स्वामी सहजानन्द सरस्वती: शायद इतिहास खुद को नहीं दुहरा पाएगा! @गोपाल जी राय
अमूमन इतिहास खुद को दुहराता है, लेकिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अब तक अपवाद स्वरूप है। आगे क्या होगा भविष्य के गर्त में है, पर वर्तमान को उनकी याद सताती है। भले ही उनको गुजरे जमाने हो गए, फिर भी इतिहास खुद को दुहरा नहीं पाया! जबकि लोगबाग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं किसी समतुल्य नायक का, जो उनकी जीवनधारा बदल दे। किसानी जीवन की सूखी नदी में दखल देने वाली व्यवस्था की रेत और छाड़न को किसी अग्रगामी चिंतनधारा से ऐसे लबालब भर दे कि पूंजीवाद और साम्यवाद के तटबंध बौने पड़ जाएं समाजवादी उमड़ती दरिया देख।
आप मानें या नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति में जब भी किसानों की चर्चा होती है तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार संगठित करने वाले दंडी स्वामी स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बरबस आ जाती है। यदि यह कहा जाए कि स्वामी जी किसानों के पहले और अंतिम अखिल भारतीय नेता थे तो गलत नहीं होगा। दरअसल, वो पहले ऐसे किसान नेता थे जिन्होंने किसानों के सुलगते हुए सवालों को स्वर तो दिया, लेकिन उसके आधार पर कभी खुद को विधान सभा या संसद में भेजने की सियासी भीख आमलोगों से कभी नहीं मांगी। इसलिए वो अद्वितीय हैं और अग्रगण्य भी।
खासकर तब जब भारतीय किसानों की दशा और दिशा को लेकर हमारी संसद और विधान मंडलें गम्भीर नहीं हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाएं भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी हैं। ये तमाम संस्थाएं जनविरोधी पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र बनी हुई हैं। ये बातें तो किसानों की करती हैं, लेकिन इनके अधिकतर फैसले किसान विरोधी ही होते हैं। सम्भावित किसान विद्रोह से अपनी खाल बचाने के लिए इनलोगों ने किसानों को जाति-धर्म में इस कदर बांट रखा है कि वो अपने मूल एजेंडे से ही भटक चुके हैं। इसलिए उनकी आर्थिक बदहाली भी बढ़ी है। सच कहा जाए तो जबसे किसानों में आत्महत्या का प्रचलन बढ़ा है, तबसे स्थिति ज्यादा जटिल और विभत्स हो चुकी है। इसलिए स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बार बार आती है।
स्वामी जी का सियासी कद नेहरू और गांधी जी के समतुल्य है। लेकिन उन्हें मृत्यु के उपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने की जरूरत नहीं समझी गई। ऐसा इसलिए कि किसानों की आवाज जन्मजन्मांतर तक दबी रहे। वह उनके नाम पर भी आगे अंतस ऊर्जा नहीं प्राप्त कर सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में संगठित किसान आंदोलन को खड़ा करने का जैसा श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को मिला, बाद में उसका हकदार कोई दूसरा नेता नहीं बन सका। ऐसा इसलिए कि सेवा और त्याग स्वामी जी का मूलमंत्र था। अब कोई भी इस मूलमंत्र को नहीं अपना पायेगा, क्योंकि कृषक समाज की प्राथमिकता बदल गई है।
आज किसानों के एक बड़े वर्ग के लिए आरक्षण जरूरी है, लॉलीपॉप वाली योजनाएं पसंद हैं, जबकि कृषि अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करने वाले और किसानों का परोक्ष शोषण करने वाले कतिपय कानूनों का समग्र विरोध नहीं। यही वजह है कि खेतों को बिजली, बीज, खाद, पानी, मजदूरी और उचित समर्थन मूल्य दिए जाने के मामलों में निरन्तर लापरवाही दिखा रही सरकारों का कोई ठोस विरोध आजतक नहीं हो पाया है।निकट भविष्य में होगा भी नहीं, क्योंकि अब नेतृत्व के बिक जाने का प्रचलन बढ़ा है। सच कहा जाए तो मनरेगा ने ‘गंवई हरामखोरी’ को ऐसा बढ़ाया है कि कृषि मजदूरों का मन भी अपने पेशे से उचट चुका है जिससे शिक्षित किसानों के किसानी कार्य बहुत प्रभावित हो रहे हैं।
बावजूद इसके, इन ज्वलन्त सवालों को स्वर देने वाला कोई राष्ट्रीय नेता नहीं दिखता, बल्कि किसी अवसरवादी गठजोड़ की झलक जरूर मिलती है। वो भी एक दो संगठन नहीं, बल्कि दो-तीन सौ संगठन मिलकर किसान हित की बात को आगे बढ़ा रहे हैं या फिर अपनी सियासी रोटियां किसी अन्य दल के लिए सेंक रहे हैं, किसी के भी समझ में नहीं आता। इसलिए कहा जाता है कि स्वामी जी के बाद कोई ऐसा किसान नेता पैदा नहीं हुआ जो चुनावी राजनीति से दूर रहकर सिर्फ किसानों की ही बात करे। उनके भावी हितों-जरूरतों की ही चर्चा परिचर्चा करे और उन्हें आगे बढ़ाए।
कहने को तो आज प्रत्येक राजनीतिक दल में किसान संगठन हैं लेकिन किसान हित में उनकी भूमिका अल्प या फिर नगण्य है। इस स्थिति को बदले बिना कोई राष्ट्रीय किसान नेता पैदा होना सम्भव ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दण्डी संन्यासी होने के बावजूद उन्होंने रोटी को भगवान कहा और किसानों को देवता से भी बढ़कर बताया। इससे किसानों को भी अपनी महत्ता का भी पता चला। किसानों के प्रति स्वामी जी इतने संवेदनशील थे कि तत्कालीन असह्य परिस्थितियों में उन्होंने स्पष्ट नारा दिया कि “जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब वो कानून बनाएगा। ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा।।”
निःसन्देह, स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने आजादी कम और गुलामी ज्यादा देखी थी। इसलिए काले अंग्रेजों से ज्यादा गोरे अंग्रेजों के खिलाफ मुखर रहे। समझा जाता है कि किसानों से मालगुजारी वसूलने की प्रक्रिया में जब उन्होंने सरकारी मुलाजिमों का आतंक और असभ्यता देखी तो किसानों की दबी आवाज को स्वर देते हुए कहा कि “मालगुजारी अब नहीं भरेंगे, लट्ठ हमारा जिंदाबाद।” इतिहास साक्षी है कि किसानों के बीच यह नारा काफी लोकप्रिय रहा और ब्रिटिश सल्तनत की चूलें हिलाने में अधिक काम आया।
स्वामीजी का परिचय संक्षिप्त है, लेकिन व्यक्तित्व विराट। हालांकि परवर्ती जातिवादी किसान नेताओं और उनके दलों ने उनके व्यक्तित्व को वह मान-सम्मान नहीं दिया, जिसके वे असली हकदार हैं। यही वजह है कि किसान आंदोलन हमेशा लीक से भटक गया। समाजवादी और वामपंथी नेता इतने निखट्टू निकले की, उनलोगों ने किसान आंदोलन का गला ही घोंट किया। उनके बाद चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत किसान नेता तो हुए, लेकिन किसी को अखिल भारतीय पहचान नहीं मिली, क्योंकि इनकी राष्ट्रीय पकड़ कभी विकसित ही नहीं हो पाई। दोनों पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ही सिमट कर रह गए। किसान हित में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि भी उनके खाते में नहीं रही।
# जिनका तपा तपाया जीवन ही किसी जगत-सन्देश से कम नहीं है।
स्वामी जी का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में वर्ष 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था। चूंकि बचपन में ही उनकी माताजी का स्वर्गवास हो गया था, इसलिए पढ़ाई के दौरान ही उनका मन आध्यात्म में रमने लगा। फिर वह क्षण भी आया जब गुरु दीक्षा को लेकर उनके बाल सुलभ मन में धर्म की कतिपय विकृति के खिलाफ आंतरिक विद्रोह पनपा। दरअसल, सनातन धर्म के अंधानुकरण के खिलाफ उनके मन में जो भावना पली बढ़ी थी, उसने सनातनी मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को और गहरा किया। यूं तो वैराग्य भावना को देखकर बाल्यावस्था में ही उनकी शादी कर दी गई। लेकिन, संयोग ऐसा रहा कि सदगृहस्थ जीवन शुरू होने के पहले ही इनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद उन्होंने विधिवत संन्यास ग्रहण की और दशनामी दीक्षा लेकर स्वामी सहजानंद सरस्वती हो गए।
कहा जाता है कि इसी दौरान स्वामी जी को काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। क्योंकि काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके संन्यास का यह कहकर विरोध किया कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। लेकिन स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इसे चुनौती के तौर पर स्वीकार किया और विभिन्न उपयुक्त मंचों पर शास्त्रार्थ करके कालप्रवाह वश यह साबित कर दिया कि भूमिहार भी ब्राह्मण मूल की ही एक समृद्ध शाखा हैं और हर योग्य व्यक्ति संन्यास धारण करने की पात्रता रखता है।
कालांतर में किसानों की दुर्दशा देखकर स्वामीजी ने बिहार में एक असरदार किसान आंदोलन शुरू किया। इतिहास गवाह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो बिहार में भी उसने गति पकड़ी, क्योंकि बिहार में स्वामी सहजानंद सरस्वती ही उसके केन्द्र में थे। कहा जाता है कि संत होते हुए भी उन्होंने जगह जगह घूम-घूमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। दरअसल, ये वह समय था जब स्वामी जी भारत वर्ष को समझ रहे थे और किसान हित में अपनी भूमिका तय कर रहे थे।
इसी क्रम में उन्हें एक अजूबा अनुभव हुआ। वह यह कि किसानों की हालत तो गुलामों से भी बदतर है। इसलिए युवा संन्यासी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर ऐसा उन्मुख हुआ कि वे किसानों को लामबंद करने की अपनी मुहिम में जुट गए और मरते दम तक इसे एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाया। यदि भारतीय राजनीति क्षुद्र स्वभाव की नहीं होती तो जब जब किसान हित की बात सोची जाती तो उन योजनाओं को स्वामी सहजानन्द सरस्वती के नाम पर ही शुरू किया जाता। क्योंकि भारत के इतिहास में सर्वप्रथम संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने और उसका सफल नेतृत्व करने का एक मात्र श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है।
यह कौन नहीं जानता कि आजादी के लिए संघर्षरत कांग्रेस में रहते हुए भी स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण, दमन, उत्पीड़न और आतंक से मुक्त कराने का अपना अभियान जारी रखा। यही वजह है कि उनकी बढ़ती लोकप्रियता और सामाजिक सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेजों ने उन्हें कारागार में डाल दिया। लेकिन इससे स्वामी जी को और मजबूती मिली।खास बात यह रही कि जेल यात्रा के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी अनुयायियों की सुविधाभोगी प्रकृति और उपभोगी प्रवृति को देखकर स्वामीजी दिल से हैरान हो गए। यही वजह है कि स्वभाव से विद्रोही चेतना के प्रतीक रहे स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया।
इतिहास साक्षी है कि सन 1934 में जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ, तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया। इससे उनकी प्रसिद्धि खूब बढ़ी।इससे उत्साहित होकर स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसानों को हक दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष को ही अपने जीवन का दीर्घकालिक लक्ष्य घोषित कर दिया। तब उन्होंने एक यादगार नारा दिया- “कैसे लोगे मालगुजारी, लठ हमारा जिन्दाबाद।” कहते हैं कि बाद में उनका यही नारा देशव्यापी किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया। अमूमन वे कहते थे कि अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि स्वामी जी का ओजस्वी भाषण किसानों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डालता था। यही वजह है कि काफी कम समय में ही किसान आंदोलन पहले पूरे बिहार में और फिर पूरे देश में फैल गया। बताया जाता है कि तब बड़ी संख्या में किसान लोग स्वामीजी को सुनने आते थे।
देखा जाए तो अपने सक्रिय सामाजिक और संतत्व जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिला लिया। उसके बाद अप्रैल,1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई जिसमें स्वामी जी को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। उस दौर में एम जी रंगा, ई एम एस नंबुदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे कई नामी गिरामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे जिनका सफल नेतृत्व और मार्गदर्शन उन्होंने किया।
यह स्वामी जी की जनप्रियता का ही तकाजा था कि उनके नेतृत्व में किसान रैलियों में जुटने वाली भीड़ कांग्रेस की सभाओं में शिरकत करने वाली भीड़ से कई गुना ज्यादा होती थी। उनके संगठन की लोकप्रियता का अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर 2 लाख 50 हजार हो गयी। इसलिए किसान आंदोलन के सफल संचालन के लिए उन्होंने पटना के समीप बिहटा में अपना आश्रम स्थापित किया। वह सीताराम आश्रम आज भी है।
आपको पता होना चाहिए कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से भी स्वामी जी की गहरी नजदीकियां थीं। लिहाजा किसान हितों के लिए आजीवन संघर्षरत रहे स्वामी सहजानंद सरस्वती ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ कई रैलियां की। विशेष बात यह कि जब आजादी की लड़ाई के दौरान स्वामी जी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ‘ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे’ घोषित कर दिया। उनके अलावा, बिहार के प्रमुख क्रांतिकारी लोक कवि बाबा नागार्जुन भी स्वामीजी के व्यक्तित्व से अति प्रभावित थे। उन्होंने वैचारिक झंझावातों के दौरान बिहटा आश्रम में जाकर स्वामीजी से मार्गदर्शन प्राप्त किया था।
आमतौर पर स्वामी सहजानंद सरस्वती संघर्ष के साथ ही सृजन के भी प्रतीक पुरूष हैं। तभी तो अपनी अति व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा अविस्मरणीय पुस्तकों की रचना की। एक तरफ सामाजिक व्यवस्था पर उन्होंने ‘भूमिहार ब्राह्मण परिचय’, ‘झूठा भय मिथ्या अभिमान’, ‘ब्राह्मण कौन’, ‘ब्राह्मण समाज की स्थिति’ जैसी कालजयी पुस्तकें हिन्दी में लिखी, तो दूसरी ओर ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तर’ और ‘कर्मकलाप’ नामक दो ग्रंथों का प्रणयन संस्कृत और हिन्दी में किया। उनकी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के नाम से प्रकाशित है। आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन के संघर्षों की दास्तान, उनकी ‘किसान सभा के संस्मरण’, ‘महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी’, ‘अब क्या हो’, ‘गया जिले में सवा मास’ आदि पुस्तकों में दर्ज हैं। उन्होंने ‘गीता ह्रदय’ नामक भाष्य भी लिखा। किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून, 1950 को महाप्रयाण कर गए। इससे किसानों का इकलौता रहनुमा भी चला गया और किसान अनाथ हो गए। आज तक उन्हें अपने नाथ का बेसब्री से इंतजार है।
यह ठीक है कि उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत नहीं हो सका। लेकिन यह उनके द्वारा प्रजवलित की गई ज्योति की लौ ही है जो आज भी बुझी नहीं है और चौराहे पर खड़े किसान आंदोलन को मूक अभिप्रेरित कर रही है। यूँ तो आजादी मिलने के साथ हीं जमींदारी प्रथा को कानून बनाकर खत्म कर दिया गया। लेकिन आज यदि स्वामीजी होते तो फिर लट्ठ उठाकर देसी हुक्मरानों के खिलाफ भी संघर्ष का ऐलान कर देते। दुर्भाग्यवश, किसान सभा भी है और उनके नाम पर अनेक संघ और संगठन भी सक्रिय हैं, लेकिन स्वामीजी जैसा निर्भीक नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता। किसी सियासी मृगमरीचिका में भी नहीं। यह सच है कि उनके निधन के साथ हीं भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया। सुप्रसिद्ध लेखक और राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में कहें तो ‘पददलितों का संन्यासी’ चला गया और किसानों को अब भी उनके, या उन जैसे किसान रहनुमा के लौटने की आस है, क्योंकि इतिहास खुद को दुहराता है! नाउम्मीदी हम हिंदुस्तानियों में होती भी कहाँ है? इसलिए इंतजार की घड़ियां गिन-गिन लोग अपना काम चला रहे हैं।
(लेखक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय अंतर्गत डीएवीपी के सहायक निदेशक हैं।