Wednesday 30 December 2015

बाजीराव

अगर पेशवा कम उम्र में ना चल बसता, तो ना अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें। बाजीराव का केवल चालीस साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले दो सौ साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता। आज की पीढ़ी को बाजीराव बल्लाल भट्ट की जिंदगी का ये पहलू भी जानने की जरूरत है।

जब संजय लीला भंसाली ने बाजीराव मस्तानी नाम की फिल्म बनाने का ऐलान किया था, तो लग रहा था कि शायद अब तक हिंदुस्तान के इतिहासकारों ने मराठा इतिहास के सबसे बड़े नायक के साथ जो अन्याय किया है, वो कुछ हद तक दूर होगा। शिवाजी ने एक सपने की नींव रखी थी, लेकिन उस सपने को पूरा किया था बाजीराव बल्लाल भट्ट यानी पेशवा बाजीराव प्रथम ने। कितने आम लोग उसे जानते थे? संजय लीला भंसाली ने एक तरह से इतिहास पर एक उपकार किया है। मराठा और हिंदुस्तानी इतिहास के साथ न्याय किया है, लेकिन ये न्याय अब भी अधूरा है।


भंसाली की मजबूरियां थीं कि फिल्म को हिंदू-मुस्लिम दोनों तरह के दर्शकों की कसौटी पर खरा उतारते हुए उसका रोमांटिक चरित्र ही बनाए रखना था। सवाल है कि क्या था शिवाजी का वो सपना, जिसे बाजीराव बल्लाल भट्ट ने पूरा कर दिखाया? दरअसल जब औरंगजेब के दरबार में अपमानित हुए वीर शिवाजी आगरा में उसकी कैद से बचकर भागे थे तो उन्होंने एक ही सपना देखा था, पूरे मुगल साम्राज्य को कदमों पर झुकाने का। मराठा ताकत का अहसास पूरे हिंदुस्तान को करवाने का। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने का। इस सपने को किसने पूरा किया? पेशवाओं ने, खासकर पेशवा बाजीराव प्रथम ने। उन्नीस-बीस साल के उस युवा ने तीन दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा। मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गया। नहीं दिखाया भंसाली ने ये सब, जबकि उनके हर तीसरे सीन में बाजीराव ये कहता दिखाया गया कि दिल्ली को तो हम कभी भी झुका देंगे। लगा था कि भंसाली मराठा साम्राज्य का वो सपना पूरा होता हुआ परदे पर दिखाएंगे, लेकिन वो चूक गए।




आगे की पीढ़ियां बाजीराव को जानेंगी, भंसाली को इसका क्रेडिट मिलना चाहिए, लेकिन एक रोमांटिक हीरो की तरह जानेंगी, एक ऐसे योद्धा की तरह जानेंगी, जिसने कट्टर ब्राह्मणों से टक्कर लेकर भी अपनी मुस्लिम बीवी को बनाए रखा। बेटे का संस्कार ना करने पर उसका नाम बदलकर गुस्से में कृष्णा से शमशेर बहादुर कर दिया, इसलिए जानेंगी। जोधा अकबर की तरह बाजीराव मस्तानी को भी जाना जाएगा। लेकिन क्या वो ये जानेंगी कि हिंदुस्तान के इतिहास का बाजीराव अकेला ऐसा योद्धा था, जिसने 41 लड़ाइयां लड़ीं और एक भी नहीं हारी, जबकि शिवाजी का भी रिकॉर्ड ऐसा नहीं है। वर्ल्ड वॉर सेकंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर’ में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है और लिखा है कि बाजीराव कभी हारा नहीं। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है। बाद में यही आक्रमण शैली सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपनाई गई, जिसे ‘ब्लिट्जक्रिग’ बोला गया। निजाम पर आक्रमण के एक सीन में भंसाली ने उसे दिखाने की कोशिश भी की है।


बाजीराव पहला ऐसा योद्धा था, जिसके समय में 70 से 80 फीसदी भारत पर उसका सिक्का चलता था। वो अकेला ऐसा राजा था जिसने मुगल ताकत को दिल्ली और उसके आसपास तक समेट दिया था। पूना शहर को कस्बे से महानगर में तब्दील करने वाला बाजीराव बल्लाल भट्ट था, सतारा से लाकर कई अमीर परिवार वहां बसाए गए। निजाम, बंगश से लेकर मुगलों और पुर्तगालियों तक को कई कई बार शिकस्त देने वाली अकेली ताकत थी बाजीराव की। शिवाजी के नाती शाहूजी महाराज को गद्दी पर बैठाकर बिना उसे चुनौती दिए, पूरे देश में उनकी ताकत का लोहा मनवाया था बाजीराव ने। आज भले ही नई पीढ़ी के सामने उसे भंसाली की फिल्म के जरिए हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल के तौर पर पेश किया गया हो, लेकिन ये कौन बताएगा कि देश में पहली बार हिंदू पद पादशाही का सिद्धांत भी बाजीराव प्रथम ने दिया था। हर हिंदू राजा के लिए आधी रात मदद करने को तैयार था वो, पूरे देश का बादशाह एक हिंदू हो, उसके जीवन का लक्ष्य ये था, लेकिन जनता किसी भी धर्म को मानती हो उसके साथ वो न्याय करता था। उसकी अपनी फौज में कई अहम पदों पर मुस्लिम सिपहसालार थे, लेकिन वो युद्ध से पहले हर हर महादेव का नारा भी लगाना नहीं भूलता था। उसे टैलेंट की इस कदर पहचान थी कि उसके सिपहसालार बाद में मराठा इतिहास की बड़ी ताकत के तौर पर उभरे। होल्कर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतें जो बाद में अस्तित्व में आईं, वो सब पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की देन थीं।


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ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा थी, छत्रसाल की मौत के बाद उसका तिहाई हिस्सा भी बाजीराव को मिला। कभी वाराणसी जाएंगे तो उसके नाम का एक घाट पाएंगे, जो खुद बाजीराव ने 1735 में बनवाया था, दिल्ली के बिरला मंदिर में जाएंगे तो उसकी एक मूर्ति पाएंगे। कच्छ में जाएंगे तो उसका बनाया आइना महल पाएंगे, पूना में मस्तानी महल और शनिवार बाड़ा पाएंगे। अकबर की तरह उसको वक्त नहीं मिला, कम उम्र में चल बसा, नहीं तो भव्य इमारतें बनाने का उसको भी शौक था, शायद तभी आज की पीढ़ी उसको याद नहीं करती। नहीं तो अकबर के अलावा कोई और मुगल बादशाह नहीं था, जिससे उनकी तुलना बतौर योद्धा, न्यायप्रिय राजा और बेहतर प्रशासक के तौर पर की जा सके।


दिल्ली पर आक्रमण उसका सबसे बड़ा साहसिक कदम था, वो अक्सर शिवाजी के नाती छत्रपति शाहू से कहता था कि मुगल साम्राज्य की जड़ों यानी दिल्ली पर आक्रमण किए बिना मराठों की ताकत को बुलंदी पर पहुंचाना मुमकिन नहीं, और दिल्ली को तो मैं कभी भी कदमों पर झुका दूंगा। छत्रपति शाहू सात साल की उम्र से 25 साल की उम्र तक मुगलों की कैद में रहे थे, वो मुगलों की ताकत को बखूबी जानते थे, लेकिन बाजीराव का जोश उस पर भारी पड़ जाता था। धीरे धीरे उसने महाराष्ट्र को ही नहीं पूरे पश्चिम भारत को मुगल आधिपत्य से मुक्त कर दिया। फिर उसने दक्कन का रुख किया, निजाम जो मुगल बादशाह से बगावत कर चुका था, एक बड़ी ताकत था। कम सेना होने के बावजूद बाजीराव ने उसे कई युद्धों में हराया और कई शर्तें थोपने के साथ उसे अपने प्रभाव में लिया।


इधर उसने बुंदेलखंड में मुगल सिपाहसालार मोहम्मद बंगश को हराया। मुगल असहाय थे, कई बार पेशवा से मात खा चुके थे, पेशवा का हौसला इससे बढ़ता गया। 1728 से 1735 के बीच पेशवा ने कई जंगें लड़ीं, पूरा मालवा और गुजरात उसके कब्जे में आ गया। बंगश, निजाम जैसे कई बड़े सिपहसालार पस्त हो चुके थे।


इधर दिल्ली का दरबार ताकतवर सैयद बंधुओं को ठिकाने लगा चुका था, निजाम पहले ही विद्रोही हो चुका था। उस पर औरंगजेब के वंशज और 12 वें मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला कहा जाता था, जो कवियों जैसी तबियत का था। जंग लड़ने की उसकी आदत में जंग लगा हुआ था। कई मुगल सिपाहसालार विद्रोह कर रहे थे। उसने बंगश को हटाकर जय सिंह को भेजा, जिसने बाजीराव से हारने के बाद उसको मालवा से चौथ वसूलने का अधिकार दिलवा दिया। मुगल बादशाह ने बाजीराव को डिप्टी गर्वनर भी बनवा दिया। लेकिन बाजीराव का बचपन का सपना मुगल बादशाह को अपनी ताकत का परिचय करवाने का था, वो एक प्रांत का डिप्टी गर्वनर बनके या बंगश और निजाम जैसे सिपहासालारों को हराने से कैसे पूरा होता।


उसने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू किया। मुगल बादशाह ने आगरा के गर्वनर सादात खां को उससे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हार राव होल्कर और पिलाजी जाधव की सेना यमुना पार कर के दोआब में आ गई। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति बहुत दिलचस्प थी। इधर मल्हार राव होल्कर ने रणनीति पर अमल किया और मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने डींगें मारते हुआ अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद मथुरा की तरफ चला आया।


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बाजीराव को पता था कि इतिहास क्या लिखेगा उसके बारे में। उसने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़ कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब मुगलों की जड़ यानी दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया। दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके। देश के इतिहास में ये अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं, एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला।


बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, केवल पांच सौ घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मौहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में आठ से दस हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के पांच सौ लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी। ये 28 मार्च 1737 का दिन था, मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन। कितना आसान था बाजीराव के लिए, लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी।


वो तीन दिन तक वहीं रुका, एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए। लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो तीन दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गया। बुरी तरह बेइज्जत हुआ मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी, वो पुराना मुगल वफादार था, मुगल हुकूमत की इज्जत को बिखरते नहीं देख पाया। वो दक्कन से निकल पड़ा। इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों एमपी के सिरोंजी में मिले। लेकिन कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उसको केवल इतना बताया कि वो मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है।


निजाम दिल्ली आया, कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाया और बाजीराव को बेइज्जती करने का दंड देने का संकल्प लिया और कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट से बड़ा कोई दूरदर्शी योद्धा उस काल खंड में पैदा नहीं हुआ था। ये बात साबित भी हुई, बाजीराव खतरा भांप चुका था। अपने भाई चिमना जी अप्पा के साथ दस हजार सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर वो अस्सी हजार सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़ा। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था, ताकि फिर सिर ना उठा सकें।


दिल्ली से निजाम के अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं, 24 दिसंबर 1737 का दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम की समस्या ये थी कि वो अपनी जान बचाने के चक्कर में जल्द संधि करने के लिए तैयार हो जाता था। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने पचास लाख रुपये बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे। चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था, सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए।


ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट यहीं नहीं रुका, अगला अभियान उसका पुर्तगालियों के खिलाफ था। कई युद्दों में उन्हें हराकर उनको अपनी सत्ता मानने पर उसने मजबूर किया। अगर पेशवा कम उम्र में ना चल बसता, तो ना अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें। बाजीराव का केवल चालीस साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले दो सौ साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता। आज की पीढ़ी को बाजीराव बल्लाल भट्ट की जिंदगी का ये पहलू भी जानने की जरूरत है।



Baji Rao Mastani:A Historical Appraisal--++++ Bajio Rao was a Kshitipavan Konkanasth Bhumidhar Brahman that has been a class of non ritualist clan of militarised Brahman. Like many other classes viz Mohiyal/ Mahivariya , Bhumihar/ Apratigrahi Magadhiya, Tyagi/ Tyagvir Gaud, Desai/ Desastha, Ayangar, Dadhich, Niyogi,Devsarma/ Varendriya and Rarhiya Ayachak, Jujhautiya/Ayudhiya/ Kashmiri Jujhhar Raina and Bali, Jajpuriya Pattnayak etc Kishipavan now called Chitpavan make their claim of being militarised by Lord Parsuram and they were brought to Konkan from Mithila/Trihotrapur and Magadh obviously to fight against Sahararjun in Audichaya Desh, the western India. Historically they are descendants of Vakatakas, the Brahman dynasty contemporaneous to mighty Guptas of Magadh. They had matrimonial alliance with Magadhans.Chipavans formed the landed aristocracy of Brahmins in Marathvara. Some Chitpavans are descendants of Kadamba and Vishnukundins the two ruling Brahman families of Deccan. Being traditional Zamindars they were often called Deshmukh and Deshpandey both meaning village headman.Baji Rao ,the illustrious son of Peshva Balaji Visvanath was very different from his father. His father visited battle fields and made war logistics but never commanded army as a warrior. He remained with the army till Marathas inflicted a crushing defeat.However , BajiRao was a belligerent warrior. He was a great diplomat too. He never lost a single battle. His impeccable bravery ascertained victory over Mughals, Nizam m, Bangas Pathan, Sidhis of Janjira and many other kingdoms. He was appointed as Peshva at the age of 20.In next 20 years he got 41 victories . His heroic saga can only be compared with Samudragupta. At the age of 27 while operating in Malva he got message of Chhatrasal the valiant Bundela Rajput to defend his kingdom from Md Shah Bangash the most turbulent wave that had tormented Bundelkhand. Rau took it as a challenge and uprooted Pathans showing extraordinary valour and zeal. There is no explicit evidence how he got Mastani, the daughter of RuhaniBai a damsel of Persian origin from Hyderabad. Chhatrasal himself married her to Rau is also obscure. But Mastani was undoubtedly an influential character. She was believed to be an excellent horse rider and to some extent she expertized herself in swordsmanship.Of course Bhau loved her passionately but he never showed insanity. It was never a Heer Ranjha sort of affair. Except one or two events no episode of her life was full of so much of brutality and bigotry. Sanjay Leela Bhansali has made it a mere filmic drama that seriously lacks historical orientation. It's surprising Bani Rao' s most celebrated victory battle of Palkhed has not been picturized. Even battle of Bhopal has not dazzled on the screen. His rapid move to Delhi has also not been shown. More surprisingly Baji Rao's nationalist advocacy has not been given àny room. His frenzied outburst for Hindu Pad Padsahi doesn't echo in this film. Rau's solemn vow of uniting India from Attock to Cutack is not referred. Jadunath Sarkar even did not truthfully portrayed his personality in his work. Colonial historians never wanted to highlight his achievements . Marxist historians who propagated Nehruwian hypothesis of Màking in Nation deliberately declined to accept his contribution . It is matter of long debate and its difficult to cover all such issues on a Facebook note. Last but not the least it is pertinent to write Mastani did not live long life after Rau. Her son Krishna Rao alias Shamsher was granted Zamindari of Banda. He died in 3rd battle of Panipat along with Sadashiv Rao and Visvanath Rao like worthy son of great Peshvas. His successors supported Nana Sahib in 1857.The Mastani Mahal has presently accommodated Rana Dinkar Kelkar Museum. Salute to Rao and homage to his pious beloved Mastani.


Friday 11 December 2015

नेशनल हेराल्ड @सूर्यभान राय

आजकल नेशनल हेराल्ड चर्चा में है. एक वाकया याद आ गया जिसे बड़े भाई अजय राय (अमर उजाला , वाराणसी ) ने बताया है और एक लेख में लिखा भी है...

करो या मरो आंदोलन के बाद नेशनल हेराल्ड का प्रकाशन बंद हो गया था. वर्ष 1945 में अख़बार का प्रकाशन फिर हुआ तो उसमें बलिया और ग़ाज़ीपुर में अंग्रेजों के उत्पीड़न की दास्तान "ग़ाज़ीपुर की नादिरशाही " शीर्षक से छपी -

पूर्वांचल के अन्य ज़िलों की तरह ग़ाज़ीपुर को भी 1942 और उसके बाद क्रूर दमन का शिकार बनना पड़ा. शेरपुर गांव जहाँ शेर दिल लोग रहते है. इनलोगो ने कांग्रेस राज की स्थापना कर दी. उनका संगठन बेहतरीन था और उन्होंने गांव में कुछ दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से प्रशासनिक व्यवस्था संभाली. मगर कुछ ही दिनों बाद हार्डी और उसकी सेना ने मार्च करना शुरू कर दिया था.अख़बार के मुताबिक 24 अगस्त को ग़ाज़ीपुर का जिला कलक्टर मुनरो 400 बलूची सैनिकों के साथ शेरपुर गांव पहुंचा और निहत्थे ग्रामीण हथियारबंद सेना का सामना नहीं कर पाये.गांव को अच्छी तरह लूटा गया, महिलाओं के गहने तक छीने गए. पुरे गांव में आग लगा दी गयी.80 घरों को जला दिया गया. इससे गांव को 2 लाख रूपये से अधिक का नुकसान हुआ |

Friday 4 December 2015

राम दयालु सिंह

The first session of the first Bihar legislative assembly having 152 members had begun on July 22, 1937, five days after 17 Up Lahore Express had derailed at Bihta leading to death of 65 passengers on the morning of July 17, 1937. It was no wonder then that the session began with paying homage to the victims of the train disaster. The session continued for a month.

Kumar Kalika Prasad Singh, elected from the landowners's constituency, moved a resolution expressing "sympathy with the families of the victims and appealing to the Government of India to appoint an inquiry commission of experts and non-officials". The sitting was held in the same chamber which houses the present assembly.

Khetra Nath Sengupta expressed his solidarity with Biharis by saying 13 Bengalis had been returned with Bihari votes. He said, "A large number of Bengalis in Manbhum, Singhbhum and Santhal Parganas were living with Biharis as brothers in spite of occasional outbursts of rivalry in matters of public service.

Saiyad Mohiuddin Ahmad made the maiden speech in the first assembly's first session by saying, "Chhotanagpur people are political Harijans, with the HE governor acting as Mahatma Gandhifor us. We have been adjudged, declared and shunted aside as a backward people".

Sir Ganesh Dutt Singh, in his opening remarks, said, "The dark days of diarchy have disappeared today and we are now enjoying midday sunshine of provincial autonomy."

Mohammad Yunus, who was the first PM of Bihar (March to July, 1397), congratulated Sri Krishna Sinha and wished a good government would come under his leadership. "The aim and objects of my party (Mohammdan Independent Party) for obtaining Independence is in some respects even beyond the aims and objectives of the Congress. My party desires complete Independence."

Sri Krishna Sinha said: We, the Congressmen elected here, have programmes which have been announced from thousands of platforms. We have our economic, social and political programmes."

Sachchidanand Sinha, who was appointed the acting speaker (not pro-tem) by Governor M G Hallett, traced the history of the Congress movement and said the "party was founded by most eminent Indians of the second half of 19th century."

When Mohammad Yunus raised a point of order saying strangers were present in the House, Sachchidanand Sinha directed, "Except photographers who are here with my permission, others must leave and the photographers will not stay a moment longer than is absolutely necessary."

Sinha asked the newly-elected members to take oath of allegiance. To this, Tajmul Husain asked, "May I know whether we have to take the oath in English or Hindi or Urdu or only in English." Sinha replied, "In any language that he or she knows."

Jimut Bahan Sen said, "Is not Bengali one of the vernaculars of the province, sir?" Sinha replied, "I shall permit the member to take oath in Bengali."

Sri Krishna Sinha, elected from South Sadar Munghyr general rural, Anugrah Narayan Sinha from Aurangabad general rural, Dr Saiyad Mahmud from North Champaran Sadar Muhammadan rural, Jaglal Chaudhury from southwest Purnea general rural (reserved) took the oath in that order. Sir Ganesh Dutt Singh, elected from Patna division landholders constituency, took the oath a day later.

Harendra Bahadur Chandra and Saraswati Devi made their maiden speeches in Hindi and Muhammad Shafi in Urdu. Saraswati Devi expressed her concern over the poor condition of women in Bihar and asked the government to do justice with them.

Munindra Nath Mookherjee, unattached to any party, said he represented the interests of mines owners. Binodanand Jha, who later succeeded Sri Krishna Sinha as CM, also talked of good governance under the Congress leadership in Bihar.

The first session of the first assembly had passed a resolution moved by Jaglal Chaudhury, the then excise minister, for total prohibition in the state. ON July 23, 1937, Ram Dayalu Singh was elected uncontested as Speaker of the Bihar assembly.

विजय कुमार चौधरी

Vijay Kumar Choudhary (born 8 January 1957) is the Speaker of Bihar Legislative Assembly. He was elected to the post on 2 December 2015 after consensus was generated on his name among all political parties of the state, including the Opposition. He is known as an articulate and suave leader well versed in legislative practices.[3] He previously served as Leader of Janata Dal (United)Legislature Party in Bihar Legislative Assembly[4] and the Minister for Water Resources, Agriculture and Information & Public Relations Departments in the Bihar[5] cabinet under Nitish Kumar.[6] He was considered to be the Number 2 in the cabinet[7] and had tendered his resignation from the Council of Ministers on 7 February 2015 to protest the continuance of Jitan Ram Manjhi as Chief Minister despite the election of Nitish Kumar as the Leader of JD(U) Legislature Party in Bihar Legislative Assembly and Council.[8]He was recognized as the Leader of Opposition in the Bihar Legislative Assembly on 19 February 2015 by the Speaker.[9] He took oath as the Water Resources Minister again on 22 February when Nitish Kumar assumed charge of the state for the fourth time. He was given the additional charge of Agriculture and Information & Public Relations Department on 24 February 2015.[10] He is a member of the Janata Dal (United) and served as the President of its Bihar unit from February 2010 to November 2010, having led the party during its spectacular victory in 2010 Bihar Assembly polls.[11] He served as the Home Minister-in-charge and answered inBihar Legislative Assembly on all matters related to home affairs.[12] He has also held the position of Finance Minister-in-charge and presented Bihar's Annual Budget for the 2014-15 fiscal.[13][14] Known for being a soft spoken politician with a clean image, he is a close confidante of Nitish Kumar and was widely speculated to succeed him as Chief Minister of Bihar following the latter's resignation after the 2014 Lok Sabha polls.[15][16][17] He has been a member of Bihar Legislative Assembly since 1982.

Early life and career[edit]

Vijay Kumar Choudhary was born in DalsinghsaraiSamastipur district of Bihar in a Bhumihar Brahmin Family. His father, the late Jagdish Prasad Choudhary, had been a freedom fighter, an Indian National Congress politician and a three term member of the Bihar Legislative Assembly from the Dalsinghsarai constituency.[18] He completed his Master of Arts in History from Patna University in 1979 and joined the State Bank of India as a Probationary Officer in Trivandrum in the same year.

Political career[edit]

After the untimely demise of his legislator father in 1982, he resigned from his job and won the subsequent by-election from Dalsinghsarai on a Congress ticket. He was elected from Dalsinghsarai for two more terms in 1985 and 1990. During his stint as a legislator from 1982-1995, he served as the Deputy Chairman of Bihar State Industrial Development Corporation (BSIDC) and Deputy Chief Whip of the Congress Legislature Party (CLP). He ran again from Dalsinghsarai in 1995 and 2000 but lost the elections. He served as General Secretary of Bihar Pradesh Congress Committee from 2000-2005. He joined JD(U) in 2005 and unsuccessfully contested the October 2005 Bihar legislative assembly elections from Sarairanjan. He was appointed as the General Secretary and Chief Spokesperson of the party in 2008. He continued to serve as the General Secretary until February 2010, when he was nominated as the President of Bihar JD(U).[19] He won the subsequent legislative assembly elections from Sarairanjan (Vidhan Sabha constituency) and was rewarded with the crucial Water Resources ministry in the newly formed cabinet.[20] He assumed charge of the Water Resources Ministry of Bihar on 26 November 2010.[21] He is credited along with Nitish Kumar for the completion of Durgawati Reservoir in 2014, a massive irrigation project started in 1976 which got delayed for 38 years because of multiple reasons.[22] He also serves as the Chairman of Bihar Foundation, a platform to facilitate interaction between Government of Bihar and the Bihari diaspora.[23]

Personal life[edit]

He is married to Ganga Choudhary. The couple has a son, Shubhaditya and a daughter, Ankita

Over three decades after he opted out of his banking job to join politics, JD(U) heavyweight Vijay Kumar Choudhary was unanimously elected Speaker of the Bihar Legislative Assembly. The journey to the chair saw the soft-spoken leader play number two to CM Nitish Kumar in his previous government as he held the portfolio of the state’s water resources minister.
Choudhary’s elevation came about after JD(U) drove a hard bargain with ally RJD for the Speaker’s post. An upper caste Bhumihar leader, Choudhary kept his prominent position in the Grand Alliance despite the bitter caste divisions playing out during the poll.
On Wednesday, Choudhary (58) became the 16th Speaker and 14th person to hold the position. Son of freedom fighter and former MLA Jagdish Prasad Choudhary, he represents the Sarairanjan assembly segment in Samastipur.
While he’s known as the CM’s close aide, Choudhary began his political journey with the Congress in 1982, when he quit his job as a bank manager to become an MLA.
He also won elections on a Congress ticket in 1985 and 1990. However, he crossed over to the JD(U) after Nitish became the chief minister.

Tuesday 1 December 2015

शहादत की असली वजह तो समझें लेफ्टि.जन. (रिटा.) @सैयद अता हसनैन

पिछले हफ्ते कर्नल संतोष महाडिक कश्मीर के कुपवाड़ा सेक्टर में घुसपैठिए आतंकियों के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए। इस साल की शुरुआत में पुलवामा के ट्राल में कर्नल राय भी ऐसे ही संघर्ष में शहीद हुए थे। इनके बाद सोशल मीडिया के ट्रेंड पर गौर करते हुए अहसास हुआ कि आतंकवाद विरोधी अभियानों में हताहत होने की घटनाओं के बारे में सार्वजनिक क्षेत्र में समझ का कितना अभाव है। यहां तक इशारा किया गया कि सैनिकों के साथ अंग्रिम पंक्ति में लड़ने वाले कमांडिंग ऑफिसरों ने मूर्खतापूर्ण दुस्साहस दिखाया। यह बहुत ही दुखद है।

हाल में की गई एक और टिप्पणी में कहा गया कि हताहतों की संख्या देखते हुए लगता नहीं कि पिछले 30 साल से जम्मू-कश्मीर पर भारतीय सेना का नियंत्रण रहा है। एक अन्य टिप्पणी में तो यह कहा गया कि कमांडिंग ऑफिसर देश की रणनीतिक संपदा होते हैं, जिस पर सरकार बहुत पैसा खर्च करती है और उन्हें अपनी जिंदगी इस तरह ज़ाया नहीं करनी चाहिए। इन टिप्पणियों से न सिर्फ वहां कि परिस्थिति, अभियानों के चरित्र, इलाके की मजबूरियों और जम्मू-कश्मीर के छद्‌म युद्ध में हमारी स्थिति के बारे में अज्ञान जाहिर होता है बल्कि संवेदनशीलता के भी पूर्ण अभाव का पता चलता है। कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारी हैं, जिन्होंने लंबे समय तक चलने वाले आतंकवाद विरोधी अभियानों को नहीं देखा है।
वे इन अभियानों को परंपरागत दृष्टिकोण से ही देखते रहे हैं। सोशल मीडिया से सारे लोगों को टिप्पणियां करने का अधिकार व जरिया मिल गया है, चाहे उन्हें विषय का ज्ञान हो अथवा नहीं। दुर्भाग्य से मीडिया घरानों को भी इस बात का गहरा अहसास नहीं होता कि सोशल मीडिया पर क्या ट्रेंडिंग है और ऐसा कम ही होता है कि वे कोई मूल्यवान जानकारी या विश्लेषण प्रस्तुत कर पाते हों। ऐसी परिस्थिति में सेना के अपने जनसंपर्क-तंत्र को पूरी ताकत से लग जाना चाहिए। उसे सूचनाओं की खामियां पता लगाकर समाचार माध्यमों को मामले की संवेदनशीलता से परिचित कराना चाहिए।

घाटी में अब करीब 200 आतंकी ही शेष हैं और पिछला साल घुसपैठ विरोधी अभियान की सफलता का साल रहा। ऐसे में सेना अब घुसपैठ पर और लगाम लगाने के साथ आतंकवाद विरोधी अभियान चला रही है ताकि भीतरी इलाकों में आतंकियों की संख्या और घटाई जा सके। इन अभियानों में हताहतों की संख्या ज्यादा रहने की आशंका हमेशा रहती है, क्योंकि बड़ी संख्या में तलाशी अभियान मंे लगे सैनिकों को हमले का जोखिम अधिक रहता है। जैसे-जैसे आतंकियों की संख्या घटती जाती है, मारे गए आतंकियों की तुलना में हमारे हताहतों की संख्या बढ़ेगी। सैन्य अभियानों के लिए यह अपरिहार्य घटनाक्रम है, जिसे आम नागरिकों को समझना चाहिए और पेशेवर लोगों को इसे समझाना चाहिए।
एक बार यदि आतंकी उनके लिए बिछाए जाल से बचकर निकल जाएं और तलाशी अभियान की अवधि बढ़ जाए तो सीधी मुठभेड़ का जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। इसमें नियंत्रण रेखा के नजदीक होने वाले अभियान सबसे कठिन होते हैं और घुसपैठ विरोधी ग्रिड की दूसरी पंक्ति में तो यह और अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आतंकी मारे जाएंगे, लेकिन चूंकि वे छिपे हुए हैं तो पहली गोली उनकी ओर से ही चलेगी और हताहत हम होंगे, जब तक कि आप उनका पता लगाकर उन्हें अलग-थलग न कर लें। यही सबसे बड़ी चुनौती है। यदि हम टेक्नोलॉजी के साधनों या खुफिया सू्त्रों के जरिये उनका पता लगा लेते हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि पर्याप्त बल और रणनीति का उपयोग कर उनकी ओर से गोली चलने के पहले ही उन्हें खत्म कर दिया जाएगा।
ये बड़ी जटिल परिस्थितियां होती हैं, जिनमें कई बार सैनिकों को सामने आने का जोखिम लेना पड़ता है ताकि आतंकी गोली चलाने पर मजबूर होकर खुद का पता-ठिकाना उजागर कर दें। अब कमांडिंग अफसरों की बात करें कि क्यों उनके लिए हमेशा जोखिम बना रहता है। सारे अभियानों में कमांडिंग ऑफिसर की मौजूदगी का गोल्डन रूल यह है कि यदि अभियान में दो या अधिक कंपनियां शामिल हैं तो कमांडिंग अॉफिसर अभियान का नेतृत्व करता है। यदि अभियान में दो से कम कंपनियां भी हों तो भी अतिरिक्त बल की जरूरत के आकलन और अभियान का दायरा बढ़ाने के लिए कमांडिंग अॉफिसर की मौजूदगी जरूरी होती है। अब यह तो संयोग की बात है कि कौन-सी टीम का आतंकियों से सबसे पहला सामना होता है। वह कमांडिंग ऑफिसर की टीम भी हो सकती है। यदि आतंकी सैन्य जाल से बचकर निकल गए हों और तलाशी अभियान लंबा खिंच गया हो तो जोखिम बढ़ जाती हैै।
कुपवाड़ा के केरन सेक्टर में अक्टूबर 2013 का अभियान याद कीजिए, जब सेना ने समय से पहले ही 15 से ज्यादा आतंकियों के मारे जाने की घोषणा कर दी थी। मीडिया सैन्य नेतृत्व पर सबूत दिखाने के लिए पूरी ताकत से टूट पड़ा था। इससे तेजी से कार्रवाई करने का दबाव बढ़ गया। शुक्र की बात रही कि तब हमारी ओर से कोई हताहत नहीं हुआ।
याद रहें कि जब तक कमांडिंग अॉफिसर अग्रिम मोर्चे पर नहीं होगा उसे स्थिति की जरूरतों का अहसास नहीं हो सकेगा। इसके अलावा कंपनी कमांडर के अपेक्षाकृत युवा होने से कमांडिंग अफसरों को उनके निकट रहने की अपरिहार्यता महसूस होती है। ऑफिसर कैडर में कमी की समस्या के कारण हम अग्रिम मोर्चे पर भी तुलनात्मक रूप से युवा और अनुभवहीन अफसरों को भेजने पर मजबूर हो जाते हैं।
संभव है कि कमांडिंग अफसर तलाशी के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जा रहा हो और अपनी कमांडिंग ऑफिसर पार्टी (सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित टुकड़ी) के साथ बीच में ही आतंकवादियों से मुठभेड़ हो जाए। नियम ही यही है कि एक बार आतंकवादियों से संघर्ष शुरू हो जाए तो कमांडिंग ऑफिसर की पार्टी और आपातकालीन वाहन वहां पहुंच जाते हैं । वह ऐसे घरों में नहीं जाएगा, जहां से आतंकी खदेड़े नहीं गए हैं या उन्हें निरापद नहीं किया गया है, लेकिन हर वक्त सक्रिय रहने के कारण उस पर खतरा मंडराता रहता है। अपनी कमांड पोस्ट में ही डटा हुआ कमांडिंग ऑफिसर तो कमांडिंग ऑफिसर ही नहीं है।

हमारे सैनिक हताहत तो होंगे, इसमें हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए और मैं यह भी साफ कर दूं कि यदि हमारे अधिकारी व सैनिक इतने सक्रिय और हमेशा अपनी ओर से पहल करने वाले न हों, तो वे हताहत भी नहीं होंगे। कंपनी कमांडर 15 से 17 साल की कड़ी मेहनत के बाद वहां पहुंचते हैं और उन्हें शायद ही किसी सलाह की जरूरत होती है। सूचनाओं की भूखी इस दुनिया में सेना के जनसंपर्क तंत्र को ऐसी जमीनी जानकारी सार्वजनिक क्षेत्र में लानी चाहिए ताकि गलत खबरों पर आधारित अटकलबाजी रोकी जा सके। सुरक्षा का मामला पेशेवर लोगों पर छोड़ देना चाहिए, वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। जहां तक जम्मू-कश्मीर के सुरक्षा परिदृश्य का सवाल है,वह पूरी तरह भारतीय सेना के काबू में है

बिहार के नतीजे से उपजे कुछ प्रश्न @यशवंत सिन्हा

आज से लगभग 60 साल पहले मैं पटना कॉलेज का छात्र था। पढ़ाई में अच्छा होने के साथ-साथ मैं कॉलेज की दूसरी गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेता था। धीरे-धीरे मैं एक जाना-माना डिबेटर बन गया। उस जमाने में छात्रों के लिए डिबेटिंग सोसायटी का सबसे बड़ा पद उपाध्यक्ष का होता था। इसके लिए चुनाव होता था। यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता था। कुछ मित्रों के कहने पर मैं उस पद के लिए खड़ा हो गया। कुछ कारणों से पूरे कॉलेज में मुझसे अच्छा उम्मीदवार कोई दूसरा नहीं था। किंतु कुछ ऐसा हुआ कि अचानक एक दिन हमारा ही एक सहपाठी उस पद के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा कर चुनाव के मैदान में कूद पड़ा।
बिहार में उस समय जात-पात की राजनीति चरम पर थी। पिछड़ी जातियां उस समय तक आगे नहीं आ पाई थीं और वर्चस्व की लड़ाई मुख्य रूप से राजपूतों और भूमिहारों के बीच होती थी। राज्य की राजनीति में दोनों के अपने-अपने पोप थे। राज्य की राजनीति का सीधा असर विश्वविद्यालय की राजनीति पर भी पड़ता था। मेरे खिलाफ जो प्रतिद्वंद्वी खड़े थे, वे इन्हीं दो जातियों में से एक के थे। उनके खड़े होते ही चुनाव का परिदृश्य बदल गया। चुनावी गणित कुछ ऐसा हो गया कि मेरे जीतने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गईं। मैंने तय किया कि मैं अपनी उम्मीदवारी वापस ले लूंगा। जब दूसरी जाति के लोगों को यह पता चला कि मैं अपनी उम्मीदवारी वापस ले रहा हूं तो वेे दल-बल के साथ मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि उनकी पूरी जाति का समस्त समर्थन मुझे मिलेगा, मैं चुनाव जीतूंगा और इसलिए उम्मीदवारी वापस लेने का प्रश्न ही नहीं पैदा होना चाहिए। उनकी बात को मानने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। मैं मुकाबले में बना रहा, चुनाव हुआ और मैं अप्रत्याशित रूप से भारी बहुमत के साथ उपाध्यक्ष पद के लिए चुना गया। पासा पलट गया था।

अभी हाल में बिहार विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए हैं। नतीजे अप्रत्याशित थे। किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि जद-यू और राजद के नेतृत्व में बने महागठबंधन को इतना विशाल बहुमत मिलेगा और भाजपा के गठबंधन को इतनी कम सीटें, लेकिन ऐसा ही हुआ है। भारतीय जनता पार्टी के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया है। किसी भी चुनाव के नतीजे अप्रत्यााशित लग सकते हैं, लेकिन उसके वाजिब कारण भी होते हैं।

प्रारंभिक विश्लेषणों के बाद भाजपा इस नतीजे पर पहुंची है कि जातीय गणित को हम ठीक ढंग से समझ नहीं पाए और इसलिए हम चुनाव हार गए। पहले हमारा दावा था कि जातीय गणित के ऊपर हमारी केमिस्ट्री भारी पड़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। बिहार के लिए जो 60 साल पहले सच था वही आज भी सच निकला। इस देश का हर प्रदेश दूसरे से अलग है, अनूठा है। यही विविधता तो हमारी खासियत भी है और चुनौती भी। इस भिन्नता को वही लोग समझ सकते हैं जो वहां की मिट्‌टी में पैदा हुए, पले और बड़े हुए। स्थानीयता का यह तत्व चुनाव में बहुत महत्वपूर्ण होता है। बाहर से जाकर किसी भी प्रदेश के रहस्य को आसानी से समझ लेना संभव नहीं है। इसे एक अन्य उदाहरण से समझा जा सकता है। यह मेरा अपना अनुभव है। 2004 के लोकसभा चुनाव के समय मैं देश का विदेश मंत्री था। बड़े-बड़े नेता और फिल्मी हस्तियां मेरे लिए प्रचार करने के लिए आईं फिर भी मैं काफी मतों के अंतर से उस चुनाव में हार गया। 2009 के लोकसभा चुनाव में मैं फिर वहीं से उम्मीदवार बना। मैंने तय किया कि मैं किसी नेता या फिल्मी हस्ती को प्रचार के लिए आमंत्रित नहीं करूंगा। प्रदेश के पदाधिकारियों को मैंने सूचित कर दिया कि मेरे क्षेत्र के लिए वे किसी बाहरी नेता का कार्यक्रम नहीं बनाएं। अतः नेताओं की भीड़ मेरे यहां प्रचार के लिए नहीं आई। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने स्वयं अपना कार्यक्रम तय किया और मैंने दो स्थानों पर उनकी सभा कराई। शत्रुघ्न सिन्हा परिवार के सदस्य जैसे हैं, इसलिए उनकी तीन-चार सभाएं हुईं। इसके अलावा बाहर से और कोई नहीं आया। न राष्ट्रीय नेता और न अन्य क्षेत्र की कोई और हस्ती। यह किसी को जोखिम लग सकता है, लेकिन मैं चुनाव जीत गया।

हर चुनाव का एक गणित होता है, फिर वह चुनाव छात्रसंघ का चुनाव ही क्यों न हो। इस गणित को बिना अपने पक्ष में किए चुनाव जीतना संभव नहीं होता है। गणित को अपने पक्ष में करने के लिए अपने समर्थकों को साथ रखना तो आवश्यक है ही, विरोधियों के कैंप में सेंधमारी करना भी उतना ही आवश्यक होता है। यदि भाजपा के पास 35 से 40 प्रतिशत तक अपना वोट है तो सीधी लड़ाई में भाजपा बराबर हारेगी। उसकी जीत के लिए त्रिकोणीय या बहुकोणीय संघर्ष आवश्यक है। बिहार में शायद ऐसा प्रयास किया भी गया तथा कुछ लोगों को आगे किया गया ताकि वे महागठबंधन के कुछ वोट काटें। पर जिन लोगों को आगे किया गया था वे उपयुक्त पात्र साबित नहीं हुए और मतदाताओं के ऊपर कोई छाप नहीं छोड़ पाए। इन लोगों का चयन भी बहुत महत्वपूर्ण निर्णय होता है। हमारे सहयोगी भी अपना वोट बैंक भाजपा को स्थानांतरित करने में कामयाब नहीं हो सके। जाहिर है हमारे चुनावी साथियों का अपेक्षित लाभ हमें नहीं मिल सका।

बिहार की हार से हमारे सामने कई प्रश्न पैदा होते हैं। ये प्रश्न किसी भी चुनाव के पहले पूछे जा सकते हैं। प्रश्न इस प्रकार हैं : चुनाव में गणित हावी होगा या केमिस्ट्री? राज्य तथा स्थानीय स्तर पर चुनाव का प्रबंधन स्थानीय लोगों के हाथ में होना चाहिए या बाहरी लोगों के हाथ में? क्या चुनाव में स्थानीय मुद्‌दे तथा स्थानीय नेतृत्व को आगे रखकर लड़ना बेहतर नहीं होगा? पार्टी के सर्वोच्च नेता का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए या ओवर एक्सपोजर? क्या राज्यों के चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को आगे कर के लड़ना अधिक लाभदायक होगा या इस प्रश्न को गौण रखना? क्या राज्यों के चुनाव को राज्यों तक ही सीमित रखना चाहिए अथवा उसे अनावश्यक रूप से अखिल भारतीय महत्व देना चाहिए? क्या हेलिकॉप्टर का कम से कम इस्तेमाल नहीं होना चाहिए और नेताओं को ज्यादा सड़क मार्ग से नहीं चलना चाहिए ताकि जनता से रू-ब-रू होने का लाभ मिल सके?

और अंत में, क्या यह धारणा पैदा होने देनी चाहिए कि खज़ाना खुला है और अनाप-शनाप खर्च पर कोई रोक नहीं है? क्या धन के ऐसे उपयोग से अलग तरह का संदेश नहीं जाता? हम सब चुनाव लड़ते हैं, लेकिन न हार में न जीत में, समीक्षा कभी नहीं करते।