Tuesday, 26 May 2015

M N Rai

Colonel Munindra Nath Rai was an Indian soldier who won the Yudh Seva Medal for his bravery. Awarded the medal on 26 January 2015, he was however killed while fighting militants in Jammu and Kashmir on 27 January 2015.

कौन हैं मोदी के 'आंख और कान' @अंकुर जैन

नरेंद्र मोदी की 365 दिनों की केंद्र सरकार में गुजरात के कई अधिकारियों का दिल्ली आने का टिकट कटा है.
इन अधिकारियों ने गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान अपनी क्षमता को साबित की है.
मोदी के शासन के दौरान गुजरात में नौकरशाहों का दबदबा रहा है.
कुछ इसी तरह के हालात दिल्ली में भी बनाने की उनकी योजना लगती है जहां वे गुजरात कैडर के अधिकारियों को अपनी टीम में आगे रखना चाहते हैं.

एके शर्मा, प्रधानमंत्री कार्यालय में ज्वाइंट सेक्रेटरी

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से आने वाले एके शर्मा 1998 बैच के आईएएस अधिकारी हैं. वे 2001 से मोदी के कार्यालय के साथ जुड़े हुए हैं.
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की पहली सूची में उनका नाम था.
उन्होंने कॉरपोरेट गलियारे में मोदी की छवि को गढ़ने में काफी काम किया है. गुजरात ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट आयोजित करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है.

पीके मिश्रा, प्रधानमंत्री के एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी

1972 गुजरात कैडर के सेवानिवृत आईएएस अधिकारी पीके मिश्रा को मोदी का काफी करीबी माना जाता है.
उनका नाम उन अधिकारियों में शामिल है जो 27 फ़रवरी 2002 की शाम गोधरा कांड के बाद मोदी की ओर से बुलाई गई विवादास्पद बैठक में मौजूद थे. इसके बाद भड़के दंगे के दौरान वे मोदी सरकार में प्रिंसिपल सेक्रेटरी थे.
वे नियुक्ति पर दिल्ली आने से पहले साल 2004 तक इस पद पर रहें. वे साल 2008 में केंद्रीय कृषि सचिव के रूप में सेवानिवृत हुए और इलेक्ट्रीसिटी रेगुलरिटी कमीशन के चेयरमैन के रूप में पांच साल के लिए गुजरात लौटें.

हसमुख अधिआ, फाइनेंशियल सर्विस एंड आरबीआई डायरेक्टर विभाग में सेक्रेटरी इंचार्ज

नवंबर 2014 में मोदी ने हसमुख अधिआ को गुजरात से दिल्ली बुलाया और वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग में सेक्रेटरी इंचार्ज के रूप में नियुक्त किया. बैंकिंग, स्टॉक मार्केट से संबंधित निवेश और दूसरे अहम वित्तीय फैसले अधिआ लेते हैं.
वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट से गोल्ड मेडल प्राप्त अधिआ योगा में पीएचडी है और मोदी की पसंद नापसंद से अच्छी तरह वाकिफ है. वे मई 2004 से मई 2006 तक गुजरात के प्रिंसिपल सेक्रेटरी रह चुके हैं.

गिरीश चंद्र मुर्मू, खपत विभाग के ज्वाइंट सेक्रेटरी

1985 बैच के आईएएस अधिकारी मुर्मू ने गुजरात दंगों और पुलिस मुठभेड़ मामलों में हालात को संभाला था. उन्हें अब सरकारी व्यय विभाग में ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद पर नियुक्ति किया गया.
दिल्ली में उन्होंने गुजरात सरकार के कई क़ानूनी मामलों को देखने के सिलसिले में वकीलों के साथ काफ़ी वक़्त गुजारा है.
वे क़ानूनी सूझबूझ के लिए जाने जाते हैं. कइयों का मानना है कि उनकी हाल में हुई नियुक्ति से प्रवर्तन निदेशालय में उनकी नियुक्ति का रास्ता साफ हो गया है.

अरुण कुमार शर्मा, ज्वाइंट डायरेक्टर, सीबीआई

अरुण कुमार शर्मा गुजरात में अमित शाह के सबसे भरोसेमंद पुलिस अधिकारी रहे हैं. मोदी के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने एक आईपीएस अधिकारी के रूप में मोदी का विश्वास हासिल था.
गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वालों को पिछले दस महीने से इस बात का इंतजार था कि कब उन्हें दिल्ली का बुलावा आता है.
शर्मा को अब सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर के रूप में एक अहम जिम्मेदारी मिल गई है.
कथित स्नूपिंग विवाद में शर्मा की भूमिका पर भी सवाल उठे थे.

अचल कुमार ज्योति, चुनाव आयुक्त

1975 बैच के आईएएस अधिकारी अचल कुमार ज्योति जनवरी 2013 में गुजरात के मुख्य सचिव के रूप में सेवानिवृत हुए हैं.
उन्हें चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया है. वे राज्य में शीर्ष पदों पर मुख्यमंत्री की टीम में अपनी सेवा दे चुके हैं. उन्होंने गुजरात के सतर्कता आयुक्त के रूप में भी अपनी सेवा दी है.
उन्होंने 1999 और 2004 के बीच कांडला पोर्ट ट्रस्ट के चेयरमैन और सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर के रूप में सेवा दी है. मोदी ने उन्हें हमेशा अच्छी जगह पर नियुक्ति दी है और उन्हें अपने नजदीकी टीम में रखा है.

राजकुमार, इकॉनॉमिक अफेयर्स विभाग में ज्वाइंट सेक्रेटरी

1987 के बैच के आईएएस अधिकारी राजकुमार को इकॉनॉमिक अफेयर्स विभाग का ज्वाइंट सेक्रेटरी नियुक्त किया गया है.
वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी (आईआईटी) से स्नातक है और गुजरात में कृषि मंत्रालय के प्रिंसिपल सेक्रेटरी रह चुके हैं.
उन्होंने साल 2010 में खाद्य मुद्रास्फिति की रिपोर्ट तैयार की थी. उस वक्त तत्कालिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खाद्य मुद्रास्फीति से निपटने के लिए मोदी को उपभोक्ता मामलों की कमिटी का चेयरमैन नियुक्त किया था.
मोदी की कमेटी की रिपोर्ट ने अपनी 20 सिफारिशों और 64 व्यवहारिक सुझावों से सबका ध्यान खींचा था.

मोदी की निजी टीम-

जगदीश ठक्कर, प्रधानमंत्री कार्यालय में जनसंपर्क अधिकारी

गुजरात सूचना विभाग के पूर्व अधिकारी 70 वर्षीय जगदीश ठक्कर मोदी के घर और दफ्तर दोनों जगहों पर प्रभावकारी भूमिका निभाते रहे हैं.
ठक्कर मुख्यमंत्री कार्यालय में भी जनसंपर्क अधिकारी रह चुके हैं और वे मोदी के साथ घरेलू और विदेशी दौरों पर साथ रहते हैं. साल 2004 में सेवानिवृत होने के बाद भी वे मुख्यमंत्री कार्यालय में बने हुए थे.

ओपी सिंह, निजी सहायक

ओपी सिंह जब दिल्ली में बीजेपी के प्रवक्ता थे तब से मोदी के साथ जुड़े हुए हैं. वे दूसरे पार्टी नेताओं और सरकारी अधिकारियों के साथ मोदी का कार्यक्रम तय करते हैं. संघ से उनका पुराना सबंध रहा है.

दिनेश ठाकुर, निजी सहायक

ओपी सिंह की तरह दिनेश ठाकुर भी मोदी के निजी सहायक है और उनका भी सबंध संघ से रहा है.

तन्मय मेहता, निजी सहायक

मोदी ने इन्हें संघ से लाया है और वे गुजरात में संघ के प्रभारी महासचिव थे. गुजरात में वे अपना ज्यादातर वक़्त अहमदाबाद नगर निगम में गुजारते थे और उन्हें वहां के मोदी के 'आंख और कान' के रूप में जाना जाता है.

Friday, 22 May 2015

कौन हैं मोदी के 'आंख और कान'

नरेंद्र मोदी की 365 दिनों की केंद्र सरकार में गुजरात के कई अधिकारियों का दिल्ली आने का टिकट कटा है.
इन अधिकारियों ने गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान अपनी क्षमता को साबित की है.
मोदी के शासन के दौरान गुजरात में नौकरशाहों का दबदबा रहा है.
कुछ इसी तरह के हालात दिल्ली में भी बनाने की उनकी योजना लगती है जहां वे गुजरात कैडर के अधिकारियों को अपनी टीम में आगे रखना चाहते हैं.

एके शर्मा, प्रधानमंत्री कार्यालय में ज्वाइंट सेक्रेटरी

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से आने वाले एके शर्मा 1998 बैच के आईएएस अधिकारी हैं. वे 2001 से मोदी के कार्यालय के साथ जुड़े हुए हैं.
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की पहली सूची में उनका नाम था.
उन्होंने कॉरपोरेट गलियारे में मोदी की छवि को गढ़ने में काफी काम किया है. गुजरात ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट आयोजित करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है.

पीके मिश्रा, प्रधानमंत्री के एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी

1972 गुजरात कैडर के सेवानिवृत आईएएस अधिकारी पीके मिश्रा को मोदी का काफी करीबी माना जाता है.
उनका नाम उन अधिकारियों में शामिल है जो 27 फ़रवरी 2002 की शाम गोधरा कांड के बाद मोदी की ओर से बुलाई गई विवादास्पद बैठक में मौजूद थे. इसके बाद भड़के दंगे के दौरान वे मोदी सरकार में प्रिंसिपल सेक्रेटरी थे.
वे नियुक्ति पर दिल्ली आने से पहले साल 2004 तक इस पद पर रहें. वे साल 2008 में केंद्रीय कृषि सचिव के रूप में सेवानिवृत हुए और इलेक्ट्रीसिटी रेगुलरिटी कमीशन के चेयरमैन के रूप में पांच साल के लिए गुजरात लौटें.

हसमुख अधिआ, फाइनेंशियल सर्विस एंड आरबीआई डायरेक्टर विभाग में सेक्रेटरी इंचार्ज

नवंबर 2014 में मोदी ने हसमुख अधिआ को गुजरात से दिल्ली बुलाया और वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग में सेक्रेटरी इंचार्ज के रूप में नियुक्त किया. बैंकिंग, स्टॉक मार्केट से संबंधित निवेश और दूसरे अहम वित्तीय फैसले अधिआ लेते हैं.
वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट से गोल्ड मेडल प्राप्त अधिआ योगा में पीएचडी है और मोदी की पसंद नापसंद से अच्छी तरह वाकिफ है. वे मई 2004 से मई 2006 तक गुजरात के प्रिंसिपल सेक्रेटरी रह चुके हैं.

गिरीश चंद्र मुर्मू, खपत विभाग के ज्वाइंट सेक्रेटरी

1985 बैच के आईएएस अधिकारी मुर्मू ने गुजरात दंगों और पुलिस मुठभेड़ मामलों में हालात को संभाला था. उन्हें अब सरकारी व्यय विभाग में ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद पर नियुक्ति किया गया.
दिल्ली में उन्होंने गुजरात सरकार के कई क़ानूनी मामलों को देखने के सिलसिले में वकीलों के साथ काफ़ी वक़्त गुजारा है.
वे क़ानूनी सूझबूझ के लिए जाने जाते हैं. कइयों का मानना है कि उनकी हाल में हुई नियुक्ति से प्रवर्तन निदेशालय में उनकी नियुक्ति का रास्ता साफ हो गया है.

अरुण कुमार शर्मा, ज्वाइंट डायरेक्टर, सीबीआई

अरुण कुमार शर्मा गुजरात में अमित शाह के सबसे भरोसेमंद पुलिस अधिकारी रहे हैं. मोदी के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने एक आईपीएस अधिकारी के रूप में मोदी का विश्वास हासिल था.
गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वालों को पिछले दस महीने से इस बात का इंतजार था कि कब उन्हें दिल्ली का बुलावा आता है.
शर्मा को अब सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर के रूप में एक अहम जिम्मेदारी मिल गई है.
कथित स्नूपिंग विवाद में शर्मा की भूमिका पर भी सवाल उठे थे.

अचल कुमार ज्योति, चुनाव आयुक्त

1975 बैच के आईएएस अधिकारी अचल कुमार ज्योति जनवरी 2013 में गुजरात के मुख्य सचिव के रूप में सेवानिवृत हुए हैं.
उन्हें चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया है. वे राज्य में शीर्ष पदों पर मुख्यमंत्री की टीम में अपनी सेवा दे चुके हैं. उन्होंने गुजरात के सतर्कता आयुक्त के रूप में भी अपनी सेवा दी है.
उन्होंने 1999 और 2004 के बीच कांडला पोर्ट ट्रस्ट के चेयरमैन और सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर के रूप में सेवा दी है. मोदी ने उन्हें हमेशा अच्छी जगह पर नियुक्ति दी है और उन्हें अपने नजदीकी टीम में रखा है.

राजकुमार, इकॉनॉमिक अफेयर्स विभाग में ज्वाइंट सेक्रेटरी

1987 के बैच के आईएएस अधिकारी राजकुमार को इकॉनॉमिक अफेयर्स विभाग का ज्वाइंट सेक्रेटरी नियुक्त किया गया है.
वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी (आईआईटी) से स्नातक है और गुजरात में कृषि मंत्रालय के प्रिंसिपल सेक्रेटरी रह चुके हैं.
उन्होंने साल 2010 में खाद्य मुद्रास्फिति की रिपोर्ट तैयार की थी. उस वक्त तत्कालिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खाद्य मुद्रास्फीति से निपटने के लिए मोदी को उपभोक्ता मामलों की कमिटी का चेयरमैन नियुक्त किया था.
मोदी की कमेटी की रिपोर्ट ने अपनी 20 सिफारिशों और 64 व्यवहारिक सुझावों से सबका ध्यान खींचा था.

मोदी की निजी टीम-

जगदीश ठक्कर, प्रधानमंत्री कार्यालय में जनसंपर्क अधिकारी

गुजरात सूचना विभाग के पूर्व अधिकारी 70 वर्षीय जगदीश ठक्कर मोदी के घर और दफ्तर दोनों जगहों पर प्रभावकारी भूमिका निभाते रहे हैं.
ठक्कर मुख्यमंत्री कार्यालय में भी जनसंपर्क अधिकारी रह चुके हैं और वे मोदी के साथ घरेलू और विदेशी दौरों पर साथ रहते हैं. साल 2004 में सेवानिवृत होने के बाद भी वे मुख्यमंत्री कार्यालय में बने हुए थे.

ओपी सिंह, निजी सहायक

ओपी सिंह जब दिल्ली में बीजेपी के प्रवक्ता थे तब से मोदी के साथ जुड़े हुए हैं. वे दूसरे पार्टी नेताओं और सरकारी अधिकारियों के साथ मोदी का कार्यक्रम तय करते हैं. संघ से उनका पुराना सबंध रहा है.

दिनेश ठाकुर, निजी सहायक

ओपी सिंह की तरह दिनेश ठाकुर भी मोदी के निजी सहायक है और उनका भी सबंध संघ से रहा है.

तन्मय मेहता, निजी सहायक

मोदी ने इन्हें संघ से लाया है और वे गुजरात में संघ के प्रभारी महासचिव थे. गुजरात में वे अपना ज्यादातर वक़्त अहमदाबाद नगर निगम में गुजारते थे और उन्हें वहां के मोदी के 'आंख और कान' के रूप में जाना जाता है

Modi Committed to Bihar's Development, Asks Biharis to Shed Casteism

Reaching out to the voters of Bihar ahead of the assembly polls, Prime Minister Narendra Modi today said he was committed to the development of the state and asked the people to rise above the caste divide failing which the public life there will "decay".

Inaugurating the golden jubilee celebrations of acclaimed poet Ramdhari Singh Dinkar's works, the Prime Minister said he was committed to taking forward his vision of progress and prosperity to the state without which India's development was incomplete.

"The western India may be prosperous, but unless the wisdom of the east complements it, India will not be able to achieve its full potential. Once 'Lakshmi' (Goddess of money) and 'Saraswati' (Goddess of learning and wisdom) unite, the world will see how fast India progresses," he said.

Referring to a letter written by Dinkar in 1961, Modi said the poet was of the view that Bihar will have to "forget" the caste system and "follow the virtuous".

"You cannot rule with the help of one or two castes. You need support of all. If you do not rise above caste, Bihar's public life will decay," he said, quoting Dinkar's letter.

He said the poet's works acted as a "bridge" between the ideals of Jaya Prakash Narayan and the youth of the country.

"He had fire within. But it was not meant to burn but work as a light for generations to come," he said, noting that Dinkar's works are relevant even today.

The Prime Minister said development of states like West Bengal, Bihar, eastern Uttar Pradesh and the northeast was critical to the overall development of the country.

The launch of the celebrations to honour the late Bihar poet by Modi is being seen as an attempt by the BJP to woo the voters of Bihar ahead of the assembly polls in the state slated later this year.

Recalling the poet's contribution to bridging the caste divide, Modi said Dinkar never took sides or promoted people based on their caste.

Referring to Dinkar's letter, he said the poet could foresee and was concerned about the future of Bihar.

"The letter still holds relevance for Bihar as these are not words of a person who knows politics, but of a saint-like man who was concerned about the future of Bihar," Modi said.

He said the acclaimed poet dreamt of Bihar surging ahead and becoming prosperous. "It (the state) needs opportunity to move ahead. It has the capability but needs opportunity," the Prime Minister said.

Dinkar, described as a 'rashtrakavi' (national poet), was a great visionary who was rooted to the village life, the PM recalled, and said his poems, which were once memorised by thousands, assimilated India's heritage and culture, and were the best way to understand the essence of India.

He said there are very few creations which have stood the test of time the way Dinkar's works have. He said his works and writings are a window for generations to understand the transformation of India.

The programme was organised to mark the golden jubilee of two of Dinkar's great works -- Sanskriti Ke Chaar Adhyaay and Parashuram Ki Pratiksha."
Poet, essayist and academician, Dinkar was a member of the Rajya Sabha and was awarded the Padma Bhushan in 1959.

He was also the Vice-Chancellor of Bhagalpur University in Bihar in the early 1960s.

BJP invokes Dinkar with eye on Bihar

A few weeks ago, when former Union minister and Bihar BJP member C P Thakur asked Prime Minister Narendra Modi to be chief guest at a function to celebrate 50 years of 'Sanskriti Ke Chaar Adhyay' and 'Parshuram Ki Prateeksha' — two very popular books written by Rashtra Kavi Ramdhari Singh Dinkar — the PM readily agreed. The event, being organized at Vigyan Bhavan on May 22, will reiterate Thakur's demand for a posthumous conferring of Bharat Ratna on the legendary poet from Bihar. 

The politics implicit in the move, coming months before the Bihar polls, is an obvious conclusion for many. The legacy of Dinkar, a Bhumihar, has often been courted by parties before polls to rally caste votes. But it is also being seen as the Modi government's continued push in favour of Hindi and co-option of a literary icon simultaneously seen as a secularist and a cultural nationalist -- a term closer to Sangh's scheme of things. 

Speaking to TOI, Thakur said, "Friday's event is part of a series of events being organized in various cities to commemorate the contribution of Dinkar to Hindi literature and the idea of nationalism. Today, Hindi is suffering. We want to re-establish the importance of Hindi." 

Curiously, 'Sanskriti Ke Chaar Adhyay' is often described as the Hindi version of Jawaharlal Nehru's 'Discovery of India' and even the book's foreword was written by Nehru. Considering that the Modi government has been consistently trying to sideline Nehru's legacy and has attempted to own many icons closer to the Congress — Sardar Patel being the most prominent — the PM's participation in an event to fete Dinkar assumes significance. 

Many argue that Dinkar, who became a Rajya Sabha MP under Nehru, drifted away after the Sino-Indian war — 'Parshuram ki Prateeksha' was an angry response to the same — and became very close to Jayaprakash Narain. The JP movement used a line from one of Dinkar's poems — 'Singhasan khali karo ki janata aati hai' — as the clarion call for a nationwide movement against Congress. It ultimately culminated in a government of which Jan Sangh (BJP's mother party) was a part. 

Academic and professor of Hindi at Delhi University Apoorvanand feels BJP has misunderstood Dinkar. "They may feel 'Parshuram ki Prateeksha' (PKP) has same nationalistic overtones as theirs, but Dinkar's nationalism was very different. His was closer to Gandhi's, Nehru's and Tagore's. In fact, he admitted later that PKP was written in absolute angst with little knowledge of the war. BJP is trying to co-opt icons as they don't have their own. BJP has forgotten this is the 50th death anniversary of Nehru. It is celebrating Dinkar, who is inseparable from the idea of Nehru," Apoorvanand said. 

There are others, however, who feel the event is welcome as at least it will get Dinkar his due. Dr Shachi Kant, who has translated Dinkar's 'Kurukshetra' and is now translating 'Sanskriti Ke Chaar Adhyay', said, "Dinkar was much greater than he is considered. His range spanned from 'veer ras' to 'shringaar ras' and also touched upon socio-political issues. He suffered because he was from Bihar, a state looked down upon by much of the nation. Most PMs have come from UP, whose litterateurs undermined Dinkar. Modi is from Gujarat and he is thus impartial." Kant is currently joint commissioner at Kendriya Vidyalaya Sangathan under the HRD ministry. 

Thakur, however, denied that his attempts were in any way aimed at confining Dinkar as an icon of Bihar or use his identity as a Bhumihar. "This has got nothing to do with politics. We have been preparing for this for quite a while. Dinkar was himself abhorrent of caste politics," Thakur said.

Thursday, 21 May 2015

बदलाव के पुरोधा दिनकर



तुफैल चतुर्वेदी
गीता के सबसे अधिक उद्घृत किये जाने वाले श्लोकों में से एक 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:' है। जब जब धर्म की हानि होती है तो हे अर्जुन! मैं अवतार लेता हूं। मेरी समझ से इसका अभिप्राय है कि जब-जब राष्ट्र, देश कठिनाई में आता है तब-तब समाज से ही उसमें चैतन्यता, स्फूर्ति लाने वाले महान लोग प्रकट होते हैं। बीसवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल, यूरोप में आर्थिक उथल-पुथल बढ़ने लगी थी। प्रकृति की शक्तियों का दोहन और उनका मनुष्य के सुखों के लिए उपयोग करने की योजनाएं बनायी जा रही थीं। परिणामत: समाज में तुलनात्मक रूप से आर्थिक अंतर बढ़ रहा था। भारत कुछ हद तक इन योजनाओं की उपज को खपाने का क्षेत्र बना हुआ था अत: यह अंतर यहां भी बढ़ रहा था। भारतीय राष्ट्र का प्रमुख और प्रभावी वर्ग भी यूरोपीय पादरियों की फैलाई गप्पों पर विश्वास करने लगा था और अपनी राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियों को नहीं निबाह रहा था अर्थात भारत दैन्यता से घिरा हुआ था। आर्थिक, सामाजिक कठिनाइयां राष्ट्र को ग्रसे हुए थीं। स्पष्ट है इसका परिणाम राष्ट्र के दुर्बल होने के रूप में होता ही होता, तभी प्रकृति के गर्भ से 23 सितम्बर 1908 को राष्ट्र को प्रेरणा देने वाले महा कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के जिला बेगूसराय अंतर्गत आने वाले ग्राम सिमरिया घाट में हुआ।
पटना विश्वविद्यालय से बी़ ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक हाईस्कूल में अध्यापक हो गए। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। 1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह महाविद्यालय (एल़एस़कॉलेज) में हिन्दी के शिक्षक रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। तीन बार राज्यसभा के सांसद रहे दिनकर जी को पद्मविभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया। आपकी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 'उर्वशी' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कर प्रदान किए गए। दिनकर जी को उनके साथियों तथा प्रेस के लोगों ने गांधीवादी कहा जिस पर उनका कहना था मैं बुरा गांधीवादी हूं।
महान धनुर्धर अर्जुन को सव्यसाची इसीलिए कहा जाता है कि वे दोनों हाथों से एक बराबर के कौशल से धनुष चला सकते थे। साहित्य के अथोंर् में दिनकर जी भी सव्यसाची थे। काव्य और गद्य दोनों में एक सी प्रभावी महारत रखने वाले राष्ट्रकवि दिनकर आधुनिक युग की हिन्दी के प्रमुख लेखक और ओज के श्रेष्ठ कवि हैं। रामधारी सिंह दिनकर को राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देने वाली ओजस्वी कविताओं के कारण असीम लोकप्रियता मिली और उन्हें 'राष्ट्रकवि' नाम से विभूषित किया गया। रात-दिन राष्ट्र के हित-चिंतन में लीन दिनकर जी अहिंसा, क्षमा के नहीं अपितु सशक्त होने, सबल होने के पक्षपाती थे। 1200 वषोंर् के बाद अंगड़ाई लेकर जागा राष्ट्र विश्व भर में जगमगाये, माथा ऊंचा किये भारत विश्व का नेतृत्व करे इस भाव से दिनकर जी लगातार साहित्य-साधना करते रहे। उनकी कविताओं के कुछ अंशों का पाठ स्वयं को स्फूर्ति से भर देने का काम है। 26 जनवरी 1950 को उस समय भारत की तैंतीस करोड़ जनता के संवैधानिक गणतंत्र बनने पर दिनकर जी हुंकार भरते हैं। उनकी यह कविता इसलिए भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है कि बाद के वषोंर् में इसकी एक पंक्ति 'सिंहासन खाली करो जनता आती है' प्रत्येक राजनीतिक आंदोलन का नारा बन गयी। आपातकाल के विरोध के आंदोलन की यह पंक्ति अदम्य बल बनी।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह समय में ताब कहां
वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा
तैंतीस-कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सर पर मुकुट धरो
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृंगार सजती है
दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

दिनकर जी शासकीय सेवा में रहकर भी राजनीति के दबाव में आये बिना निरंतर उत्कृष्ट साहित्य सृजन करते रहे। उनकी साहित्य चेतना राजनीति से निर्लिप्त ही नहीं रही बल्कि तात्कालिक राजनीति के और राजनेताओं के सम्पर्क में रहने के कारण उनके साहित्य में निर्भीकता से ऐसे तथ्य प्रकट हुए हैं, जिनके माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य तथा राजनेताओं की प्रवृत्तियों का परिचय प्राप्त हो जाता है। कविताओं में क्रांति का उद्घोष करके युवकों में राष्ट्रीयता व देशप्रेम की भावनाओं का ज्वार उठाने वाले दिनकर समाज के अभावग्रस्त वर्ग के लिये बहुत खिन्न और दु:खी थे। 1954 में आई अपनी पुस्तक 'दिल्ली में रेशमी नगर' की कविता में किसानों की दुर्दशा पर महानगर दिल्ली में बैठे राजनेताओं और अधिकारियों को लताड़ते हुए दिनकर जी कहते हैं-
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखने वाले
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में
तुम भी क्या घर-भर पेट बांध कर सोये हो
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर
दिल्ली लेकिन ले रही लहर पुरवाई में
है विकल देश सारा अभाव के तापों में
दिल्ली सुख से सोयी है नर्म रजाई में
तो होश करो दिल्ली के देवों होश करो
सब दिन तो ये मोहनी न चलने वाली है
होती जाती हैं गर्म दिशाओं की सांसें
मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है
हो रहीं खड़ी सेनाएं फिर काली-काली
मेघों से उभरे हुए नए गजराजों की
फिर नए गरुड़ उड़ने को पांखें तोल रहे
फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की
1200 वषोंर् के लगातार चले संघर्ष के बाद 1947 में खंडित ही सही किन्तु राष्ट्र स्वतंत्र हुआ। उसकी दीन-हीन-मलिन दशा को बदलने के लिए कृतसंकल्प आत्मविश्वास से ओतप्रोत दिनकर जी प्रेरित करते हैं-
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का
सारी रात चले तुम दु:ख झेलते कुलिश निर्मम का
एक खेप शेष है किसी विध उसे पार कर जाओ
वह देखो उस पार चमकता है मंदिर प्रियतम का
आकर इतने पास फिरे वह सच्चा शूर नहीं है
थक कर बैठ गए क्या भाई मंजिल दूर नहीं है
अपने कालजयी काव्य 'रश्मिरथी' में कर्ण के मन में चल रही उथल-पुथल का अद्भुत वर्णन करते हुए दिनकर जी लिखते हैं -
हरि काट रहे हैं आप तिमिर की कारा
अर्जुन के हित बह रही उलट कर धारा
शत-पाश व्यर्थ रिपु का दल फैलाता है
वह जाल तोड़ हर बार निकल जाता है
बज चुका काल का पटह भयानक क्षण है
दे रहा निमंत्रण सबको महा-मरण है
छाती के पूरे पुरुष प्रलय झेलेंगे
झंझा की उलझी लटें खेंच खेलेंगे
कुछ भी न रहेगा शेष अंत में जाकर
विजयी होगा संतुष्ट, तत्व क्या पाकर
कौरव विलीन जिस पथ पर हो जायेंगे
पांडव क्या उससे राह भिन्न पाएंगे
लम्बे समय से शांत पड़ी धमनियों का रक्त अहिंसा की मूढ़ व्याख्या के कारण ठहर सा गया था। विश्व-इतिहास बताता है कि अहिंसा व्यक्तिगत गुण शायद हो सके मगर देश की रीति-नीति तो अहिंसा पर आधारित नहीं हो सकती। वीर-भाव के शब्दों के अप्रतिम धनी दिनकर जी अपनी अद्भुत रचना 'शक्ति और क्षमा' में राष्ट्र को ललकारते हुए कहते हैं-
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की
संधि-वचन सम्पूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की
सहनशीलता, दया क्षमा को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है
अहिंसा, अकर्मण्यता, निराशा के काल में राष्ट्र को गीता के कर्मयोग का सन्देश देते हुए दिनकर जी कहते हैं-
वैराग्य छोड़ बांहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहां भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चंद्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धर्ष बना जाती है
चोटें खा कर बिफरो कुछ और तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे
छोड़ो मत अपनी आन सीस कट जाये
मत झुको अनय पर व्योम भले फट जाये
दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे
अनगढ़ पत्थर से लड़ो लड़ो किटकिटा नखों से दांतों से
या लड़ो रीछ के रोमगुच्छ पूरित वज्रांत हाथों से
या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से गोलों की वृष्टि करो
आ जाये लक्ष्य जो कोई निष्ठुर हो तुम उसके प्राण हरो
सो धर्मयुद्घ छिड़ गया स्वर्ग तक जाने के सोपान लगे
सद्गति-कामी नर-वीर खड्ग से लिपट गंवाने प्राण लगे
छा गया तिमिर का सघन जाल मुंद गए मनुज के ज्ञान नेत्र
द्वाभा की गिरा पुकार उठी जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरुक्षेत्र!
हिमालय का आह्वान करते हुए भी उनके मन में राष्ट्र की चिंता पुकार उठती है। उनकी चिंता आशाओं से भरी, जगमगाती हुई भोर की ओर बढ़ने का संदेश देती है-
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! पल भर को तो कर दृगुन्मेष
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल है तड़प रहा पद पर स्वदेश
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही तेरी विगलित करुणा उदार
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त सीमापति! तू ने की पुकार
'पद-दलित इसे करना पीछे पहले ले मेरा सिर उतार
उस पुण्यभूमि पर आज तपी! रे, आन पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल

मेरे नगपति! मेरे विशाल
कितनी मणियां लुट गईं? मिटा कितना मेरा वैभव अशेष
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर वीरान हुआ प्यारा स्वदेश
वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहां
ओ री उदास गण्डकी! बता विद्यापति कवि के गान कहां
तू तरुण देश से पूछ अरे, गूंजा कैसा यह ध्वंस-राग
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी यह सुलग रही है कौन आग
प्राची के प्रांगण-बीच देख, जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल
तू सिंहनाद कर जाग तपी! मेरे नगपति! मेरे विशाल!
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर
कह दे शंकर से, आज करें वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूंज उठे, 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार
ले अंगड़ाई हिल उठे धरा कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलराट हुंकार भरे फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही तू जाग, जाग, मेरे विशाल
24 अप्रैल 1974 को आपका स्वर्गवास हुआ।
दिनकर जी के काव्यानुष्ठान के बारे में कुछ वरिष्ठ लोगों के उद्गार जानने योग्य होंगे-
समाज को जगाने वाले ऐसे रणमत्त आह्वान देने वाला चारण, राष्ट्र को समर्थ-सक्षम चाहने वाला कवि- देश का कैसा दुर्भाग्य है कि कांग्रेस का राज्याश्रय प्राप्त छिछोरे, छोटे और बौने लोगों द्वारा बिसराया गया। उनकी बौड़म सोच से टपकी तथाकथित नई कविता का भार चूंकि छंद सह नहीं सकता था इसलिए जलेस, प्रलेस के इन कलेसियों ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी को सप्रयास भुलाया। किसी अन्य राष्ट्र में ऐसा महाकवि हुआ होता तो वह राष्ट्र अपने ऐसे आख्यान-गायक को पलकों पर रखता। पुरानी कहावत है 'जो राष्ट जो अपने अतीत के गौरव का ध्यान नहीं रखते कभी स्वाभिमानी, गौरवशाली भविष्य निर्माण नहीं कर सकते। देर से ही सही मगर केंद्र सरकार ने संस्कृति के अमर गायक को स्मरण किया है। बदलाव ऐसे ही आते हैं और राष्ट्र ऐसे ही बलशाली बनते हैं। इसी को सिंहावलोकन कहते हैं। 09711296239

समय का साक्षी दिनकर का 'कुरुक्षेत्र'


कालजयी रचना यानी जिसके भावार्थ और प्रासंगिकता को समय के थपेड़े धुंधला नहीं कर पाते, और जब कभी हम कालखंडों को खंगालते हैं, या वर्तमान को तौलते हैं, तो वे रचनाएं माला के धागे के समान हमारे अवचेतन में गुंथी हुई साथ चलती हैं। समय-समय पर मन में कौंधती हैं। दिनकर की कुरुक्षेत्र भी छ: दशकों से भारत के मानस में तिर रही है। महाभारत के शांति पर्व पर आधारित इस कविता को दिनकर ने 1946 में देश के मानस पर उकेरा था। साल 1946 एक मुहाना है। 6 करोड़ जिंदगियों को लीलने वाला द्वितीय विश्वयुद्घ अभी- अभी शांत हुआ था। 36 हजार भारतीय सैनिकों ने इस लड़ाई में वीरगति प्राप्त की थी। नेताजी सुभाष परिदृश्य से अदृश्य हो चुके थे। आजाद हिन्द फौज के हजारों सैनिकों ने अपना जीवन होम किया था, और इसके बंदी बनाए गए सैनिकों पर लालकिले में चलाये जा रहे मुकदमे के विरोध में तत्कालीन ब्रिटिश नौसेना के 20 हजार भारतीय सैनिकों ने 78 जहाजों और 20 तटरक्षक संस्थानों के साथ 18 फरवरी 1946 को हड़ताल कर दी थी। कराची से लेकर कोलकाता तक फैली इस तपिश ने ब्रिटिश हुकूमत को दहला दिया था। कांग्रेस के रास्ते से अलग चलने वालों को अंग्रेज सत्ता के उत्तराधिकारी मान्यता देने को तैयार न थे। फिर चाहे वे सुभाष हों या दूसरे 'आतंकवादी' देशभक्त। 
नेताजी के बारे में भारत के नवसत्ताधीश के रवैये पर हाल ही में हुए खुलासों ने तो देश को झकझोर कर रख दिया है। स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास पर एकाधिकार का दावा तो ठोंक ही दिया गया था, लेकिन एक और विडम्बना विकराल रूप ले रही थी। भारत के जो नवकर्णधार आजादी को एकमात्र 'अहिंसक' उपाय से प्राप्त बतला रहे थे, वे ही मुस्लिम लीग और जिन्ना की हेठी एवं हिंसा के सामने नतमस्तक होकर लाखों लोगों को दंगों की आग में झोंकने को तैयार हो रहे थे। दिनकर देख रहे थे, कुरुक्षेत्र सज चुका था-
'वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर, जिसमें लिखा है,
नौजवानों के लहू का मोल है।'
ये कुरुक्षेत्र की प्रथम पंक्तियां हैं। इतिहास के उस मोड़ पर दिनकर हिंसा की त्रासदी पर अपनी संवेदनशील दृष्टि फेरते हैं। वे कहते हैं -
उस सत्य के आघात से, 
है झनझना उठती शिराएं प्राण की असहाय सी, 
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है। 
विनाश का शोक करते हुए युधिष्ठिर सोच रहे हैं- 
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग, पश्चाताप, अन्तर्दाह का 
यह महाभारत वृथा निष्फल हुआ 
उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
जब संताप असहनीय हो गया, 
तब युधिष्ठिर शरशय्या पर लेटे 
भीष्म मितामह के पास गए- 
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि 
योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर, 
रुकी रहो पास कहीं, और स्वयं लेट गए 
बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर। 
धर्मराज युधिष्ठिर ने देखा कि शरों से बिंधे पितामह के शरीर से कांति छिटक रही है। उनके पैरों की उंगलियों को अपने आंसुओं से धोते हुए धर्मराज ने कहा - 
'हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ, 
चीख उठे धर्मराज व्याकुल अधीर से।'
पितामह, हार किसकी हुई है यह?
ध्वंस -अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूंढता है?'
बन्धुओं का शवदाह, उत्तरा का विलाप , मृतकों के परिजनों के चेहरे ह्रदय को चीर रहे हैं। वे पश्चाताप में भरकर कहते हैं - 
जानता जो परिणाम महाभारत का, 
तन-बल छोड़ कर मनोबल से लड़ता 
तप से, सहिष्णुता से, 
त्याग से सुयोधन को जीत, 
नयी नींव इतिहास की मैं धरता। 
और कहीं वज्र न गलत मेरी आह से जो, 
मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता
तो भी हाय, यह रक्तपात नहीं करता मैं, 
भाइयों के संग कहीं भीख मांगता फिरता। 
वे अपने ज्ञान और अपने भाइयों के बल को धिक्कारते हैं। कृष्ण को अर्जुन का मोह दूर करने का दोष देते हैं। और पितामह से पूछते हैं कि युद्घ के अभिशाप से मानव क्यों नहीं 
बच पाता?
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुष्प 
या महान पाप यहां फूटा बन युद्घ है। 
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊं वन में, 
करूं आत्मघात तो कलंक और घोर होगा़.़. 
भीष्म युधिष्ठिर के प्रलाप से अप्रभावित हैं-
भीष्म ने देखा गगन की ओर,
मापते मानो ह्रदय का छोर
और बोले हाय नर के भाग। 
क्या कभी तू भी तिमिर (अन्धकार ) के पार 
उस महत आदर्श के जगत में सकेगा जाग, 
भीष्म सर्वप्रथम सृष्टि की परिवर्तनशीलता समझाते हैं-
औ, युधिष्ठिर से कहा, तूफान देखा है कभी? 
किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ, 
काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता, 
और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से 
उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं? 
रुग्ण शाखाएं द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,
देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,
क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,
सोचता, 'है भेजती हमको प्रकृति तूफान क्यों?'
फिर निमित्त समझाते हैं -
़.़. किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में 
पांच के सुख ही सदैव प्रधान थे 
युद्घ में मारे हुओं के सामने
पांच के सुख-दु:ख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!
़.़.़पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
ग्रह-उपग्रह क्रुद्घ चारों ओर के।
अब भीष्म अन्याय और अधर्म से सामना होने पर दया और सहिष्णुता के दिखावे को धिक्कारते हैं-
छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप से काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है ।
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त औषधि के 
सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।
गिड़गिड़ाकर किन्तु, मांगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो? 
न्यायोचित अधिकार मांगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को जीत, 
या कि खुद मर के।
भीष्म कहते हैं कि मैं मृत्यु के निकट हूं, इसलिए असत्य कहकर क्या करूंगा। मैं तुम्हे धर्म का रहस्य बतलाता हूं-
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। 
रामधारी सिंह दिनकर का सृजन काल कई दशकों में फैला है। परन्तु उनकी लेखनी राष्ट्र की मुख्यधारा से कभी विमुख नहीं हुई। वे गांधीजी के भक्त थे लेकिन भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल सरीखे बलिदानी उनकी धड़कन में बसते थे। क्या दिनकर कुर्सी के लिए इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने पर क्षुब्ध थे? जब वे कहते हैं कि-
पापी कौन? मनुज से उसका न्याय चुराने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न का सीस उड़ाने वाला? 
तब क्या वे बलिदानियों के लिए इतिहास में उनका सही स्थान मांग रहे थे? क्या वे सत्ता के दर पर खड़ी कांग्रेस द्वारा हाशिये पर सरकाए जाते गांधी को देख व्यथित थे? कुरुक्षेत्र की रचना के समय सत्ता के सूत्र संभालने वाले हाथ तय हो चुके थे। और देश के बंटवारे की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं। तब क्या दिनकर कर्णधारों के इस घुटना टेक पर चोट कर रहे थे? 
उन्होंने लिखा-
युद्घ को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियां
भिन्न स्वाथोंर् के कुलिश-संघर्ष की, 
युद्घ तब तक विश्व में अनिवार्य है। 
कहीं यह उस तरह के शौर्य की मांग तो नहीं थी जब अब्राहम लिंकन ने गृहयुद्घ की भी परवाह न करते हुए अमरीका का विखंडन नहीं होने दिया था? या वे रूमानी सपने देखने वाले नेताओं के हाथों गढ़े गए उस भविष्य में झाँक रहे थे कि जब विश्व शांति के नारों के शोर में देश की संप्रभुता को दांव पर लगा दिया गया था ? 'कुरुक्षेत्र' के इस सन्देश को, कि -
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, 
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। 
सुना गया होता तो क्या देश 1962 जैसी चोट खाता? या उससे भी काफी पहले, जब तिब्बत की स्वतंत्रता को पाशविक शक्ति के बल पर कुचल दिया गया था, काश, हमने इन पंक्तियों का मर्म समझा होता-
सत्व मांगने से न मिले, संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें?
'कुरुक्षेत्र' अपने समय का आईना बन गया। ये युद्घ का आह्वान नहीं था बल्कि वैचारिक स्पष्टता लाने का प्रयास था। कुरुक्षेत्र का युद्घ एक प्रतीक बन गया। वैचारिक संघर्ष आज भी जारी है। दिनकर के रचित पृष्ठों में से भीष्म आज भी पुकार रहे हैं।  -प्रशांत बाजपेई

दिनकर का धर्मदर्शन


आवरण कथा - श्रृंगार उकेरते हुए भी संस्कार में डूबी लेखनी

'कुरुक्षेत्र' और 'रश्मिरथी' लिखने वाले महाकवि के बारे में यह बात तो थोड़ा इतमीनान से कही ही जा सकती है कि बेशक दिनकर के कवि व्यक्तित्व का पलड़ा उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यकृति 'उर्वशी' की तरफ झुका हुआ हो, पर महाभारत का कथानक उनके लिए आकर्षण का खास केन्द्र रहा है। इसलिए थोड़ा हैरानी तो होती है यह देखकर कि दिनकर ने उर्वशी को पाण्डुपुत्र अर्जुन के साथ भी क्यों नहीं जोड़ा। पर हमारी परम्परा में कवि को ब्रह्मा और परिभू और स्वयंभू भी कहा गया है। थोड़ा यह भी जोड़ दिया गया है कि एक ब्रह्मदेव ही सदासर्वदा के लिए यथार्थ के सर्वश्रेष्ठ निर्माता हैं, इसलिए दिनकर ने यह क्यों नहीं किया, वह क्यों नहीं किया, ऐसे विराट कवि व्यक्तित्व से ऐसे सवाल पूछने की धृष्टता हम तो कर ही नहीं सकते।
'कुरुक्षेत्र' का कथानक धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अट्ठारह दिनों तक चले महाभारत संग्राम के बाद की मनोव्यथाओं और धर्म-संवेदनाओं को केन्द्र में रखकर रचा गया है। महाभारत के पाठकों के बीच इस बात की चर्चा प्राय: नहीं होती कि युद्ध समाप्त हो जाने के बाद, युद्ध में विजयश्री प्राप्त कर चुकने के बाद महाराज युधिष्ठर को वैराग्य हो गया था। युद्धजन्य विनाश और इसकी विभीषिका से युधिष्ठिर इस कदर हिल गये थे कि उन्होंने न केवल अपना राज्याभिषेक करवाने से मना कर दिया, बल्कि वीतरागी का, वनवासी जीवन का संकल्प जैसा कर लिया। कविवर दिनकर का काव्य 'कुरुक्षेत्र' प्रधानत: उसी घटनाचक्र पर आधारित है।
पर दो बातें स्पष्ट हैं। एक यह कि युधिष्ठिर के इस वैराग्य को काव्य में केन्द्रीय स्थान नहीं दिया गया और दूसरी बात यह है कि कवि दिनकर ने शरशय्या पर पड़े भीष्म और युधिष्ठिर के बीच कई दिनों तक चले संवाद को ही 'कुरुक्षेत्र' के कथानक का परिप्रेक्ष्य बनाया है। हालांकि दिनकर ने अपनी प्रास्ताविक भूमिका में इन दोनों ही परिस्थितियों का विशेष वर्णन नहीं किया है। यह फिर भी स्पष्ट है कि काव्य की आधारभूमि भीष्म-युधिष्ठिर के (कृष्ण प्रेरित) संवाद ने ही बनाई है।
पर 'कुरुक्षेत्र' में कवि दिनकर इस परिप्रेक्ष्य से कहीं, कहीं आगे चले गए हैं। उन्होंने हर मानव और हर मानव समाज को व्यथित करने वाले इस सवाल से काफी संघर्ष किया है कि क्या युद्ध ही हिंसा का या हिंसक मनोवृत्ति का अंतिम उत्तर है? क्या शांति में और सात्विकता में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूंढे जा सकते? इन प्रश्नों के अगर इदमित्थं उत्तर होते तो भी यह शाश्वत संकट ही मनुष्य के मुंहबाए क्यों खड़े होते? दिनकर का प्रश्न है कि- 'हर युद्ध से पहले मनुष्य है सोचता, क्या शस्त्र ही उपचार एक अमोघ है? अन्याय का, अपकर्म का, विष का, गरलमय द्रोह का?
जाहिर है कि दिनकर को यह विकल्प अस्वीकार्य है-
'हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ, चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर से।' पर समाधान क्या है? कृष्ण तक के पास कोई समाधान नहीं। 'कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से।'
आत्मधात भी विकल्प नहीं है-
'करूं आत्मघात तो कलंक और घोर होगा, नगर को छोड़ अतएव बन जाऊंगा।'
पितामह पूछते हैं कि, समर निन्द्य है धर्मराज, पर कहो शांति क्या यह है? क्या पापी को, उसके अधर्म को क्षमा कर देना? पर इस विकल्प को तो हमारे इस महाकवि ने पहले ही शर्त में बांध दिया है-
'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।'
इसी तर्क-वितर्क से परास्त कवि अन्तत: वही करने को उद्यत होता है जिसके लिए हमारे देश के ऋषि, दार्शनिक उपदेश करते आए हैं- धर्माचरण। अपने काव्य के 'निवेदन' में महाकवि दिनकर ने स्पष्ट कहा कि, 'बात यों हुई कि पहले मुझे अशोक के निर्वेद ने आकर्षित किया और 'कलिंगविजय' नामक कविता लिखते-लिखते मुझे ऐसा लगा मानो, युद्ध की समस्या मनुष्य की सभी समस्याओं की जड़ है। अपने काव्य के पंचम सर्ग के अंत तक आते-आते कवि को समझ में मानो आ गया कि- 

'यह राज-सिंहासन ही जड़ था इस युद्ध की, मैं अब जानता हूं।'
पर छठा सर्ग शुरू होते ही कवि ने स्थापित कर दिया कि- धर्म में ही सभी समस्याओं का समाधान है। पर-
'धर्म का दीपक, दया का दीप, कब जलेगा कब जलेगा, विश्व में भगवान?'
अब कवि की 'अथातो धर्म-जिज्ञासा' शुरू हुई। एक पूरा सर्ग समाजवाद सरीखी की विचारधारा पर टिकी मानव-मानव के बीच समानता के व्यवहार (समाजवाद/साम्यवाद) से धर्म स्थापना की उम्मीद संजोई गई। इसके साथ ही विज्ञान में संकट का हल तलाशने की कोशिश हुई- 'श्रेय वह विज्ञान का वरदान, हो सुलभ सबको सहज जिसका रूचिर अवदान।' पर अगले ही क्षण दिनकर का ऋषित्व अपना विराट रूप लेकर प्रकट हुआ और उन्होंने घोषणा कर दी, 'श्रेय होगा धर्म का आलोक' और अगले ही (अंतिम) सर्ग ने अपना कविमन सुना दिया, 'बंधे धर्म के बंधन में सब लोग जिया करते थे, एक दूसरे का दुख हंसकर बांट लिया करते थे' और इसलिए 'दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ श्रेय नहीं जीवन का, है सद्धर्म दीप्त रख उसको हरना तिमिर भुवन का।' और फिर कविवर दिनकर ने अपना निष्कर्ष सुना दिया, 'इस विविक्त, आहत वसुधा को अमृत पिलाना होगा।'

'कुरुक्षेत्र' की रचना कर चुकने के बाद दिनकर ने जब 'रश्मिरथी' रचा तो उन्होंने इस काव्यकर्म का उद्देश्य, कर्ण चरित पर लिखे गए इन शब्दों में साफ बयान भी कर दिया। दिनकर अपनी भूमिका में कहते हैं- 'यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है। अतएव यह बहुत ही स्वाभाविक है कि राष्ट्रभारती के जागरुक कवियों का ध्यान उस चरित्र की ओर जाए जो हजारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर खड़ा है। स्वयं दिनकर के शब्दों में,
मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे।
पूछेगा जग किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे।
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा।
मन में लिए उमंग जिन्हें चिरकाल कलपना होगा।
बेशक महाभारत के अधिक खोजी स्वाध्याय के परिणामस्वरूप अब कर्ण के बारे में कुछ दूसरे निष्कर्ष भी सामने आए हैं। कर्ण को पिता का नाम शुरू से पता था, अधिरथ और इस बारे में कर्ण समेत किसी को कोई शक कभी नहीं रहा। कर्ण को कभी अपनी जाति के कारण कोई नुकसान नहीं हुआ। द्रौपदी ने अगर कर्ण के गले में वरमाला डालने से स्वयं को रोक दिया तो जाहिर है कि अपने स्वयंवर में द्रौपदी को वैसा करने का हक था, क्योंकि वह अर्जुन से प्रेम करने लगी थी (महाभारत, आदिपर्व, 186.23 )। द्यूतक्रीडा के समय कर्ण ने द्रौपदी को बंधकी यानी वेश्या तक कह दिया था (सभापर्व, 68.35)। जब भीष्म ने महाभारत युद्ध के रथियों, महारथियों, अतिरथियों के नाम गिनवाने शुरू किए तो भीष्म ने कर्ण को उसके सामने ही अर्द्धरथी कह दिया क्योंकि कर्ण हर वक्त खुद ही अपनी तारीफ के पुल बांधता रहता था (उद्योग पर्व, 168.3-9)। पर कर्ण के दिव्य गुणों का वर्णन करने में भी महाभारतकार ने कोई कंजूसी नहीं दिखाई। कर्ण जैसा महाज्ञानी दूसरा शायद ही कोई उस समय रहा था। कर्ण का शौर्य और धनुर्विद्या का बल इस हद तक शत्रुओं को आतंकित रखता था कि जैसे पाण्डवों ने कृष्ण और अर्जुन के दम पर युद्ध की घोषणा की, वैसे ही दुर्योधन ने भीष्म और कर्ण के दम पर ही युद्ध में जाने का साहस बटोरा था। वह सदैव अंगदेश का राजा रहा। अपनी शक्ति से पहली बार, युद्ध की वेला में मिलने का जब अवसर उसे मिला तो अपनी मां से अपने मन की व्यथा कहे बिना वह नहीं रह पाया, 'अकरोद् मयि यत् पापं भवती सुमहत्तमम्, अपकीर्णास्मि यन्मात: तद् यश: कीर्तिनाशनम्' मां आपने मेरे प्रति जो पाप किया, उससे मुझे कितनी तकलीफ हुई है। तुमने मुझे पानी में क्या फेंका, मुझे अपकीर्ति के विनाश में ही धकेल दिया (उद्योग पर्व, 146.5) कर्ण का यही संताप आगे चलकर उसकी अधिरथ जाति से जोड़ दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप उसे मिली सतत्व्यथा की ओर मानो संकेत करते हुए महाकवि दिनकर का मानना है कि 'कर्ण चरित का उद्धार एक तरह से नई मानवता की स्थापना का प्रयास है, और मुझे संतोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं।' (भूमिका रश्मिरथी पृ.10) कर्ण की व्यथा गाथा को महाकवि दिनकर जैसा परम संवेदनशील महाकवि ही इस भावुक ऊंचाई पर लाकर महाकाव्य में शब्दरूप दे सकता था। महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की इस राष्ट्रीय वेदना की अभिव्यक्ति के कारण पूरे भारत और विशेषकर देश का समस्त वंचित समाज ह्रदय से राष्ट्रीय समभावना और बड़प्पन का अनुभव करता रहा है।
पर जैसे 'कुरुक्षेत्र' के कवि को जीवन का मर्म जानने के लिए धर्म का ही आशय लेना उचित और समीचीन लगा, ठीक वैसे ही 'रश्मिरथी' के नायक राधेय कर्ण को भी कवि ने अंतत: धर्म की संवेदनाओं से एकाकार होने का संदेश सरीखा दे दिया है। कर्ण के जीवन से जुड़े निर्णायक निषेधात्मक संदर्भों को क्षमा न करते हुए महाकवि ने कुछ स्पष्टोक्तियां करते हुए उसे धर्म का ही संदेश अंतत: दिया है। पहले स्पष्टोक्ति, कर्ण के ही शब्दों में, 'बधुजन को नहीं रक्षण दिया क्यों?' समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों? न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं, लिए यह रार मन में जा रहा हूं।' (सप्तम सर्ग)। और भी- 'चले वनवास को जब धर्म था वह। शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह। अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे। असल में धर्म से ही वे गिरे थे।' (सप्तम सर्ग) फिर धर्म के संस्थापक कृष्ण ने युधिष्ठिर को कर्ण का सत्चरित बताया, 'उदासी में भरे भगवान बोले, न भूलें आप केवल जीत को लें नहीं पूरुषार्थ केवल जीत में है, विभाकासार शील पुनीत में है।' (सप्तम सर्ग)
महाकवि कैसे युग की भावनाओं से समवेत् रहते हैं, और वैसे रहते हुए ही कैसे वे युग को नेतृत्व देते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण देखना हो तो कृपया 'उर्वशी' काव्य में देखिए। 'रश्मिरथी' की भूमिका में दिनकर का यह कथन महत्वपूर्ण है। दिनकर कहते हैं, 'मुझे (यह भी) पता है कि जिन देशों अथवा दिशाओं से आज हिन्दी काव्य की प्रेरणा पार्सल से, मोल या उधार, मंगाई जा रही है, वहां कथाकाव्य की परंपरा नि:शेष हो चुकी है और जो काम पहले प्रबंध काव्य करते थे, वही काम आज बड़े मजे में उपन्यास कर रहे हैं।' दिनकर का संकेत शायद आधुनिक हिन्दी काव्य की उन छायावादी और तप्तसरीखी काव्य प्रवृत्तियों की ओर था, जो व्यक्तिवादी होने के कारण देश और समाज से कटी हुई थी। इस संदर्भ में यही कहना समीचीन होगा कि राष्ट्रकवि दिनकर ने मानो एक राष्ट्रीय घोषणा कर दी कि 'परंपरा केवल वही मुख्य नहीं है जिसकी रचना बाहर हो रही है, कुछ वह भी प्रधान है जो हमें पुरखों से विरासत में मिली है, जो लिखिल भूमंडल के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है।'

अपने पुरखों से मिली अपनी विरासत में देश और देशवासियों के मन में बसे इसी महाभाव को व्यक्त करते हुए ही मानव दिनकर कह रहे हैं- 'मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं
उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं।'
सूर्य के प्रकाश की इसी तेजस्विता का ही यह परिणाम माना जाना चाहिए कि छायावाद की इस घनघोर व्याप्ति में ही दिनकर ने प्रणय को, स्त्री और पुरुष के प्रणय को, उर्वशी और पुरुरवा के प्रणय को, उसके पौराणिक गाथा आधार को संपूर्ण सम्मान देते हुए 'उर्वशी' जैसा एक बड़ा काव्य लिख दिया जिसके बारे में दिनकर ने निस्संकोच, बल्कि कहना चाहिए कि सम्मानपूर्वक कहा- उर्वशी-पुरुरवा की प्रणय गाथा को ध्यान में रखकर कहा, उर्वशी के बारे में, 'शायद अपने से अलग कर मैं उसे देख नहीं सकता; शायद वह अलिखित रह गई; शायद वह इस पुस्तक में व्याप्त है।'(भूमिका पृ. 13)

पुरुरवा-उर्वशी के पौराणिक प्रणय गान को, कविवर दिनकर ने जिन आध्यात्मिक श्रेष्ठताओं वे ऊंचाइयों तक पहुंचाया है, वह बताने के लिए क्यों दिनकर के ही शब्दों का आशय लिया जाए जो निश्छल स्वीकारोक्ति के विशिष्ट अद्वैतभाव में बता रहे हैं, 'उस प्रेरणा पर तो मैंने कुछ कहा ही नहीं, जिसने आठ वर्षों तक ग्रसित रखकर यह काव्य मुझसे लिखवा लिया।' (उर्वशी भूमिका, पृ. 15) और महाकवि ने जो 'लिखवा लिया', उसे दिनकर के शब्दों में दोहरा देना ही इस काव्य की, इस प्रणय कथा की स्वभाविक और श्रेष्ठ प्रस्तुति होगी। दिनकर के शब्दों में, 'नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इंद्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, उसे वह प्रेम की दुर्गम समाप्ति में पहुंचाकर निष्पंद हो जाती है। और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुंचना चाहती है।' (भूमिका पृ. 9)

अपने इस प्रणयदर्शन में महाकवि दिनकर फिर से एक बार धर्म के निष्कर्ष पर हमें ले आते हैं। पद्मपुराण का आश्रय लेकर कवि कह रहे हैं कि 'धर्म से अर्थ और अर्थ से काम की प्राप्ति होती है किन्तु काम में फिर हमें धर्म के ही फल प्राप्त होते हैं।... हीन केवल वह नहीं है जिसने धर्म और काम को छोड़कर केवल अर्थ को पकड़ा है; न्यायत:, उकठाकाठ तो उस साधक को भी कहना चाहिए, जो धर्मसिद्धि के प्रयास में अर्थ और काम दोनों से प्राप्ति कर रहा है।' (भूमिका पृ.12)

डॉक्टर रामधारी सिंह दिनकर की काव्य कृतियां अनेक हैं, करीब बीस, छोटी-बड़ी सब मिलाकर। पर जिस विशिष्टतम कविकर्म के कारण दिनकर भारत के जनसामान्य की आवाज बन गए, भारत के धर्म का स्वर बन गए, राष्ट्रकवि बन गए उनमें से कुछ ही कृतियों का संदर्भ उठाना हमारे लेख को सीमाओं में बांध देता है। इसलिए दिनकर की प्रिय पुस्तक, जिसे उनके निबंधों में गिना जाता है, उनका एक विशालकाय निबंध, 'संस्कृति के चार अध्याय' है। जिसपर विमर्श के लिए हम किसी श्रेष्ठ अवसर की प्रतीक्षा कर सकते हैं। पर इतना तो समझ में आ ही जाता है कि रामधारी सिंह दिनकर कोई सामान्य कवि नहीं थे। वे स्वभावत: महाकवि ही थे। कोई पाठक-जननायक देखा है आपने? जी हां, दिनकर पाठक-जननायक कवि ही सदा रहे। यानी वे सच्चे और समूचे अर्थों में राष्ट्रकवि हैं और रहेंगे। मां भारती के राष्ट्रकवि के सिंहासन पर दिनकर सादर और अपनी संपूर्ण तेजस्विता के साथ विराजमान हैं, भास्वर हैं। देश के कर्णधारों के पास गुरुवर दिनकर का धर्मदर्शन दशकों से उपलब्ध है। अब गुरुवर दिनकर को श्रेष्ठ गुरुदक्षिणा देने का समय आ गया है। -सूर्यकान्त बाली