहां विभिन्न पदों पर काम किया और वे यहां सबसे कम उम्र के ब्यूरो चीफ बनकर मुंबई पहुंचे। इसके बाद वे साल 2002 में स्टार न्यूज की लॉन्चिंग टीम का हिस्सा बन गए और दो साल से भी कम समय में वरिष्ठ संवाददाता बनने का मौका मिला।
वहीं से ‘सीएनबीसी टीवी18’ (CNBC TV18) में 10 अक्टूबर, 2004 को प्रमुख संवाददाता के रूप में जॉइन किया। बतौर विशेष संवाददाता अक्टूबर 2005 में ‘स्टार न्यूज’ (अब ‘एबीपी न्यूज’) में वापसी की और दो वर्षो के अंदर एक और पदोन्नति मिली और चैनल में सबसे युवा असोसिएट एडिटर बन गए। फिर जनवरी, 2010 से दिसंबर, 2014 तक ‘सहारा न्यूज नेटवर्क’ में एडिटर और न्यूज डायरेक्टर की जिम्मेदारी संभाली। साथ ही वे इस दौरान प्रिंटर और पब्लिशर की भूमिका में भी रहे।

Wednesday 11 May 2016

Ravi prakash 54th rank in UPSC 2016

संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में बिहार के जहानाबाद जिले के काको प्रखंड क्षेत्र के एक छोटे से गांव देवघरा के रवि प्रकाश ने बाजी मारी। उनके पिता मृणाल कुमार शर्मा हाजीपुर में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में उपप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। मां रूबी शर्मा उच्च शिक्षा प्राप्त कुशल गृहणी हैं।
संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 54वां रैंक लाकर उक्त छात्र ने अपने परिवार के साथ-साथ अपने जिले और राज्य का नाम भी रौशन किया। उनके पिता श्री शर्मा ने बताया कि रवि ने शुरू से ही पटना के लोयला स्कूल से मैट्रिक तक की पढ़ाई की। प्लस टू की पढ़ाई उसने राजस्थान के कोटा में की। वर्ष 2011 में आईआईटी कानपुर से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी में जुट गया।
रवि प्रकाश ने अपनी सफलता का श्रेय अपनी मां को दिया। दो भाईयों में रवि बड़े हैं। उनसे छोटा भाई राजस्थान के कोटा में रहकर मेडिकल की तैयारी कर रहा है। रवि ने पहले डॉयमंड कंस्लटेंसी में 18 लाख के सालाना पैकेज पर बतौर इंजीनियर काम किया। लेकिन उन्होने जल्द ही उस नौकरी को ठुकरा दी। दिल्ली के पटेलनगर स्थित एक किराए के मकान में रहकर उन्होंने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी की।
उन्होने तीसरी बार में यह सफलता अर्जित की। दो बार वे इंटरव्यू से छंटकर वापस हो गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और तीसरे प्रयास में अपनी मंजिल को पा लिया। उनके माता-पिता पटना के एजी कॉलोनी स्थित अपने निजी मकान में रहते हैं। सफलता पाने वाले उक्त छात्र ने भी अपनी मैट्रिक तक की पढ़ाई अपने माता-पिता के साथ ही रहकर पूरी की।
उनके पिता श्री शर्मा कहते है कि रवि स्वभाव और विचार से सादे प्रकृति के हैं। वे गांव के वंचित लोगों के लिए कुछ खास करने की तमन्ना रखते हैं। रवि का मानना है कि निरंतर प्रयास और आत्मविश्वास के साथ मंजिल पाई जा सकती है। दस से बारह घंटे की नियमित पढ़ाई कर उक्त परीक्षा में सफलता पाई। यूपीएससी की परीक्षा में उनका ऐच्छिक विषय राजनीति शास्त्र रहा।

Saturday 7 May 2016

मेडिकल का पेशा ‘सर्विस विथ कॉस्ट है’ : डॉ केके सिन्हा


डॉ केके सिन्हा देश के जाने-माने न्यूराेफिजिशियन हैं. लोग कहते हैं-डॉ सिन्हा गॉड-गिफ्टेड हैं. जीनियस हैं. सुबह से रात तक मरीजाें काे देखने का वही जुनून, वही निष्ठा. व्यस्त इतने कि छह-छह माह बाद का भी नंबर बुक. 
 
जब मरीजाें के सामने काेई रास्ता नहीं दिखता, उम्मीद नहीं दिखती ताे एक नाम याद आता है-वह है डॉ केके सिन्हा का. मीडिया आैर प्रचार-प्रसार से दूर रहनेवाले डॉ सिन्हा न्यूराे के ताे मास्टर हैं ही, इतिहास आैर संगीत के भी जानकार हैं. घर में एक से एक दस्तावेज. अपने पिता के हाथ से लिखी डायरी-संस्मरण काे उन्हाेंने सहेज कर रखा है. 
 
उनकी निजी लाइब्रेरी में मेेडिकल साइंस से लेकर इतिहास की दुर्लभ किताबें माैजूद हैं. याददाश्त बहुत तेज. पचास-साठ साल पहले की भी एक-एक तिथि ठीक से याद. धारा-प्रवाह बाेलने की कला में माहिर. देश-दुनिया की घटनाआें पर पैनी नजर. 
 
अनुभवी हैैं, विजन है. अतिव्यस्त रहनेवाले डॉ केके सिन्हा ने अपने जीवन की यादगार घटनाआें, अनुभव के बारे में प्रभात खबर के वरिष्ठ संपादक अनुज कुमार सिन्हा से लगभग तीन घंटे की लंबी बात की. डॉ सिन्हा का विस्तृत इंटरव्यू अब तक न ताे किसी अखबार में आया है आैर न ही टेलीविजन पर. इस इंटर‌व्यू काे लिखते समय इस बात का ख्याल रखा गया है कि डॉ सिन्हा के बाेलने की शैली की माैलिकता बनी रहे, भाषा का प्रवाह न टूटे. इस इंटरव्यू में डॉ सिन्हा के जीवन से जुड़ी कई ऐसी जानकारियां हैं, जाे पहली बार लाेगाें के सामने आ रही हैं. पढ़िए विस्तृत बातचीत.
 
मनेर का एक बालक कृष्णकांत डॉ केके सिन्हा कैसे बन गया? 
 
मेरा जन्म मनेर में हुआ था. वह बिहार में पटना जिले का इलाका है. एेतिहासिक जगह है. मेरे पिता शिक्षक थे. वहां का वातावरण देहाती था. बचपन भी उसी माहाैल में बीता. पढ़ने में हम ठीक थे. अच्छा नंबर लाते थे. जब यह तय करने का वक्त आया कि किस क्षेत्र में जाना है ताे यह निर्णय पिताजी ने ही लिया क्याेंकि वे टीचर थे, जानकार थे. अनुभवी थे. 
 
अब ताे वे नहीं हैं. उन्हें गुजरे जमाना बीत गया. डॉ झा (डीके झा) वर्षों से मेरे साथ हैं, लेकिन ये भी उनसे नहीं मिल सके थे. इनकाे हम कुछ दिनाें पहले अपने गांव ले गये थे. इन्हें अपना वह कमरा भी दिखाया था, जहां मेरा जन्म हुआ था. उस कमरे काे हमने उसी हाल में छाेड़ दिया है, जिस हाल में वह मेरे जन्म के समय था. मेरा लगाव अभी भी उस जगह से बहुत ज्यादा है. हम हर साल हाेली में वहां जाते हैं. पांच-छह दिन वहां रहते हैं. 
 
इसी बार नहीं जा पाये. हमारे यहां हाेली पारंपरिक तरीके से मनायी जाती है. ढाेल के साथ. पूरे गांव के लाेग आते हैं. देर रात तक चैता का कार्यक्रम चलता है. दूसरे दिन वापस चले आते हैं. यह परंपरा रही है. हमारा गांव बड़ा फेमस है. हिस्टाेरिकल जगह है. आज से नहीं, सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही. बुद्ध के समय में भी वह गांव था. एक बार गंगा पार करते वक्त बुद्ध ने कहा था-एअम मनिअरीपतनम (यह मनेर का इलाका है). वे ताे राजगृह से जुड़े थे.
 
उस समय ताे पाटलिपुत्र हुआ ही नहीं था. राजगृह में बार-बार आते थे. यह ताे इतिहास है उस इलाके का, अब ताे मनेर की आबादी डेढ़ लाख के आसपास है. वहां हिंदू हैं, मुसलमान हैं. हर जाति के लाेग मिल-जुल कर रहते हैंं. यह बात हाे गयी मेरे गांव के बारे में. अब बता रहा हूं कि कैसे मैंने गांव के बाद की पढ़ाई की आैर डॉक्टर बना. हमने मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास की. 
अच्छा नंबर लाया था. उन दिनाें पटना साइंस कॉलेज का बड़ा नाम था. लेकिन मेरे पिताजी ने किसी कारणवश मेरा नाम पटना साइंस कॉलेज में नहीं लिखाया. उन्हाेंने कहा, तुम बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ाे. एडमिशन के पहले एक बार 1944 के दिसंबर में ही पिताजी मुझे बनारस लेकर गये थे. वहां विश्वनाथ मंदिर दिखाया था. कई आैर जगह भी ले गये थे. हम बीएचयू भी गये थे. वहां जाकर मालवीय जी से बहुत प्रभावित हुए थे. उस समय वहां मेडिकल कॉलेज नहीं था, आयुर्वेदिक कॉलेज था. वहां हमने कहा-ठीक है हम यहां साइंस पढ़ेंगे. 
 
पिताजी ने हमारा नाम बीएचयू में लिखवा दिया. दाे साल तक हम बीएचयू में पढ़े. बीएचयू के इस दाे साल ने मेरी जिंदगी बदल दी. हम अविभाजित भारत की बात कर रहे हैं. हम वहां जुलाई 1946 में गये थे. उस समय हिंदुस्तान के अलावा दुनिया के कई देशाें से छात्र पढ़ने आते थे. उस क्षेत्र के भी छात्र पढ़ने आते थे जाे आज पाकिस्तान-बांग्लादेश के अंदर आता है. बीएचयू अॉल इंडिया यूनिवर्सिटी था. वहां दस हजार विद्यार्थी आैर एक हजार शिक्षक थे. जब हम वहां पढ़ते थे, उस समय डॉ राधाकृष्णन वहां के वाइस चांसलर थे. 
 
यही डॉ राधाकृष्णन बाद में भारत के राष्ट्रपति बने. बीएचयू के वातावरण में हमारी आंखें वास्तव में खुलीं. हम ताे देहाती वातावरण में पैदा हुए थे. कड़े माहाैल में रहे हुए थे. बीएचयू देखा ताे अवाक रह गये. हम जल्दी-जल्दी हर कुछ सीखना चाहते थे.
बीएचयू में सबसे अच्छा आपकाे क्या लगा?
 
वहां सब कुछ अच्छा लगा. गांधीजी काे छाेड़ कर काेई ऐसा नेता नहीं था, जिनकाे हमने वहां नहीं देखा हाे. गांधीजी काे हमने अपने गांव मनेर में देखा था. सब नेता बीएचयू आते थे. वाइस चांसलर डॉ राधाकृष्णन दाे प्रकार की ड्यूटी करते थे. वे अॉक्सफाेर्ड में आेरियेंटल फिलॉसफी के प्राेफेसर थे. गरमी के दिनाें में छह माह के लिए वे अॉक्सफाेर्ड चले जाते थे. वहां पढ़ाते थे. बाकी छह माह वे बीएचयू में रहते थे. वाइस चांलसर का काम देखते थे. 
 
वे ट्रेडिशनल ड्रेस में रहते थे. पगड़ी पहनते थे. लंबा सा अचकन हाेता था. टाइम के बड़े पक्के थे. कॉलेज के प्राेग्राम में हम लाेग राधाकृष्णन काे बुलाते थे. वे समय पर आ जाते थे. ऐसा भी माैका आया, जब वे आते थे आैर हम लाेगाें की तैयारी पूरी नहीं हुई रहती थी. फिर भी वे गुस्सा नहीं करते थे. मुस्कुरा कर यह कहते हुए निकल जाते कि 15 मिनट में मैं आ रहा हूं. बीएचयू के उस वातावरण ने सब कुछ बदल दिया. मेरे साेचने का तरीका भी बदल दिया. दुनिया काे हम दूसरी नजर से देखने लगे. 
 
बीएचयू के बाद की पढ़ाई आपने कहां से की?
 
यह भी एक अलग कहानी है. बीएचयू से आइएससी की पढ़ाई कर चुके थे. यह भी तय हाे चुका था कि हमें डॉक्टर ही बनना है. हम पटना मेडिकल कॉलेज में एडमिशन चाहते थे, लेकिन हमारा एडमिशन दरभंगा मेडिकल कॉलेज में हुआ. हमें बुरा नहीं लगा. हम पहले बैच के थे. वहां अंगरेजाें के समय से ही एडमिशन हाेता था. शुरू में एक परेशानी थी. दरभंगा मेडिकल कॉलेज के सभी छात्र दाे साल वहां पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए पटना मेडिकल कॉलेज भेज दिये जाते थे. 
 
लेकिन हमारे बैच से परंपरा बदल गयी. पहले पटना मेडिकल कॉलेज भी मेडिकल स्कूल ही था. टेंपल मेडिकल स्कूल, जाे 1886 में बना था. 1922 में इसका नाम प्रिंस अॉफ वेल्स मेडिकल कॉलेज रखा गया था, देश की आजादी के पहले ही पटना मेडिकल कॉलेज बन चुका था. इसी समय सवाल उठा कि मेडिकल स्कूल का क्या किया जाये. उस समय लाेगाें ने सुझाव दिया कि नार्थ बिहार में मुजफ्फरपुर में एक मेडिकल स्कूल खाेला जाये. उस समय की अंगरेजी सरकार ने मुजफ्फरपुर में इसे खाेलने की तैयारी कर ली थी. 
इस बीच दरभंगा के महाराजा ने कहा कि दरभंगा में आप लाेग मेडिकल स्कूल-कॉलेज क्याें नहीं खाेलते. दस लाख रुपये मैं दे दूंगा, साथ में जितनी जमीन चाहिए, मैं दूंगा. अगर सैकड़ाें एकड़ चाहिए ताे वह भी दूंगा. दरभंगा महाराज के अाश्वासन के बाद मेडिकल स्कूल काे मुजफ्फरपुर की जगह दरभंगा में खाेलने का निर्णय ले लिया गया. आजादी के पहले अंगरेजाें ने इस मेडिकल स्कूल काे अपग्रेड करने का फैसला किया था. इसलिए दरभंगा में मेडिकल स्कूल की जगह मेडिकल कॉलेज खाेला गया. मैंने 1948 में एडमिशन लिया था. 
 
देश आजाद हाे चुका था. नयी सरकार ने निर्णय लिया कि दरभंगा से किसी का पटना ट्रांसफर नहीं हाेगा आैर उन्हें दरभंगा में ही पढ़ना हाेगा. इस प्रकार मेरी पढ़ाई वहीं हुई. हमने 1953 में एमबीबीएस की परीक्षा पास की. मेडिसिन में अॉनर्स के साथ गाेल्ड मेडल मिला.
 
आपकी दिनचर्या क्या है. कब उठते हैं, कब पढ़ाई करते हैं, कब से कब तक मरीज देखते हैं..
 
हम बहुत सवेरे जग जाते हैं. करीब-करीब चार-सवा चार बजे. उसके बाद कुछ देर तक पढ़ लेते हैं. पाैने पांच बजे हम नीचे उतरते हैं. घर के बगल के प्लॉट पर घड़ी देख कर 90 मिनट तक लगातार टहलते हैं. वहां ट्रैक बना हुआ है. टहलते भी हैं, साथ ही साथ इयरफाेन लगा कर संगीत भी सुनते रहते हैं. सवा छह बजे तक टहलते हैं. फिर गार्डेन में जा कर बैठ जाते हैं. तब तक पत्नी भी वहां आ जाती है. साथ में चाय पीते हैं. फिर दिन की तैयारी में लग जाते हैं. आठ बजे तक मरीजाें के पहले बैच काे देखना शुरू कर देते हैं. 
रात में जाे मरीज बच गये थे, उसकाे पहले देखते हैं. साढ़े नाै बजे तक मरीजाें काे देखने के बाद घर लाैटते हैं, नहाते हैं. नाश्ता करते हैं. फिर क्लिनिक चले जाते हैं मरीज काे देखने. साढ़े ग्यारह बजे से दाे बजे तक मरीज देखते हैं. फिर लंच के लिए आते हैं. लंच करते-करते टीवी पर न्यूज भी सुनते रहते हैं. थाेड़ा आराम भी करते हैं. म्यूजिक भी सुनते रहते हैं. 
 
कभी-कभी म्यूजिक सुनते-सुनते नींद भी आ जाती है. साढ़े तीन या पाैने चार बजे उठ कर फिर मरीज काे देखने के लिए जाते हैं. मरीजाें काे नंबर खुद देते हैं. नंबर के लिए भी बहुत भीड़ हाे जाती है. देखिए न, अभी ही नवंबर तक का नंबर लग गया है. नंबर देने के समय मरीजाें के कागज काे देखते हैं. अगर लगता है कि इमरजेंसी केस है, ताे उसकाे पहले का नंबर देते हैं. इसके बाद फिर मरीजाें काे देखने में लग जाता हूं. 
 
छह-साढ़े छह बजे खाना खाने के लिए आ जाते हैं. इसके बाद फिर जाते हैं मरीज देखने. दिन भर मरीज काे देखते-देखते थक जाते हैं. इसलिए खाना खाने के बाद पहले शरीर काे ताैलते हैं कि अब कितने मरीज काे आज देख पायेंगे. उतना ही देखते हैं. बाकी काे दूसरे दिन बुलाते हैं. अब फिर घर लाैटते हैं. ड्राइंगरूम में लेट जाते हैं. लेटे-लेटे म्यूजिक सुनते हैं. सिर्फ क्लासिकल म्यूजिक. इससे बड़ी राहत मिलती है, थकान दूर हाेती है. म्यूजिक ही मेरे लिए रिलैक्सिंग का सबसे बड़ा साधन है. देखिए, मेरे पास कैसेट्स, सीडी भरे पड़े हैं.
 
आैर भी संगीत के सीडी हैं लेकिन मैं क्लासिकल ही पसंद करता हूं. यही वह समय हाेता है जब हम दाेस्ताें से फाेन पर बात भी कर लेते हैं. पत्नी आैर परिवार के अन्य लाेगाें से बात करने का यही थाेड़ा माैका मिलता है.
 
इतना काम करते हैं. कहां से ताकत या प्रेरणा मिलती है?
 
हमारा माइंड बड़ा फाेकस्ड है. हम देहाती वातावरण में पले हैं, बढ़े हैं. उसका फायदा मिलता है. बचपन में हमारी ट्रेनिंग जबरदस्त हुई है, इसलिए इतनी मेहनत कर लेते हैं. संगीत से बहुत ताकत मिलती है. 
 
आपके परिवार में काैन-काैन हैं आैर अाप अपने परिवार काे कितना समय दे पाते हैं?
 
मेरे परिवार में मेरी पत्नी हैं. एक बेटा, बहू, एक पाेती आैर एक पाेता हैं. पाेती बड़ी है. उसकी शादी हाे चुकी है. पाेता अभी पढ़ाई कर रहा है. मेरी तीन बेटियां हैं. तीनाें की शादी हाे चुकी है. बड़ी बेटी आैर दामाद रांची में ही रहते हैं. अन्य दाे बेटियां अपने पति आैर बच्चाें के साथ विदेश (अमेरिका आैर कनाडा) में रहती हैं. मेरा बेटा व्यवसाय के क्षेत्र में है. परिवार काे ताे बहुत कम समय दे पाते हैं. सुबह में टहलने के बाद जब हम गार्डेन में बैठते हैं, पत्नी भी वहां आ जाती हैं. हम दाेनाें करीब 30 से 40 मिनट वहां साथ बैठते हैं. वह पूरा अखबार पढ़ जाती हैं . मुझे जेनरल न्यूज के साथ-साथ टाेले-मुहल्ले की पूरी खबरें भी उन्हीं से मिल जाती हैं.
 
आप अपनी इच्छा से डॉक्टर बने या माता-पिता की इच्छा थी?
 
शुरू से हमारी भी इच्छा थी कि हम डॉक्टर बनते ताे अच्छा रहता. परिवार के लाेग भी चाहते थे कि हम डॉक्टर बनें. लेकिन डॉक्टरी में घुसना इतना आसान काम नहीं था. बड़ा टफ काम था. सिर्फ फर्स्ट डिविजनर ही डॉक्टरी में घुस सकते थे. हमने कहा- ठीक है भैया, देखा जायेगा. अपने पास विकल्प भी था. एग्रीकल्चर में जा सकते हैं, जेनरल साइंस में जा सकते हैं. भाग्यवश मेरे अंक भी अच्छे आये.
 
रांची कब आये? रांची आने के पहले कहां-कहां रहे?
 
जुलाई 1962 में रांची आ गये थे. एमबीबीएस पूरा किया था 1953 में. फिर एक साल तक हाउस-सर्जनशिप की. तुरंत नाैकरी मिल गयी. सिविल असिस्टेंट सर्जन का पद मिला था. पाेस्टिंग हुई थी माेतिहारी के देहात में. छह महीने तक देहात में पड़े रहे. गंडक नदी के ठीक किनारे. उसके बाद सदर अस्पताल माेतिहारी में पाेस्टिंग हाे गयी. हमारी रुचि मेडिसिन में थी इसलिए सिविल सर्जन ने हमकाे सदर अस्पताल के मेडिकल वार्ड में काम करने का जिम्मा सौंपा. 
 
हम ताे मेडिकल कॉलेज में जाना चाहते थे. इसलिए आवेदन भरते रहते थे. नंबर अच्छा आया था, इसलिए हर जगह चुन लिया जाता था. हमने डीएमसीएच में एनाटाेमी में डिमाेंस्ट्रेटर के पद के लिए भी अप्लाइ किया था. वहां हमारा चयन हाे गया. तब डॉ एनएल मित्रा एचआेडी थे, जाे बाद में प्राचार्य भी बने. गरमी की छुट्टी हाे गयी थी. छात्र सब घर चले गये थे. मेरे पास सीखने का पूरा माैका था. हम म्यूजियम में जा कर घंटाें एनाटाेमी का अध्ययन करते रहते थे. आप जानते हैं कि एनाटाेमी वही लाेग पढ़ना चाहते हैं, जाे सर्जन बनना चाहते हैं. मेरा अॉनर्स मेडिसिन में था. यह तय कर चुके थे कि हमकाे मेडिसिन लाइन में ही जाना है. 
 
फिर भी हम एनाटाेमी काे मजबूत करना चाहते थे. एनाटाेमी हर व्यक्ति काे जानना चाहिए. ऐसे आरंभ में मेडिकल में दाे साल तक एनाटाेमी की पढ़ाई हाेती है लेकिन बाद में लाेग भूल जाते हैं. हमारे लिए अच्छा माैका था आैर हमने चार-पांच माह तक सिर्फ एनाटाेमी पढ़ा आैर पढ़ाया. इस बीच हमने बायाे-केमिस्ट्री के डेमाेंस्ट्रेटर पद के लिए भी आवेदन कर दिया. वहां भी मेरा चयन हाे गया. हमने एनाटाेमी छाेड़ कर बायाे-केमिस्ट्री में डेमाेंस्ट्रेटर के पद पर ज्वाइन कर लिया. यह मेडिकल साइंस आैर मेडिसिन के काफी करीब है. बायाे-केमिस्ट्री में कुछ काम-धाम नहीं था, इसलिए यह काम करते-करते हमने जनरल मेडिसीन में एमडी कर लिया. हम राेज राउंड में जाते थे. प्राे शीतल प्रसाद सिन्हा हमारे प्राेफेसर हुआ करते थे. 
 
आप पढ़ाई के लिए इंगलैंड कैसे चले गये, वहां का अनुभव?
 
डीएमसीएच में मेडिसिन में रेसिडेंट के पद पर हम काम करते थे. इंगलैंड जाने की हमारी इच्छा हुई. छुट्टी का आवेदन दिया, वह स्वीकृत हाे गया. फरवरी 1958 में इंगलैंड चले गये. एडिनबर्ग में हमारा एडमिशन हुआ. 
 
वहां पाेस्ट ग्रेजुएट काेर्सेज चलते थे. मेरे लिए एडवांटेज की बात यह थी कि जिनकी किताबें हम पढ़ा करते थे, वही लाेग सामने पढ़ानेवाले लाेगाें में हाेते थे. सभी फेमस लाेग थे. इनमें प्राेफेसर स्टानले डेविडसन आैर डॉ डाेनाल्ड हंटर भी थे. पहली बार अजीब लगा. इन्हीं की हम किताब पढ़ते थे आैर ये लाेग हमें सीधे पढ़ा रहे हैं. कई बार ताे विश्वास ही नहीं हाेता था. काेर्स तीन माह चला. इसके बाद कहीं न कहीं दूसरे अस्पताल में जाना ही था. 
 
इसके पहले इम्तिहान भी देना था. हमने कहा कि अभी इम्तिहान नहीं देंगे. जब आैर मैच्याेर हाे जायेंगे, तब देंगे. बड़ा कठिन काेर्स था. साै लाेग परीक्षा देते थे, सिर्फ पांच-छह लाेग ही पास हाे पाते थे. इंडियन छात्राें का रिजल्ट ताे आैर कम हाेता था. सिर्फ चार प्रतिशत पास करते थे. हमने तय कर लिया था कि अभी एक्जाम नहीं देंगे, बाद में देंगे. इस बीच हमने नाैकरी के लिए वहां आवेदन करना शुरू कर दिया. नाैकरी भी मिल गयी. 
 
इंगलैंड में वेस्टर्न काेस्ट में हल नामक शहर है. अब ताे वह यूनिवर्सिटी भी है आैर मेडिकल कॉलेज भी खुल चुका है. वेस्टर्न जेनरल हाॅस्पिटल में मुझे जूनियर हाउस अॉफिसर की नाैकरी मिल गयी. एक साल तक हम वहां रहे. हमने वहां बहुत कुछ सीखा क्याेंकि जितने भी हमारे कंसलटेंट थे, सब पढ़ानेवाले-बतानेवाले थे. साल भर वहां रहने के बाद न्यूराेलॉजी में हमारा इंटरेस्ट जागा. न्यूराेलॉजी में मेडिकल न्यूराेलॉजी बड़ा टफ माना जाता है. 
 
मेरे साथ एडवांटेज यह था कि वेस्टर्न जनरल हाॅस्पिटल में एक बड़े शहर लीड्स से सप्ताह में दाे दिन प्राेेफेसर न्यूराेलॉजी आैर कंसल्टेंट न्यूराेलॉजी वहां आते थे. हम उन्हें असिस्ट करते थे. उन्हाेंने कहा था कि आपकाे न्यूराेलॉजी में इंटरेस्ट है, इसलिए आप ही मरीजाें की फाइल काे देखिए. फाइल देखते-देखते न्यूराेलॉजी में मेरी रुचि आैर बढ़ गयी थी लेकिन वहां न्यूराेलॉजी में काेई जगह खाली मिलती नहीं थी. मैंने साेचा कि क्याें न न्यूराेसर्जरी में चले जायें.
 
हमने आवेदन किया. न्यू कैसल के पास न्यूराे सर्जरी में जूनियर हाउस अॉफिसर की नाैकरी भी मिल गयी. इंगलैंड में रहते हुए एक साल हाे गया था. तब साेचा कि क्याें नहीं अब एमआरसीपी का एग्जाम दे दिया जाये. हमने परीक्षा दी आैर पास हाे गये. अब हमें मेडिसीन में वापस लाैटना था लेकिन न्यूराेसर्जरी में भी रुचि बढ़ गयी थी. हमने आवेदन करना जारी रखा. इंगलैंड वेस्टर्न काेस्ट में ब्राइटन एक जगह है, वहां से थाेड़ी दूर संत फ्रांसिस हॉस्पिटल परिसर स्थित हर्स्टवुड पार्क हॉस्पिटल में रजिस्ट्रार के पद पर मेरा सेलेक्शन हाे गया. 
 
उस अस्पताल का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ न्यूराेलॉजी का था. मेरी ड्यूटी वहां न्यूराे सर्जरी आैर न्यूराेलाॅजी दाेनाें की थी. वहां हमने न्यूराे सर्जरी करना शुरू कर दिया था. इसी क्रम में हम ब्राइटन स्थित ब्राइटन जनरल हॉस्पिटल आैर रॉयल ससेक्स हॉस्पिटल के न्यूराेलॉजी आेपीडी का भी काम देखने लगे थे. छह माह हमने देखा भी था. वहीं पर हमने सर्जरी भी शुरू कर दी, खाेपड़ी खाेलना भी शुरू कर दिया, स्पाइनल कॉर्ड का काम भी शुरू कर दिया.
 
इस बीच हमारे कंसल्टेंट बीमार पड़ गये. उन्हें हार्ट-अटैक आ गया था. हमें मरीजाें काे देखने के लिए अब लंबा समय मिल गया. काेई भी मरीज काे दूसरे अस्पताल में रेफर नहीं करते थे. लंदन से सप्ताह में एक दिन एक न्यूराेसर्जन आते थे. वे भारत में रह चुके थे. वे गाइड करते थे. मरीजाें काे हम ही देखते थे. जितने भी कॉल आते थे, हमारे नाम से ही आते थे. 
 
हम ही अॉपरेशन करते थे. कभी-कभी 50-50 मील दूर भी हम डब्बा-डुब्बी लेकर इलाज के लिए चले जाते थे. सहायता के लिए नर्स भी हाेती थी. आॅपरेशन कर सुबह तक लाैट आता था. बहुत बड़ा अॉपरेशन ताेनहीं लेकिन बहुत सारे अॉपरेशन करता था. हेड ट्रॉमा का अॉपरेशन ज्यादा किया.
 
आप इंगलैंड में थे. भारत लाैटने की याेजना कैसे बनी?
 
घर से दबाव आने लगा. बहुत दिन हाे गया, अब घर लाैटाे. पिताजी की चिट्ठी आती थी कि बहानेबाजी मत कराे आैर लाैट आआे. यह बात है जनवरी-फरवरी 1962 की. नाैकरी ताे मेरी यहां भी थी ही. हम भारत लाैट आये. उसी समय गाेवा की मुक्ति की लड़ाई भी भड़की थी. 
 
लाैटने पर छह महीना तक ताे हम पटना मेडिकल कॉलेज में पाेस्टेड रहे, क्याेंकि डॉ मधुसूदन दास हमकाे बहुत मानने लगे थे. हमने उन्हें प्रैक्टिकल कर दिखा दिया था कि हम कैराेटिड एंजियाेग्राम करते हैं. उन्हाेंने पहले कभी देखा नहीं था. उस समय एक मंत्री थे, जिनका नाम हम भूल रहे हैं. उन्हें डॉ मधुसूदन दास ने कहा भी था कि यह लड़का बड़ा तेज है, हम इसे रखना चाहते हैं. आप काेई ऐसा प्रबंध कर दें कि ये किसी तरह पटना मेडिकल कॉलेज में रह जाये. इस पर मंत्री जी ने कहा था- इस डॉक्टर काे कहिए कि थाेड़ा धीरज रखे. 
 
हमकाे धीरज ताे था नहीं, हमकाे ताे नाैकरी चाहिए थी. हम ताे सरकारी नाैकरी में थे ही. इसी बीच राजेंद्र मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन डिपार्टमेंट में जगह खाली हाे गयी थी. पाेस्ट था ट्यूटर इन मेडिसिन. हमने बगैर डॉ मधुसूदन दास से पूछे-पाछे बिना चुपके से अावेदन कर दिया. हमारा सेलेक्शन भी हाे गया. हम जुलाई 1962 में राजेंद्र मेडिकल कॉलेज आ गये. उसी समय से मेडिसिन विभाग में घुस गये.
 
ताे इसके बाद अाप अमेरिका कैसे चले गये?
 
1964 में हमकाे फिर विदेश जाने का माैका आया, अमेरिका जाने का. डेढ़ साल वहां रहे. यूनिवर्सिटी टीचिंग हॉस्पिटल, शिकागाे में रहे. बहुत ही बढ़िया अस्पताल. अमेरिका के बहुत अच्छे अस्पतालाें में इसकी गिनती हाेती थी.
 
आपने भारत में पढ़ाई की, इंगलैंड-अमेरिका में भी पढ़े. तीनाें की पढ़ाई आैर माहाैल में क्या फर्क लगा आपकाे?
 
बहुत जबरदस्त. भारत की पढ़ाई भी अच्छी थी. टीचर लाेग पढ़ाते थे. लेकिन वह क्वालिटी नहीं थी. इंगलैंड में माैका बहुत है लेकिन सीखना आपकाे है. काेई दबाव डाल कर आपकाे नहीं पढ़ायेगा. अगर काेर्सेज लेना है ताे पढ़ा देंगे सवेरे से शाम तक लेकिन अगर काेर्सेज नहीं लेना है, आप वर्क कर रहे हैं ताे अपने सीखना है. 
 
अमेरिका में यह कहते हुए आपकाे गला पकड़ कर पढ़ा देंगे कि यू हैव टू लर्न दिस. आपसे सवाल इतना पूछा जायेगा कि अापकाे शर्म लगेगी आैर आप रात भर जग कर उस टॉपिक काे पढ़ेंगे. थाेड़े समय में भी अमेरिकन लाेग गर्दन दबा-दबा कर पढ़ा लेते हैं. ब्रिटेन अलग है. वहां परंपरा का बहुत वैल्यू हाेता है, जैसे- कैसे रहना है, कैसे बात करनी है. 
 
लेकिन अमेरिका में एेसा नहीं हाेता. बड़ा ताज्जुब हुआ जब एक बार क्लिनिकल मीटिंग चल रही थी. केस प्रेजेंटेशन हाे रहा था. उसमें प्राेफेसर थे, असिस्टेंट प्राेफेसर थे, सीनियर रेजिडेंट थे, तीन-चार मेडिकल के छात्र भी हाेते थे. पूरा कमरा भरा हुआ था. एक जूनियर रेजिडेंट केस प्रेजेंट कर रहा था. प्राेफेसर सिगार पीते थे. वे उठ कर सिगार की राख फेंकने गये. तब तक उनकी कुरसी पर एक मेडिकल छात्र जा कर बैठ गया. कैसे हिम्मत की उसने, जबकि वह मेडिकल स्टूडेंट है. लेकिन जब प्राेफेसर आये ताे उन्हें बुरा नहीं लगा. वे उस जगह पर बैठ गये जहां कुरसी खाली थी. यह इंगलैंड में नहीं हाेता था, हिंदुस्तान में ताे हाे ही नहीं सकता. 
 
यही अंतर है अमेरिका आैर अन्य जगहाें में. एक आैर घटना सुनाते हैं. हमारे एक प्राेफेसर थे डॉ बैरन. हमलाेग काे खाने के समय उसकी कीमत देनी हाेती थी. हम दाेनाें खाने के समय साथ ही पहुंचते थे. हम लाेग पैसा देकर प्लेट में खाना लेकर आकर बैठ जाते थे. प्राेफेसर बैरन भी साथ थे. इसी बीच वहां काम करनेवाला एक नीग्राे स्वीपर जॉन आया आैर कहने लगा- आे बैरन, कैन आइ ज्वाइन यू? 
 
हमने साेचा कि ये ताे स्वीपर है लेकिन प्राे बैरन ने कहा- आे कम अॉन जॉन. इसके बाद वह भी वहां बैठ गया आैर हमलाेग के साथ बातचीत में शामिल हाे गया. हमलाेग के साथ हा-हा, ही-ही करने लगा. साेचिए, बैरन हमारे प्राेफेसर, हम चीफ रेजिडेंट आैर वह स्वीपर, लेकिन तीनाें एक साथ बैठ कर खाना खाते हुए बात कर रहे थे. 
 
यह जबरदस्त चेंज वहां हमने देखा. यह सिर्फ अमेरिका में ही संभव है. हिंदुस्तान ताे क्या, वर्ल्ड के किसी काेेने में यह नहीं हाे सकता. इंगलैंड की ताे चर्चा ही मत करिए. वहां ताे डॉक्टर के साथ डॉक्टर ही बैठता था. अमेरिका की इस घटना के बाद ही हम समझ गये कि अमेरिका क्याें इतना महान है. हमारी आंखें वहां खुल गयीं. अमेरिका में आैर भी फर्क है. पढ़ाने का तरीका भी अलग है. 
 
लाइब्रेरी 12 बजे रात तक खुली रहती है. हम वहां कम समय ही रह पाये लेकिन सीखा बहुत कुछ. वर्ल्ड फेमस लाेगाें के साथ-साथ काम करने का माैका मिला. वहां जाे मीटिंग हाेती थी, उसमें इंटरनेशनल स्तर के लाेग आते थे. ये वे लाेग हाेते थे जिनकी हम किताबें पढ़ते थे. लेकिन वे दिखाते भी नहीं थे कि वे बड़े लाेग हैं, महान हैं. वे कहते थे- वी आर कॉमन मैन. हमारे मन में यह बात उठती कि यह आदमी इतना बड़ा है, इतना महान है आैर हमसे इस तरह से बात कर रहा है.
 
अमेरिका से कब लाैटे?
 
1965 में अमेरिका से हम लाैट आये. यहां पर हमारी नाैकरी ताे थी ही. लेकिन अमेरिका में रहने के दाैरान जाे एक्सपाेजर मिला था, उसने हमकाे बहुत बदल दिया.
 
अमेरिका के माहाैल में काम करने के बाद यहां मन लगा?
 
बिल्कुल, वे लाेग ताे कहते थे- व्हाइ डाेंट यू स्टे हियर? लेकिन हमारा मन नहीं लगता था. हमारी मिसेज साथ नहीं गयी थी. बच्चे साथ नहीं गये थे. कमी ताे खलती ही थी. सब चिट्ठी लिखते-रहते थे चले आइए, चले आइए. अमेरिका में भी वहां के लाेग हमकाे नाैकरी देना चाहते थे. मेरे पास यहां ताे पहले से नाैकरी थी ही.
 
जिस समय आप रांची आये थे, उस समय की रांची के बारे में कुछ बताइए?
 
रांची काेई फेमस जगह नहीं थी. प्रैक्टिस के लिहाज से ताे इसे बिल्कुल रेगिस्तान माना जाता था. छाेटी जगह थी. पहली बार हम मेडिकल स्टुडेंट बन कर ट्रेनिंग में आये थे. तब मेंटल हॉस्पिटल में ट्रेनिंग हाेती थी. उस समय रांची की आबादी 72 हजार थी. यह ताे गरमी के दिनाें की राजधानी थी. पटना से हाइकाेर्ट आैर सेक्रेटेरिएट रांची चला आता था. कुछ अंगरेज अफसर भी चले आते थे. एजी यानी एकाउंटेंट जनरल अॉफिस यहां पर था. इसके अलावा यहां कुछ नहीं था. नथिंग-नथिंग-नथिंग. जब हम लाेग सेकेंड टाइम रांची आये, तब रांची शहर कुछ बड़ा हाे चुका था. लेकिन यहां जाे अस्पताल बना था, वह शहर से इतना दूर था कि लाेग आते ही नहीं थे. अस्पताल ताे बाद में बना, पहले कॉलेज बन गया था. जब यह अस्पताल नहीं था, ताे हम लाेग काे ढाई साल तक पढ़ाई के लिए रांची सदर अस्पताल जाना पड़ता था. फिरायालाल चाैक के पास था. 
 
अभी भी वहीं पर है, पर अब ताे नयी बिल्डिंग बन गयी है. उस समय लाल रंग की बिल्डिंग हाेती थी. जितनी भी नर्सेंज थीं, वे सब बेल्जियन थीं. उनकी प्रमुख थी मदर आेडिल. उनका कल्चर अलग था. यूराेपियन वातावरण आैर मरीजाें के देखने का तरीका अलग था. मदर आेडिल बहुत ही कड़ी थी. मेरे वार्ड में जाे सिस्टर थी, वह बहुत लंबी थी. मेरे काम में वही सबसे ज्यादा सहयाेग करती थी. एक बार की घटना बता रहा हूं. हम आउटडाेर के इंचार्ज थे. एक मरीज काे वार्ड में ले जाना था. हमने उस मरीज काे भरती किया था.
लेकिन वहां ट्रॉली नहीं थी. लेट हाे रहा था. दस मिनट लेट हाे गया था. इस बीच सिस्टर आ गयी. उन्हाेंने कहा- क्या परेशानी है. उन्हें बताया गया कि ट्रॉली नहीं है. सिस्टर ने पूछा- पेशेंट कहां है. बगैर समय गंवाये सिस्टर दाेनाें हाथ से पेशेंट काे उठा कर सीधे वार्ड में चली गयी. जाे बेड खाली था, उस पर रख दिया. ये सिर्फ वही लाेग कर सकते हैं, काेई हिंदुस्तानी नहीं कर सकता. ये सब सीखने की चीज थी. छाेटी-छाेटी चीजें. 
ढाई साल तक मेडिकल कॉलेज वहीं रहा. जब मेडिकल कॉलेज की नयी बिल्डिंग आ गयी ताे हम लाेग ट्रांसफर हाेकर यहीं पर शिफ्ट हाे गये. 1965 में जाे पहला बैच पास हुआ, उसकी ट्रेनिंग ताे सदर अस्पताल में हुई लेकिन परीक्षा यहां पर हुई थी. उस समय से यहीं पर रह गये.
 
आपने अारएमसीएच कब आैर क्याें छाेड़ दिया?
 
1971 तक हम प्राेफेशनली धीरे-धीरे आगे बढ़ गये थे. प्रैक्टिस भी अच्छी हाे गयी थी. पैसा भी हाे गया था. उसी समय यह मकान बनाया था. पहले हम मेडिकल कॉलेज की कॉलाेनी में रहते थे. क्वार्टर नंबर 67. वहां एक झाेंपड़ीनुमा क्लिनिक बनाया था, अभी भी वहां उसी तरह है. किसी ने उसे ताेड़ा नहीं है. इस बीच वहां आठ साल रहने के बाद हमने यहां (बरियातू में) मकान बना लिया. 4 दिसंबर 1971 से यहां चले आये. उस समय से अभी तक यहीं पर हैं. 
 
जहां तक आरएमसीएच छाेड़ने की बात है, हमकाे थाेड़ा झगड़ा हाे गया था उस समय के हेल्थ मिनिस्टर श्री बिंदेश्वरी दुबे से. वे अपने आप काे दबंग मानते थे. हमारे पास ज्यादा मरीज आते थे, उन सभी काे देखने के बाद ही हम आरएमसीएच आ पाते थे. लेट ही पहुंचते थे. यह हमारी गलती थी लेकिन काेई चारा भी नहीं था. दुबेजी काे मालूम हुआ कि डॉक्टर ताे लेट आता है. हम भी इस बात काे स्वीकार करते ही थे कि हम लेट आते हैं. मंत्रीजी एक दिन अचानक राउंड में हमारे वार्ड में पहुंच गये. तब तक हम वहां नहीं पहुंचे थे.
 
11 बज गया था. मंत्री ने हमसे एक्सप्लानेशन पूछ दिया. हमने माफी भी मांगी आैर कहा कि सर, माफ कर दीजिए. लेकिन उन्हाेंने माफ नहीं किया. कहने लगे कि पाेस्ट काे नन-प्रैक्टिसिंग कर देना चाहिए. भागलपुर काे छाेड़ कर पटना, दरभंगा आैर रांची काे नन-प्रैक्टिसिंग करने की तैयारी हाेने लगी. अगर हम प्रैक्टिस नहीं करते ताे हमारा काराेबार चल ही नहीं सकता था. दाे हजार रुपया ताे स्टाफ काे रखने में हमारा खर्च हाेता था. आरएमसीएच में हमारी सैलेरी भी उस समय बहुत कम थी. सिर्फ 1600 रुपये वेतन में मिलते थे. जगन्नाथ मिश्र इसके खिलाफ थे, लेकिन वे दब्बू किस्म के चीफ मिनिस्टर थे. उन लाेगाें से दब जाते थे जाे उनसे दबंग हाेकर बाेलते थे. 
 
 इस बीच इमरजेंसी में कुछ ऐसी घटना घटी कि अस्पताल काे नन-प्रैक्टिसिंग करने का निर्णय कुछ समय के लिए टाल दिया गया. 1976 में इसका फिर से रिव्यू हुआ. कैबिनेट की बैठक में चर्चा हुई.
 
बिंदेश्वरी दुबे ने कहा कि इस पाेस्ट काे नन-प्रैक्टिसिंग ताे हाेना ही है. उन्हाेंने कहा-चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार. उन्हाेंने कहा कि इसकाे ताे हम आज करके ही रहेंगे, नहीं ताे हम आज ही रिजाइन कर देंगे. दुबेजी काे ज्यादा चिढ़ हमसे ही थी. उन्हाेंने आरएमसीएच काे नन-प्रैक्टिसिंग अस्पताल घाेषित कर दिया. हम छह दिनाें तक साेचते रहे, इंतजार करते रहे. साेचा कि रिजाइन करें या नहीं. छठा दिन हम प्रिंसिपल अॉफिस गये आैर डायरेक्टर के नाम लिखा अपना इस्तीफा हेड क्लर्क काे दे दिया. 
 
ब्रह्मेश्वर बाबू हमारे प्राेफेसर थे, उनकाे इस्तीफा नहीं सौंपा क्याेंकि वे इस्तीफा फाड़ कर फेंक देते. प्रिंसिपल काे भी नहीं सौंपा. इस्तीफा दिया आैर सीधे चल दिया आरएमसीएच से. दाे माह बाद इस्तीफा स्वीकार भी कर लिया गया. दिस इज द स्टाेरी.
 
आप जब पढ़ते थे, उस समय शिक्षक आैर छात्राें के बीच के संबंध कैसे हाेते थे आैर अभी कैसा है?
 
अभी का ताे हम बहुत ज्यादा नहीं बता सकते. डॉ झा से पूछिए, वे ज्यादा बेहतर बता पायेंगे. मेरे समय में ज्यादा लड़के देहाती वातावरण से आते थे. पढ़े-लिखे लड़के भी हाेते थे, हाेशियार भी हाेते थे. देहात से आये लड़के भाेजपुरी, मगही जाे भी जानते थे, उसी में बात करते थे. लंठई भी करते थे लेकिन हमलाेग काे सब सहना पड़ता था. एक घटना सुनिए. 
 
एक बंगाली सज्जन मेडिकल की किताब बेचते थे. एक बार उसने मुझे कहा- सर,देखिए न, जाे लड़के किताब खरीदने आते हैं, गाली देकर बात करते हैं. जाे पढ़े-लिखे हैं, वे ताे दादा कह कर किताब मांगते हैं लेकिन बाकी ताे गाली देकर किताब मांगते हैं. हमकाे ताे किताब बेचना है, इसलिए सब सहना पड़ता है. अब वह सब बदल गया है. अब के लड़के-लड़कियां बहुत कल्चर्ड हैं. बहुत पढ़े-लिखे लाेग आ गये हैं. उनका बैकग्राउंड भी काफी अच्छा है. 40 साल में यह चेंज हाे गया है.
 
इलाज महंगा हाे गया है. क्या व्यवस्था हाे कि इलाज सस्ता हाे सके?
 
इसे अब राेका नहीं जा सकता. आप इसे राेक नहीं सकते. महंगा हाेते ही चला जायेगा. सब चीजें महंगी हाे गयी हैं. जिन मशीनाें से जांच हाेती हैं, वे महंगी मिलती हैं. सारे सामान महंगे हैं. जब अमेरिका इसे नहीं राेक सकता, यूराेप नहीं राेक सकता ताे आप कैसे राेकेंगे.
 
आप कई देशाें में गये. उन देशाें में गरीबाें के इलाज की क्या व्यवस्था है?
 
उन देशाें में ताे सभी इंश्याेर्ड हैं. अमेरिका में 20 फीसदी आबादी काे इंश्याेरेंस नहीं मिलता था, उनमें ज्यादातर काले लाेग थे. आेबामा ने कानून बना कर लगभग सभी काे इंश्याेर्ड कर दिया. अगर काेई इंश्याेर्ड नहीं है ताे उसका पैसा सरकार भरती है. अन्य लाेगाें के इलाज का पैसा इंश्याेरेंस कंपनी देती है.
 
40-50 साल पहले काैन-काैन-सी ऐसी मामूली बीमारियां थीं जिनका उन दिनाें इलाज संभव नहीं था? 
 
ब्रेन से जुड़ी जितनी भी बीमारियां थीं, उनका इलाज पहले कठिन था. पांच-छह दवाइयां थीं जिनका इस्तेमाल हमलाेग मिर्गी के इलाज के लिए करते थे. अब हमलाेग सिर्फ मिर्गी में 60 से अधिक दवाइयाें का इस्तेमाल करते हैं. अगर आपकाे अनुभव है ताे आप जरूरत के हिसाब से दवा लिखते रहिए. पहले अधिक से अधिक पांच-छह एंटीबायाेटिक बाजार में थे. अब जाकर देखिए, सैकड़ाें एंटीबायाेटिक बाजार में आ गये हैं. पहले टेस्ट बहुत कम थे. हम लाेग अपने क्लिनिकल सेंस से पहचानते थे कि क्या है, कैसा है. 
आपकाे क्लिनिकल सेंस डेवलप करना पड़ता था. यह हमारी आदत अभी भी पड़ी हुई है. अब टेस्ट इतना हाे गया है कि आप सीधे डायग्नाेसिस पर पहुंच जाते हैं, भले ही टेस्ट महंगा हाे. यह अब ऐसे ही रहेगा. इससे नीचे नहीं उतरनेवाला.
 
हर दिन रिसर्च हाे रहा है. अापके क्षेत्र में क्या बदलाव हुआ है?
 
खास कर हमारा डिपार्टमेंट यानी न्यूराेसाइंस में ताे पिछले 20-25 साल में चमत्कार हाे गया है. टाेटल रिवाेल्यूशन हाे गया है. ब्रेन के अंदर दाे चीजाें काे ही समझते थे. एक स्ट्रक्चर आैर दूसरा फंक्शन. सबसे बड़ा उसका फंक्शन माइंड है जाे मनुष्याें काे मिला हुआ है, मेमाेरी है जाे मनुष्याें काे मिला हुआ है. जानवराें काे छाेटा-थाेड़ा मिला हुआ है. वह सब मिस्टिरियस है. अब सब जान गये हैं कि मेमाेरी का मतलब क्या है. सब नेटवर्क है. हर ब्रेन काे 100 बिलियन सेल्स मिले हुए हैं. पैदा हाेते ही 100 बिलियन सेल्स मिलता है. हर सेल का एवरेज कनेक्शन जाे मैच्याेर्ड हाे जाता है, वह दस हजार है. किसी-किसी काे ताे पांच-पांच लाख कनेक्शन हाेते हैं. 10-10 लाख कनेक्शन वाले भी हैं. ये ब्रिलिएंट हाेते हैं. इसे आप डेवलप भी कर सकते हैं. 25 साल की उम्र के बाद हर दिन 25 हजार सेल्स मरते हैं लेकिन पता नहीं चलता क्याेंकि जाे बचा रहता है, वह नये-नये कनेक्शन करते रहता है.
 
40-50 साल बाद मेडिकल साइंस काे आप कहां देखते हैं?
 
आैर आगे. बहुत आगे. आैर चमत्कार हाेता रहेगा. अभी जिसका इलाज संभव नहीं है, उन सभी का इलाज संभव हाे जायेगा. सभी बीमारी का. 
 
किस बीमारी काे आप मानते हैं कि अभी तक लाइलाज है?
 
कैंसर के बहुत-से केस ऐसे हैं जाे लाइलाज हैं. वायरल बीमारियाें के भी बहुत से मरीज ऐसे हैं, जिनका इलाज अभी संभव नहीं है. लेकिन आज नहीं ताे कल, लाेग कैंसर आैर वायरस पर नियंत्रण पा लेंगे.
 
लगता है कि भविष्य में मेडिकल साइंस माैत पर काबू पा लेगा?
 
माैत पर काबू पाने की बात ताे नहीं कह सकते हैं लेकिन मेडिकल साइंस आयु बढ़ा सकता है. 20 साल पहले की बात है, इंगलैंड में पचास ऐसे लाेग थे जिनकी आैसत आयु साै वर्ष थी. अब वहां पांच हजार से ज्यादा हैं, जाे साै साल से ज्यादा के हैं. 
 
मरीज डॉक्टर में भगवान का रूप देखता है. डॉक्टर किस रूप में मरीज काे देखते हैं?
 
यह अनपढ़ लाेग ही करते हैं. 
 
बेवकूफ ही करते हैं. अमेरिका में काेई भगवान नहीं साेचता. यह हिंदुस्तानी ही हैं जाे हर बात में हाथ जाेड़ लेते हैं. पूजा कर लेते हैं, क्याेंकि हम जानते ही नहीं हैं. अज्ञानी हैं. चारा भी नहीं है. साधन भी नहीं है. इसलिए भगवान के आगे हाथ जाेड़ लेते हैं. हम भगवान में विश्वास नहीं करते हैं. लेकिन काेई फर्क नहीं पड़ता. हम डॉक्टर हैं. समाज ने हमें जिम्मेवारी दी है. इसकाे देखना है, बचाना है. जाे मरीज हम लाेग के पास आते हैं, उनकी मदद करनी है. ठीक करना ताे बहुत बड़ी बात है. हां, हमकाे जितनी मदद हाे सकेगी, हम मेडिकली मदद करेंगे.
 
इतने अनुभव हाेने के बाद भी आप राेज अध्ययन करते हैं, अपने काे अपडेट करते हैं. अन्य चिकित्सक भी ऐसा कर पाते हैं?
अन्य डॉक्टराें के बारे में हम कुछ नहीं कह सकते. लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि राेज अध्ययन अनिवार्य है, अपडेट रहना अनिवार्य है. जाे भी नॉलेज आपके पास है, वह राेज पुराना पड़ जाता है. दस दिनाें पहले अाप जाे पढ़े थे, सीखे थे, दस दिन में उसमें काफी रिसर्च हाे जाते हैं, नयी-नयी जानकारियां आ जाती हैं. बिना अपडेट किये काम नहीं चलनेवाला. रेगुलर पढ़ाई अनिवार्य है. चाहे आप कंप्यूटर रखिए या जर्नल पढ़िए. हम ताे कंप्यूटर ट्रेंड हैं नहीं लेकिन जर्नल ट्रेंड जरूर हैं. राेज उलट-पलट कर देखते रहता हूं, सीखते रहता हूं कि दुनिया में क्या नया हाे रहा है.
 
मेडिकल के पेशे काे सेवा का पेशा माना जाता रहा है. क्या अब भी ऐसा है या इसमें पैसा घुस गया है?
 
हिंदुस्तान जैसी जगहाें पर इस पेशा काे सेवा माना ही जायेगा. ऐसे भी यह एक प्रकार का सर्विस ही है लेकिन सर्विस विथ ए कॉस्ट. यू चार्ज समथिंग फॉर इट. फ्री में ताे करते नहीं हैं. अब धीरे-धीरे मन में यह बात घुस रही है कि यह भी एक प्रकार का प्राेफेशन है, जैसे लॉ एक प्रकार का प्राेफेशन है. लेकिन हिंदुस्तानी वातावरण में सेवा बहुत दिनाें तक चलेगी.
 
पहले शिक्षकाें की तरह डॉक्टराें की बहुत प्रतिष्ठा थी. क्या अब भी है या इसमें कमी आयी है?
यह डिपेंड करता है कि डॉक्टर काैन है. लाेगाें की प्रतिष्ठा अभी भी है आैर नहीं भी है.
 
जब काेई क्रिटिकल केस आपके पास आता है ताे कभी आपकाे लगता है कि मामला आपके हाथ में नहीं है? ऊपर वाले के हाथ में है.
कई बार ऐसा लगता है. हमकाे लगता है कि इसके पास इतना पैसा नहीं है कि कहीं आैर जा सकता है. हमकाे ही यह जिम्मेवारी दी गयी है. हम बेहतर से बेहतर इलाज करने का प्रयास करते हैं.
 
काेई ऐसा केस याद है जब आप निराश हाे गये हाें लेकिन इलाज के बाद चमत्कार दिखा?
 
साल भर में एक-दाे ऐसे केस आते रहते हैं. एक घटना याद है. एक गरीब मां-बाप बेहाेश बच्चे काे लेकर आया था. बिल्कुल बेहाेश. हमकाे लगा कि हम उसे बचा सकते हैं. तीन माह तक बेहाेश ही रहा. हम उसका इलाज करते रहे. तीन माह बाद जब वह आया ताे हंसते-खेलते आया. हम खुश थे. बच्चे के पिता से कहा कि जान ताे बच गयी लेकिन दवा जिंदगी भर खानी पड़ेगी.
 
आप भी कभी निराश हाेते हैं?
 
बहुत.
 
समाज ने एक केके सिन्हा काे देखा. क्या आप दूसरा केके सिन्हा देख पा रहे हैं?
 
हम उतना बड़ा अपने आपकाे नहीं मानते. आपने मुझे बहुत बड़ा बना दिया. हम उतने बड़े नहीं है. थाेड़ा नीचे आइए. आइएम वनली ए ह्यूमन. हमारे पास नॉलेज का एक छाेटा-सा फंड है. जाे है, उसे राेज अपडेट करने का प्रयास करते हैं आैर उसी के अनुसार हम ट्रीटमेंट करते हैं. हम चाहते हैं कि मरीज का कम खर्चा में काम चल जाये. लेकिन ऐसा हाेनेवाला नहीं है. दुनिया तेजी से बढ़ रही है. न्यूराेसाइंस में 20 साल में रिवाेल्यूशन हाे चुका है.
 
सबसे बड़ी उपलब्धि आप किसे मानते हैं?
 
डॉ वाडिया काे फादर अॉफ इंडियन न्यूराेलॉजी कहा जाता है. हाल ही में उनका निधन हुआ है. उनकी किताब में तीन चैप्टर (लेख) मेरे आैर डॉ वाडिया के लिखे हुए हैं. इसे हम अपना सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन मानते हैं. इसके अलावा भी कई आैर हैं.
 
सबसे ज्यादा संतुष्टि आपकाे किस काम में मिलती है?
 
कई कामाें में. हम साेचते रहते हैं कि हमसे काेई बुरा काम न हाे जाये. हम उस एरिया में जाना ही नहीं चाहते जहां हमारी बदनामी हाे. हम कभी किसी से पैसा नहीं ऐंठते. किसी काे ठगने या बेवकूफ बनाने का हमारा स्वभाव नहीं रहा है. जहां तक संतुष्टि की बात है, किसी काे सहयाेग कर हम याद नहीं रखते, भूल जाते हैं. दे दिया ताे दे दिया, मदद कर दी ताे कर दी, याद क्या करना. ढिंढाेरा क्या पीटना. किसी काे पढ़ने में सहयाेग किया ताे फिर उसकी चर्चा भी नहीं करता.
 
आपकाे संगीत का बहुत शाैक है. यह कब से है आैर किस प्रकार के गाने आप सुनते हैं?
 
संगीत का शाैक ताे बचपन से है. हमारे पिताजी काे संगीत में काेई रुचि नहीं थी. चाचा काे थी. एक राेचक घटना बता रहा हूं. हमारे पास एक हारमाेनियम कैसे आया था. मेरे गांव के एक रैयत ने मेरे चाचा से पैसा उधार लिया था. वापस नहीं कर पा रहा था. उस रैयत का बेटा कमाने के लिए बर्मा चला गया था. रंगून से लाैटते वक्त वह अपने साथ एक हारमाेनियम खरीद कर लाया था. मेरे चाचा ने रैयत पर पैसे के लिए दबाव डाला. रैयत ने भाेजपुरी में कहा- हमरा ताे पैसा-वैसा नइखे. इ हरमाेनियमा ले जाइं. इसके बाद मेरे चाचा हारमाेनियम लेकर चले आये. लेकिन उनकाे संगीत में इंटरेेस्ट पहले से था. पिताजी धार्मिक आदमी थे. लिखावट शानदार. लिख दिया ताे लगता था कि टाइप किया हुआ हाे.
 
संगीत का सेहत पर काेई असर पड़ता है?
 
जबरदस्त पड़ता है. माइंड पर पड़ता है. माइंड ही क्याें, पूरे शरीर पर भी पड़ता है.
एक आम आदमी काे संगीत के माध्यम से सेहत बनाये रखने के लिए क्या करना चाहिए?
राेज संगीत सुनना चाहिए, अपने मन का, अपनी पसंद का संगीत. जाे आप लाइक करते हैं. हम ताे शास्त्रीय संगीत पसंद करते हैं, उसे उस समय भी सुनते हैं जब हम राेज 90 मिनट वॉक करते हैं.
 
आपने कई किताबें लिखी हैं, लेख लिखे हैं, मेडिकल के छात्र उसे पढ़ते हैं, कुछ बतायेंगे?
 
एक जमाना था जब हम खूब लिखते थे. एक-दाे आपकाे दिखा देंगे. लेकिन अब हिस्ट्री पर भी लिखता हूं. वह एरिया भी हमकाे बड़ा इंटरेस्टिंग लगता है. हमने लेख भी लिखा है कि मुगल सम्राट अकबर काे काैन सी बीमारी थी. अकबर काे अक्षर नहीं पहचानने की बीमारी थी. वह जिंदगी भर चार अक्षर अ, क, ब आैर र ही पहचान पाया. अकबर काे एक स्नायु राेग था, जिसे कांजेनाइटल डिसलेक्सिया था. इसलिए वह काेशिश करने के बावजूद पढ़ नहीं पाया. हमने एक दूसरा लेख भी लिखा कि अकबर के दरबार में तंबाकू कैसे लाया गया था. हमने लेख लिखा कि राजा राम माेहन राय की माैत किस बीमारी से हुई थी.
 
इतिहास में आपकी गहरी रुचि है. काैन हैं आपके नायक?
 
एक हाें तब न! एक नहीं हैं, अनेक हैं. अनेक लाेग ऐसे हैं जिन्हाेंने हमें प्रेरित किया.
 
मेडिकल की भाषा बहुत कठिन हाेती है. लाेग समझ नहीं पाते...
 
लाेगाें काे सरल भाषा में समझाया जा सकता है. आप सिर्फ डॉक्टर नहीं हैं. समझाने की कला भी आपकाे आनी चाहिए. आप चाहें ताे नर्व सेल की तसवीर बनाकर आम लाेगाें काे समझा सकते हैं. लाेग समझेंगे.
 
चाहे बच्चे हाें, युवा हाें या बुजुर्ग, कैसे वे स्वस्थ रह सकते हैं?
 
बचपन से ही सीखना हाेगा कि कैसे स्वस्थ रहा जाये. कैसे दीर्घायु हाें. इसके लिए फाेकस्ड रहना हाेगा. ज्यादा लाेग लापरवाह हाेते हैं. किसी काे सिगरेट पीने की आदत हो, किसी काे कुछ नशा की चीजें खाने की आदत हो, किसी काे ज्यादा खाना खाने की आदत हाे, काेई माेटा हाे गया हाे, किसी काे डायबिटीज हाे गया हाे, ताे चेत जाना चाहिए. यह पूरे देश में महामारी की तरह फैल रहा है. आंध्र के कुछ क्षेत्राें में 40 प्रतिशत तक वयस्काें काे डायबिटीज है. ठीक है डायबिटीज हाे गया ताे हाे गया. अब चाैकस ताे रहें. खाना पर नियंत्रण रखें. देखिए, हम भिखारी की तरह खाना खाते हैं.
 
बच्चे फास्ट फूड की आेर भागते हैं, इसका सेहत पर क्या असर पड़ता है?
 
फास्ट फूड दीजिए लेकिन पहले से सतर्क करते रहिए. बच्चे हैं ताे फास्ट फूड मांगेंगे ही, खायेंगे ही. बच्चे नहीं खायेंगे ताे काैन खायेगा फास्ट फूड, काहे के लिए बना है फास्ट फूड. हां, हम नहीं खा सकते फास्ट फूड. अगर खायेंगे ताे महीना में थाेड़ा सा. चख लेंगे. आपकी उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, आप डेंजर जाेन में जाते हैं, आपकाे सतर्क हाे जाना चाहिए. आप जाे भी खा रहे हैं, वह आपके शरीर में जा रहा है, वेट बढ़ायेगा, काेलेस्ट्राल काे बढ़ायेगा. सुगर काे अप-डाउन करता रहेगा. हमारा कुक जाे भी बना कर लाता है, हम छांट लेते हैं. कैलाेरी भी गिन लेते हैं, फिर खाते हैं. जैसे हम सतर्क हैं, सभी काे हाेना हाेगा.
 
लाइफ है क्या? इसे आप किस रूप में देखते हैं?
 
लाइफ मिस्टिरियस चीज है. हम भगवान में भराेसा नहीं करते हैं लेकिन लाइफ में करते हैं. लाइफ बायाेलॉजिकल चीज है. कई ऐसी बीमारियां हैं जाे सिर्फ प्राेटीन की गड़बड़ी से हाेती हैं. एक में प्राेटीन सीधा-साधा है, एक में टेढ़ा-मेढ़ा. वायरस नहीं है वह, लेकिन उसके कारण बीमारी हाे गयी. ऐसी खतरनाक बीमारी, जिसके कारण जान भी जा सकती है. ये सारी मिस्टिरियस चीजें हैं जिसे हम राेज ही सीख रहे हैं.
 
शरीर में वह क्या है, जिसे आत्मा कहते हैं आैर जिसके निकल जाने से सब कुछ स्थिर हाे जाता है, डेड हाे जाता है.
 
इसकाे बॉयलॉजी में लाइफ कहते हैं. लाइफ के कारण ही ताे बॉयलॉजी है. लाेहा, साेना, चांदी में लाइफ नहीं है लेकिन बायाेलॉजिकल जितने भी सब्जेक्ट हैं चाहे वह सिंगल सेल हाे, डबल सेल हाे, बैक्टीरिया हाे, माेलेक्यूल्स हैं, सब में लाइफ है.
 
आपने लंबी दुनिया देखी है. आनेवाले दिनाें में कैसा भारत आप देख रहे हैं, आपका अनुभव क्या कहता है?
 
साै साल में धर्म का अर्थ ही बदल जायेगा. बहुत सी बकवास की चीजें खत्म हाे जायेंगी. आनेवाली पीढ़ी का अपना एजेंडा हाेगा, उनकी प्राथमिकताएं अलग हाेंगी. मनुष्य काे माइंड मिला हुआ है, बकरी या अन्य किसी जानवर काे सिर्फ सरवाइवल के लिए माइंड मिला है. मनुष्याें काे थिंकिंग के लिए मिला है. माइंड बहुत बड़ी चीज है.
 
बीएचयू की काेई घटना, जाे आपकाे याद है?
 
हमने जुलाई में एडमिशन लिया था. मालवीय जी का डेथ हुआ था पांच नवंबर 1946 काे. मालवीयजी का जब डेथ हाे रहा था ताे सभी छात्र, शिक्षक लाइन लगा कर दर्शन कर रहे थे. हम भी वहां पर थे. वह दृश्य हमकाे आज भी याद है.
 
आपके आदर्श काैन रहे हैं?
 
महात्मा गांधी. डॉ आंबेडकर भी, जिन्हाेंने संविधान बनाया. इन लाेगाें का जीवन वैसा है जिन्हें बहुत कठिनाई हुई. इन्हाेंने सब कुछ सहा. देश-समाज काे जाे दिया, वह सब अच्छा ही दिया. कुछ भी गलत नहीं किया. जवाहरलाल नेहरू में कुछ कमियां थीं. हिंदुस्तान का बंटवारा नहीं हाेता, अगर नेहरू प्रधानमंत्री बनने की इच्छा नहीं रखते. 
 
आपकाे जीवन में कभी किसी राजनीतिज्ञ ने परेशान किया?
 
इस पर हम ध्यान ही नहीं देते. साेचते हैं कि दुनिया में घटना ताे हर किसी के साथ घटते रहती है. अगर मेरे साथ कुछ हाेता भी है ताे आधा घंटा में सब कुछ भुला देते हैं.
 
कभी राजनीति में जाने का मूड किया?
 
एक बार काेडरमा से चुनाव लड़ने का माैका आया था. उसी में डॉ सीपी ठाकुर काे पटना से टिकट मिला था. हम नहीं गये राजनीति में. हमकाे कहा गया, जाइए, काेडरमा से आपकाे टिकट मिला. हमकाे ताे उस दिन रात में नींद ही नहीं आयी. हमने कह दिया- हमकाे नहीं चुनाव लड़ना. सीपी ठाकुर काे पटना से आैर हमकाे काेडरमा से अॉफर मिला था. हमने कहा- हम डॉक्टर हैं आैर डॉक्टर ही रहेंगे. जिसकाे जहां जाना है जाये. राजनीति में घुस कर आप डॉक्टर ताे नहीं ही रहेंगे. हम डॉक्टरी छाेड़ना ही नहीं चाहते थे.
अगर आपसे झारखंड काे डेवलप करने का सुझाव मांगा जाये ताे क्या कहेंगे?
 
झारखंड तुरंत ताे डेवलप स्टेट नहीं बन सकता है. यहां समस्याएं जबरदस्त हैं. समय लगेगा. हमारे यहां जाे एडमिनिस्ट्रेटिव अॉफिसर हैं, उनमें थाेड़ी ऐंठ ज्यादा आ जाती है. बिना माने मतलब के. आप सेल्फलेस सर्विस कीजिए. आप ब्रिलिएंट हैं आैर अापकाे दिया गया है पावर. इस पावर का मिसयूुज मत कीजिए. ऐंठ मत दिखाइए. काम कीजिए. इस राज्य के 90 फीसदी राजनीतिज्ञाें में काेई गुण नहीं है. रघुवर दास सीधे आैर सरल मुख्यमंत्री हैं. उन्हें कई सलाहकार भी मिले हुए हैं. ये सलाहकार कई किस्म के हैं. अगर सीनियर आइएएस अफसराें काे ऐंठ आ गयी ताे ये बहुत कुछ नहीं कर पायेंगे. अगर ऐंठ नहीं आयी आैर वैसे ही सलाह देते रहे, काम करते रहे जैसे आइएएस बनने के तुरंत बाद किया करते थे, ताे यहां काम हाेगा. हां, यहां अच्छे आइएएस अफसर भी हैं. इनकी संख्या बहुत कम है, लगभग 20 प्रतिशत. बाकी ताे वैसे ही हैं. इन्हीं अच्छे अफसराें के बल पर राज्य चल रहा है.
 
विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीजें क्या हाेनी चाहिए?
 
ईमानदारी नंबर वन. फिर काम करने की क्षमता. दूसरे देश के लाेग हमसे क्याें आगे बढ़ गये. अफ्रीका से सत्तर हजार वर्ष पहले मनुष्य निकले. दुनिया में कई जगहाें पर चले गये. आइस एज उस समय नहीं था. छिछला पानी था. ट्रैवल करते-करते रेड इंडियन अमेरिकी महाद्वीप तक चले गये. अंगरेज भी इसी प्रकार यूराेप चले गये. अंगरेज लाेग आम ताैर पर तेज हाेते हैं. अंगरेजाें के 16 जीन साधारण लाेगाें से अलग है. वे नाेबेल प्राइज-विनर भी ज्यादा हैं. उनका चेहरा भी अलग हाेता है, कल्चर भी अलग. लेकिन हैं ताे वे मनुष्य ही. 
 
एक पिता के दाे बेटे, एक पढ़ने में काफी तेज, जीनियस आैर दूसरा बिल्कुल कमजाेर. ब्रेन में काैन-सा ऐसा पार्ट है जिसके कारण यह अंतर आता है?
 
एक नहीं, अनेक कारण हैं. कुछ ताे साेशल है, इनवायरमेंटल है आैर कुछ ताे जेनेटिकली ही डिफरेंट है. मैटेरियल ही डिफरेंट है. एक साेने का बना हुआ है आैर दूसरा पीतल का.
 
एक बच्चा बचपन से कमजाेर है ताे क्या मेहनत कर वह बहुत तेज बन सकता है?
 
वह नाेबेल प्राइज विनर ताे नहीं बन सकता है. मेहनत से बेहतर हाे जायेगा. पहले से अच्छा करेगा. उतना तक ताे हाे सकता है लेकिन वह जीनियस नहीं हाे सकता. अगर वह बुद्धिहीन है ताे कुछ नहीं हाे सकता.
 
जीवन में धन का कितना महत्व है?
 
धन का बहुत महत्व है. बिना धन के आगे बढ़ा नहीं जा सकता. लेकिन सवाल है धन कैसा. अपना धन या कलेक्टिव धन. कलेक्टिव धन का बहुत ज्यादा महत्व है. जैसे आेबामा हैं, उनके पास पावर है लेकिन उनके पॉकेट में अपना पैसा ज्यादा नहीं है पर अमेरिका धनी देश है. अाेबामा उस पावर काे या कलेक्टिव पैसे का उपयाेग कर सकते हैं, एेसा धन चाहिए.
 
परिवार टूट रहा है. काैन सी ताकत है जाे परिवार, समाज काे बचा सकती हैै?
 
एक ताे पापुलेशन कंट्राेल नाम की काेई चीज ही नहीं है भारत में. जिस समय हमारा एडमिशन 1946 में बीएचयू में हुआ था, उस समय भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान को मिला कर कुल अाबादी थी 33 कराेड़, आज 133 कराेड़ ताे सिर्फ भारत की है. पाकिस्तान, बांग्लादेश की अलग. एक लाल तिकाेन चला था. अब इस पर काेई ध्यान ही नहीं देता. परिवार काे एक रखा जा सकता है बता कर, शिक्षा देकर. यह बता कर कि क्याें तुम्हें छाेटा परिवार चाहिए. लाेगाें काे यह बताना हाेगा कि पांच-सात बच्चाें काे सिर्फ जन्म देने से कुछ नहीं हाेगा. उनकी परवरिश ठीक ढंग से नहीं हाे सकती. क्वालिटी एजुकेशन संभव नहीं हाेगा. यह बात वैसे लाेगाें के दिमाग में घुसानी हाेगी.
 
सबसे बड़ा संकट समाज के सामने क्या देखते हैं?
 
एक ताे सबसे बड़ा संकट आबादी का बढ़ना है. सरकार भी ध्यान नहीं देती. पता नहीं माेदीजी का ध्यान इस आेर क्याें नहीं जाता! हम मानते हैं कि भारत में जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें माेदीजी जैसे कम हुए. एक आैर संकट है नेचर से खिलवाड़ करने की आदत. प्रकृति ने जाे कुछ दिया है- पेड़, जंगल, पहाड़, नदी, उसे नष्ट नहीं करना चाहिए. हां, जहां जरूरत है, वहां जरूर ताेड़ें, खाेदें. विकास के लिए यह आवश्यक है भी, लेकिन यह सब बेहतरी के लिए हाे. क्या करेंगे 10 कराेड़, 20 कराेड़, 100 कराेड़ कमा कर. पैसे के लिए नेचर के साथ मजाक किया. किसी काे ठग लिया. आपने नेशन के बारे में, ह्यूमैनिज्म के बारे में नहीं साेचा. प्रकृति के बारे में साेचा ही नहीं, सिर्फ अपने बारे में साेचा, इसलिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद करें.
 
लाेगाें के चेहरे पर खुशी कैसे रहेगी?
 
एक ताे खुश रहनेवाली पर्सनालिटी ही हाेती है. दूसरा है फालतू बाेझ माथे पर नहीं लेना. बाेझ काे हटाइए. बाेझ ताे आप खरीद रहे हैं. पांच-सात बच्चे पैदा कर ताे लेते हैं, कहां से उनके खाने-पीने, इलाज, पढ़ाई का खर्च लाआेगे? एक बीमार हुआ, डॉक्टर के पास ले गये, वहां से लाैटे ही हैं कि दूसरा बीमार पड़ गया. ऐसे में कैसे काेई खुशहाल रहेगा. उस बेचारी मां का जीवन क्या रहेगा. यह बात लाेगाें काे समझनी हाेगी.
 
एक मनुष्य काे अपने जीवन में क्या-क्या काम करना चाहिए?
 
मेरा मानना है कि सबसे बड़ा धर्म है मनुष्यता. किसी काे मदद पहुंचाना सबसे बड़ा धर्म है. आदमी काे ह्यूमेनिज्म पर ही ध्यान देना चाहिए, कुछ आैर पर नहीं. हमारी यही सलाह है कि ह्यूमेनिज्म पर विश्वास कीजिए. सभी समस्याओं का समाधान यही है. प्रकृति ने मनुष्याें काे माइंड दिया है. गाय-बैल काे नहीं दिया है. इसलिए इसका उपयाेग साेच-समझकर करना चाहिए. बेहतर है मनुष्य फालतू चीज पर दिमाग नहीं लगा कर ह्यूमेनिज्म पर भराेसा करे आैर सृजनात्मक काम में लगा रहे. जहां तक संभव हाे, दूसराें का भला करते रहें. यही जीवन का सार है.
 
बीएचयू के इस दाे साल ने मेरी जिंदगी बदल दी. हम अविभाजित भारत की बात कर रहे हैं. हम वहां जुलाई 1946 में गये थे. उस समय हिंदुस्तान के अलावा दुनिया के कई देशाें से छात्र पढ़ने आते थे. उस क्षेत्र के भी छात्र पढ़ने आते थे जाे आज पाकिस्तान-बांग्लादेश के अंदर आता है. बीएचयू अॉल इंडिया यूनिवर्सिटी था. वहां दस हजार विद्यार्थी आैर एक हजार शिक्षक थे. जब हम वहां पढ़ते थे, उस समय डॉ राधाकृष्णन वहां के वाइस चांसलर थे. यही डॉ राधाकृष्णन बाद में भारत के राष्ट्रपति बने. बीएचयू के वातावरण में हमारी आंखें वास्तव में खुली. 
 
भारत की पढ़ाई भी अच्छी थी. टीचर लाेग पढ़ाते थे. लेकिन वह क्वालिटी नहीं थी. इंगलैंड में माैका बहुत है लेकिन सीखना आपकाे है. काेई दबाव डाल कर आपकाे नहीं पढ़ायेगा. अगर काेर्सेज लेना है ताे पढ़ा देंगे सवेरे से शाम तक, लेकिन अगर काेर्सेज नहीं लेना है, आप वर्क कर रहे हैं ताे अपने सीखना है. अमेरिका में यह कहते हुए आपकाे गला पकड़ कर पढ़ा देंगे कि यू हैव टू लर्न दिस. आपसे सवाल इतना पूछा जायेगा कि अापकाे शर्म लगेगी आैर आप रात भर जग कर उस टॉपिक काे पढ़ेंगे. थाेड़े समय में भी अमेरिकन लाेग गर्दन दबा-दबा कर पढ़ा लेते हैं. ब्रिटेन अलग है. वहां परंपरा का बहुत वैल्यू हाेता है, जैसे- कैसे रहना है, कैसे बात करनी है. लेकिन अमेरिका में एेसा नहीं हाेता.