Sunday, 25 June 2017

राजनारायण और इंदिरा गांधी @रामबहादुर राय

वंशवाद मनुष्य की सामान्य कमजोरी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी कमाई अपने वंश वालों को देना चाहता है। देता है। जो ऐसा नहीं करते वेफकीरहैं। संन्यासी हैं। राजनीति भी एक ढंग की कमाई है।
इसे लिखा है डॉ. युगेश्वर ने। यह एक सैद्धांतिक भूमिका है। जिस पर वे राजनारायण की राजनीति का वर्णन करते हैं।
बहुत पहले यह पुस्तक छपी थी– ‘आपातकाल का धूमकेतु: राजनारायण।तब राजनारायण और इंदिरा गांधी जीवित थे। वह पुस्तक फिर छापी गई है। जिसमें राजनारायण के पूरे जीवन को समेट लिया गया है। यह काम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक असिस्टेंट प्रोफेसर जेएस सिंह ने किया है। इसमें ही एक अध्याय हैइंदिरा गांधी और राजनारायण।
डॉ. युगेश्वर लिखते हैं कि राजनारायण ने इंदिरा गांधी विरोध का आरंभ वंशवाद के विरुद्ध किया। यह परंपरा उन्हें अपने प्रिय नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से मिली थी। इंदिरा गांधी ने वंशवाद को चरम पर पहुंचा दिया। उन्होंने जिसे अपना उत्तराधिकार सौंपना चाहा, वह अयोग्य भी था। डॉ. लोहिया का नाम रटने वाले इसे जरूर पढ़ें। अपने अंदर झांके। और सोचें कि क्या वे परस्पर विरोधी कृत्य में नहीं लगे हैं। समाजवाद और वंशवाद ऐसा ही परस्पर विरोधी कृत्य है।
डॉ. युगेश्वर जिसे अयोग्य बता रहे हैं वह और कोई नहीं, संजय गांधी था। उसकीइच्छा राजनीति में जाकर कार बनाने की थी। वह व्यापारी होता। कारखानों का निदेशक बनना चाहता था। उसने राजनीति को औद्योगिक कार्यों का साधन बनाया। उसने राजनीति का उपयोग लाइसेंस, परमिट, कर्जे जैसी चीज के लिए किया, किन्तु धीरेधीरे राजनीति का जायका बढ़ता गया। उद्योग चलाने का घटता गया। इधर उनकी माता जी के सामने उत्तराधिकार का भी सवाल रहा होगा। फलत: घर और राजनीति का अंतर भुला दिया गया। घर राजनीति पर हावी हो गया।
इसे डॉ. युगेश्वर बताकर लिखते हैं किइंदिरा गांधी बहुत अधिक मोह वाली थीं। यह मोह सारे रोगों के मूल में है। इंदिरा गांधी में जैसेजैसे पुत्र मोह बढ़ता गया, उसी क्रम में अपने प्रति मोह भी बढ़ता गया। पुत्र अपना ही पर्याय होता है।
उन्होंने इसे आपातकाल से जोड़ा और लिखा इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करके देश को भयंकर दुख में झोंक दिया। सारे सुख अपने और अपने परिवार में समेट लिया। एक व्यापारी (संजय गांधी) की स्थिति राष्ट्र नेता की हो गई। मुख्यमंत्री, मंत्री, गवर्नर, बड़ेबड़े अफसरान उसकी कृपा दृष्टि के आकांक्षी हो गए। कार बनाने वाला सरकार बनाने लगा, किन्तु उसे दोनों मोर्चों पर विफलता हाथ लगी। कार बनी नहीं। सरकार बची नहीं।

डॉ. युगेश्वर कल्हण की पुस्तक के हवाले से बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू इस बात से दुखी रहते थे किइंदिरा आत्म केंद्रित है।बात छठे दशक की है। राजनारायण ने राज्य सभा में इंदिरा गांधी पर गंभीर आरोप लगाए। यह कि उन्हें विदेशों में जो कीमती उपहार मिले हैं, उसे अपने पास रख लिया है। उसकी पूरी सूची राजनारायण ने एमओ मथाई के पत्र के हवाले से पेश कर दी। इससे इंदिरा गांधी बहुत घबड़ा गई। वह पूरा पत्र इस पुस्तक में छपा है। जिससे इंदिरा गांधी के लोभ को समझा जा सकता है। एमओ मथाई ने वह पत्र पद्मजा नायडू को लिखा था।
राजनारायण ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध लड़ाई हर जगह लड़ी। संसद में और सड़क पर भी। चुनाव के मैदान में और अदालत में भी। कोई मोर्चा छोड़ा नहीं। डॉ. युगेश्वर ने लिखा है किइंदिरा गांधी  षड्यंत्र, झूठ और नीतिहीनता की जबर्दस्त शक्ति रखती हैं।दूसरी तरफ वे राजनारायण का शब्दचित्र इस प्रकार बनाते हैं ग्रामीण जीवन का सीधापन और खुरदुरापन है। वे झूठ, धोखा और तिकड़म में विश्वास नहीं करते। उनके पास इंदिरा गांधी जैसी कोमल और भावमूला वाणी नहीं है। पुरुष होने के नाते वे इंदिरा जैसा कोमल नहीं बन पाते। वे जो कुछ कहना होता है खुलकर कहते हैं। आत्मकेंद्रिता का घोर अभाव है। उनका निजी कुछ भी नहीं है। वे निजी से अधिक सार्वजनिक हैं।
उन्होंने हनुमान और लक्ष्मण को अपना आदर्श बनाया है जो त्याग और सेवा के लिए प्रसिद्ध हैं। चमत्कार नहीं पैदा करते। पूरा जीवन विरोध पक्ष की राजनीति में बीता है। घोर जुझारु विरोध। नेता से अधिक कार्यकर्ता रहे हैं। हनुमान और लक्ष्मण कार्यकर्ता ही तो थे। ऐसे कार्यकर्ता जिन्हें अपनी शक्ति का भी ठीक बोध नहीं है।
सबसे चर्चित मुकाबला रायबरेली का है। वहां राजनारायण पहुंचे। अपना पर्चा दाखिल किया। चुनाव मैदान में कूद पड़े। मुकाबला जितना इंदिरा गांधी से था, उससे ज्यादा देश के प्रधानमंत्री से था। उन्हें मैदान से हटने के लिए बड़े प्रलोभन मिले। विरोध की राजनीति भी कई बार समझौते के लिए लोग करते हैं। पर राजनारायण दूसरी मिट्टी के बने थे। उन्होंने लड़ना कबूल किया, समझौता नहीं।
संभवत: वे राजनीति के अपने उस पाप का प्रायश्चित कर रहे थे, जो समाजवादी समूह केस्पर्श क्रांतिकारियोंने उनसे करवा दिया था। इसे बिना समझे रायबरेली चुनाव का महत्व नहीं जाना जा सकता।
उससे पहले राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को तोड़ दिया था। अपनीअंतरात्मा की आवाजपर नीलम संजीव रेड्डी की जगह वीवी गिरि को उम्मीदवार बनाया। तब कम्युनिस्ट सहित समाजवादियों ने इंदिरा गांधी के उम्मीदवार का समर्थन किया। राजनारायण विरोध में थे। पर अपने साथियों की बात मान ली। इसका ही उन्हें मलाल था। यही था वह प्रायश्चित, जो रायबरेली में कर वे मुक्त हो जाना चाहते थे। इसके लिए जैसा धीरज चाहिए, वह उनमें था। यही खास वजह थी कि डॉ. राममनोहर लोहिया उन्हें मन से पसंद करते थे।
राजनारायण 1971 का चुनाव हार गए। पर हिम्मत नहीं हारी। चुनाव जीतीं इंदिरा गांधी। उस चुनाव में दो जीवन मूल्यों का टकराव था। एक तरफ इंदिरा गांधी चुनाव जीतने के लिए किसी भी मर्यादा को तारतार कर सकती थीं, तो दूसरी तरफ राजनारायण ने उन हथकंडों पर नजर रखी। उसे संवैधानिक और असंवैधानिक रूप दिया।राजनारायण इंदिरा गांधी के एकएक भ्रष्टाचार को गिनते रहे। चुनाव खत्म होते ही न्यायालय पहुंचे। अच्छा राजनीतिज्ञ हर स्तर पर लड़ता है। मुकदमा राजनीतिक लड़ाई का महत्वपूर्ण पक्ष है।
नतीजतन राजनारायण ने इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनौती दी। उन्होंने सात आरोप लगाए। मुकदमा शुरू हुआ। वह लंबा चला। एक चरण ऐसा भी आया जिसमें इंदिरा गांधी को अदालत में हाजिर होना पड़ा। सफाई देनी पड़ी। वह तारीख थी-18 मार्च, 1975 उनसे उस दिन : घंटे की पूछताछ हुई। वह कमरा वही था, जहां मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू बतौर वकील वकालत करते थे।
आखिरकार पांच साल बाद फैसला आया। इंदिरा गांधी ने उस दौरान जजों को भयभीत कर रखा था। लेकिन एक जज ऐसा निकला जिसने प्रधानमंत्री के प्रभाव की परवाह नहीं की। वे जगमोहन लाल सिन्हा थे। हालांकि खुफिया ब्यूरो (आइबी) के एक अफसर को इलाहाबाद में इस काम में लगाया गया था कि वह बता सके कि फैसला क्या आने वाला है। वे आज भी हैं।

जगमोहन लाल सिन्हा इससे परिचित थे। खुफिया अफसर कुछ पता नहीं लगा सके। जज जगमोहन लाल सिन्हा ने टाईिपस्ट को अपने घर बुलाया। फैसला लिखवाया। उसे तभी जाने दिया जब फैसला सुना दिया गया। उन्होंने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया।
यह आशंका इंदिरा गांधी को थी। इसका स्पष्ट उल्लेख पुपुल जयकर ने उनकी जीवनी में किया है। 12 जून, 1975 को यह फैसला आया। जिसके चौदहवें दिन अपनी कुर्सी बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगवाया। लोकतंत्र का गला घोटा। नेताओं को बंदी बनाया। उनमें एक राजनारायण भी थे। 1977 के चुनाव में राजनारायण ने इंदिरा गांधी को रायबरेली में हरा भी दिया। लोकतंत्र जीता। तानाशाही हारी।
लेकिन राजनारायण से दूसरा राजनीतिक पाप तब हुआ जब उन्होंने पुन: ‘स्पर्श क्रांतिकारिताके चलते इंदिरा गांधी से हाथ मिलाया। इससे इंदिरा गांधी की वापसी हुई। उसका प्रायश्चित करने का उन्हें काल ने अवसर नहीं दिया। राजनारायण फकीर की भांति दुनिया से विदा हुए। 31 दिसंबर, 1986 मकान, जमीन, बैंकबैलेंस। वहीं इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर थीं। उन्हें उनके निजी सुरक्षा गार्डों ने मारा। तारीख थी 31 अक्टूबर, 1984



Saturday, 24 June 2017

Tarkeshwari sinha तारकेश्वरी सिन्हा

Late Smt.Tarkeshwari Sinha, MP(LokSabha ,1952-1971,Badh,Bihar) was a frontline Parliamentarian who left no oppourtunity to raise voice of people in the house.She was an orator .She served in Pt. Nehru Cabinet as Deputy Finance Minister for several years.we remember great leader these days when Parliamentary democracy is under danger.we salute her for contributions to Indian politics.

ONCE CALLED AS A GLAMOUR GIRL OF THE INDIAN PARLIAMENT ,WAS A VERY FINE ORATOR ALSO .
According to "THE WEEK"published few yrs back ,the special issue "TEN MYTH S OF INDIAN POLITICAL SCENE",Gulzar saheb had stated that the subject of his controversial 
film AANDHI"'was taken on the life of Tarkeshwari ji ,his Husband was a business man and not on Smt .Gandhi .But due to the some scene in it ,it became famous for Smt. Gandhi and was subsequently banned during the EMERGENCY.

पटना विश्व विद्यालय में हमलोगों ने 1970 में उनका भाषण करवाया ।बहुत रोचक एवं रोमांटिक व्यक्तित्व एवं वक्ता थी।मेरी आयु उस वक्त 17 वसंत पार थी।किसी रोचक क्षण में उन्होंने मेरा सर सहला दिया।आज भी यादगार है।

t's irony that Desperate Voter's of Vaishali Constituency : Ruined Political Life of Tarkeshwari Sinha and Lawli Singh in Majority , however Late Kishori Sinha & Mrs.Usha Sinha in Mirority.

इनकी यह भी खासियत मैंने देखा है कि चुहानी में घुस के महिलाओं से बातें करती थीं। जब हम मिडिल स्कूल में पढ़ते थे तो वो बाढ़ संसदीय क्षेत्र से और सरस्वती चौधरी पुनपुन विधान सभा क्षेत्र की उम्मीद्वार थीं।ये मेंरे घर भी आई थीं। स्वभावशील थीं !जमाने के हिसाब से इनके प्रति मेंरा भी सम्मान है।

Prakhar waqta ke roop me unhe hamesha yaad kiya jayega.mane unhe 1980 me burari delhi me ex m.l a delhi Late Sh. Shanti Sarup Tyagi ji ki punye 
Tithi per bulvaya tha.Asi Mahan atma ko sader naman

I recall she addressed our Planning forum in central hall of L S College in 1961. I alongwith seniors went to receive her at Chakkar Maidan where she arrived. Her appearance was like an actress. Dr R.B.Singh then HOD Economics, welcomed her with B.N.Singh then Principal presided the function ! Memorable event never to forget !

SHRIMATI TARKESWARIJI was a born leader, the present political learners are minion in every measure or standards.

She had a great aesthetic sense and she had created a lovely garden in her house at 14 Rajendra Prasad Road in New Delhi.

Friday, 23 June 2017

Tamkuhi Raj: Tamkuhi Raj - in the pages of history......

Tamkuhi Raj: Tamkuhi Raj - in the pages of history......

जाने एक छोटे जमींदार से अग्रेजो द्वारा कैसे घोषित हुए हथुआ के राजा ?

जाने एक छोटे जमींदार से अग्रेजो द्वारा कैसे घोषित हुए हथुआ के राजा ?
(मानवेन्द्र मिश्रा )
पूर्वे के सारण जिले के छोटे से कस्बे हुस्सेपुर के एक छोटे जमींदार थे सरदार बहादुर शाही जिनके बड़े लड़के हुए फतेह बहादुर शाही अपने पराक्रम के बल पर हुस्सेपुर के जमींदार से बनारस के  राजा चेत सिंह के सहयोग से हुस्सेपुर के राजा बने , आजाद ख्यालात एवं उद्दार विचार के राजा फतेह बहादुर शाही ने अग्रेजो के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया , अग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे बंगाल के नबाब मीरकाशिम के साथ खड़े हो गए और मुगेर से लेकर बक्सर तक सैन्य सहयता देते रहे 1765 की इलाहाबाद संधि के शर्तो के मुताबिक बंगाल बिहार और उड़ीसा के मामलो की दीवानी शक्ति अग्रेजो को प्राप्त हुई , मुगल शासको के मिली दीवानी शक्ति को बेतिया और हुस्सेपुर राज घरानों ने मिलकर अग्रेजो का विरोध किया , और सयुक्त रूप से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को चुनवौती दी , बाद में बेतिया के शासक ने कम्पनी के अधिकारियों से समझौता कर लिया  लेकिन फतेह बहादुर शाही ने अपनी हार नही मानी ,अपने मित्र आर्या शाह की सूचना पर फतेह बहादुर शाही ने अपने सैनिको के साथ मिलकर अग्रेजो के लाईन बाजार कैम्प पर हमला बोल दिया जिसमे अग्रेजो के सेनापति मिर्जाफर सहित सैकड़ो अंग्रेज मारे गए , इसी मिर्जाफर के नाम पर मीरगंज शहर का नाम मीरगंज पड़ा था , अग्रेजो के लिए यह पहला मौका था कि भारत में किसी ने उन्हें इतनी बड़ी चुनौती दी थी , फतेह बहादुर शाही के मित्र आर्याशाह को जब यह लगा की अग्रेज उन्हें अपने कब्जे में लेकर मार डालेगे तब आर्या शाह ने अपने मित्र के हाथो से अपनी समाधि तैयार कराई और हँसते हुए मौत के गले लगा लिया , आर्या शाह ने यह प्रण किया था की अग्रेजो के हाथो नही मारे जाएगे , आज अभी शाह बतरहा में आर्या शाह का मकबरा मौजूद है , थक हारकर अग्रेजो ने फतेह बहादुर शाही के भाई बसंत शाही को मिलाकर उन्हें राज सौपने का लालच दिया , और अग्रेजो ने उकसाकर  बसंत शाही से जादोपुर में 25 घुड़सवारो के साथ लगान की वसूली शुरू कर दी , जब इसकी सूचना फतेह बहादुर शाही को मिली , तो अपने सगे भाई के इस धोखे से नाराज होकर फतेह बहादुर शाही ने गोपालगंज के उतर जादोपुर में 25 सौनिको से साथ लगान वसूल रहे भाई का कत्ल कर दिया , उसके बाद बसंत शाही का कटा हुआ सिर हुस्सेपुर में उनकी पत्नी शाहिया देवी के पास भेज दिया जिसे लेकर अपनी ग्यारह सखियों के साथ सती हो गयी, जिस स्थान पर सती हुई उसे आज सईया देवी के नाम से जाना जाता है  ,जबकि बसंत शाही की दूसरी पत्नी गर्भवती थी जिसको बसंत शाही के विश्वाशपात्र सिपाही छ्जू सिंह फतेह बहादुर शाही के डर से अपने गाव भरथूई (जो की सिवान जिले में है ) लेकर चले गए , जहा महेशदत शाही का जन्म हुआ , पुरे जीवन महेशदत शाही को फतेह शाही के डर से छुप कर बिताना पड़ा , इसी दौरान महेश शाही को एक पुत्र हुआ जिसका नाम छत्रधारी शाही पड़ा , इधर फतेह बहादुर शाही द्वारा उत्पन्न की गयी परिस्थितियों से हारकर अग्रेजो ने हुस्सेपुर राज में वसूली बंद कर दी , 1781 में जब  वारेन हेस्टिंग्स को इस बात की जानकारी हुई तो उसने भरी सैन्य शक्ति के साथ फतेह बहादुर शाही के बिद्रोह को दबाने की कोशिश की लेकिन वह भी असफल रहा अपने उपर बढ़ते दबाव और हार न मानने की जिद्द के बिच फतेह बहादुर शाही ने हुस्सेपुर से कुछ दूर जाकर पछिम-उतर दिशा में जाकर अवध साम्राज्य के बागजोगनी के जंगल के उत्तरी छोर पर तमकोही गाव के पास जंगल काटकर अपना निवास बनाया कुछ दिनों बाद अपनी पत्नी और चारो पुत्रो को लेकर वहा गये और कोठिया बनवाकर रहने लगे , इधर वारेंग हेस्टिगसन ने फतेह बहादुर के साथ जय नही तो छय की जिद्द पर इंग्लैंड से और अधिक सेना बुलाई , बनारस के राजा चेत सिंह ने वारेन हेस्टिंग्स के बनारस राज पर अतिरिक्त पांच लाख का लगाया कर दुसरे वर्ष देने से जब इनकार कर दिया तो अग्रेजो का कहर उनपर टूटना शुरू हुआ , चेत सिंह ने फतेह बहादुर शाही से मदत मांगी , फतेह बहादुर शाही चेत सिंह के मदत में आगे आए और अग्रेजो के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया फ़तेह शाही का बड़ा बेटा युद्ध में मारा गया , लेकिन अंतत: अंग्रेजी सेना को चुनार की ओर पलायन करना पड़ा ,
उसके बाद अवध के नबाब पर बनाया गया दबाव
अग्रेजो ने अवध के नबाब पर दबाव बनाया कि महाराजा फतेह बहादुर शाही को अपने क्षेत्र से निकाले, लेकिन नबाब मौन रहें , इधर अग्रेजो के पक्ष में जयचंदों , मानसिंह और मीरजाफरो की सख्या बढ़ती गयी , महाराजा फतेह बहादुर शाही 1800 तक तमकुही में रहें, इसके बाद अचानक कही चले गए , किसी ने कहा की वे सन्यासी हो गए , तो किसी ने बताया की चेत सिंह के साथ महाराष्ट्र चले गए , लेकिन उनके गुरिल्ला युद् से भयभीत अग्रेज उनके गायब होने के बाद भी कई वर्षो तक आतंकित रहें.
 अंग्रेजो के सहयोग से बना हथुआ राज
महराजा फतेह बहादुर शाही जब हुस्सेपुर छोड़कर तुमकुही में अपना राज्य स्थापित कर रहें थे , उसी समय बसंत शाही के पुत्र  महेशदत शाही ने  अंग्रेजो के संरक्षण में हथुआ में निवास बनाया , फतेह बहादुर शाही के जीवित होने के विश्वाश होने के वर्षो तक अंग्रेजो ने वर्षो तक अग्रेजो ने हथुआ को राज का दर्जा नही दिया था , बाद के वर्षो में यह काम किया गया .
काफी चिंतित थी ईस्ट इंडिया कंपनी
ईस्ट इंडिया कंपनी इस बात से चिंतित थी कि हुस्सेपुर का राज्य किसे दिया जाय , काफी मंत्रणा के बाद महेशदत  शाही के नबालिक पुत्र छत्रधारी शाही को राजा बना दिया गया , सुरक्षा को ध्यानपूर्वक रखते हुए नाबालिक राजा के पालन – पोषण का दायित्व बसंत शाही के विश्वाशपात्र सिपाही छज्जू सिंह को सौपा गया .  27 फरवरी 1837 को छत्रधारी को गद्दी पर बैठाया गया और महाराज बहादुर के ख़िताब से नबाजा  गया , उसी के साथ हुस्सेपुर राज्य  का हथुआ हथुआ में विलय कर दिया गया , हथुआ राज के अंतिम महाराजा महादेव आश्रम प्रताप शाही थे , 1956 में जमींदारी  उन्मूलन कानून लागू हो गया , महाराजा फतेह बहादुर शाही की कीर्ति की साक्षी झरही नदी निरंतर प्रवाहित हो उनका यशोगान कर रही है .
तमकुही राज से जुड़े लोग आज भी नही पिते है हथुआ राज का पानी
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और महाराजा  फतेह बहादुर शाही के साथ किये गये कुलघात और हथुआ राज  को अंग्रेजों के संरक्षण बताते हुए ही तमकुही राज के लोग हथुआ राज का पानी पीना हराम समझते है , वही हथुआ और हुस्सेपुर को छोड़कर तमकुही में अपनी रियासत बनाने के बाद  फतेह बहादुर ने हथुआ राज की तरफ पलट कर देखना भी हराम समझा , स्वतंत्रता के इस महानायक के सम्मान में तमकुही राज के लोग हथुआ का पानी पीना हराम समझते है , वहा के लोग आज भी बताते है की हथुआ राज का पानी तमकुही राज के लिए आज भी हरराम है ,
वही एक तरफ आज भी जिले के मशहूर थावे के मंदिर में अग्रेजो के चापलूसों और पूर्व हथुआ राज के पूर्वजो का फोटो माँ थावेवाली के मंदिर के गर्भगृह में लगाया गया है , यहा तो हथुआ राज और प्रसाशन द्वारा इतिहास को भी बदल दिया गया है , माँ थावेवाली के बारे में कहा जाता है की अपने भक्त रह्शु के पुकार पर माँ कामख्या से चलकर थावे आई थी और अतताई एवं सामंती राजा मनन सिंह के राज का नाश किया था , लेकिन हथुआ राज द्वारा यहा इतिहास बदलकर माँ थावेवाली को अपना कुल देवी बताया जाता है ,
हथुआ राज द्वारा किए जा रहे सारे काले करतूतों के वावजूद प्रशासन और सरकार कान में तेल डालकर मौन है, अब फिर एक बार हथुआ राज सरकारी जमीनों को भोले – भाले लोगो के बिच बेचने का काम शुरू कर दिया , इन सबके पीछे हथुआ राज को जिले के वरीय अधिकारियो का भी सहयोग मिल रहा है , वही हथुआ राज के गुर्गो और प्रशासनिक दलालों द्वारा सुनामी मिडिया के पत्रकारों को सच्चाई लिखने पर लगतार धमकिया भी दी जा रही है , पहले तो सुनामी मिडिया के पत्रकार को लालच देकर फसाने का काम किया गया.  उसमे जब कामयाबी नही मिली तो हथुआ राज के गुर्गो द्वारा लगतार धमकी दी जा रही है , वही दूसरी तरफ हथुआ के चहुमुखी विकास के लिए कुछ युवा अब आंदोलन के मुड में है , कुछ नामी मिडिया के लोग भी अपने निजी स्वार्थ के लिए मिडिया का परिभाषा बदल कर  हथुआ राज के दलाली में लगे हुए है .

आजादी की लड़ाई का विस्मृत नायक फतेह बहादुर शाही

भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के क्रम में बिहार के सारण के हुस्सेपुर राज्य का प्रतिरोध एक ऐसी अदृश्य ऐतिहासिक कड़ी है जो स्वाधीन भारत में भी अपने मूल्यांकन की राह देख रही है। 23 साल लम्बे चले इस संघर्ष के नायक थे हुस्सेपुर राज्य के महाराजा फतेह बहादुर शाही और पूर्वांचल की आजादमिजाज भोजपुरिया जनता।

                ऐसे समय में जब देश भर में 1857 के पहले स्वतन्त्रता संघर्ष की डेढ़ सौवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है, अक्षयवर दीक्षित के सम्पादन में आया यह निबन्ध संग्रह एक ओर क्षेत्री नायकों के महत्त्व और राष्ट्र के प्रति उनके अवदान को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर इतिहास लेखन की क्षैतिज पद्धति और परम्परा को प्रश्नांकित भी करता है ‘भोजपुरी समाज और साहित्यकी विवेचना के दौरान आलोचक मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, ‘‘यह आश्चर्यजनक बात है कि भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण पर विचार करते समय साम्राज्यवाद के विरुद्ध भोजपुरी क्षेत्र के संघर्ष की कोई विशेष चर्चा नहीं होती। इसका एक कारण यह भी है कि जिस साहित्य के आधार पर भारतीय और हिन्दी नवजागरण की बात की जाती है वह मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग का साहित्य है, जिसमें गाँव के लोगों के संघर्ष का कहीं कोई उल्लेख नहीं है...फतेह शाही के संघर्ष की गाथामीर जमाल वधनाम के काव्य में है जो सम्भवतः आज भी अप्रकाशित है।“
                बक्सर की लड़ाई में मीर कासिम का साथ दे चुके शाही ने अंग्रेजों को कर देने से इनकार कर दिया और अपने सशस्त्र प्रतिरोध में आसपास के रजवाड़ों, जमींदारों से भी मदद की अपील की, लेकिन बनारस के चेत सिंह जैसे इक्के-दुक्के ही सामने आए दोनों ने मिलकर वारेन हेस्टिंग्स की सेना के छक्के छुड़ा दिए1857 के समर को गौरवपूर्ण मानते हुए भीप्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1765 क्यों नहीं?’ में ब्रजेश कुमार पाण्डेय की राय है, ‘‘जब हम सारण के गजेटियर, अन्य अभिलेखों एवं गोपालगंज जिले के हथुआ राज्य की स्थापना के पूर्व वृत्तान्त पर दृष्टिपात करते हैं तो इसकोप्रथममानने पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। हुस्सेपुर एवं तमकुही राज्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसके राजा महाराज बहादुर फतेह शाही ने 1765 से आरम्भ कर लगातार तेईस वर्षों तक अनवरत अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया। जनसहयोग से दो दशक से ऊपर तक चलने वाला यह संघर्ष उस राजा की अदम्य स्वातंत्र्य चेतना एवं वैदेशिक सत्ता के प्रति सतत घृणा का ऐसा दस्तावेज है जिसे अनदेखा करना सिर्फ एक योद्धा के योगदान को नकारना वरन् सम्पूर्ण स्वाधीनता संघर्ष के प्रति अन्याय करना है।
                संघर्ष की खासियत यह रही कि जनता निर्भय होकर राजा को ही कर देती रही। सैनिक छावनी में तब्दील हुस्सेपुर से दूर गोरखपुर के निकट बागजोगिनी के जंगलों से गुरिल्ला युद्ध चला रहे फतेह शाही ने उन सबकी हत्या कर दी जिन्हें कम्पनी ने राजस्व वसूली के लिए नियुक्त किया। इनमें शाही के सगे चचेरे भाई बसन्त शाही भी शामिल थे, जिनके वंशजों ने आगे चलकर अंग्रेजी सहायता से हथुआ राज की स्थापना की। कई बार विद्रोही राजा से समझौते की पेशकश कर चुके किंकर्तव्यविमूढ़ अंग्रेज अफसरों ने हेस्टिंग्स को कई पत्र लिखे। इन पत्रों को भी संग्रह में स्थान दिया गया है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा के आदिवासी इलाकों से लेकर आन्ध्र और मैसूर तक अनेक विद्रोहों को गिनाते हुए शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की शिकायत है कि इतिहाज्ञों ने इन महत्त्वपूर्ण संघर्षों के साथ तो न्याय किया और तर्कसंगत अध्ययन।
                क्रान्तिचेता फतेह बहादुर शाही का अन्त रहस्यमयी परिस्थितियों में हुआ। उनकी कहानी को समय की आँधी में इतिहास भले ही दर्ज कर पाया हो, लेकिन पूर्वांचल की अमराइयों, चैपालों, पगडंडियों और लोकोक्तियों में फतेह बहादुर शाही हमेशा अमर रहेंगे।  
                                     साभारः इंडिया टुडे (08.08.2007)

         पुस्तकभारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का प्रथम वीर नायक, संपादकअक्षयवर दीक्षित
              प्रकाशन--अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार, कीमत125 रुपये