Thursday, 27 September 2018

जीत हो या हार, खास है भूमिहार

कऊन जात हौ में आज जिक्र भूमिहार वर्ग की। यूपी के जातिगत समीकरण में भूमिहार संख्या बल में भले ही कम हों, पर चुनावी समीकरण दुरुस्त करने में ये सभी राजनीतिक दलों की मजबूरी हैं। खासकर पूर्वांचल की सियासत में भूमिहारों की खूब हनक है। बनारस के क्रांतिकारी राजनारायण को भला कौन भूल सकता, जिन्हें लोकबंधु की उपाधि मिली। बागी बलिया और बस्ती तक भूमिहार वोट खासी तादाद में हैं। गोरखपुर तक कोई ऐसी सीट नहीं जहां पर भूमिहार मतदाता नतीजों को प्रभावित न करते हों। इसका प्रमाण इस इलाके की कई सीटों पर भूमिहार नेताओं का लगातार जीतना है। खासतौर से अगर घोसी, मऊ, देवरिया और गाजीपुर के पुराने चुनावी नतीजों पर नजर डालें तो घोसी के झारखंडे राय लंबे समय तक निर्वाचित होते रहे। इसके बाद जनता दल से चुनाव जीतने वाले राजकुमार राय भी भूमिहार ही थे। कल्पनाथ राय और घोसी तो एक-दूसरे की पहचान बन गए थे। यूपी के बाद बिहार के सियासी समीकरण में भी भूमिहारों की खासी भूमिका है।
आजादी की लड़ाई में भी आगे
आजादी के आंदोलन में भूमिहारों का त्याग-बलिदान गौर करने वाला है। बलिया तब गाजीपुर के साथ जुड़ा था और अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाने में भूमिहार बिरादरी आगे थी। तभी तो बलिया सबसे पहले एक दिन के लिए आजाद हुआ और चितू पांडेय कलेक्टर की कुर्सी पर बैठ फरमान सुनाने लगे। शेरपुर की घटना ने भी अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।
हर सरकार में छाए रहे
पूर्वांचल में एक कहावत मशहूर है-'राह छोड़ जात...होई भूमिहारा।' धनबल और बाहुबल में आगे रहने वाले भूमिहार समाज ने समय और स्थिति को भांप रास्ता चुनने में कभी देर नहीं की। यूपी में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या बीजेपी या फिर बीएसपी व सपा की, भूमिहार नेताओं को तवज्जो हमेशा मिली। एक समय रहा जब पं.कमलापति त्रिपाठी भूमिहार-ब्राह्मण व मुस्लिमों के समीकरण से सियासी ऊचाइयां छूते रहे। गौरी शंकर राय, झारखंडे राय, गेंदा बाबू, त्रिवेणी राय, कृष्णानंद राय(बड़े), रासबिहारी, विश्वनाथ राय और पंचानन राय के बाद चर्चित भूमिहार नेताओं में कल्पनाथ राय भारतीय राजनीति में अमिट हस्ताक्षर हैं। कालांतर में भूमिहारों का बड़ा तबका रामलहर में बह गया। राम मंदिर का असर कम हुआ तो यही तबका कांग्रेस और सपा की ओर झुका दिखा और पिछले विधानसभा चुनाव में पूरी तरह सपा की सरपरस्ती में खड़ा हुआ तो उसे सत्ता के शिखर पर बैठा दिया।
हर जगह कोटा तय
बीजेपी की कल्याण सिंह सरकार में सूर्यप्रताप शाही भूमिहार कोटे से फिट हुए तो बीएसपी सरकार में पूर्वांचल के भूमिहार नेता जगदीश राय को ऊंची कुर्सी मिली। अखिलेश सरकार में वाराणसी के मनोज राय से लेकर नारद राय और गोरखपुर के पीके राय तक को लालबत्ती मिल गई। लोकसभा चुनाव में भूमिहार समाज ने मुरझाए 'कमल' को क्या खिलाया, मनोज सिन्हा को केंद्र सरकार में दो मंत्रालय मिल गए।
बनारस तो सिर्फ भूमिहारों का
बनारस स्टेट के राजा भूमिहार थे। कहते हैं कि पंडित नेहरू ने बहुत कोशिश की, लेकिन राज परिवार राजनीति में नहीं आया। तब डॉ. रघुनाथ सिंह पहली दफा वाराणसी के सांसद हुए और 1964 तक लगतार जीते। कामरेड सत्यनारायण सिंह अगले सांसद हुए। अविभाजित बनारस यानी वाराणसी, चंदौली और भदोही की सीटें भूमिहारों के पास होती थीं। वाराणसी कैंट सीट तो परंपरागत भूमिहार सीट मानी जाती। समाजवादी नेता शतरुद्र प्रकाश अपना गुरु राजनारायण को मानते थे, सो कई दफा कैंट से जीतकर विधानसभा में पहुंचे। बाद में बीजेपी के हरिश्चंद्र श्रीवास्तव भी भूमिहारों की निकटता के कारण ही गोरखपुर से आकर यहां जीत गए। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अजय राय के मुकाबले में भूमिहारों की बड़ी तादाद ने नरेंद्र मोदी को पसंद किया, जिससे जीत एकतरफा रही। नए परिसीमन में सेवापुर विधानसभा सीट में भूमिहारों की बड़ी तादाद है।
अल्पसंख्यक बन गए
जातीयता का बोलबाला होने के साथ सियासत में भूमिहारों की हनक घटती गई। पूर्वांचल में महज तीन से पांच फीसदी ही इनकी आबादी 30 से 35 सीटों पर बैलेंसिंग फैक्टर है, कमोबेश सभी दल इन्हें लुभाने की कोशिश करते रहते हैं। बुद्धि-विचार से प्रबल भूमिहार अल्पसंख्यक की श्रेणी में आ चुके हैं। आपस में ये कभी गोलबंद नहीं हो पाते। हर दल में भूमिहारों की तादाद होगी, लेकिन उनकी केंद्रीय भूमिका समय के साथ घटती ही गई।
भूमिहारों के पास सभी योग्यता
'देश हो या प्रदेश, यहां अब भी डॉमिनेंट कास्ट डेमोक्रेसी (प्रभु जाति प्रजातंत्र) का ही बोलबाला है। समाजशास्त्र में प्रभु या दबंग जाति उसे कहते हैं, जो चार चीजों- संख्या बल, शिक्षा का स्तर, भूस्वामित्व (आर्थिक हैसियत) और राजनीतिक औजार बनाने में सफल रही हो। भूमिहार समाज इस योग्यता को काफी हद तक पूरा करता है।'
प्रो. आनंद कुमार, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
देश की राजनीति में दिखाया दम
राजनारायण: राजनैतिक संघर्ष को वैचारिक स्तर पर धारदार बनाया। आयरन लेडी इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट में तथा रायबरेली चुनाव में हराया। जनता पार्टी सरकार में वे स्वास्थ्य मंत्री रहे।
रघुनाथ सिंह: रघुनाथ सिंह के बिना भूमिहार समाज के बारे में चर्चा अधूरी है। जहाजरानी मंत्रायल यानी तब के जहाजरानी निगम के दो बार चेयरमैन और बनारस के तीन बार सांसद रहे।
कल्पनाथ राय: केंद्र में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिंह राव सरकार में कल्पनाथ राय मंत्री रहे। कांग्रेस सरकार में ही उनपर 'टाडा' में केस चला और काफी समय जेल में रहने के बाद बरी हुए थे।
प्रदेश में ये रहे मंत्री
कुंवर रेवती रमण सिंह (सपा), जगदीश राय (बीएसपी), अजय राय (बीजेपी), सूर्यप्रताप शाही(बीजेपी), नारद राय (सपा), मनोज राय (सपा), पीके राय(सपा)।
केंद्रीय मंत्री: मनोज सिन्हा व गिरिराज सिंह(बीजेपी)
पूर्वांचल के विकास में भूमिहारों का बड़ा योगदान है। इस जाति से संबंध रखने वाले राजाओं की ही व्यवस्था है कि काशी नगरी दुनिया की निराली नगरी में गिनी जाती है।
-हेमंत राय (व्यवसायी)
भूमिहार एक विचार है और वे राष्ट्र प्रेम में सबसे आगे हैं। जब भी बात त्याग-बलिदान की हो तो अपनों को छोड़कर यह जाति देशप्रेम प्रदर्शित करती है।
- धर्मेंद्र सिंह, मीडिया प्रमुख, बीजेपी काशी क्षेत्र
आजादी की लड़ाई हो या फिर सियासत, भूमिहारों ने अपनी भूमिका साबित की है।
-प्रो. सतीश राय, काशी विद्यापीठ

Friday, 21 September 2018

भूमिहार एक प्रगतिशील समुदाय @अभिषेक पराशर

बिहार में भूमिहार प्रगतिशील समुदाय रहा है. सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में यह समुदाय बिहार में जमींदारी प्रथा के खिलाफ किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहा था. 1910 के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ बिहार में चल रही लड़ाई पर अगर आपकी नजर जाती है तो आपको पता चलेगा कि तुरकौलिया और पिपरा जैसी छोटी जगह पर इस समुदाय ने नील की खेती के खिलाफ पहली बार विद्रोह किया. गांधी के आने के पहले की यह घटना थी. बाद में जब गांधी चंपारण आए तो बिहार में इस समुदाय के बुद्धिजीवी कृष्ण सिंह, रामदयालु सिंह, रामनंदन मिश्रा, कार्यानंद शर्मा और सहजानंद सरस्वती जैसे लोग शामिल हुए. इन्हीं में शामिल सरस्वती ने बाद में बिहार में किसान आंदोलन की जमीन तैयार की, जो बाद में पूरे भारत में संगठित हुआ. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद कम्युनिस्ट और कांग्रेस को थोड़े समय के लिए साथ काम करने का मौका मिला और इसी दौरान किसानों के अलग-अलग चल रहे आंदोलनों को एक साथ लाने का प्रस्ताव ई एम एस नंबूदरीपाद ने रखा और फिर इसके बाद ऑल इंडिया किसान सभा अस्तित्व में आई, जिसके सरस्वती इसके पहले अध्यक्ष बने. सरस्वती की पहल पर इस आंदोलन से कई अहम लोग जुड़े, जिनमें लोहिया, राहुल सांकृत्यायन, जयप्रकाश नारायण जैसे लोग शामिल हुए.
कह सकते हैं कि देश भर में किसान आंदोनल को संगठित करने में इस समुदाय की भूमिका अग्रणी रही है. बिहार में जमींदारी प्रथा और उसके अत्याचारों के खिलाफ लड़ाई की पृष्ठभूमि श्रीमान लालू जी की पैदाइश से पहले की है लेकिन लालू जी ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए सवर्णों विशेषकर भूमिहारों को सामाजिक न्याय की राजनीति की राह में मौजूद ''खलनायक'' बता दिया. दूसरा, दिल्ली में बैठे वामपंथी नेतृत्व ने भी लालू जैसे भ्रष्ट और खतरनाक जातिवादी नेता को आगे बढ़ाने का काम किया. बिहार की राजनीति में यह समय इस जाति के आत्मावलोकन का है, जिसकी प्रगतिशील विरासत सियासत में जानबूझकर धुंधली की जा रही है और उसकी पहचान को अपराधी और दबंगों से जोड़कर दिखाया जा रहा है और प्रतिक्रियावश युवा समाज को इनके साथ खड़े होने में कोई परेशानी नहीं होती. बिहार में जब नेतृत्व जबरन थोपा जा रहा है, वैसे में इस समुदाय को भी अपने इतिहास से रूबरू होने की जरूरत है. (1)