Saturday, 27 June 2020

टिकारी राज के छठवें राजा महाराजा मित्रजित सिंह

टिकारी राज के छठवें राजा
महाराजा मित्रजित सिंह
राजा बुनियाद सिंह के लड़का मित्रजित सिंह थे. इनका जन्म १७६२ इसवी में हुआ था. यह जब मात्र १ वर्ष के थे तो टिकारी राज परिवार में भूचाल आ गया था. बंगाल के नवाब मीर कासिम के द्वारा इनको, पिता और चाचा के साथ मुंगेर के किला में हत्या करवा दिया गया था.
मीर कासिम के बारे में --- मीर कासिम १७६० से १७६४ तक बंगाल का नवाब था. उसका पूरा नाम मीर मोहम्मद अली खान था. इसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल का नवाब बनाया था. अंग्रेजो ने १७६० में उसके ससुर मीर जाफर को हटाकर उसे बंगाल का नवाब नियुक्त किया था. मीर क़ासिम ने बंगाल के नवाबी पाने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगाँव के तीन ज़िले सौंप दिये थे, कलकत्ता में ब्रिटिश कौंसिल को 20 लाख रुपया नक़द दिया और मीर ज़ाफ़र का सारा क़र्जा ऋणमुक्त कर देने का वायदा किया था. तब जा कर उसे बंगाल के नवाब के पद प्राप्त हुआ था. परन्तु अंग्रेज़ों ने २२ अक्टूबर, १७६४ को बक्सर की लड़ाई में तीनों लोग दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम II, शुजाउदौला, मीर कासिम को हरा दिया था. अवध के नवाब शुजाउद्दौला जान बचाकर रूहेलखण्ड भाग गया. बादशाह शाह आलम II अंग्रेज़ों की शरण में आ गया और मीर क़ासिम भाग गया और बाद में दर-दर की ख़ाक़ छानता हुआ कई साल बाद भारी तंगहाली की अवस्था में ८ मई, १७७७ ई. को दिल्ली में मर गया.
टिकारी राज में घटना इस प्रकार से है. राजा बुनियाद सिंह को आये दिन तरह तरफ से मुग़ल बादशाह और बंगाल के नवाब के द्वारा परेशान किया जाने लगा. वे बाहरी परेशानियों से तंग आ कर मुग़ल बादशाह और बंगाल के नवाब का संग छोड़ने का मन बना लिया था.
अत्याचार सहने की सीमा जब समाप्त हो जाती है तब मनुष्यों की चेतना जागृत होती है, फिर वह करो या मरो की स्थिति में आ कर अपने कार्य को पूरा करता है. अतः परेशान हो कर वे अंग्रेज के साथ देने का मन बना लिया थे. एक दिन थक हार उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थानीय कमांडिंग अफसर रोबर्ट क्लाईव के पास अपनी भक्ति एवं निष्ठा के साथ उनमें शामिल होने एक आग्रह पत्र लिखा. दुर्भाग्यवश पत्रवाहक के हाथ से वह पत्र उस समय पटना में रह रहे बंगाल के नवाब मीर कासिम के हाथ में जा पहुंचा. उस कथित आग्रह पत्र को पढ़ कर मीर कासिम बहुत आग-बबूला एवं क्रोधित हुआ और वह उसी समय टिकारी के राजा को कठोर दंड देने का मन बना लिया.
मीरकासिम ने तुरंत एक हरकारा दूत को टिकारी राज के पास भेजा और कहलवाया की वह उनसे मित्रता करना चाहता है. राजा फ़तेह सिंह मीरकासिम के निमंत्रण पा कर बहुत खुश हुए. राजा बुनियाद सिंह और उनके नवालिग़ लड़के राजकुमार त्रिलोक सिंह, तीनों लोग मीर कासिम से मिलने के लिए मुंगेर किला में जा पहुंचे. तीनो अभागे यह विश्वास ले कर चल रहे थे की उन्हें सम्मान और धन की प्राप्ति होगी. राजनीती में अति विश्वास भयंकर भूल मानी जाती है. यह ठीक ही कहा गया है की अति विश्वास सबसे बड़ी विपति के कारन बन जाती है और यही हुआ. मीरकासिम द्वारा बिछाए गए जाल में अन्तः वे लोग फंस चुके थे. मुंगेर के किला में आते ही उन तीनों लोग को अलीवर्दी खान पहले बड़े प्रेम से मिला, आदर सत्कार किया और क्षण भर में रंग बदल कर अनेक प्रश्नों के साथ व्यंग बाण चलाता रहा. अंत में तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया और एक काल कोठारी में बंद कर दिया गया.
मीर कासिम ने मुंगेर के किला में उन तीनो की काफी यांत्रना दिया. कुछ समय के बाद मीरकासिम के आदेशानुसार, मुग़ल पठान गोलाम्बस के द्वारा ५ अक्टूबर १७६३ को मुंगेर के किला में तीनों व्यक्तियों राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और नवालिग़ राजकुमार त्रिलोक सिंह के साथ सात अन्य व्यक्तियों का निर्मम हत्या कर दिया गया.
मीर कासिम ने दुंद बहादुर सिंह को टिकारी के राजा बना दिया. उस समय वह मुर्शिदाबाद में थे, उसने इनको टिकारी राज जा कर राजा के गद्दी पर बैठने के लिए आदेश दे दिया था, मगर उसका यह आदेश महज कागजी भर रह गया.
राजा दुंद बहादुर सिंह के बारें में -- महाराजा सुंदर सिंह टिकारी राज में प्रशासन एवं सैन्य संचालन में काफी वयस्त थे इसलिय उन्होंने अपने छोटे भाई छतर सिंह के पौत्र तथा कहर सिंह के पुत्र दुंद बहादुर सिंह को सन १७५३ में अपना टिकारी राज का प्रतिनिधि बना कर मुर्शिदाबाद में बहाल कर दिया. राजा दुंद बहादुर ने टिकारी राज के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल के नवाब के दरबार में रह कर कई वर्षों तक वहां अपनी सेवा दी. बंगाल के राज दरबार में कई वर्षों से रहने के दौरान दुंद बहादुरसिंह का मीर कासिम से काफी घनिष्ठता हो गयी थी. इसी बीच बंगाल के नवाब मीर कासिम ने टिकारी राज से राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और फ़तेह सिंह के पुत्र नवालिग़ त्रिलोक सिंह को निर्मम हत्या करवा दी. टिकारी के राजा के हत्या करने के बाद बंगाल के नवाब मीर कासिम के आदेशानुसार दुंद बहादुर सिंह ६ अक्टूबर १७६३ को टिकारी राज के राजा बनाये गए, जो २२ अक्टूबर १७६४ तक अंग्रेज से मीर कासिम के हारने तक दुंद बहादुर सिंह कागज़ पर टिकारी के राजा बने रहे, मीरकासिम के हाथ से बंगाल के नवाबी जाने के बाद दुंद बहादुर सिंह को टिकारी राज के गद्दी प्राप्त करने का सपना सिर्फ कागजी रह गया क्योंकि राजा रहते हुए भी दुंद बहादुर सिंह टिकारी राज के गद्दी पर कभी भी बैठ नहीं पाए थे. इनके कोई लड़के नहीं हुए.
राजा फ़तेह सिंह, राजा बुनियाद सिंह और नवालिग़ राजकुमार त्रिलोक सिंह के हत्या किये जाने के समय राजा बुनियाद सिंह एकमात्र पुत्र मित्रजित सिंह मात्र एक वर्ष के बालक थे.
मीर कासिम ने क्रोधित होकर अपने खुफिया दस्ता को फरमान जारी किया की टिकारी जा कर उस बच्चे को क़त्ल कर पानी में डाल दो. इधर टिकारी किला परिसर में यह समाचार पहुँचते ही हाहाकार मच गया. लोग इधर उधर भाग दौड़ करने लगे, उधर राज महल के रनिवास में रानी पछाड़ मार कर बेहोश होने लगी, उनके साथ साथ में उनकी सेवक-सेविकाएँ भी विलख-विलख कर रो रही थी.
अब यहाँ पर यक्ष प्रश्न था की शिशु मित्रजित सिंह की रक्षा कैसे की जाये. यही पर उक्त कहावत "कहार, कुर्मी, बारी यही है टिकारी" चरितार्थ हुई. यह कहावत उस ज़माने में काफी लोकप्रिय था. इनके लोग राज महल में काफी संख्या में कार्यरत थे. ये लोग राजा के स्वामी भक्त थे और राज परिवार को भी इन पर काफी विश्वास था. टिकारी किला में इन लोगों के नारी-पुरुष अनेकों-नेक दैनिक कार्य में लगे होते थे. नारियां प्रायः सह्राद्या होती थी, ये लोग दिन रात चौबीसों घंटा राज परिवार के सेवा में लगी रहती थी. उनलोगों को रानी की दशा नहीं देखी गयी, वेलोग भी विलखती हुई बोली - महारानी जी धैर्य धारण कीजिये, हम सब कसम खाते है की हमलोग के प्राण रहते राजकुंवर को कोई नुक्सान नहीं होने नहीं देंगे. उधर टिकारी किला के बाहर इलाके में कुछ मीर कासिम के मुस्लिम गुप्चर भी इस ताक में लगे हुए थे की मौका मिलते ही बच्चे को काम तमाम कर दिया जाये.
उन दिनों किले में कर्मचारियों को भोजन बनाने में गोइठा का इस्तेमाल किया जाता था. यही गोइठा से बालक की रक्षा की गयी. टिकारी राज के एक सेवक किशुन कुर्मी के पत्नी का मन उस बच्चे से बहुत रम गया था. उन्हें लड़का को बक्सर ले जाने के लिए तैयार किया गया. एक लकड़ी के टोकरी में सबसे निचे मुलायम गद्देदार कपड़ा रख कर उसके ऊपर बालक को दूध में एक पुटी अफीम दे कर सुला दिया गया. उसके ऊपर एक मुलायम कपडे से धक् दिया गया, फिर उसके ऊपर गोइठा सजा कर उस टोकरी को ले कर कुछ महिला इधर उधर घुमती हुई मुस्लिम गुप्तचर से नज़र बचा कर, अंत में एकांत में टिकारी राज के विशाल रकवा को पार करा दिया गया. उनमें से कुछ महिलाये रनिवास वापस लौट गयी. किशुन कुर्मी अपने पत्नी के सा, बालक को लेकर कर बक्सर जाने के क्रम में अरवल के पास बेलखरा महाल स्टेट मे टिकारी राज के विश्वासी सेनापति दलील सिंह के हाथ में सौप दिया गया. वे उस बालक को ले जा कर बक्सर में छिपा दिए. फिर वे वहां से बालक मित्रजित सिंह को दक्षिण बिहार के पहाड़ी इलाका में बने गुप्त स्थान में छिपा दिया था .
वहां बालक २ वर्ष रखने के बाद दलील सिंह उसे पटना ले जा कर अँगरेज़ अधिकारीयों के हाथ में सौप दिया. मित्रजित सिंह के बालिग होने पर अँगरेज़ उन्हें राजा के पदवी दे कर टिकारी राज के गद्दी पर बैठा दिया. इसके लिय मित्रजित सिंह जीवन भर अंग्रेजों के आभारी रहें.
इधर मित्रजित के अनुस्पथिति में टिकारी राज का सारा प्रबंध उनकी माँ के हाथ में आ गया था और उसी समय में टिकारी राज को राजा के अनुस्पथिति में ईस्ट इंडिया कंपनी ने यह राज "कोर्ट ऑफ़ वार्डस" (१७ जून १७६४ से १७८१) के अंतर्गत कर दिया था.
सन १७६५ में अंग्रेजो द्वारा मीर कासिम को हरा कर बंगाल की नवाबी छीने जाने के बाद बालक मित्रजित सिंह की मां अपने बेटा के बालिग होने तक टिकारी राज के गद्दी संभाले रखी हुई थी.
ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी ने सन १७५७ में प्लासी युद्ध जितने के बाद बंगाल के सत्ता सँभालने के समय राजस्व संग्रह करने के लिए एक बही बनाया, जिसे मालगुजार रजिस्टर कहा जाता था. इस रजिस्टर में मालगुजार देने वाले सभी ज़मींदार के नाम लिखे जाते थे. टिकारी के राजा फ़तेह सिंह का नाम दर्ज होना था. उन्हें मालगुजार पंजी में नाम दार्ज करवाना बहुत अपमान जनक लगा था. उन्होंने अपने नाम के जगह अपने छोटे भाई बुनियाद सिंह के नाम दर्ज करवाया दिया था. इस कारण फ़तेह सिंह के वंशजों को भरी कीमत चुकानी पड़ी, उनलोगों को टिकारी राज के गद्दी से हाथ धोना पड़ा था.
टिकारी के महाराजा मित्रजित सिंह के टिकारी राज की सत्ता संभालने के बाद विस्थापित हुए उनके चचेरे भाई और राजा फ़तेह सिंह के दतक पुत्र पीताम्बर सिंह अंततः अंग्रेजों के साथ हो गए और अँगरेज़ के साथ मिल कर चौसा, बक्सर में बंगाल के नवाब, अवध के नवाब, मुग़ल बादशाह को हराकर अंग्रेजों के प्रति अपनी निष्ठा साबित की.
पीताम्बर सिंह के मदद से खुश होकर अंग्रेज ने मित्रजित सिंह के द्वारा टिकारी राज से मकसूदपुर सैनिक किला और २६ गाँव को काट कर मकसूदपुर राज की स्थापना कर दिया और उसने ने पीताम्बर सिंह को मकसूदपुर राज का प्रथम राजा बना दिया था.
सिताब रॉय की मित्रजीत से सम्बन्ध ठीक नही थे. राजस्व के काफी बकाया गिर जाने के अपराध में सिताब रॉय ने उनकी सारी सम्पति छिन ली थी. मित्रजीत सिंह ने हजारीबाग जिला में कोल्हान –विद्रोह को दबाने में, आगे आ कर उन्होंने अंग्रेजों के मदद की थी. इसलिय अंगरेज उनकी की सारी सम्पति वापस कर दिया था और साथ ही साथ उन्हें महाराज के पदवी से भी विभूषित के दिया. वे आगे चल कर टिकारी राज के महाराजा मित्रजित सिंह कहलाये.
लगभग १७८० के आसपास महाराजा मित्रजित सिंह अपने राज को सुंदर, व्यवस्थित और विस्तार करने में लग गए. रामगढ राज, सिरिस कुटुम्बा, शेरघाटी, नरहट, समाई, अरवल, दादर, और काबर के कुछ- कुछ भागों को खरीद कर अपने राज में मिलाया.
इनके ही शासन काल में सन १७९३ में ईस्ट इंडिया कंपनी के लॉर्ड कॉर्नवालिस, फोर्ट विलियम प्रेसिडेंसी एवं बंगाल का गवर्नर जनरल, ने स्थायी भूमि बन्दोवस्ती कानून लाया था. जिसमें ज़मीन के रैयत को उसका स्थायी रूप से मालिक बना दिया गया था. इन्होंने स्थायी बन्दोबस्त के रूप में एक नई राजस्व पद्धति की शुरूआत की. इसके समय में जिले के सभी अधिकार कलेक्टर को दिया गया और इसे ही भारतीय सिविल सेवा का जनक माना जाता है. इसने कंपनी के कर्मचारियों के व्यक्तिगत व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इस कानून से ज़मीनदार के ज़मींदारी भी स्थायी हो गया था. यह ईस्ट इंडिया कंपनी का कानून सिर्फ बंगाल, उड़िसा और बिहार में लागू था.
अब टिकारी राज को अपने ज़मीनदारी में बसे ज़मीन के रैयत से प्रत्येक वर्ष राजस्व लेना पड़ता था, उस राजस्व को ले जा कर कलकत्ता में फोर्ट विलियम प्रेसिडेंसी के कार्यालय में सन १८३३ तक जमा किया गया था. १९३३ के बाद सम्पूर्ण भारत पर ब्रिटिश के पूर्ण अधिकार हो गया था, उस समय भारत में ब्रिटिश गवर्नर-जनरल यानी महा राज्यपाल बना गए और कलकत्ता में गवर्नर-जनरल के कार्यालय में राजस्व जमा होने लगा था. उसी राजस्व में से कुछ भाग ज़मीनदार का भी होता था.
इनके समय मुग़ल शासकों के द्वारा गया में आने वाले पिंड दानियों और सैलानियों पर पिलग्रिम टैक्स लिया जाता था. अंग्रेजी हुकूमत ने यह कर को समाप्त कर दिया था. इससे होने वाले राजस्व घाटे की क्षतिपूर्ति के रूप में, वे मित्रजित सिंह को प्रत्येक वर्ष १७,२१२ रूपया देने लगे थे.
मित्रजित सिंह एक योग्य और कुशल शासक थे अपने योग्यता के बल पर टिकारी राज के खजाने में काफी धन दौलत और सम्पति अर्जित की. वे बेहद कंजूस थे. राज के जरुरत के हिसाब से खर्च करते थे. दुसरे राज से सम्पति खरीद कर अपनी राज के सीमाओं का विस्तार किया. वे टिकारी राज के विकास में बढ़ चढ़ हिस्सा लेते थे. इसी कारण वे प्रजा में काफी लोकप्रिय थे.
उन्होंने बहुत से लोक के लिय कल्याण कारी कार्य किये. जल भण्डारण के लिए आहार, पोखर, तालाब, नहर, पईन के बनवाने सम्बन्धी सर्वे एवं निर्माण इस तरह से करवाई गयी, जो आज बनने वाले नहर इत्यादि से अधिक व्याहारिक और वैज्ञानिक था. उन्होंने कुएं, सड़क, धर्मशाला गाँव में एक बड़े तालाब का निर्माण करवाया था. जो भीषण अकाल के समय काफी उपयोगी साबित हुआ था. टिकारी शहर में कई मंदिर, स्कूल, दवाखाना आदि भी बनवाए.
मित्रजित सिंह ने बराबर पहाड़ के पास नागार्जुन हिल के निकट धर्मशाला के धार्मिक स्थान की पक्की सीढियाँ, राज वासी की सुविधा पूर्वक यात्रा के लिय काफी धन खर्च करके टिकारी-गया रोड, जमुने नदी पर पुल, मोरहर नदी पर लकड़ी का पुल, पाली कोंच मार्ग पर कई कुआँ, गया के विष्णुपद के पास रुद्रप्रयाग द्वारा निर्मित सूर्य मंदिर की चहार दिवारी और वृहद कूप के बगल में शिव मंदिर बनवाए.
कृषि ----- सन १८१० में नील के खेती को अपने राज में बंद करवा दिए. राज के निवासियों द्वारा नील के खेती किये जाने से आराजकता फ़ैल रही थी. उन्होंने अपने राज के खेती के लिय पटवन के दिशा में कई कार्य किये. गाँव के खेती के पटवन की जिम्मेवारी खुद अपने कर्मचारियों को दिए हुए थे. वह काफी सफल रहा और राज के राजस्व में वृद्धि होते गया.
इन्होने कृषि पर एक पुस्तक भी लिखी थी "कृषि शास्त्रंम" जो उस ज़माने में काफी लोकप्रिय हुयी थी. उस पुस्तक की प्रशंसा विदेश में भी होने लगी थी.
उन्होंने अपने राज्य में कृषि के विकाश के लिए कई परियोजना शुरू की थी जो उस ज़माने में काफी सफल और लोकप्रिय हुआ था. इनके समय में सिंचाई के लिये बड़ी एवं छोटी नहरों, कुओं, नलकूपों, तालाबों, एवं वर्षाजल का उपयोग किया जाता था.
नहर से सिंचाई की सबसे प्रमुख साधन था. तालाब का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता था.
कुएं एवं नलकूप का निर्माण सर्वाधिक उन्हीं क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ चिकनी बालुई मिटटी मिलती है, क्योंकि इससे पानी रिस कर धरातल के अन्दर में चला जाता था तथा भुमिगल जल के रूप में भंडारित हो जाता था. कच्चे कुएं, पक्के कुएं, लगभग 50 प्रतिशत भूमि की सिंचाई कुओं ही की जाती थी.
ढेकुली सिंचाई की एक परंपरागत सिंचाई व्यवस्था होती थी. कुओं से पानी निकालने का सबसे सुलभ साधन ढेंकुल का होता था जो कि लीवर के सिद्धान्त पर काम करने वाली एक संरचना है. इसमें Y के आकार के पतले वृक्ष के तने को सीधा जमीन में कुएं के पास गाड़ कर उस पर एक लम्बे बांस या लकड़ी को संतुलित किया जाता है. इस बांस या लकड़ी के एक सिरे पर मिट्टी का लोंदा छाप दिया जाता है और दूसरे सिरे पर रस्सी से बांध कर एक कूंड़ बर्तन को लटका कर कुएं के अन्दर ले जाते हैं और पानी को ऊपर खींच लेते हैं.
जिन क्षेत्रों में फसलों की सिंचाई करने के लिए कोई दूसरे संसाधन नहीं होते थे वहां के किसान अपने खेतों के पास एक कुआं खोद कर उसमें लोहे की बनी रेहट नामक मशीन लगा देते थे और अपनी फसल की सिंचाई कर लेते थे.
पुराने समय में जहां पर तालाबों या झील के पानी से सिंचाई होती थी वहां पर बेड़ी की आवश्यकता होती थी. इसमें दो व्यक्ति एक बांस या दूसरी लकड़ी से बना एक बड़े पर्तन को रस्सी से बांध कर पानी को तालाब से खींच कर नाली में डालते हैं जो खेत में जाती थी.
टिकारी के महाराज महाराजा मित्रजित सिंह जी द्वारा लागू भूमि बंदोबस्ती व्यवस्था बिहार के नेता श्री कृष्ण सिंह और सरदार पटेल को अच्छी लगी थी. उस समय पूरे देश में इस प्रकार के व्यवस्था लागू करने पर विचार होने लगा. यह खेती की व्यवस्था टिकारी राज के साथ पुरे मगध प्रमण्डल मे पिछले सौ सालो से लागू थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी --
ईस्ट इंडिया कंपनी के सत्ता में आने के बाद टिकारी राज पर बाहरी आक्रमण का खतरा लगभग ख़त्म हो चूका था. एक राज दुसरे राज पर आक्रमण करना बंद कर दिया था. प्रत्येक राज के सुरक्षा की जिम्मेवारी अब ईस्ट इंडिया कंपनी के जिम्मे थी. अब राज को सम्पति बढाने के लिए हमला या आक्रमण करने के बजाए दुसरे राज से सम्पति को खरीदना पड़ता था.
सन १७८१ में ईस्ट इंडिया कंपनी के पटना स्थित राजस्व परिषद् को बंद कर दिया गया था. राजा सिताब राय के बेटा ख्याली राय को महा किसान के रूप में नियुक्त किया गया. इस बार ईस्ट इंडिया कंपनी से पटना के राजा कल्याण को ज़मींदारों पर एकतरफा करवाई करने को अधिकार मिल गया. इस अधिकार से उत्साहित होकर उनके बेटे नायब ख्याली राय ने राजस्व के बकाया में टिकारी के राजा मित्रजित सिंह को जेल भेज दिया था. बाद में राजस्व को भुगतान करने के बाद मित्रजित सिंह रिहा हो गए थे.
सन १७९८ में जब अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब सहादत अली को लखनऊ में अवध के नवाब के गद्दी पर बैठाया गया था, तो इस गद्दी के अन्य दावेदार वजीर अली ने इसके विरोध में एक अखिल भारतीय षड्यंत्र की योजना बनायीं थी, कहा जाता है की टिकारी के राजा मित्रजित सिंह के साथ बिहार के कुछ और जागीरदार इस षड्यंत्र में शामिल थे.
अंग्रेज ने शाहाबाद में वीर कुंवर सिंह को हरा कर उनकी सम्पति जब्त कर ली थी. उस युद्ध में टिकारी के राजा ने अंग्रेज़ का साथ दिया था. जब्त की गयी ज़मीन में से १४ मौजा की ज़मीन ईनाम के रूप में मित्रजित सिंह को बन्दोवस्ती के तहत दी गयी थी.
सन १८११ में कलकत्ता के प्रसिद्ध चिकित्सक और इतिहासकार फ्रांसिस बुकनान पटना से गया क्षेत्र का बैलगाड़ी से भ्रमण किया था. ७ फरबरी १८११ को वे टिकारी किला में महाराजा मित्रजित सिंह मिलने आये थे. बुकनान कुछ समय के लिए अतिथि बन कर टिकारी किला में रहे भी थे. वे वहां से केशपा के तारा मंदिर को भी देखने के लिए गए थे, उन्होंने वहां के पुजारी से मंदिर के निर्माण के बारें पूछ ताछ किये तो पुजारी ने उनको बताया की ये मंदिर सतयुग में बनी है, यह बात सुन कर बुकनान अन्दर से बहुत नाराज हुए. बुकनान टिकारी के आप पास कई जगह गए भी थे. बुकानन लिखते है कि उस समय की सड़कं बैलगाड़ी के चलने लायक थीं और रास्ते के दोनों तरफ कई मंदिर हैं।
टिकारी किला के चारों ओर बाज़ार बसा हुआ था. यहाँ के लोगो के घर ज्यादातर कच्चे और भद्दे आकर के बने हुए थे. उनमें से ज्यादातर माकन मिटटी और खपरैल के थे. घर के दरवाज़ा छोटे छोटे आकार के थे. घर की खिड़कियाँ रास्ते के तरफ कम बने होते थे. पर्दा प्रथा प्रचालन में था. पानी पिने के लिए सार्वज़निक कुआँ बने हुए थे. टिकारी बाज़ार के रास्ते कच्ची बनी हुई थी और गलियां तंग एवं धुल भरी थी.
टिकारी महाराज मित्रजीत ने विष्णुपद मंदिर के पास के कुंड में एक विशाल तालाब का निर्माण 18वीं शताब्दी में कराया था. इस कुंड का उत्तरी भाग उदीचि, मध्य भाग कनखल व दक्षिण भाग दक्षिण मानस तीर्थ कहलाता है. ये तीनों पिंडवेदियां हैं. इस कुंड के पश्‍चिम- ‘दक्षिण सूर्य’ मंदिर व एक शिव मंदिर है. यहां कार्तिक व चैती छठ के मौके पर सांध्यकालीन अर्घदान का महत्त्व है. पूर्व में इस कुंड से अंत:सलिला फल्गु तक जाने का गुप्त मार्ग था. इस कुंड में अंत:सलिला से पानी आने-जाने का रास्ता बना था, जो इसमें जल की पर्याप्तता बरकरार रखता था.
सन १८०० में गया में फल्गु नदी पार साहिबगंज में १२०० कच्चे मकान थे, उनमें से ज्यादा टिकारी के बुनकर बसे हुए थे. महाराजा मित्रजित सिंह ने अपने फोर्ट नुमा किला के बगल में ५०० कच्चा मकान बनवाए हुए थे. किला के चारों ओर की दिवार मिटटी का बना हुआ था और उस पर जगह जगह बुर्ज तोप को रखने के लिए बना था.
सन १८३५ इसवी में भारत में पाश्चात्य शिक्षा का शुरुआत हुआ था. देश के साथ साथ बिहार में भी इसी समय इसका शुरुआत हुआ था. लार्ड मैकाले योजना के तहत पाश्चात्य शिक्षा पर जोर दिया गया और साथ ही साथ यह घोषणा की गयी की अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्थानों वितीय सुविधा उपलब्ध करायी जाएगी. अंगेजी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अनेक बुधजिवियों ने इसका समर्थन किया. टिकारी के महाराजा मित्रजित सिंह ने भी अंग्रेजी शिक्षा को लोकप्रिय बनाने के लिय उदारतापूर्वक सहायता प्रदान की. इसके पहले ही सन १८३३ में उनके द्वारा गया में एक स्कूल खोला गया था. यहाँ पर अंग्रेजी, फारसी और अरबी शिक्षा की पढाई की काफी अच्छी व्यवस्था थी. इस स्कूल के निर्माण में उनकी मुस्लिम दूसरी पत्नी अल्लाह ज़िल्लाई उर्फ़ बरसाती बेगम से उत्पन्न विद्वान पुत्र राजा खान बहादुर का बड़ा योगदान था.
मित्रजित सिंह के शासन काल में टिकारी राज के बटवारा या कहिए विभाजन तीन बार हुआ था. पहला बटवारा में उन्होंने पीताम्बर सिंह को मकसूदपुर के सैनिक छावनी किला के साथ २६ गाँव दिया था. दूसरा बटवारा में उन्होंने अपने मुस्लिम पुत्र खान बहादुर को टिकारी राज के एक आना के रूप में बड़े भूभाग यानी १/१६ (सोलहवें भाग) औरंगाबाद में दे दिया था. बाद में सन १८४० में अपने पुत्र राजा हित नारायण सिंह को नौ आना और राजा मोद नारायण सिंह को सात आना में टिकारी राज को बाँट दिया था. इसी समय से टिकारी राज का पतन होना शुरू हो गया था.
मित्रजित सिंह के दोनों पुत्र अकुशल और अविवेकी थे. दोनों के द्वारा प्रायः राज परिवार में कलह का वातावरण पैदा किया जाता था. सन १८१९ में वे अपने बड़े पुत्र से किसी कारण वस नाखुश हो कर बखशिशनामा के द्वारा अपने छोटे पुत्र को टिकारी राज के राजा बना दिए थे. बड़े पुत्र हित नारायण सिंह ने इसके खिलाफ अजीमाबाद के क्षेत्रीय न्यायालय में केस कर दिया. १२ फरवरी १८२२ को क्षेत्रीय न्यायालय ने बखशिशनामा को कैंसिल कर दिया था. न्यायालय के फैसला के बाद राजा मित्रजित सिंह ने दोनों पुत्रों के बीच हित नारायण सिंह को नौ आना और छोटे पुत्र मोद नारायण सिंह को सात आना में बाट दिया था. यहाँ पर भी मित्रजित सिंह ने अपने पुत्रों के साथ भेदभाव कर दिया, बड़े बेटे को बिहार के दक्षिणी जंगली इलाका वाला बंजर भूमि और छोटे पुत्र को अपने राज के मध्य-उत्तर के उपजाऊ ज़मीन दे दिया था. जिससे दोनों राज के प्राप्त होने वाले राजस्व में काफी अंतर हो गया था.
सन १८२० में वे बिहार के सबसे अमीर ज़मीनदार थे. उस समय उनकी टिकारी राज की आमदनी १,००,००,००० (एक करोड़) रुपये वार्षिक थी. वे अंग्रेज को मालगुजार के रूप में ३,००,००० (तीन लाख) रुपये वार्षिक देते थे. वे अपने बहुत से अधिकार अंग्रेज के ईस्ट इंडिया कंपनी को सौप चुके थे.
महाराजा सिंह अपने विद्वता और शायर के रूप में विख्यात थे. सन १८११ -१२ में इन्होने पटना में गंगा नदी के किनारे अपना महल बनवाया था. उसमें एक सुंदर मंदिर भी निर्मित है.
सन १८४१ में उनकी मृत्यु हो गयी थी. उनका कार्यकाल टिकारी राज में सबसे लम्बा ७५ वर्ष का रहा था. उनके पहली हिन्दू पत्नी से दो पुत्र और तीन पुत्री हुयी थी.
१. हित नारायण सिंह.
२. मोद नारायण सिंह
३. राजेश्वरी कुंवर
४. ..................... नाम नहीं मालूम
५. शिव रतन

Tuesday, 16 June 2020

फ़तेह बहादुर शाही, और संन्यासी विद्रोह किताबों से ग़ायब

फ़तेह बहादुर शाही, और संन्यासी विद्रोह किताबों से ग़ायब


अधिकाँश मित्रों ने महाराज फ़तेह बहादुर शाही (Fateh Bahadur Shahi) के बारे में अधिक पढ़ा-सुना नहीं होगा. महाराज फतेहबहादुर शाही वर्तमान उत्तरप्रदेश और बिहार के बड़े इलाके एवं सीमावर्ती क्षेत्र के शासक रहे हैं.

बिहार के सारण जिले की हुसैपुर रियासत के मालिक थे, जो कि यूपी के कुशीनगर जिले तथा बिहार के हथुआ क्षेत्र से भी सम्बंधित रहे. माना जाता है कि फतेहबहादुर शाही के पूर्वज मयूर भट्ट, ईसा पूर्व में ही पश्चिमी भारत से संस्कृत एवं ज्योतिष की शिक्षा लेने वाराणसी आ गए थे. मयूर भट्ट की प्रतिभा से प्रभावित होकर श्रावस्ती के महाराज ने अपनी कन्या का विवाह उनसे कर दिया. शुरुआत में मयूर भट्ट आजमगढ़ में रहे, लेकिन फिर वहाँ से गोरखपुर चले गए और सारण जिले में अपना स्थायी ठिकाना कायम किया.

भारत के Fake Historians नकली इतिहासकारों (अर्थात वामपंथी) ने बंकिमचन्द्र के उपन्यास आनंदमठ एवं प्रख्यात कविता “वन्देमातरम” को ऐसा कहकर प्रचारित किया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के खिलाफ इन दोनों की कोई भूमिका नहीं है. वामी इतिहासकारों ने उस कालखंड में भी “हिन्दू-मुस्लिम” फर्जी एकता को अधिक बढ़ावा देते हुए इसे “संन्यासी-फ़कीर क्रांति” कहा, ताकि बंकिमचन्द्र (Anand Math and Bankim Chandra) द्वारा रची गयी एवं स्थापित की जा सकने वाली हिन्दू राष्ट्रवादी आवाजों को दबाया जा सके. इसीलिए वामपंथ लिखित फर्जी इतिहास में भवानी पाठक, देवी चौधरानी तथा मजनू शाह जैसे वास्तविक नायकों के विपरीत “संन्यासी-फ़कीर आन्दोलन” को ही किताबों में प्रमुखता से स्थान मिला. लेकिन अंग्रेजों की एक बात तो माननी पड़ेगी कि उन्होंने कई स्थानों पर भारतीय इतिहास में घटित कई घटनाओं को बिलकुल उसी स्वरूप में कलमबद्ध किया, जैसी वे घटित हुई थीं. इसीलिए ब्रिटिश लायब्रेरी में रखे रिकॉर्ड के अनुसार हुसैपुर के एक ब्राह्मण राजा (उन दिनों भूमिहार शब्द प्रचलन में नहीं था) फतेहबहादुर शाही का जबरदस्त आतंक अंग्रेजों के सिर चढ़कर बोलता था. अंग्रेज इतिहासकार आगे लिखते हैं कि यह बड़ा ही आश्चर्यजनक था कि “संन्यासी विद्रोह” को अकेले फ़तेह शाही ने लगातार तेईस वर्षों तक पूरी बहादुरी के साथ जारी रखा और अंग्रेजों की नाक में दम किए रहे. सन 1767 को अब लगभग 250 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन फतेहबहादुर शाही की बहादुरी, लड़ाकूपन एवं जीवटता का पाठ्यपुस्तकों में कहीं भी अच्छे से उल्लेख नहीं है. सन 1767 में शाही ने 5000 सैनिकों और एक छोटे से तोपखाने के सहारे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को लगातार खदेड़े रखा.

केवल पच्चीस तलवारबाजों के साथ जादोपुर में रातोंरात हमला करके राजा फतेहबहादुर शाही ने मीर जमाल का क़त्ल किया था. बरका बाज़ार, और लाईन बाज़ार में उन्होंने सरेआम अंग्रेज कमांडरों को ललकारा था, लेकिन लेफ्टिनेंट अर्क्सईन और लेफ्टिनेंट हार्डिंग की हिम्मत नहीं हुई कि वे सामने आ सकें. (कलकत्ता रिव्यू, 1883, पृष्ठ 80). 1765 के बक्सर युद्ध में बेतिया, काशी और हुसैपुर के लोगों ने विद्रोह करने का फैसला किया था. उनकी सेनाएँ गंगा पार करके बलिया पहुँचीं जहाँ काशी के महाराज द्विजराज बलवंत सिंह के साथ फतेहबहादुर शाही ने तमाम योजनाएँ बनाईं और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया. आगे चलकर काशी नरेश बलवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात उनका बेटा चेतसिंह ने भी ब्राह्मण राजा फतेहबहादुर शाही से मधुर सम्बन्ध बनाए रखे. धीरे-धीरे अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन आगे फैलने लगा. पंडित शाही ने राजकाज अपने परिजन को सौंपकर अपनी राजधानी को खत्म कर दिया और संन्यासी बन गए. बेतिया के राजा ने अंग्रेजों को तीन बार हराया. उस समय राजा फतेहबहादुर शाही ने संन्यासियों और गोरखपुर के नाथ-पंथियों को इकठ्ठा करके अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की. इस प्रकार जिसे “संन्यासी विद्रोह” कहा जाता है वह वास्तव में महाराज शाही के संन्यासी रूप की ही देन थी. पंडित फ़तेह शाही का अंग्रेजों से यह युद्ध उनके मरते दम तक चलता रहा और उन्होंने लगभग पच्चीस वर्ष तक इस पूरे क्षेत्र में अंग्रेजों को पैर नहीं जमाने दिए. वामपंथी इतिहासकारों ने अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ती एवं घृणित सेकुलर मानसिकता के कारण इस युद्ध को “संन्यासी-फ़कीर युद्ध” नाम दे डाला, जबकि इसमें मुस्लिमों का कोई रोल था ही नहीं. यही संन्यासी विद्रोह बंकिमचंद्र के उपन्यास "आनंदमठ" का मूल आधार है. यहाँ तक कि संन्यासी विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ “वन्दहूँ माता भवानी” का जो नारा लगाया जाता था, वही आगे चलकर बंकिमचंद्र के “वन्देमातरम” का प्रेरणा स्रोत बना. वामियों द्वारा इस ब्राह्मण योद्धा महाराज को इतिहास की पुस्तकों से योजनाबद्ध तरीके से गायब किया गया. हालाँकि आनंद भट्टाचार्य, जैमिनी मोहन घोष. कुलदीप नारायण, जगदीश नारायण, मैनेजर पाण्डेय, भोलानाथ सिंह जैसे इतिहासकारों एवं लोक-गायकों ने महाराज फतेहबहादुर शाही की वीरता के किस्सों को अपनी रचनाओं में जीवित रखा है.

अतः ऐसा स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है, कि 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से काफी पहले ही अंग्रेजों को खदेड़ने और उनसे लगातार युद्ध करने की प्रक्रिया आरम्भ की जा चुकी थी, परन्तु 1857 की क्रान्ति को अधिक प्रचार-प्रसार मिला, जबकि राजा फतेहबहादुर शाही को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला.