"बिहार रत्न" ही नहीं मानव रत्न थे लंगट बाबु
मुजफ्फरपुर की धरती अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक जागृति के अग्रदूतों की धरती रही है जिन्होंने देश की आजादी, सामाजिक परिवर्तन और शैक्षणिक क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जानकी वल्लभ शास्त्री, रामबृक्ष बेनीपुरी, शहीद जुब्बा सहनी जैसे अनेक विभूतियों के नाम से मुजफ्फरपुर व बिहार की प्रतिष्ठा बढती है। ऐसे ही एक महापुरुष थे बाबु लंगट सिंह।
साहस, संकल्प और संघर्ष की बहुआयामी जीवन जीनेेवालें बाबु लंगट सिंह का जन्म आश्विन मास, सन 1851 में धरहरा, वैशाली निवासी अवध बिहारी सिंह के यहाँ हुआ था। निर्धनता का अभिशाप झेलते, जीवन जीने को संघर्ष करते परिवार में जन्म लेने की वजह से लंगट बाबु पढाई नहीं कर पाए। कहा जाता है कि मनुष्य जीवन का विकास जटिल परिस्थितियों में होता है। संघर्ष की अग्नि से ही आतंरिक शक्ति का सच्चा विकास होता है। लंगट बाबु ने भी संघर्ष का रास्ता चुना व 24-25 वर्ष की उम्र में जीविका की तलाश में, घर की आर्थिक सुधारने की संकल्प लिए निकल पड़े घर सेे। काम मिली भी तो, रेल पटरी के साथ साथ बिछाए जा रहे टेलीग्राम के खम्भों पर तार लगाने का। उसके बाद रेलवे के मामूली मजदूर से जमादार बाबु, जिला परिषद्, रेलवे और कलकत्ता नगर निगम के प्रतिष्ठित ठेकेदार बनने की कहानी, आधुनिक फिल्मों की पटकथा से कम नहीं लगती।
साधारण मजदूर से अपनी कठोर मेहनत, बुद्धि और स्थायी विश्वसनीयता के बल पर अत्यंत दायित्व-संपन्न, सम्मानास्पद ठेकेदार और उदार जमींदार के रूप में स्थापित हो गये थे। जीवन के कई वर्ष उन्होंने कलकत्ता में ठेकेदारी करते हुए बिताये। कलकत्ता के संभ्रांत समाज में उनकी कहीं ऊँची प्रतिष्ठा थी। बंगाली समुदाय से वे इतना घुल-मिल गये थे कि उन्हें लोग शुद्ध बंगाली ही माना करते थे। वे वहां के सभ्य समाज में स्वदेशी आंदोलनों के मंच पर प्रभावशाली आत्मविश्वास से भरी भाषण देते थे। वहा के शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय जागरण की उस फिजां में स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ईश्वरचंद विद्यासागर, सर आशुतोष मुखर्जी आदि के स्वर गूंज रहे थे। उस समय प्रसिद्ध युग-निर्माताओं के सतत संपर्क में ही नही थे बाबु साहब, अपितु बहुयामी राष्ट्रिय महत्व के कार्यों से बहुत प्रभावित भी थे और उनसे जुड़े हुए थे। सदियों से मंद पड़ी विद्यानुराग कि वह पवित्र बीज वही कलकत्ता में फूटी और आज एल.एस. कॉलेज के रूप में वटवृक्ष की तरह खड़ी है।
बाबु लंगट सिंह की जीवन-दृष्टि बहुत ही उदार, उदात्त और व्यापक थी। खास कर बिहार में अपनी जीवन-यात्रा के पथ पर पं. मदन मोहन मालवीय जी, महाराजाधिराज दरभंगा, काशी नरेश प्रभुनारायण सिंह, परमेश्वर नारायण महंथ, द्वारकानाथ महंथ, यदुनंदन शाही, धर्म्भुषन रघुनन्दन चैधरी और जुगेश्वर प्रसाद सिंह जैसे विभिन्न वर्गों के विद्याप्रेमी सज्जनों के साथ जुड़कर शिक्षा का अखंड दीप उन्होंने मुजफ्फरपुर में जलाया था। जब बात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनने की आयी तो उन्होंने एल.एस. कॉलेज के निर्माण कार्य हेतु रखे पैसे दान कर दिए। यही थी उनकी अनोखी, सबों को समेट कर किसी शुभ कार्य को संपन्न करने की विलक्षण जीवन-साधना, दृष्टि और शैली। अद्भुत मेधा के युग-निर्माता, एक कृति पुरुष थे बाबु साहब, जिसका उदहारण मिलना कठिन है अब।
बाबु लंगट सिंह मनुष्य रूप में क्या थे? सद्गुणों के ज्योतिर्मय एक प्रकाश-पिंड! अदम्य उत्साह, अटूट आस्था और ज्वलंत पौरुष के अनुपम प्रतिमान, एक विलक्षण मेधावी और त्याग की मूर्ति, महान मनुष्य!
सचमुच में सिर्फ ष्बिहार रत्नष् ही नही, मानव रत्न थे मुजफ्फरपुर, तिरहुत की धरती के लिए। लंगट बाबु ने धन अर्जित किया तो श्रम से, अच्छे साधनों से, धन खर्च किया ऊँचे उदेश्यों की पूर्ति के लिए, श्रेष्ठतम जीवन-मूल्यों की रक्षा के लिए। आज से सौ वर्ष पहले काशी और कलकत्ता के मध्य गंगा के उत्तरी तट पर तब कोई कॉलेज नहीं था। हाई स्कूलों की संख्या नगण्य थी। तब उस शिक्षा के घोर अन्धकारच्छन्न युग में, ऊँची शिक्षा के लिए, मुजफ्फरपुर में कॉलेज की स्थापना को, पुरे दृढ वुश्वास के साथ चरितार्थ किया। कितने बड़े साहस का काम था कॉलेज खोलने का! यदि यह नहीं हो पता तो लाखों छात्र स्नातक और स्नातोकोत्तर परीक्षाओं में उतीर्ण हो राष्ट्र की बहुमुखी जीवन-धारा में ऐसी गति दे पाते क्या? कतई संभव नहीं था। ऊँची शिक्षा के प्रसार, सांस्कृतिक उत्थान और सामाजिक परिवर्तन के लिए बिहार में उनकी जो महत्वपूर्ण भूमिका रही है, वह इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएगी।
आज उनको दिवंगत हुए १०० वर्ष हो गये, तब भी उनका परोपकार-प्रियता, समग्र समाज की सेवा भावना, शिक्षा-प्रेम, सांस्कृतिक जागरण के प्रति उनकी कठोर प्रतिबद्धतता -उनके जीवन की ये खूबियाँ हमें उस महापुरुष की याद दिलाती है, शुभ कर्मों के लिए प्रेरणा देती है। लंगट बाबु के जीवन की ऊँची नीची घाटियों की यात्रा, कितनी जटिल, श्रमसाध्य और विपत्तियों से बेतरह भरी हुई थी, उसका सम्पूर्ण लेखा-जोखा 15 अप्रैल, 1912 को उनके निधन के साथ ही शून्य में विलीन हो गयी। परन्तु उस साहसिक जीवन-यात्रा, सच्चे उदेश्य के लिए सतत निष्ठापूर्वक श्रम, समाज के लिए उदहारण है। जब भी मुजफ्फरपुर और तिरहुत के इतिहास के पन्ने लिखे जायेंगे वह बिना लंगट बाबु के कभी पूरा नहीं होंगी।