Tuesday, 26 June 2018

स्वामी सहजानन्द सरस्वती: शायद इतिहास खुद को नहीं दुहरा पाएगा! @गोपाल जी राय

अमूमन इतिहास खुद को दुहराता है, लेकिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अब तक अपवाद स्वरूप है। आगे क्या होगा भविष्य के गर्त में है, पर वर्तमान को उनकी याद सताती है। भले ही उनको गुजरे जमाने हो गए, फिर भी इतिहास खुद को दुहरा नहीं पाया! जबकि लोगबाग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं किसी समतुल्य नायक का, जो उनकी जीवनधारा बदल दे। किसानी जीवन की सूखी नदी में दखल देने वाली व्यवस्था की रेत और छाड़न को किसी अग्रगामी चिंतनधारा से ऐसे लबालब भर दे कि पूंजीवाद और साम्यवाद के तटबंध बौने पड़ जाएं समाजवादी उमड़ती दरिया देख।

आप मानें या नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति में जब भी किसानों की चर्चा होती है तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार संगठित करने वाले दंडी स्वामी स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बरबस आ जाती है। यदि यह कहा जाए कि स्वामी जी किसानों के पहले और अंतिम अखिल भारतीय नेता थे तो गलत नहीं होगा। दरअसल, वो पहले ऐसे किसान नेता थे जिन्होंने किसानों के सुलगते हुए सवालों को स्वर तो दिया, लेकिन उसके आधार पर कभी खुद को विधान सभा या संसद में भेजने की सियासी भीख आमलोगों से कभी नहीं मांगी। इसलिए वो अद्वितीय हैं और अग्रगण्य भी।

खासकर तब जब भारतीय किसानों की दशा और दिशा को लेकर हमारी संसद और विधान मंडलें गम्भीर नहीं हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाएं भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी हैं। ये तमाम संस्थाएं जनविरोधी पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र बनी हुई हैं। ये बातें तो किसानों की करती हैं, लेकिन इनके अधिकतर फैसले किसान विरोधी ही होते हैं। सम्भावित किसान विद्रोह से अपनी खाल बचाने के लिए इनलोगों ने किसानों को जाति-धर्म में इस कदर बांट रखा है कि वो अपने मूल एजेंडे से ही भटक चुके हैं। इसलिए उनकी आर्थिक बदहाली भी बढ़ी है। सच कहा जाए तो जबसे किसानों में आत्महत्या का प्रचलन बढ़ा है, तबसे स्थिति ज्यादा जटिल और विभत्स हो चुकी है। इसलिए स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बार बार आती है।

स्वामी जी का सियासी कद नेहरू और गांधी जी के समतुल्य है। लेकिन उन्हें मृत्यु के उपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने की जरूरत नहीं समझी गई। ऐसा इसलिए कि किसानों की आवाज जन्मजन्मांतर तक दबी रहे। वह उनके नाम पर भी आगे अंतस ऊर्जा नहीं प्राप्त कर सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में संगठित किसान आंदोलन को खड़ा करने का जैसा श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को मिला, बाद में उसका हकदार कोई दूसरा नेता नहीं बन सका। ऐसा इसलिए कि सेवा और त्याग स्वामी जी का मूलमंत्र था। अब कोई भी इस मूलमंत्र को नहीं अपना पायेगा, क्योंकि कृषक समाज की प्राथमिकता बदल गई है।

आज किसानों के एक बड़े वर्ग के लिए आरक्षण जरूरी है, लॉलीपॉप वाली योजनाएं पसंद हैं, जबकि कृषि अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करने वाले और किसानों का परोक्ष शोषण करने वाले कतिपय कानूनों का समग्र विरोध नहीं। यही वजह है कि खेतों को बिजली, बीज, खाद, पानी, मजदूरी और उचित समर्थन मूल्य दिए जाने के मामलों में निरन्तर लापरवाही दिखा रही सरकारों का कोई ठोस विरोध आजतक नहीं हो पाया है।निकट भविष्य में होगा भी नहीं, क्योंकि अब नेतृत्व के बिक जाने का प्रचलन बढ़ा है। सच कहा जाए तो मनरेगा ने ‘गंवई हरामखोरी’ को ऐसा बढ़ाया है कि कृषि मजदूरों का मन भी अपने पेशे से उचट चुका है जिससे शिक्षित किसानों के किसानी कार्य बहुत प्रभावित हो रहे हैं।

बावजूद इसके, इन ज्वलन्त सवालों को स्वर देने वाला कोई राष्ट्रीय नेता नहीं दिखता, बल्कि किसी अवसरवादी गठजोड़ की झलक जरूर मिलती है। वो भी एक दो संगठन नहीं, बल्कि दो-तीन सौ संगठन मिलकर किसान हित की बात को आगे बढ़ा रहे हैं या फिर अपनी सियासी रोटियां किसी अन्य दल के लिए सेंक रहे हैं, किसी के भी समझ में नहीं आता। इसलिए कहा जाता है कि स्वामी जी के बाद कोई ऐसा किसान नेता पैदा नहीं हुआ जो चुनावी राजनीति से दूर रहकर सिर्फ किसानों की ही बात करे। उनके भावी हितों-जरूरतों की ही चर्चा परिचर्चा करे और उन्हें आगे बढ़ाए।

कहने को तो आज प्रत्येक राजनीतिक दल में किसान संगठन हैं लेकिन किसान हित में उनकी भूमिका अल्प या फिर नगण्य है। इस स्थिति को बदले बिना कोई राष्ट्रीय किसान नेता पैदा होना सम्भव ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दण्डी संन्यासी होने के बावजूद उन्होंने रोटी को भगवान कहा और किसानों को देवता से भी बढ़कर बताया। इससे किसानों को भी अपनी महत्ता का भी पता चला। किसानों के प्रति स्वामी जी इतने संवेदनशील थे कि तत्कालीन असह्य परिस्थितियों में उन्होंने स्पष्ट नारा दिया कि “जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब वो कानून बनाएगा। ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा।।”

निःसन्देह, स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने आजादी कम और गुलामी ज्यादा देखी थी। इसलिए काले अंग्रेजों से ज्यादा गोरे अंग्रेजों के खिलाफ मुखर रहे। समझा जाता है कि किसानों से मालगुजारी वसूलने की प्रक्रिया में जब उन्होंने सरकारी मुलाजिमों का आतंक और असभ्यता देखी तो किसानों की दबी आवाज को स्वर देते हुए कहा कि “मालगुजारी अब नहीं भरेंगे, लट्ठ हमारा जिंदाबाद।” इतिहास साक्षी है कि किसानों के बीच यह नारा काफी लोकप्रिय रहा और ब्रिटिश सल्तनत की चूलें हिलाने में अधिक काम आया।

स्वामीजी का परिचय संक्षिप्त है, लेकिन व्यक्तित्व विराट। हालांकि परवर्ती जातिवादी किसान नेताओं और उनके दलों ने उनके व्यक्तित्व को वह मान-सम्मान नहीं दिया, जिसके वे असली हकदार हैं। यही वजह है कि किसान आंदोलन हमेशा लीक से भटक गया। समाजवादी और वामपंथी नेता इतने निखट्टू निकले की, उनलोगों ने किसान आंदोलन का गला ही घोंट किया। उनके बाद चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत किसान नेता तो हुए, लेकिन किसी को अखिल भारतीय पहचान नहीं मिली, क्योंकि इनकी राष्ट्रीय पकड़ कभी विकसित ही नहीं हो पाई। दोनों पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ही सिमट कर रह गए। किसान हित में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि भी उनके खाते में नहीं रही।

# जिनका तपा तपाया जीवन ही किसी जगत-सन्देश से कम नहीं है।

स्वामी जी का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में वर्ष 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था। चूंकि बचपन में ही उनकी माताजी का स्वर्गवास हो गया था, इसलिए पढ़ाई के दौरान ही उनका मन आध्यात्म में रमने लगा। फिर वह क्षण भी आया जब गुरु दीक्षा को लेकर उनके बाल सुलभ मन में धर्म की कतिपय विकृति के खिलाफ आंतरिक विद्रोह पनपा। दरअसल, सनातन धर्म के अंधानुकरण के खिलाफ उनके मन में जो भावना पली बढ़ी थी, उसने सनातनी मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को और गहरा किया। यूं तो वैराग्य भावना को देखकर बाल्यावस्था में ही उनकी शादी कर दी गई। लेकिन, संयोग ऐसा रहा कि सदगृहस्थ जीवन शुरू होने के पहले ही इनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद उन्होंने विधिवत संन्यास ग्रहण की और दशनामी दीक्षा लेकर स्वामी सहजानंद सरस्वती हो गए।

कहा जाता है कि इसी दौरान स्वामी जी को काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। क्योंकि काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके संन्यास का यह कहकर विरोध किया कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। लेकिन स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इसे चुनौती के तौर पर स्वीकार किया और विभिन्न उपयुक्त मंचों पर शास्त्रार्थ करके कालप्रवाह वश यह साबित कर दिया कि भूमिहार भी ब्राह्मण मूल की ही एक समृद्ध शाखा हैं और हर योग्य व्यक्ति संन्यास धारण करने की पात्रता रखता है।

कालांतर में किसानों की दुर्दशा देखकर स्वामीजी ने बिहार में एक असरदार किसान आंदोलन शुरू किया। इतिहास गवाह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो बिहार में भी उसने गति पकड़ी, क्योंकि बिहार में स्वामी सहजानंद सरस्वती ही उसके केन्द्र में थे। कहा जाता है कि संत होते हुए भी उन्होंने जगह जगह घूम-घूमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। दरअसल, ये वह समय था जब स्वामी जी भारत वर्ष को समझ रहे थे और किसान हित में अपनी भूमिका तय कर रहे थे।

इसी क्रम में उन्हें एक अजूबा अनुभव हुआ। वह यह कि किसानों की हालत तो गुलामों से भी बदतर है। इसलिए युवा संन्यासी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर ऐसा उन्मुख हुआ कि वे किसानों को लामबंद करने की अपनी मुहिम में जुट गए और मरते दम तक इसे एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाया। यदि भारतीय राजनीति क्षुद्र स्वभाव की नहीं होती तो जब जब किसान हित की बात सोची जाती तो उन योजनाओं को स्वामी सहजानन्द सरस्वती के नाम पर ही शुरू किया जाता। क्योंकि भारत के इतिहास में सर्वप्रथम संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने और उसका सफल नेतृत्व करने का एक मात्र श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है।

यह कौन नहीं जानता कि आजादी के लिए संघर्षरत कांग्रेस में रहते हुए भी स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण, दमन, उत्पीड़न और आतंक से मुक्त कराने का अपना अभियान जारी रखा। यही वजह है कि उनकी बढ़ती लोकप्रियता और सामाजिक सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेजों ने उन्हें कारागार में डाल दिया। लेकिन इससे स्वामी जी को और मजबूती मिली।खास बात यह रही कि जेल यात्रा के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी अनुयायियों की सुविधाभोगी प्रकृति और उपभोगी प्रवृति को देखकर स्वामीजी दिल से हैरान हो गए। यही वजह है कि स्वभाव से विद्रोही चेतना के प्रतीक रहे स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया।

इतिहास साक्षी है कि सन 1934 में जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ, तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया। इससे उनकी प्रसिद्धि खूब बढ़ी।इससे उत्साहित होकर स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसानों को हक दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष को ही अपने जीवन का दीर्घकालिक लक्ष्य घोषित कर दिया। तब उन्होंने एक यादगार नारा दिया- “कैसे लोगे मालगुजारी, लठ हमारा जिन्दाबाद।” कहते हैं कि बाद में उनका यही नारा देशव्यापी किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया। अमूमन वे कहते थे कि अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि स्वामी जी का ओजस्वी भाषण किसानों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डालता था। यही वजह है कि काफी कम समय में ही किसान आंदोलन पहले पूरे बिहार में और फिर पूरे देश में फैल गया। बताया जाता है कि तब बड़ी संख्या में किसान लोग स्वामीजी को सुनने आते थे।

देखा जाए तो अपने सक्रिय सामाजिक और संतत्व जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिला लिया। उसके बाद अप्रैल,1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई जिसमें स्वामी जी को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। उस दौर में एम जी रंगा, ई एम एस नंबुदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे कई नामी गिरामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे जिनका सफल नेतृत्व और मार्गदर्शन उन्होंने किया।

यह स्वामी जी की जनप्रियता का ही तकाजा था कि उनके नेतृत्व में किसान रैलियों में जुटने वाली भीड़ कांग्रेस की सभाओं में शिरकत करने वाली भीड़ से कई गुना ज्यादा होती थी। उनके संगठन की लोकप्रियता का अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर 2 लाख 50 हजार हो गयी। इसलिए किसान आंदोलन के सफल संचालन के लिए उन्होंने पटना के समीप बिहटा में अपना आश्रम स्थापित किया। वह सीताराम आश्रम आज भी है।

आपको पता होना चाहिए कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से भी स्वामी जी की गहरी नजदीकियां थीं। लिहाजा किसान हितों के लिए आजीवन संघर्षरत रहे स्वामी सहजानंद सरस्वती ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ कई रैलियां की। विशेष बात यह कि जब आजादी की लड़ाई के दौरान स्वामी जी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ‘ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे’ घोषित कर दिया। उनके अलावा, बिहार के प्रमुख क्रांतिकारी लोक कवि बाबा नागार्जुन भी स्वामीजी के व्यक्तित्व से अति प्रभावित थे। उन्होंने वैचारिक झंझावातों के दौरान बिहटा आश्रम में जाकर स्वामीजी से मार्गदर्शन प्राप्त किया था।

आमतौर पर स्वामी सहजानंद सरस्वती संघर्ष के साथ ही सृजन के भी प्रतीक पुरूष हैं। तभी तो अपनी अति व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा अविस्मरणीय पुस्तकों की रचना की। एक तरफ सामाजिक व्यवस्था पर उन्होंने ‘भूमिहार ब्राह्मण परिचय’, ‘झूठा भय मिथ्या अभिमान’, ‘ब्राह्मण कौन’, ‘ब्राह्मण समाज की स्थिति’ जैसी कालजयी पुस्तकें हिन्दी में लिखी, तो दूसरी ओर ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तर’ और ‘कर्मकलाप’ नामक दो ग्रंथों का प्रणयन संस्कृत और हिन्दी में किया। उनकी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के नाम से प्रकाशित है। आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन के संघर्षों की दास्तान, उनकी ‘किसान सभा के संस्मरण’, ‘महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी’, ‘अब क्या हो’, ‘गया जिले में सवा मास’ आदि पुस्तकों में दर्ज हैं। उन्होंने ‘गीता ह्रदय’ नामक भाष्य भी लिखा। किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून, 1950 को महाप्रयाण कर गए। इससे किसानों का इकलौता रहनुमा भी चला गया और किसान अनाथ हो गए। आज तक उन्हें अपने नाथ का बेसब्री से इंतजार है।

यह ठीक है कि उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत नहीं हो सका। लेकिन यह उनके द्वारा प्रजवलित की गई ज्योति की लौ ही है जो आज भी बुझी नहीं है और चौराहे पर खड़े किसान आंदोलन को मूक अभिप्रेरित कर रही है। यूँ तो आजादी मिलने के साथ हीं जमींदारी प्रथा को कानून बनाकर खत्म कर दिया गया। लेकिन आज यदि स्वामीजी होते तो फिर लट्ठ उठाकर देसी हुक्मरानों के खिलाफ भी संघर्ष का ऐलान कर देते। दुर्भाग्यवश, किसान सभा भी है और उनके नाम पर अनेक संघ और संगठन भी सक्रिय हैं, लेकिन स्वामीजी जैसा निर्भीक नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता। किसी सियासी मृगमरीचिका में भी नहीं। यह सच है कि उनके निधन के साथ हीं भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया। सुप्रसिद्ध लेखक और राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में कहें तो ‘पददलितों का संन्यासी’ चला गया और किसानों को अब भी उनके, या उन जैसे किसान रहनुमा के लौटने की आस है, क्योंकि इतिहास खुद को दुहराता है! नाउम्मीदी हम हिंदुस्तानियों में होती भी कहाँ है? इसलिए इंतजार की घड़ियां गिन-गिन लोग अपना काम चला रहे हैं।

(लेखक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय अंतर्गत डीएवीपी के सहायक निदेशक हैं।

Wednesday, 20 June 2018

इंदिरा गांधी को रायबरेली में चुनावी मात देनेवाले 'आपातकाल के धूमकेतु' राजनारायण के बहुमुखी किरदार से परिचय / मेरी समीक्षा

2017 इंदिरा गांधी की जन्मशती है। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उनके प्रखर राजनीतिक विरोधी राजनारायण का भी यह जन्म शताब्दी वर्ष है। जानकारी के लिए बताते चलें कि 1975 में लगे आपातकाल के नायकों में अक्खड़ समाजवादी राजनारायण को शुमार किया जाता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा राजनारायण की याचिका पर 1971 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी को अपने निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में धांधली का दोषी माना गया था, जिसके बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। 1977 में हुए चुनावों में इंदिरा गांधी को राजनारायण के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। आजाद भारत के इतिहास में पहली और अभी तक एकमात्र बार वह मौका था, जब किसी प्रधानमंत्री को चुनावों में हार मिली। इन्हीं कुछ जानकारियों के साथ अमूमन राजनारायण का परिचय सिमट जाता है, जबकि राम मनोहर लोहिया के साथ समाजवादी विचार को जमीनी स्तर पर उतारने और लोकतांत्रिक रूप से सफल बनने में उनकी अहम भूमिका रही। वह कांग्रेस की प्रभुत्व वाली संसदीय व्यवस्था में विपक्ष के विचार के मजबूत पैरोपकार रहे।वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव और पूर्व प्रशासक लाल जी के संपादन में आई पुस्तक ‘‘लोकबंधु राजनारायण विचार पथ-1’ अच्छी पहल है। पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है। पहले खंड में राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह द्वारा समय विशेष पर राजनारायण के संदर्भ में व्यक्त की गई राय है। राम मनोहर लोहिया जहां ‘‘अपने अर्जुन के सिद्धांत’ शीर्षक वाले लेख में उत्तर प्रदेश विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनके द्वारा दृढ़ता से उठाए गए मुद्दों के लिए आजाद भारत के प्रारंभिक वर्षो में सबसे सफल विधायक के रूप में इतिहास में दर्ज किए जाने की बात करते हैं। साथ में, यह भी कहते हैं कि अगर राजनारायण जैसे दो-चार लोग भी रहते हैं, तो देश में कोई भी तानाशाह बहुत देर तक नहीं टिक सकता। राजनारायण लोहिया की इस भविष्यवाणी पर खरे भी उतरे।किसानों के मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने उन्हें विशिष्ट राजनीतिक बताया है। राजनारायण को ज्ञान और कर्म के बेजोड़ समन्वय बताते हैं, लक्ष्मण और हनुमान को आदर्श मानने वाला एक ऐसा व्यक्ति जो सदा दूसरों के लिए कष्ट झेलने को तैयार रहता है। इसी खंड में मुलायम सिंह यादव, लोक सभा के पूर्व अध्यक्ष रवि राय और कांग्रेस नेता तारकेश्वरी सिन्हा के भी संस्मरण हैं। दूसरे खंड में जनता सरकार में उनके स्वास्य मंत्री रहते स्वास्य सचिव राजेश्वर प्रसाद जैसे उनके सहयोगियों की नजर से उनके काम करने के तरीके को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। तीसरे खंड में उन्हें बेहद करीब से देखने वाले चंचल, कुर्बान अली जैसे पत्रकारों से उनके बारे में संतुलित दृष्टिकोण मिलता है। चौथे खंड में बीएचयू, इलाहाबाद और लखनऊ विविद्यालयों के छात्र आंदोलन के नायकों जैसे प्रो. आनंद कुमार आदि से उनके समकालीन युवा मन की धारणा का पता चलता है। अंतिम खंड उत्तर प्रदेश विधान सभा में उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों से संबंधित है। यह खंड 50 के दशक में उत्तर प्रदेश की समस्याओं को समझने में महत्त्वपूर्ण है। उम्मीद है आने वाले खंडों में जो पक्ष और संस्मरण रह गए हैं, उन्हें भी समाहित किया जाएगा। पुस्तक संग्रहणीय है और राजनारायण को चाहने वालों के लिए अनूठा उपहार भी है।पुस्तक : लोकबंधु राजनारायण-विचार पथ-एकसंपादन : धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तवप्रकाशक : सरस्वती रमाशंकर स्मृति ट्रस्ट, लखनऊमूल्य : 595 रुपये

चितपावन पेशवा ब्राह्मण और यहूदी

चितपावन पेशवा ब्राह्मण और यहूदी 
आरएसएस प्रमुख अब तक सिर्फ चितपावन ब्राह्मण होते आए हैं।
क्या आप जानते हैं कि, ये चितपावन ब्राह्मण कौन होते हैं ?
चितपावन ब्राह्मण भारत के पश्चिमी किनारे स्थित कोंकण के निवासी हैं।
18वीं शताब्दी तक चितपावन ब्राह्मणों को देशस्थ ब्राह्मणों द्वारा निम्न स्तर का समझा जाता था।. यहां तक कि देशस्थ ब्राह्मण नासिक और गोदावरी स्थित घाटों को भी पेशवा समेत समस्त चितपावन ब्राह्मणों को उपयोग नहीं करने देते थे। 
दरअसल कोंकण वह इलाका है जिसे मध्यकाल में विदशों से आने वाले तमाम समूहों ने अपना अपना निवास बनाया। जिनमें पारसी, बेने इज़राइली, कुडालदेशकर गौड़ ब्राह्मण, कोंकणी सारस्वत ब्राह्मण और चितपावन ब्राह्मण, जो सबसे अंत में भारत आए हैं। आज भी भारत की महानगरी मुंबई के कोलाबा में रहने वाले बेन इज़राइली लोगों की लोककथाओं में इस बात का जिक्र आता है कि चितपावन ब्राह्मण उन्हीं 14 इज़राइली यहूदियों के खानदान से हैं जो किसी समय कोंकण के तट पर आए थे। चितपावन यहूदी यह भी स्वीकार करते हैं कि ईसा-मसीह अपने जीवनकाल में दस वर्ष भारत में रहे हैं। 
चितपावन ब्राह्मणों जो की कनवर्टेड है, पूर्व में जो यहूदी थे उनके बारे में, सन 1707 से पहले बहुत कम जानकारी मिलती है। इसी समय के आसपास चितपावन ब्राह्मणों(यहूद 
ी) में से एक बालाजी विश्वनाथ भट्ट रत्नागिरी से चलकर पुणे सतारा क्षेत्र में पहुँचा। . उसने किसी तरह छत्रपति शाहूजी का दिल जीत लिया और शाहूजी ने प्रसन्न होकर बालाजी विश्वनाथ भट्ट को अपना पेशवा यानी कि प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। यहीं से चितपावन ब्राह्मणों (यहूदियो) ने सत्ता पर पकड़ बनानी शुरू कर दी। क्योंकि वह समझ गए थे कि सत्ता पर पकड़ बनाए रखना बहुत जरुरी है।. मराठा साम्राज्य का अंत करने तक पेशवा का पद इसी चितपावन (यहूदी) बालाजी विश्वनाथ भट्ट के परिवार के पास रहा है। 
चितपावन ब्राह्मण(यहूदी) के मराठा साम्राज्य का पेशवा बन जाने का असर यह हुआ कि कोंकण से चितपावन ब्राह्मणों (यहूदियो)ने बड़ी संख्या में पुणे में आना शुरू कर दिया। जहाँ उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जाने लगा।. चितपावन ब्राह्मणों (यहूदियो)को न सिर्फ मुफ़्त में जमीनें आबंटित की गईं, बल्कि उन्हें तमाम करों से मुक्ति व अन्य सुविधाएं प्राप्त थी। चितपावन ब्राह्मणो(यहूदियों )ने अपनी जाति को सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊपर उठाने के इस अभियान में जबरदस्त भ्रष्टाचार किये। 
इतिहासकारों के अनुसार सन 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन का यह एक प्रमुख कारण था। इन्हीं यहूदियों का वंशज पेशवा बाजीराव-मस्तानी शासक बनकर, यहाँ के लोगों पर अनेकों अत्याचार किये थे। 
रिचर्ड मैक्सवेल ने लिखा है कि राजनैतिक अवसर मिलने पर सामाजिक स्तर में ऊपर उठने का यह चितपावन ब्राह्मण यहूदियों की एक बेमिशाल उदाहरण है! 
चितपावन ब्राह्मणों (यहूदियो) की भाषा भी इस देश के भाषा परिवार से नहीं मिलती थी। सन. 1940 तक ज्यादातर कोंकणी चितपावन ब्राह्मण (यहूदी) अपने घरों में चितपावनी कोंकणी बोली बोलते थे, जो उस समय तेजी से विलुप्त होती बोलियों में शुमार थी। मगर आश्चर्यजनक रूप से चितपावन ब्राह्मणों (यहूदियो) ने इस कोंकणी बोली को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। उनका. उद्देश्य सिर्फ एक ही था कि, किसी भी तरह खुद को यहाँ की मुख्यधारा में स्थापित कर उच्च पदों पर काबिज़ हुआ जाए। 
खुद को बदलने में चितपावन ब्राह्मण (यहूदी) कितने माहिर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, अंग्रेजों ने जब देश में इंग्लिश एजुकेशन की शुरुआत की तो इंग्लिश मीडियम स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराने वालों में व अंग्रेजों के जासूस बनने में चितपावन ब्राह्मण, बनिये (यहूदी) सबसे आगे थे। 
इस तरह अत्यंत कम जनसंख्या वाले चितपावन ब्राह्मणों (यहूदीयों) ने, जो मूलरूप से इज़राइली यहूदी थे, इन्होंने न सिर्फ इस देश में खुद को स्थापित किया बल्कि आरएसएस नाम का संगठन बना कर वर्तमान में देश के नीति नियंत्रण करने की स्थिति तक यहूदी समाज को पहुँचाया है। 
(Richard Maxwell Eton-A Social History of the Daccan, 1300-1761: Eight Indian lives Volume 1,p.192 

Sunday, 10 June 2018

हाँ ब्रह्मर्षि भूमिहार हूँ मैं

हाँ ब्रह्मर्षि भूमिहार हूँ मैं,
धर्म सनातन का संस्कार हूँ मैं।
जिसके तेज से काँपी धरती,
उसी फरसे की तेज धार हूँ मैं।।

जिसकी कड़ी प्रतिज्ञा से थर्राया जग,
हाँ उसी परशुराम का संतान हूँ मैं।
जिसने अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ उठायी आवाज़,
हाँ वो मंगल पांडेय महान हूँ मैं।।

दंडी स्वामी सहजानंद का दिया हुआ ज्ञान हूँ मैं,
काशी के कलकल गँगा का नरेश विभूति नारायण हूँ मैं।
शिक्षा की लौ जलाने वाला गणेश दत्त महान हूँ मैं,
हाँ परशुराम पुत्र ब्रह्मर्षि भूमिहार हूँ मैं।।

रामधारी दिनकर की रक्त रंजित कविता का सार हूँ मैं,
महाकाव्य की बिंदी रश्मिरथी जैसा श्रृंगार हूँ मैं।
बेनीपुरी,सांकृत्यायन,और नेपाली के कलम की धार हूँ मैं,
हाँ है स्वाभिमान,ब्रह्मर्षि भूमिहार हूँ मैं।।

केशरी श्री कृष्ण के राजनीति का बखान हूँ मैं,
अनगिनत साम्राज्यों का भूपति महान हूँ मैं।
धधकती खान से निकली ब्रह्मेश्वर की तलवार हूँ मैं,
माथे पे तिलक लगाए "रणवीर" का सिपाही वफ़ादार हूँ मैं।।
   हाँ ब्रह्मर्षि भूमिहार हूँ मैं।।

जय परशुराम
जय भूमिहार।।

Friday, 8 June 2018

ललितेश्वर प्रसाद शाही

देश की आज़ादी की लड़ाई इतनी आसान नहीं थी। हर मोड़ पर अंग्रेज़ों के दमन और धोखा का सामना हो रहा था। 1937 में भी कुछ ऐसा ही हुआ। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अनुसार भारत में प्रांतीय चुनाव संपन्न कराया गया। जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, उस वक्त का मद्रास आज का तमिलनाडु, उस वक्त का बॉम्बे आज का महाराष्ट्र इन 6 प्रदेशों में कांग्रेस को बहुमत हासिल हुई।


 

मगर 1935 एक्ट के अंदर एक प्रावधान था जिसके अन्तर्गत गवर्नर को यह वीटो पॉवर हासिल था कि मिनिस्ट्री जो भी निर्णय लेगी उसे वह रोक सकती है। कांग्रेस इस वीटो पॉवर के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही थी। कांग्रेस ने तय किया कि जब तक इस वीटो पॉवर को हटाया नहीं जाएगा वह ज्वॉइन नहीं करेगी। इसे देखते हुए अंग्रेज़ों ने कांग्रेस के बदले दूसरी बहुमत प्राप्त लोगों को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाना शुरू कर दिया। बिहार में एक ग्रैंड होटल के मालिक मोहम्मद यूनुस को सीएम बना दिया गया।

 

इसका विरोध कई स्तर पर हुआ। मगर इसी समय मुज़फ्फरपुर के एक स्कूली छात्र ललितेश्वर प्रसाद शाही ने भी इस विरोध की कमान संभाली और फिर क्या वह नारा लगाते हुए सड़कों पर निकल पड़ा। उसने अपने नेतृत्व में शहर के सभी स्कूलों में हड़ताल करा दी। वैशाली जिले के रहने वाले ललितेश्वर प्रसाद शाही अपनी छोटी सी उम्र में ही आज़ादी की लड़ाई के मैदान में उतर गए थे। इनका नाम भले ही इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हैं मगर ललितेश्वर प्रसाद जैसे कई वीर योद्धाओं ने हमारे देश की आज़ादी के लिए अपना पूरा जीवन कुर्बान कर दिया।

 

देसी भावना के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदे

 

वैशाली के सैन गांव में जन्मे ललितेश्वर ने बचपन से ही अपने घर में देसी भावना को देखा था। ललितेश्वर बताते हैं कि मैंने अपने पिता को कभी भी खादी के अलावा कुछ और पहनते नहीं देखा। इस देसी भावना के साथ ही वे 10,12 साल की छोटी सी उम्र में ही हाथों में झंडा लेकर सड़कों पर नारा लगाने निकल पड़े। 1934 में मुज़फ्फरपुर के एक स्कूल में नामांकन के बाद से तो वे खुल कर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े।

 

आज़ादी का पूरा वाकया आज भी नहीं भूले

 

ललितेश्वर प्रसाद 90 पार कर चुके हैं मगर आज भी आज़ादी की लड़ाई का हर एक वाकया उन्हें मुंहज़ुबानी याद है। उस वक्त चल रही पूरे विश्व की घटना उन्होंने जिस तरह से बताई शायद ही किसी किताब के पन्नों में पढ़ने को मिलती होगी

 

छात्र जीवन में कम्युनिस्टों के संपर्क में आये

 

रूस में 1917 की क्रांति के बाद वहां समाजवादी सरकार सत्ता में आई। रूस की इस क्रांति के बाद अंग्रज़ों में यह डर बैठ गया कि भारत में भी कहीं रूस जैसी ही क्रांति न हो जाए। इसी डर से भारत में आगे चलकर कम्युनिस्टों पर बैन लगा दिया गया। इस बैन के बाद सभी कम्युनिस्ट अंडरग्राउंड हो गए। वे खुले रूप में सामने नहीं आ सकते थे इसलिए उन्होंने अपनी लड़ाई को जारी रखने के लिए छात्रों, मज़दूरों के बीच शामिल होना शुरू किया। इसी क्रम में ललितेश्वर प्रसाद भी कम्युनिस्टों के प्रभाव में आये।

 

इस लुटेरी सरकार को जला दो, ना दो एक पाई, ना दो एक भाई

 

उस वक्त कम्युनिस्ट छुप-छुपकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नोटिस जारी किया करते थे। 'इस लुटेरी सरकार को उलट दो, ना दो एक पाई, ना दो एक भाई' कुछ इस तरह के वक्तव्यों के साथ नोटिस जारी कर जगह-जगह पर्चा फैलाया जाता रहा। ललितेश्वर भी इसमें पीछे नहीं रहते थे। उस वक्त उनमें युवा का जोश था। वे अंग्रेज़ों के दफ्तरों में भी चुपके से नोटिस फेंक आया करते थे। ललितेश्वर बताते हैं कि अंग्रेजों को डराने के लिए उनके दफ्तरों में ही हमने कई नोटिस पहुंचाया हुआ है। उस वक्त हमारे अंदर पकड़े जाने का कोई डर नहीं हुआ करता है। बस देश आज़ाद कराने का एक जोश हमारे अंदर था।

 

कम्युनिस्ट पार्टी से बाद में अलग हो गए

 

हिटलर के दमन को देखते हुए मित्र राष्ट्रों का गठन हुआ। जिसमें इंग्लैंड के साथ रूस भी शामिल था। इंग्लैंड और रूस के सुलह होने पर सभी छिपे कम्युनिस्ट बाहर आ गए। उस समय कम्युनिस्टों ने 'पीपुल्स वॉर' की बात कही और देश आज़ादी के मुद्दे को छोड़ वे पहले हिटलर के नाश के लिए मित्र राष्ट्रों के समर्थन में दिखने लगे। यह देखते हुए ललितेश्वर कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए क्योंकि उनके लिए देश की आज़ादी सबसे बड़ी चीज़ थी।

 

आंदोलन में जेल भी गए

 

1942 में मुज़फ्फरपुर में एक आंदोलन के दौरान वे जेल भी गए। उस समय देश में जुलूस निकालने पर बैन लगा दिया गया था मगर फिर भी ललितेश्वर प्रसाद ने अपने साथियों के साथ जुलूस निकाला जिसके बाद उन्हें और उनके 16 साथियों को जेल में डाल दिया गया और सभी को 3 साल की सज़ा हुई। हांलाकि बाद में किसी ने फ्रीडम कोर्ट में अपील की और इन लोगों को छोड़ दिया गया। 

 

भगत सिंह की फांसी से हुआ गहरा प्रभाव

 

ललितेश्वर बताते हैं कि भगत सिंह को जब फांसी के तख्तों पर चढ़ाया गया था उस समय देश का युवा बहुत ही आहत हुआ था। उनकी फांसी के बाद देशभर के युवाओं में आज़ादी को लेकर जोश भर गया। लोगों ने देशभक्ति के कई गीत बना दिए। हर जगह लोग गीत गाते घूमते नज़र आते। उन दिनों ललितेश्वर प्रसाद पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा। उनका आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का एक मोड़ ये भी था।

 

देशभक्ति के कई नारे लगाये हैं ललितेश्वर प्रसाद ने

 

ललितेश्वर बताते हैं कि हमने आज़ादी की लड़ाई में कई नारे लगाये हैं और लाठियां खाई हैं। अंत में वे एक नारा याद करते हुए उन दिनों की यादों में खो जाते हैं 'मिटा देंगे ज़ालिम तेरा घर देख लेना, शहीदों का असर देख लेना'।

भूमिहार ब्राह्मणों का गौरवशाली इतिहास और परम्परा@अनाम

वर्तमान में ब्राह्मण समाज को कमजोर समझ कर हर कोई ऐरा-गैरा मुँह उठाकर गाली देने लगा है। आज न तो ब्राह्मण और सवर्ण की किसी दल को चिंता है, और न ही कोई उसके पक्ष में खड़ा होना चाहता है। ब्राह्मणों को गाली देना सत्ता और सफलता की गारंटी माना जाने लगा है। ब्राह्मण कौन हैं?

क्या यह इतने कमज़ोर हैं? नहीं। ब्राह्मण एक बहादुर मार्शल नस्ल (martial race) है। इस देश में ब्राह्मणों (Who are Brahmins) के विरूद्ध निरंतर षड़यंत्र होते रहे उन्हें निरंतर अपमानित किया जाता रहा और शनैः-शनैः इस फैब्रिकेटेड झूठ का नैरेटिव सैट कर दिया गया कि ब्राह्मण अत्याचारी, अनाचारी है और हजारों बरसों से देश में चल रही सामाजिक दुर्व्यवस्था भी ब्राह्मणों की ही देन है। हर कोई यह जानता है कि पूर्व में ब्राह्मणों के नीति निर्देशन में यह भारतवर्ष विश्वगुरू पद पर अधिष्ठित था और सोने की चिडिया कहलाता था। लेकिन बौद्ध काल के समय से इस राष्ट्र के 'सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम' यानि ब्राह्मणों को निरंतर कमजोर किया जाने लगा। ब्राह्मणों को अकारण आत्मग्लानि बोध से भरा गया और उनके भीतर के सहज गुणों को धीरे-धीरे एक षडयंत्र के तहत खत्म कर दिया गया। ब्राह्मण एक धार्मिक योद्धा वर्ण था, जिसने समय समय पर मानवता, त्याग, दया, उदारता, प्रेम, सामाजिक समन्वय हेतु अपने मूल स्वभाव को छोड़कर आयुधजीवी बनकर समाज हित हेतु प्राणोत्सर्ग भी किया है।

पिछले डेढ़ पौने दो सौ साल से वर्तमान समय तक एक विशेष सुनियोजित साजिश के तहत समस्त हिन्दुओं विशेषकर ब्राह्मणों के वीरोचित भाव को शून्यप्राय कर दिया गया है। ब्राह्मण एक आयुधजीवी नस्ल है जिसके संगठनकर्ता भगवान परशुराम को माना जाता है। भगवान परशुराम ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका की संतान थे। जिन्होंने तत्कालीन समय में अन्याय के प्रतिकार हेतु ब्राह्मण समाज को एक छत्र के नीचे लाकर समाज में आदर्श व्यवस्था स्थापित की। भगवान परशुराम (Bhagvan Parshuram) को भगवान श्रीहरि के छठवें अवतार और एक महान योद्धा के रूप में माना जाता है। परशुराम जी को भगवान विष्णु का आवेशावतार भी कहा जाता है

वर्तमान समय में ब्राह्मण समाज के भीतर वीरोचित भाव मात्र केवल भूमिहार ब्राह्मणों (Bhumihar Brahmins), पंजाबी मोहियाल ब्राह्मणों और मराठी चित्तपावन ब्राह्मणों में ही दिखाई देता है। भूमिहार कौन हैं? क्या हैं? यह सब एक रोचक घटनाक्रम है। दरअसल में भूमिहार, ब्राह्मणों की एक उग्र, लड़ाका,योद्धा एवं आयुधजीवी शाखा है। प्रकारांतर से अज्ञानता के कारण जिसे मूल ब्राह्मण समाज से थोड़ा अलग मान लिया गया है, लेकिन यह अज्ञानता ही है। समाज में वर्ग विद्वेष या जातिवादी घृणा फैलाने हेतु भगवान परशुराम और ब्राह्मणों को क्षत्रिय-हन्ता कहकर वर्ग संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। जबकि ऐसा है नहीं। वास्तव में भगवान परशुराम और ब्राह्मणों का संघर्ष मात्र हैहयवंशियों से था। भगवान परशुरामजी और ब्राह्मणों को समाजशत्रु के रूप में देखना हीनबुद्धि ही कहा जायेगा। तो सबसे पहले यह जानना आवश्यक होगा की भूमिहार कौन हैं? आज जबकि अधिकांश ब्राह्मणों को युद्धप्रिय नहीं माना जाता,, फिर इनके भीतर का योद्धा स्वभाव आज तक कैसे संरक्षित रहा। माना जाता है वर्तमान में जितने आधुनिक ग्राम और नगर हैं इन सभी की पुरातन नींव रखने वाले भगवान परशुराम हैं। भगवान परशुराम को भूमि बंदोबस्त का पुरातन जनक भी कहा जा सकता है। भू-राजस्व हेतु भूमि के सही सही बँटवारे और समाज में सुव्यवस्थित प्रणाली भी उन्हीं के द्वारा स्थापित की गयी। अपने स्थापित कार्य से इतर भूमि ग्रहण करने वाला ब्राह्मणों का युद्धप्रिय भूस्वामी समूह भूमिहार कहलाया जो आज भी भगवान परशुराम को अपना आदि प्रवर्तक मानता है।

पंजाब के मोहियाल ब्राह्मणों, महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मणों के बाद ब्राह्मणों में एक लड़ाका वंश भूमिहार को ही माना गया है। वास्तव में भूमिहार ब्राह्मण समस्त आयुधजीवी ब्राह्मणों का सम्मिलित कुलवंश है। समय समय पर पंजाब के सारस्वत मोहियाल ब्राह्मण, महाराष्ट्र के चित्तपावन, कान्यकुब्ज, सरयूपारीण, जुझौतिया, पुष्करणा ब्राह्मण आदि अनेक ब्राह्मण उपवर्ग इस भूमिहार शाखा से सम्बद्ध हुए और इसी में रच बसकर भूमिहार कहलाने लगे। आजीविका और अन्यान्य कारणों से पलायन और पुनर्वासित होना हर युग में रहा है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसना यह पूर्वकालिक समय में भी होता रहा है। कहा जाता है कि भगवान परशुराम तिरहुत बिहार से दस ब्राह्मण परिवारों को लेकर आधुनिक कोंकण के पास स्थित गोमान्तक प्रदेश (गोवा) में गये और उन्होंने उन सभी परिवारों को वहाँ पर यथाविधिपूर्वक स्थापित किया। आज भी यह माना जाता है कि भगवान परशुराम ही गोवा के आदि संस्थापक हैं।

बिहार से कोंकण गोवा बसने के कारण उन लोगों के संबंध बिहार-मगध से बने रहे और दोनों स्थानों पर आना-जाना, बसना-बसाना, विवाहादि संबंध लगातार चलते रहे होंगे ऐसा माना जा सकता है। बिहार में चित्तपावन भूमिहारों के आदिपूर्वज न्यायभट्ट माने जाते हैं। आज भी यदि देखा जाये तो शारीरिक रचना-सौष्ठव, क्रोध और वीरता में भूमिहारों और चित्तपावनों में एकरूपता स्वतः दिखाई देती है। राष्ट्र और धर्म के निमित्त भूमिहारों ने आगे बढ़कर सबसे पहले और सदैव अपना बलिदान दिया है इसमें कोई दो राय नहीं है। बिहार के मगध में भूमिहार ब्राह्मणों के दो रहस्यमय कुल आज भी हैं जिन्हें शुंगनिया भूमिहार ब्राह्मण और चनकिया भूमिहार ब्राह्मण माना जाता है। माना जाता है कि महान ब्राह्मण योद्धा और शासक पुष्यमित्र शुंग के वंशज ही शुंगनिया भूमिहार ब्राह्मण हैं। चाणक्य ने मगध में चंद्रगुप्त मौर्य को नेतृत्वकर्ता बनाकर मगध में सुव्यवस्थित राज्य स्थापित किया था यह बात सर्वविदित है। चाणक्य को विष्णुगुप्त शर्मा या कौटिल्य भी कहा जाता है। मगध में आज भी ब्राह्मण भूमिहारों के चनकिया भूमिहार समूह को चाणक्य के कुल वंश का माना जाता है और इनका कौटिल्य गोत्र इस बात का स्पष्ट और पुष्ट प्रमाण है। समय समय पर ब्राह्मणों की बहुत सी शाखायें प्रशाखायें भूमिहार ब्राह्मणों में आकर मिलती गयीं और एक बड़े योद्धा भूमिहार ब्राह्मण समूह का निर्माण हुआ।

ब्राह्मण भूमिहारों का एक और समूह गंगा जी के किनारे पर बसता है, जिन्हें चकवार भूमिहार ब्राह्मण कहा जाता है। यह समूह चिरायु मिश्र के वंशजों में से है जो गंगा स्नान के निमित्त इधर आए और यहीं बस गये। युद्ध में इन चकवार भूमिहार ब्राहमणों के बराबर का योद्धा कोई नहीं है। समय समय पर इन्होंने अपनी वीरता प्रदर्शित की है। मोहम्मद गोरी से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक की म्लेच्छ सैन्य टुकड़ियों को युद्ध में हराने का पराक्रम यदि किसी के माथे पर बाँधा जायेगा तो वह चकवार भूमिहार ब्राह्मण हैं। इनमें राजा सुन्दर सिंह और राजा बख्तावर सिंह जैसे पराक्रमी ब्राह्मण जमींदार राजा हुए हैं। यह बेगूसराय जनपद के अन्तर्गत आने वाली रियासतें हैं। मुहम्मद शाह के पश्चात भारतवर्ष में मुगलई शासन का पतन हुआ, और कलकत्ता से ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने व्यापारिक जाल के माध्यम से भारत पर कब्जा करने का प्रयास किया। अंग्रेजी कंपनी की इस चाल के विरूद्ध बेगूसराय के भूमिहार ब्राह्मणों ने सशस्त्र संघर्ष किया और समय-समय पर गंगा के माध्यम से अंग्रेजी कंपनी के खजाने को बार-बार लूट लिया. कंपनी के कारिन्दों ने इस बाबत कलकत्ता कमिश्नरी को पत्र भी लिखा। भूमिहार ब्राह्मणों ने कभी भी अंग्रेजी शासन को टैक्स नहीं दिया और यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि भूमिहार ब्राह्मण कभी किसी से भी नहीं डरा है। भूमिहारों का तो स्पष्ट कहना था कि -

"नदी नाला सरकार का, बाकी सब भूमिहार का"।

वास्तव में ब्राह्मण ही इस भूमि देवी का वास्तविक स्वामी रहा है। भगवान वामन से लेकर भगवान परशुरामजी का अवतार यही सिद्ध करता है। आज संपूर्ण देश में किसान आत्महत्या कर रहा है। कर्ज तले दबा हुआ है। यह सब ब्राह्मण से भूमि छीनने का ही प्रतिफल है। ब्राह्मण ही भूमि का वास्तविक स्वामी रहा है जिसने संपूर्ण प्रजा की आजीविका हेतु भू-राजस्व के बंदोबस्त किए और सभी को उनकी आजीविका हेतु साधन उपलब्ध कराये। ब्राह्मण को महीसुर यूँ ही नहीं कहा गया है। ब्राह्मण का अपमान इस राष्ट्र को पतन के गर्त में ले जा रहा है। समय रहते यदि इस बात को समझ लिया जाए तो यह राष्ट्र भविष्य में होने वाली भयानक हानि से बच जायेगा। अन्यथा इस राष्ट्र को कोई नहीं बचा सकता। ब्राह्मण समाज इस राष्ट्र और इसकी समस्त संतानों से अटूट निष्ठा रखता है। राष्ट्र की एकता, अखण्डता और संप्रभुता को ब्राह्मणों ने अपने प्राणों की कीमत पर सींचा है। बंगाल का संन्यासी विद्रोह भी भूमिहार ब्राह्मणों का ही विद्रोह था जिसने म्लेच्छ सत्ता को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। राजा फतेहबहादुर शाही इस विप्लव के सूत्रधार रहे थे। वंदेमातरम वास्तव में "बंदौ माता भवानी" का रणघोष ही था जिसके रणघोष से भूमिहार ब्राह्मणों ने संन्यासी संतों के साथ मिलकर अन्यायी और दमनकारी यवन सत्ता के छक्के छुड़ा दिए थे।

भूमिहार ब्राह्मण गजब के योद्धा हैं और वर्तमान परिस्थितिओं में वास्तविक ब्राह्मण कहलाने के असली हकदार यही हैं। भूमिहार ब्राह्मणों की सैकड़ों स्वतन्त्र रियासतें रही हैं जो काशी, बलिया, टेकारि से लेकर बंगाल, मध्यप्रदेश के कुछ स्थानों पूर्वांचल उत्तरप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ तक रही हैं। चूँकि भारतीय परंपराओं में ब्राह्मण शासन का वास्तविक पात्र नहीं माना गया इसलिये भूमिहार ब्राह्मणों को मजबूरन 'सिंह, शाही, रायबहादुर, प्रधान और राय आस्पद (सरनेम) उधार लेना पड़ा। वैसे बहुत से भूमिहार ब्राह्मण अपने मूल आस्पद शर्मा, पांडेय, तिवारी, मिश्रा, राय, दुबे, उपाध्याय, आदि भी लगाते हैं। अधिकांश 'सिंह' आस्पद वाले भूमिहार भी हैं। लम्बे-तगड़े, सुन्दर गौरवर्णीय यौद्धक आयुधजीवी ब्राह्मण इस पृथ्वी पर साक्षात भूदेव ही हैं। अन्याय को मिटाने का प्रण यदि भूमिहार ब्राह्मण एक बार उठा लें तो उसे जीवन पर्यन्त निभाते हैं। भूमि के अतुलित स्वामित्व के कारण भी यह ब्राह्मण समूह भूमिहार कहलाया, और अकारण सामाजिक द्वेष का शिकार हुआ। अपनी भूमि को निरंतर रक्षित करना, और अपने साम्राज्य में निरंतर वृद्धि करना इनका विशिष्ट गुण रहा है।

काशी नरेश "स्व• विभूति नारायण सिंह" भारत के एक मात्र राजा थे जिन्हें द्विज राजा की उपाधि प्राप्त थी। नारायणी राजवंश (भूमिहार ब्राह्मण परिवार) के सबसे चर्चित महाराजा जिन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए १३०० एकड़ जमीन और सवा ३ लाख रुपये की नगदी राशि पंडित मालवीय जी को सुपुर्द की थी... ब्रिटिश शासन में काशी रियासत की गिनती १३ तोपों की सलामी वाले रियासतों में की जाती थी। आज भी गंगा की अविरल धारा के किनारे रामनगर दुर्ग बामन ऐश्वर्य को बखूबी प्रदर्शित करता दिख जाता है। अभी यहाँ के तत्कालीन महाराजा अनंत नारायण सिंह जी हैं ...
काशी रियासत की पूर्वांचल के १३ जिलों समेत बिहार के ब्याघ्रसर (बक्सर) में ब्राह्मण हुकूमत थी... गाजीपुर, बनारस, चन्दौली, जौनपुर, मिर्जापुर, देवरिया, कुशीनगर, श्रावस्ती, भदोही, संतकबीरनगर, रविदासनगर, अम्बेडकरनगर, गोरखपुर का अधिकांश हिस्सा, मऊ, बलिया, बाद में नवाब हुकूमत से आज़मगढ़ को भी मिला लिया... आदि ज़िले समेत सम्पूर्ण पूर्वांचल पर ब्राह्मण हुकूमत चला करती थी... और काशी एक स्वतंत्र रियासत हुआ करती थी। ये कभी किसी के आधीन नही रही। संस्कृति का विकास और ब्राह्मण के उद्भव की यह सबसे सुंदर जगह काशी है जहाँ ब्राह्मण कभी भूखा नहीं मर सकता। बिहार मे ताकतवर होने के बावजूद भी बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू श्रीकृष्ण सिंह ने दलितों को मंदिर प्रवेश करवाया। जब लगभग सारी जमींदारियां भूमिहार ब्राह्मणों की थी फ़िर भी रामधारी सिंह दिनकर ने जमींदारो पर चोट लगाई, और स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने तो जमींदारो पर लगतार प्रहार किए। भूमिहार ब्राह्मणों में एक एक से वीर योद्धा, बुद्धिजीवी,और महान व्यक्ति हुए हैं। पहलवान मंगला प्रसाद जी,राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर और अनेकानेक महान विभूतियों ने इस कुल में जन्म लेकर इसे धन्य किया है।

 


भूमिहार ब्राह्मणों का एक बड़ा दल जो सैन्य कार्य हेतु बंगाल गया और जब अंग्रेजों ने इन भूमिहार ब्राह्मणों पर रोक लगाई तो उस समय भी बहूत से भूमिहार वहाँ कुलीन ब्राह्मण यानी 'बारेन्द्र' और 'राधि ब्राह्मण' नाम से जाने जाते हैं और बड़े बड़े जमींदार हैं। बंगाल में इन भूमिहार ब्राह्मणों की वीरता के किस्से आज भी गर्व से कहे सुने जाते हैं, और यह कालांतर मे सैनिक कार्य हेतु यहीं से इधर-उधर गये। इन्हीं ब्राह्मणों का एक समूह अपनी अदम्य वीरता के कारण बंगाल मे चक्रव्रती (चक्रवर्ती) आस्पद (सरनेम) से सुशोभित हुआ। ओडिशा के 'हलवा ब्राह्मण' भी वीर भूमिहार ब्राह्मण ही हैं, जिन्हें टेकारि महाराज के समय भूमिहार सैनिक दल के रूप में ओडिशा भेजा गया था। जहाँ यह समूह 'हलवा ब्राह्मण' यानी हलधारी कृषक ब्राह्मण है, और बाद में यहाँ से गुजरात गये अन्वील ब्राह्मण भी यही भूमिहार ही हैं। गया के भूमिहार ब्राह्मणों के सम्मेलन में मोरारजीभाई देसाई का आना इसी ब्रह्मर्षि परिवार विस्तार के कारण संभव हुआ था।

आयुधजीवी भूमिहार ब्राह्मणों के इस समूह ने अनेकानेक रत्न भारत माता को दिए हैं जिनमें सबसे अग्रणी पण्डित मंगल पांडेय का नाम है। मंगल पांडेय और हजारों भूमिहार ब्राह्मण सिपाहियों ने प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में अंग्रेज़ी शासन के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष किया था। इस कारण अंग्रेज़ी शासन ने अपनी सेना में ब्राह्मण सिपाहियों की भर्ती प्रक्रिया पर पूरी तरह से रोक लगा दी। चाहे भूमिहार चित्तपावन ब्राह्मण हों या मराठी चित्तपावन ब्राह्मण या अन्यान्य ब्राह्मण समूह इन सभी में अन्याय को न सहने और उसके विरूद्ध बगावत करने का स्वाभाविक और नैसर्गिक गुण विद्यमान है। अंग्रेजी शासन कहा करता था कि एक अकेला चित्तपावन भूमिहार या मराठी ब्राह्मण भी पूरी सेना के माध्यम से विप्लव करवाने की अद्भुत क्षमता रखता है। इसीलिए अंग्रेजी शासन ने भारत में ब्राह्मणों से विशेष सतर्कता बरती, और उनके विरूद्ध निरंतर घृणा फैलाई। यह इसी बात से प्रमाणित हो जाता है कि आज भी अंग्रेजों की नाजायज भारतीय औलादें ब्राह्मणों को जब चाहे मुँह उठाकर गाली दे रहीं हैं। ब्राह्मण समाज सहिष्णु, दयालु और जीव मात्र का कल्याण चाहने की अपनी उदात्त भावना के कारण प्रायः शांत रहता है, लेकिन जिस दिन उसका क्रोध उबलेगा तो यह राष्ट्र महाभारत के बाद एक और भयानक विप्लव का साक्षी बनेगा।

आज़ादी से पहले अंग्रेजों के समय में "बंगाल रेजिमेंट" बनाई गयी थी। जिसे उस समय भूमिहार ब्राह्मणों के लिए ही बनाया गया था। क्योंकि उस समय बंगाल बहुत बड़ा राज्य था और वर्तमान बिहार, उड़ीसा आदि भी बंगाल के ही अन्तर्गत आते थे, उसमें नाम मात्र के ही बंगाली थे। यह रेजिमेंट एक बहादुर रेजिमेंट के तौर पर जानी जाती थी। इस रेजिमेंट ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बार बार विद्रोह किया। आख़िरकार अंग्रेज़ों को समझ आ गया कि ब्राह्मण इस राष्ट्र को अपनी माँ मानते हैं और यह लोग सिर्फ भारत के प्रति वफादार हैं। अतः उन्होंने ब्राह्मणों की रेजिमेंट 1st 'बंगाल रेजिमेंट' और 'ब्राह्मण रेजिमेंट' में ब्राह्मणों की भर्ती बंद कर दी, और इस को पूरी बन्द कर दिया गया। बंगाल रेजिमेंट में भूमिहारों की भर्ती पर रोक लगा दी, सिर्फ वही रेजिमेंटें रखी गयीं जो अंग्रेज़ों की वफादार थीं। इनमें यादव और मुसलमानों और उन समूहों की बम्पर भर्तियाँ की गयीं जिन्होंने १८५७ में और अन्य देशीय विद्रोहों को कुचलने में गोरों की मदद की। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद सेना का वही जातीय रूप जारी रखने का फैसला लिया गया वह भी बिना किसी छेड़ छाड़ के। भारतवर्ष में सबसे ज्यादा कुर्बानी देने वाले (आज़ादी के पहले और बाद में) ब्राह्मणों से उनका यश छीन लिया उनको अलग रेजिमेंट ना देकर उनको उनके अधिकार से वंचित किया है।

बहरहाल... परशुराम भगवान के वंशज भूमिहार ब्राह्मणों की कहानी इतनी नही है। नब्बे के दशक में जब एक धूर्त नेता पहली बार सत्ता में आया तो आतंकवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी लेनिनवादी) के नक्सलियों ने बिहार में भूमिहारों और राजपूतों का कत्लेआम शुरू कर दिया। यह सब उस विदूषक चोर नेता की शह पर था, जिसने खुलेआम 'भूराबाल' साफ करो का घृणित नारा दिया था। यह सीधे-सीधे भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) इन सभी की हत्याओं का स्पष्ट संदेश था। पिछड़ा और सूत्र राजनीति के सामाजिक न्याय का झूठा दम्भ भरने वाले इस नेता ने कम्युनिस्ट नक्सली आतंकवादियों को खुला संरक्षण देकर ब्राह्मण और राजपूतों के साथ साथ समस्त सवर्ण जनता की हत्याओं की लोकनिंदित घटनाओं को मूर्त रूप दिया।

इसके मूल में छुपा हुआ उद्देश्य सवर्णों को मारकर उनकी जमीनें छीनने का था। अन्याय के जीवंत स्वरूप इस नेता ने पूरे समाज में दहशत का माहौल पैदा कर दिया। जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो आज़ादी के बाद भारत के दोनों द्विज वर्ण ब्राह्मण और राजपूत पहली बार एक साथ आये। भूमिहार "ब्रहमेश्वर सिंह मुखिया बाबा" की अध्यक्षता में इस अन्यायपूर्ण और दमनकारी आतंकवादी नैक्सस के प्रतिक्रिया स्वरूप रक्षणकर्ता संगठन का गठन हुआ। सवर्ण लोगों पर हो रही हिंसा का दमन किया गया। पूरे राज्य में आतंकवादी कम्युनिस्टों के विरुद्ध हिंसा हुई और असुरों के सहयोगकर्ता भी इस प्रतिक्रिया का शिकार हुए। नक्सलवादियों के पाँव उखड़ गये, और उन्हें भागने पर मजबूर होना पड़ा। अब शासन सत्ता का सहारा लेकर भूस्वामियों पर अत्याचार शुरू हुआ। नक्सली आतंकवाद के विरूद्ध इस रक्षणकर्ता जनसंगठन को अकारण बदनाम कर आतंकवादियों की खुली पैरोकारी की गयी। लेकिन भूमिहार और अन्य सवर्णों ने गाँवों से सवर्ण विरोधी आतंकवादियों और उनके समर्थकों को भागने पर मजबूर कर दिया। सरकार काँप गयी। इस लड़ाई के दौरान कई बार भूमिहार महिलाओं और बेटियों ने अकेले ही आतंकवादी कम्युनिस्ट नक्सलियों से पूरे गाँव की रक्षा की।